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सचमुच तुम ईश्वर हो ! 6

काव्य संकलन

सचमुच तुम ईश्वर हो! 6

रामगोपाल भावुक

पता- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)

भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो0 09425715707

व्यंग्य ही क्यों

व्यंग्य ऐसी विधा है जो महाभारत के युद्ध का कारक बनी- द्रोपदी का यह कहना कि अन्धे के अन्धे होते हैं, इस बात ने इतना भीषण नर संहार करा दिया कि आज तक हम उस युद्ध को भूल नहीं पाये हैं।

इससे यह निश्चिय हो जाता है कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है। उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।

व्यंग्य की तेजधर उच्छंखल समाज की शल्य-क्रिया करने में समर्थ होती है। आज के दूषित वातावरण में यहाँ संवेदना मृत प्रायः हो रही है। केवल व्यंग्य पर ही मेरा विश्वास टिक पा रहा है कि कहीं कुछ परिवर्तन आ सकता है तो केवल व्यंग्य ही समाज को संतुलित रख सकता है।

सचमुच तुम ईश्वर हो! काव्य संकलन में कुछ रचनायें चिन्तन परक एवं विरारोत्तेजक भी हैं। उनमें भी व्यग्य की आभा महसूस होगी।

दिनांक-19.02.2021 रामगोपाल भावुक

सब एक ही तल में आ जायेंगे।

विस्फोटक पदार्थों की गंध

प्राणवायु से आने लगी है।

आदमी की बच भागने के लिए

आत्मा फड़फडाने लगी है।

अपनी मर्यादा हमने स्वयम् तोड़ी है।

यह व्यवस्था हमने स्वयम् ओढ़ी है।

हमने जैसे बीज बोये हैं।

जैसे पेड़ उगाये हैं।

बैसे ही फल पाये हैं।

संवेदना के स्वर उगाये है।

अब तो सभी लुटेरे एक दूसरे का

अभिनन्दन करने लगे हैं।

सभी मौत के नजदीक खड़े हैं।

इसीलिए अपने- अपने मन को

जाने किन सपनों से बहला रहे हैं।

यों जाने किस भ्रम में

जीते चले जा रहे हैं।

इस तरह हमारी सभ्यता

विनाश के कगार पर खड़ी है।

यहाँ मनु और श्रद्धा की नाव पड़ी है।

जे विनाश से बचना चाहे

व्ह आये और इस नाव में बैठे।

अन्यथा

प्रलय के वाद तो

सभी एक ही तल में आ जायेंगे।

इतिहास बनकर

गवाह बन जायेंगे।

000

परम्परा-परिवेश

ध्वस्त परम्परायें

टूटी आस्थायें

फिर जोड़ना

परिवेश का परम्परा के

आँगन में खेलना।

परिवेश और परम्परा की परिधि में

बने हैं कुछ मर्यादाओं कें बाँध

फिर भी सम्पतम् स्वर में उठ रहा है

एक ही नाद।

लक्ष्मण रेखायें लाँधते लोग,

चाँदी के अम्बर ओढ़े हुए लोग।

सारे जन जीवन का भागते जाना।

कुछों की परम्परा बाँटकर खाना।

दो बिन्दुओं के मध्य अनन्त दूरी,

पहला बिन्दु पूजा स्थल की घन्टरिया,

आखिरी बिन्द ुपर पड़ी

साँपू नदी में नाव

जिसमें बैठे कुछ आधुनिक से लोग।

विनाश के उपकरणों की

साथ रखी थैली।

उस थैली के लिये संघर्षरत लोग।

कश्ती का डगमगाना।

कुटिल हँसी में

लोगों का मुष्कराना।

दूर कहीं सुन पड़ती घण्टियों की आवाज।

भजन- पूजन करते लोग।

प्रिवेश को परम्परा में

ढालने की सपथ लेते लोग।

दिव्य दृष्टि वाले

मन की तरंगों से

उनका उपचार करते

परम्परावादी लोग।

000

उबाल आयेगा

दिशाहीन वाता।

प्रतिकूल उडान।

रिस्तों का दिशाहीन होना,

बटते खलियान

गहरा असमंजस,

इरादे हीन पाँव।

संसद में बैठकर

प्रगति का अंकन

हाथ उठाउ हाथों से,

डिगता विश्वास

व्यवस्था से, आस्था से,

टूटता मन

बदलते मूल्य

आदमी की भौतिक जगत के प्रति

बढ़ती आसक्ति-

बना देती है आदमी को बौना।

...और सारे पतन

एक साथ प्रभावित हो जाते हैं।

ज्यों कभी- कभी सारे रोग

उसे एक साथ आ सताते हैं।

उस समय

उस पर कोई दवा

कारगर नहीं होती।

जैसे हमारे प्रजामंत्र में

नीति और न्याय की बातें

पूर्णताःकारगर नहीं होती।

वहाँ तो बहुमत से

एक नये समाज का होता है निर्माण।

अंदर ही अंदर

पनपता है पूँजीबाद।

जो सबको बदलने के लिए

मौन भाषा में देता है संकेत।

उबाल आयेगा।

000

इन्दिरा एक मूल्यांकन

मैं देखता रहता था-

तुम में त्रुर्टियाँ

बाजार में फैली अनैतिक हवायें।

सारी की सारी व्यवस्था तुम थीं।

तुमने ही इस भारत भूमि में

बबूल बोये हैं।

जिसमें सारा देश विंधा है।

मैं मानता रहा-

तुम युवा पीड़ी को दिशा बोध

करने में सक्षम नहीं हो।

तुमने युवाओं को

भटकने के लिए मजबूर किया है।

तुम्हारा बिम्ब...

अर्थ के आइने में घूरता रहा।

मँहगाई के रूप में तुम दिखतीं थीं।

राष्ट्र की बहन बेटी का रूप,

तुम्हारी अखबारों में छपीे

तस्वीर में निहारता रहा-

निहारता रहा वह बिम्ब....

जिसमें देश की सुख समृद्धि थी।

मुझे लगता रहा-

तुम बहुत धीमी गति से

आगे बढ़ रही हो।

तुम्हारें कुछ स्वार्थ

देश की प्रगति में आड़े आ रहे हैं।

मैं महसूस करता रहा-

तुममें माँ की ममता नहीं रही,

तुम पत्थर दिल इंशान बन गई हो।

संवेदना से शून्य

सत्ता ने तुम्हें मदमस्त बना दिया है।

मैं अन्दर ही अन्दर गुनता रहा-

तुम बहुत जिद्दी हो

किसी दिन तुम्हारी ये जिद

तुम्हें खा जायेगी।

तब तुम्हें पता चलेगा

लोग मरते वक्त कैसे छटपटाते हैं।

मैं क्यों सोचता रहा ये सब-

मुझे क्यों नहीं दिखे,

तुम्हारे शहीद होने के सपने।

इसीलिये तुम....

बिना किसी की पर्वाह किये,

आगे बढ़ती रहीं।

मौत को ललकारतीं रहीं।

मैं समझ नहीं पाया...

तुम्हारी प्रतिभा को।

तुम्हारे शहीद होने के बाद

तुम्हारे हर खून की बुँद ने

विद्रोह किया,

क्रान्ति आई।

सचमुच तुम महान हो।

000

कैसे बने निर्मल संसार?

बातें ऊँची- ऊँची हैं।

दाढ़ी है और मूछें हैं।

राम नाम की माला है।

ये मन कर मतवाला है।

कर मैं माला चलती है।

जिव्हा झाग उगलती है।

ढोंगी जीवन ही है सार।

कैसे बाने निर्मल संसार।।

पश्चिम- पूरव तक आया।

लोकगीत सी घुन पाया।

मानस की रटते चैपाई।

मँुंह मीठे और पेट कसाई।

देख उन्हें आती उबकाई।

भेद- भाव की खोदी खाई।

भाई-भाई में होती तकरार

कैसे बने निर्मल संसार।।

तन यहा बेचा जाता हैं।

माटी में मिल जाता है।

ऊँची कुर्सी पाकर के।

धोखा धार बहाकर के।

मौका फिर पा जाता है।

जन- मन को तरसाता है।

धोखा- धडी प्रगति का सार।

कैसे बने निर्मल संसार।।

राग- द्वेष की यहाँ माया।

दूषित मन मानव ने पाया।

दीप तले अंधियारा है।

मन तृष्णा का मारा है।

चलती का नाम गाड़ी है।

पड़ी दूध में साढ़ी है।

चहुँदिश बुलती जय-जय कार।

कैसे बने निर्मल संसार।।

बेटीं तक बेचीं जातीं हैं।

माताएँ भूखी सो जाती हैं।

अंधों के आगे खाई है।

पण्ड़ों ने भक्ति पाई है।

अर्थ तंत्र मतवाला है।

तृप्तों को तृप्ती देता है।

हो रहा देश का बंटाढ़ार।

कैसे बने निर्मल संसार।।

जातिवाद ने दाव लगाया।

राजनीति ने मन भरमाया।

तिकड़म से बहुमत कर पाया।

सत् असत् का भेद मिटाया।

खून बना पानी की धार।

कैसे बने निर्मल संसार।।

देश भक्ति जनगण में जागे।

भेद भाव जन-मन से भागे।

त्याग-तपस्या सत्ता पावे।

झांेपणियों में दीप जले।

सभी शिशु समता में पलें।

तब हो यहाँ आत्मोद्धार।

ऐसे बने निर्मल संसार।।

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माना तुम!

मना तुम, बहुत तकलीफ में हांे।

क्योंकि

श्रमिकों ने शोषण कें विरुद्ध

आवाज उठाई है।

माना तुम बहुत गमगीन हो।

क्योंकि

धोखे की राजनीति में

असफल हो गये हो।

माना तुम

बहुत बड़े धार्मिक हो

क्योंकि

तुम्हारे धर्म ने

देश को बाँटने का बीड़ा उठउया है।

माना तुम

बहुत बड़े राजनैतिज्ञ हो।

क्योंकि

संप्रदायिक दंगों से

लाभ उठा लेते हो।

माना तुम

बहुत बड़े खिलाड़ी हो।

क्योंकि

ओलंपिक हार से

शर्माये हुए हो।।

000

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