काव्य संकलन
सचमुच तुम ईश्वर हो! 8
रामगोपाल भावुक
पता- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)
भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110
मो0 09425715707
व्यंग्य ही क्यों
व्यंग्य ऐसी विधा है जो महाभारत के युद्ध का कारक बनी- द्रोपदी का यह कहना कि अन्धे के अन्धे होते हैं, इस बात ने इतना भीषण नर संहार करा दिया कि आज तक हम उस युद्ध को भूल नहीं पाये हैं।
इससे यह निश्चिय हो जाता है कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है। उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।
व्यंग्य की तेजधर उच्छंखल समाज की शल्य-क्रिया करने में समर्थ होती है। आज के दूषित वातावरण में यहाँ संवेदना मृत प्रायः हो रही है। केवल व्यंग्य पर ही मेरा विश्वास टिक पा रहा है कि कहीं कुछ परिवर्तन आ सकता है तो केवल व्यंग्य ही समाज को संतुलित रख सकता है।
सचमुच तुम ईश्वर हो! काव्य संकलन में कुछ रचनायें चिन्तन परक एवं विरारोत्तेजक भी हैं। उनमें भी व्यग्य की आभा महसूस होगी।
दिनांक-19.02.2021 रामगोपाल भावुक
चुनाव
वोटों के लिये
सब लड़ रहे हैं।
नई-नई कहानी गढ़ रहे हैं।
चुनाव हैं
कुर्सी का चुनाव है।
काम का नाम है,
जनता का काम है।
पर
किस किस ने जनता के
कितने मसले हल किये है।
कुछों को छोड़कर
अपने घर नहीं भरे हैं।
पर कौन हिसाब ले रहा है।
इनामी कूपन है।
किसी के भी नाम
निकल सकता है।
और वह रातों रात
जनता का मालिक बन सकता है।
000
मानव से मानव की दूरी
शंका के आँगन पिता पुत्र तलवार उठाते हैं।
राखी के धागे अब शनै-शनै कटते जाते हैं।।
अग्नि परीक्ष से गुजरी सीता कसमें खाती है।
मानव से मानव की दूरी यों बढ़ती जाती है।।
भाई के खूँ से ये कैसे भाई के हाथ रंगे हैं।
घृणा द्वेष पाखण्ड हमारे अब पूज्य बने हैं।।
भरत की प्रजा से दूरी यों बढ़ती जाती है।
मानव से मानव की दूरी बढ़ती जाती है।।
सम्बन्धों को व्यापार मान जो मदमाते हैं।
अमृत मान गरल का घट पी जाते हैं।।
प्रश्न खड़ा चेतनता क्यों घटती जाती है।
मानव से मानव की दूरी बढ़ती जाती है।।
धर्म कर्म अन्तः की ध्वनि पर फल पाते हैं।
शेष बचे जो शुष्क हवा में हाथ मले रह जाते हैं।।
अन्तः मन को बाँध सके डोरी कटती जाती है।
मानव से मानव की दूरी यों बढ़़ती जाती है।।
000
दाँये क्यों जा रहा है।
देश में ट्राफिक पुलिस पर
करोड़ांे रुपये खर्च करके
सभी को बाएँ चलना
सिखाया जा रहा है।
समझ नहीं आता-
आदमी फिर भी
दाएँ क्यों जा रहा है?
000
व्यवस्था की रेल
व्यवस्था की
भारी भरकम रेल
श्रमिक की नाजुक
पटरी पर दौड़ रही है।
000
लालबत्ती की गाड़ी
जब- जब मुझे दिखती है।
लालबत्ती की गाड़ी।
लगता है-
पता नहीं आज
किस दर पर
आतंकवाद की
गाज गिरने वाली है।
000
नियुक्ति पत्र
वह नियुक्ति पत्र
जो समय के रहते
पोस्ट आॅफिस के
किसी थैले में चिपका रहा।
और समय के किनकलने पर
बाहर निकल आया।
000
सम्बोधन
जब जब घर देहारी द्वार
बगड़ने लगें।
सारे सम्बोधन आपस में
झगड़ने लगें।
सोचो-
क्या आप सही दिशा में जा रहे हो?
अपना लक्ष्य पा रहे हो?
000
सास-बहू
सासू जी पाँय लागू।
दाव- दाव कर पा लागूँ
यह सुनकर सासू जी का
हृदय गद्- गद् हो गया।
पकी पकाई फूट सा फट गया।
उपदेशांे की वैतरणी वहने लगी।
सारे समाज को नंगा करने लगी।
किस किस की बहुएँ कैसी हैं!
अपने साथ दहेज में
क्या-क्या लाईं हैं?
किस किस के घर में
उनके साथ
कैसा व्यवहार किया जाता है!
पर हमारे घर की बात तो
कुछ और ही है।
तुम्हें यहाँ सारी
सुख सुविधायें हंै।
अपनी नींद सोती हो,
अपनी नींद उठती हो।
लेकिन
सास- ससुर की सेवा करना
क्या तुम्हारा धर्म नहीं हैं?
वे इतना ही कह पाईं थीं कि
घर में दनदनाती
भिड़ाउ ताई आ धमकीं।
उन्हें असमय आया हुआ देख,
सासू जी का मन दुखित हो गया।
वे मौसम की आँधी सा
अंधड़ हो गया।
वे मन मसोस कर
धीमे स्वर में बुदबुदाईं-
यह जाने किस- किस की
क्या- क्या भिड़ायगी।
जब अपनी बारी आयेगी,
गऊ सी डकरायेगी।
ढेर सारे आँसू टपकायेगी।
तब कहीं चैन पायेगी।
बहू तूं जा,
मन लगाकर अपना काम कर,
उनकी बातें ध्यान में न धर।
वे आते ही,
सोफे पर पसरते हुए
बड़बड़ाने लगीं-
सुनती है री तेरी बहू!
बड़ी कमगेरी है।
चार बजे सोकर उठ जाती है।
घर का सारा कामकाज निपटाती है।
री! तूं उसे इतना न सतायाकर
उसे भी खेलने खाने दे।
जीवन का आनन्द उठाने दे।।
जब तूं अपनी पर थी,
आठ बजे सोकर उठती थी।
तेरी तो जाने किस- किस से
क्या- क्या घुटती थी।
यह सुनकर, सासू जी लजा गईं।
छुई मुई की बेल सी सुकड़़ा गईं।
बोलीं-बड़ी जीजी,
तुम्हें जाने कहाँ-कहाँ के सपने आते हैं।
और सब तो गहरी नींद में
खर्राटे भरकर सो जाते हैं।
अरी बहू !
तूं खड़ी- खड़ी क्या सुन रही है।
जा ताई जी के लिये
जल्दी से चाय तो बना ला।
अरे!हाँ
शक्कर जरा ज्यादा डालना।
उन्हें सीठी चाय उच्छी नहीं लगती।
यह सुनकर ताई जी का
रूप ही बदल गया।
आदर-सत्कार पाकर
मोम सा पिघल गया।
बैसे मैं काऊ की चाय- वाय नहीं पीती।
वा तो तेरो रुख नहीं विगाड़ो जात,
व कल्लो की बड़ी काकी बनी फित्ते
बहू पै ऐसो रोब गाँठेगी।
ऐसो अंधेर मोपे देखो नहीं जात।
जाकी सास
फिफिया- फिफिया कर मरी है।
मोसे तो जाने बा कब से कुढ़ी है।
अब तक बहू चाय बना कर ले आई थी।
बोली-लो ताई जी चाय पियो।
मुझे तो आपका आना
बहुत अच्छा लगता है।
अब तो आप यहाँ
रोज - रोज ही आये करें।
मैं ऐसी ही मीठी चाय
पिलाया करूँगी।
अपनी सासू जी की भी
खूब सेवा किया करूँगी।
000
अनुभूतियों के लिये
निष्प्राण,
सब कुछ निष्प्राण सा लगता है।
आशा,निराशा, चिरदुःख,
एवं चिरसुख कें अभाव में
सब कुछ निष्प्राण सा लगता है।
अनुभूतियों के लिए
वेदना की चाह में,
आशाऐं लिये पड़े रहना।
मूल्यांकन शून्य रहना
निष्प्राण सा लगता है।
चिर सुखों की न सही,
चिर दुःखों की ही सही,
अनुभूति मिले।
क्योंकि
कुछ भी न मिलने से
स्थिरता खटकती है।
आत्मा अनुभूति के लिए,
जाने कहाँ कहाँ भटकती है।
000
भाई और पड़ोसी
बात- बात में जहाँ
बन्दूके तन जातीं हैं।
बात का सहज अर्थ न लेकर
उसके दूसरे ही अर्थ
निकाले जाते हैं।
घर में ही कोई नेता
कोई अभिनेता
कोई ज्ञानी, कोई महाज्ञानी बन
आतंकी बन जाता है।
लगता है वह घर
टूटकर ही दम लगा।
पर एक सोच जन्म लेता है।
इस तरह तो घर की
एक एक ईट बटने पर भी
शान्ति नहीं मिलेगी।
नई-नई बातें बनेंगी।
नए- नए हल निकलेंगे।
फिर भी घर बारम्बार बटेंगे।
जनसंख्या
यदि इसी गति से बढ़ती जायेगी।
ते मेरे घर के अन्दर ही
कई हिन्दुस्तान बनायेगी।
यह सिलसिला आगे बढ़े,
उसके पहले-
इसके हल निकालने होंगे।
आतंकियों के सामने
घर के सभी लोगों को
अपने अस्त्र डालने होंगे।
सोचता हूँ-
फिर तो बटवारे के
और नये- नये विकल्प
खड़े किए जायेंगे।
धर्म और कर्म के तर्क दिए जायेगे।
फिर तो पड़ोसी बनकर
अपने ही घर को
दूसरे का घर कह कर लूटेंगे।
फिर तो रहे- सहे सम्बन्ध भी टूटेंगे।
जैसे भारत पाक आज भी लड़ रहे हैं।
बात-बात पर झगड़ रहे हैं।
इसलिये सोचता हूँ-
आज तुम मेरी हत्या कर रहे हो,
तो भाई बनकर ही कर रहे हो।।
मुझे शत्रुओं के हाथों मरने से
भाई के हाथों मरना अच्छा लगता है
क्योंकि यह कहावत
मेरे अन्तःकरण में घर कर गई है।
शत्रुमार का धूप में डालता है।
और भाई मारकर छाया में डालता है।
इसलिए मुझे चाहे
कितनी ही बार मरना पड़े।
अपने भाई के हाथों ही मरता रहूँगा।
उसे कभी भी
पड़ोसी नहीं बनने दूँगा।
000