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सचमुच तुम ईश्वर हो! 2

काव्य संकलन

सचमुच तुम ईश्वर हो! 2

रामगोपाल भावुक

पता- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)

भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो0 09425715707

व्यंग्य ही क्यों

व्यंग्य की तेजधर उच्छंखल समाज की शल्य-क्रिया करने में समर्थ होती है। आज के दूषित वातावरण में यहाँ संवेदना मृत प्रायः हो रही है। केवल व्यंग्य पर ही मेरा विश्वास टिक पा रहा है कि कहीं कुछ परिवर्तन आ सकता है तो केवल व्यंग्य ही समाज को संतुलित रख सकता है।

व्यंग्य ऐसी विधा है जो महाभारत के युद्ध का कारक बनी- द्रोपदी का यह कहना कि अन्धे के अन्धे होते हैं, इस बात ने इतना भीषण नर संहार करा दिया कि आज तक हम उस युद्ध को भूल नहीं पाये हैं।

इससे यह निश्चिय हो जाता है कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है। उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।

सचमुच तुम ईश्वर हो! काव्य संकलन में कुछ रचनायें चिन्तन परक एवं विरारोत्तेजक भी हैं। उनमें भी व्यग्य की आभा महसूस होगी।

दिनांक-19.02.2021 रामगोपाल भावुक

डंगा डोली पालकी

पापा- मम्मी लड़ते हैं।

बच्चे कहानी गढ़ते हैं।

बनते मिटते हैं व्यवहार।

झूठ बना है शिष्टाचार।

डंगा डोली पालकी।

जय कन्हैया लाल की।।1।।

सौ बक्का एक लिक्खा है।

झूठा गवाह सुक्खा है।

कागज रखते हैं व्यवहार।

न्याय बना पानी की धार।

डंगा डोली ताल की।

जय कन्हैया लाल की।।2।।

हर दिन कानून बनते हैं।

काम पड़ा कम पड़ते हैं।

चमचों के घर चाँदी है।

जनता की बर्बादी है।

डंगा डोली ढाल की।

जय कन्हैया लाल की।।3।।

सत्ता बख्तर बन्द है।

पहरे के अन्दर कुन्द है।

मन मोजी प्रजातंत्र है।

ये बोटों का मंत्र है।

डंगा डोली भाल की।

जय कन्हैया लाल की।।4।।

पूँजी सबका धाम है।

आतंकवाद परिणाम है।

सौदेबाजी चल गई।

नाव भँवर में फंस गई।

डंगा डोली हाल की।

जय कन्हैया लाल की।।5।।

000

संस्कृति का हृदय फटा है।

बाबर तुम-

पन्द्रहवी सदी में जो थे।

आज भी वहीं के वहीं हो।

तुम में,

तुम्हारी मानसिकता में,

कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।

इतिहास की पुनरावृति का

एक क्रम शुरू हुआ है।

इक्कीसवीं सदी में

कुछ मूल्य बदले हैं।

धारणायें बदलीं हैं।

लेकिन फिर भी वही का वही,

केवल अपने आप को

स्थापित करने के लिये

ईंट और पत्थरों को बदलने के लिये

आज जब उस मानसिकता को

उखाड़ फेंका गया,

कहीं देखना

आने वाली पीढ़ियाँ,

तुम्हें भी इसी तरह न उखाड़ फेंकें

वह जो था

कौन कहता है,

वह तुम नहीं हो!

उसने जो किया,

तुमने भी बैसा का बैसा ही किया है।

इतिहास गवाह है-

उखाड़ने और प्रतिस्थापन करने की क्रियायें।

ये मोम सी गुडियाँये।

ईंट और पत्थर के घरोंधे,

इस धरती पर बारम्बार बनते

और मिटते रहे हैं।

बड़े बड़े ऋषि मुनियों की तरह

तुमने अपनी संस्कृति का

जो शंख नाद करना चाहा-

लेकिन इससे तो संस्कृति का

हृदय ही फटा है।

अब तुम सोचो,

और जन जन की चेतना को समझों।

उसमें तुम्हें,

कबीर की साखी सुनाई देगी।

नानक की पीर दिखाई देगी।

00000

समझौते का बिन्दु

हवाई यात्रा की

महात्वाकांक्षा पाले हुए व्यक्तित्व को

दो पहिया साइकल घसीटना पड़े।

राजघराने में

विवाह का सपना पाले हुए व्यक्तित्व को

जीवनभर

क्वांरा रहना पड़े।

उनके अन्दर की पीड़ा

उतनी बड़ी होगी।

जितनी बड़ी भूखे आदमी की पीड़ा।

उसकी समस्त आकांक्षायें

धूल धूसरित हो,

घूल चाटने लगेंगीं।

शेर खड़ी मिलाकर

बतासे पाड़ने लगेंगी।

महात्वाकांक्षा,

चेतन आदमी को उदिप्त करके,

नई नई राहें खोजने में

मदद करतीं है।

नये नये महाकाव्यों का सृजन करती है।

किन्तु

अति किसी बात की अच्छी नहीं होती।

बचकानी बातें पूरी तरह कच्ची नहीं होतीं।

ऐसे लोग न खुद जी पाते हैं।

दूसरों को चैन से जीने देते हैं।

ऐसों ने सभी को विवश बना रखा है।

अब हल का प्रश्न खड़ा है।

ये समझाने से भी नहीं,

अनुनय विनय से भी नहीं।

ये बदलेंगे

समय के महाचक्र से।

तब ये उसमें पिसेंगे, तड़पेंगे।

दूसरों को तड़पायेंगे।

तब कहीं ये

समझाोते के विन्दुपर

हस्ताक्षर करेंगे।

00000

मोह एवं आस्थायें

मांस के सड़े गले

उन लोथड़ों की तरह ये व्यवस्था।

और इस व्यवस्था से

चिपका हमारा मोह,

युगों- युगों से हमारी चेतना में

व्याप्त हो गया हैं।

इसीलिये तो हम

हर सड़ी गली चीज में भी

अपना मोह नहीं छोड़ पाते,

वल्कि उसे अमर बनाने के सपने संजोते।

शायद इसी धरातल को पाकर

हमारी यह व्यवस्था धन्य हो रही है।

चरम सीमा पर पहुँचने के लिये

और अधिक सड़ रही है।

आओं इसका उन्मूलन करें।

कारणों का पता लगाायें।

बदलाव की प्रक्रिया तक जायें।

इसकी सड़न तो

राम के काल से ही शुरू हो गई थी।

अग्नि परीक्षा के बाद भी

सीता माँ का त्याग।

महान तपस्वी शम्बूक का

राम के द्वारा बध।

पता नहीं किस कुधरी में

ये निर्णय लिये गये।

व्यवस्था को सड़ने के अंकुर दिये गये।

महाभारत काल में

एकलव्य का अंगुष्ठदान

आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था को,

तमाचे मार रहा है।

इस पुरातन व्यवस्था से

त्रस्त होकर

कुछ चेतन कहलाने वाले प्राणी,

एक नई व्यवस्था को जन्म दे रहे हैं।

जो हमारी आस्थाओं की जड़ों पर

प्रहार करती है।

वे अपने पले नए मोह में उलझकर,

एक नई सभ्यता का

दिग्दर्शन करा रहे हैं।

युग युगों से पोषित

सास्वत मूल्यों को

धता बता रहे हैं।

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