सचमुच तुम ईश्वर हो! 9 ramgopal bhavuk द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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सचमुच तुम ईश्वर हो! 9

काव्य संकलन

सचमुच तुम ईश्वर हो! 9

रामगोपाल भावुक

पता- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)

भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो0 09425715707

व्यंग्य ही क्यों

व्यंग्य ऐसी विधा है जो महाभारत के युद्ध का कारक बनी- द्रोपदी का यह कहना कि अन्धे के अन्धे होते हैं, इस बात ने इतना भीषण नर संहार करा दिया कि आज तक हम उस युद्ध को भूल नहीं पाये हैं।

इससे यह निश्चिय हो जाता है कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है। उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।

व्यंग्य की तेजधर उच्छंखल समाज की शल्य-क्रिया करने में समर्थ होती है। आज के दूषित वातावरण में यहाँ संवेदना मृत प्रायः हो रही है। केवल व्यंग्य पर ही मेरा विश्वास टिक पा रहा है कि कहीं कुछ परिवर्तन आ सकता है तो केवल व्यंग्य ही समाज को संतुलित रख सकता है।

सचमुच तुम ईश्वर हो! काव्य संकलन में कुछ रचनायें चिन्तन परक एवं विरारोत्तेजक भी हैं। उनमें भी व्यग्य की आभा महसूस होगी।

दिनांक-19.02.2021 रामगोपाल भावुक

यह वह कलम है!

यह वह कलम है।

जे युगों- युगों से चलती चली आई है।

च्लती चली जायेगी।

इसका जन्म तो

आदमी की चेतना के साथ ही हो गया था।

जैसे - जैसे चेतना का विकास हुआ,

इसके इतिहास में

भूगोल में परिवर्तन आया है।

शुरू- शुरू में यह

पंख का रूप धारण करकें चली।

फिर यह लकड़ी की बर्रू बनी!

कभी होल्डर के रूप में

जन जीवन से जुड़ी रही।

अब इसकी प्लास्टिक सर्जरी

कर दी गई है।

लेकिन अब शब्दों की चमक

उतनी नहीं रही।

जितनी शुरू- शुरू में थी।

उस समय लिखे गये हरूप

आज भी बैसे के बैसे ही

मोती से चमक रहे हैं।

अपना वही अर्थ दे रहे हैं।

जो पहले दे रहे थे।

वे अन्दर से और बाहर से एक से थे।

इसने वाल्मीकि से लेकर

कबीर तक के तेवर देखें हैं।

चिन्तन की धारा का

बदलाव पहिचाना है।

इसने सूर और तुलसी को भी जाना है।

तुलसी की कलम जो अन्दर से थी।

वह बाहर आकर

द्वादस अर्थों में विखर गई।

उसने अपनी समझ में

विस्तार कर लिया।

अनेक अर्थ समझ के घेंरे में

सन्देह आ खड़ा करते हैं।

इसलिये-

कलम का व्यक्तित्व दोहरा हो गया है।

इसने कबीर की बाणी से

समाज की जो शल्य क्रिया की थी।

व्यंग्य वाण आग की तरह

उगलना शुरू किये थे।

कलम के इतिहास को

समृद्ध किया था।

व्यव्स्था का फटा फटाय

पैबंद सियाँ था।

यह बदलाव की प्रक्रिया में क्रन्ति थी।

यों इसने बड़ी-बड़ी क्रन्तियों का

सृजन किया है।

आदमी इसकी छत्र छया में

स्वाभिमान से जिया है।

आज वही कलम

कम्प्यूटर के युग तक आते- आते

और अधिक

संवेदन शील हो गई है।

वह आत्मा की आवाज

पहचानने लगी है।

सभी के दुःख दर्दों को

जानने लगी है।

अब वह जब जब

अन्तस् की इबारत लिखती है।

तब- तब इसकी प्रतियाँ

हाथों हाथ बिकतीं हैं।

000

खून की कीमत

मैं उस दिन

आॅपरेशन की टेविल पर पड़ा,

जीवन-मरण से संघर्ष कर रहा था।

बाजार से खरीदी हुई

खून की बोतल से

एक- एक बूँद

मेरे जिस्म में समा रही थी।

धीरे- घीरे जीवन ला रही थी।

मेरे जीवन का वह दिन,

कितना स्वर्णिम था-

जिसने जाति और धर्म से परे

सोचना सिखा दिया।

जब- जब जाति और घर्म का

प्रश्न खड़ा होता है।

वह खून की बोतल

याद दिला देती है।

किस जाति और घर्म वाले का था वह खून,

जिसकी बदौलत

आज मैं जिन्दा हूँ।

उसकी कीमत

चन्द कागज के टुकड़े नहीं,

बल्कि आज भी

विभिन्नता की बात त्यागकर,

चुकता करने में लगा रहता हूँ।

उस दिन से लगता है-

सभी यह क्यों नहीं समझ लेते,

वह खून की बोतल

उनके अपने जिस्म में समा गई है।

धरा की

सारी व्यथायें मिटा गईं हैं।

000

ढलना आ पाया है

देखिये- देखिये

ये लाल पड़ गये हैं।

ये लाल लाल गाल,

लाल पड़ गये हैं।

क्या कहूँ-

कहने में शर्म आती है।

कहने में गालों की

व्यथा शर्माती है।

पर कहे देता हूँ-

इतने तमाचे खाये हैं इन गालों ने

तब कहीं ठुमुक ठमुक

चलना आ पाया है।

ढलना आ पाया है।

गलना आ पाया है।ा

000

रंग सुलझन में नहीं

रंग

सुलझन में नहीं

उलझन में ही समझो

सुलझन के वाद तो

सब कुछ नीरस लगने लगता है।

और मन

अनचाही वेेदना सहने लगता है।

राग, रंग, रंगरेलियाँ

मन के उपकरण हैं।

मन से ही

उनका वरण होता है।

और यथार्थवाद

अपनी चादर तानकर सोता है।

भटकाव,

भटकाव में ही मन भटक रहा है।

पथ के हर मोड़ पर

मानव अटक रहा है।

यह सवबसे बड़ी उलझन है।

इम्तिहान के डर से

मौत और कफन की

बात करने लगना,

भटकाव की मन्जिल है।

000

आजाये वही दिन फिर

जब कोई

मेरे सामने आकर,

अपनी मुस्कराहट बिखेरता

और कहता-

सुपथ पर चल रहा हूँ।

आपके बताये निर्देशन में

बढ़ रहा हूँ।

पथ निर्देशक बन जाऊँ फिर

क्योंकि

पथ भूल गया था।

एक क्षण को,

पथ से भटक गया था।

अब तो फिर से चल रहा हूँ।

सुपथ से जूझता।

फिर भी कोई मुझ से

पथ नहीं पूछता।

जब हर कोई आकर

मुस्कराहट बिखेरे।

सुपथ की बात सुन

मुझ से मुँह न फेरे।

मेरे पथ सुपथ हैं।

हर कोई समझे,

आजाये वही दिन फिर।

000

भैया तुम लौट चलो

माँ का कट रहा है सिर

फड़फड़ा रहे है चरण।

कुछ बेटों को असह्य पीड़ा है।

..और कुछ माँ को

काटने बाँटने पर तुले हैं।

माँ को पीड़ित करने वालों का

इतिहास साक्षी है।

पतन ही हुआ है,

पतन ही होगा।

माँ की करुण आवाज

सुन सको तो सुनों।

लेकिन तुम तो बहरे हो गये हो।

तुम्हारी सारी संवेदनायें,

लुप्त हो गईं हैं।

तुम माँ का बहुत वहा चुके रक्त

धर्म को धर्म तो रहने दो।

तुम्हारा वह धर्म कैसा है?

जो बाँटता, कटता है।

माना तुम्हें अपने आप पर

अगाध विश्वास है।

पर तुम जो हो-

वह यहाँ कौन नहीं है।

भगत सिंह, चन्द्रशेखर,सुभाष

सभी ने अपने वतन के लिए,

शहीद होने के सपने

स्ंाजो रखे हैं।

अब, तुम और बढ़े-

तो ये वतन तुम्हें

कभी माफ नहीं करेगा।

माना, तुम

लोगों के बहकावे में आगये।

इसीलिए शायद

प्रथकतावादी नारे लगा गये।

तुम हमारी मनुहार भरी भाषा का

अपमान मत करो।

भैया तुम लौट चलो।

प्रेम से साथ- साथ रहेंगे।

0000

स्क्ष्म अंकन की क्षमता

वे अपढ़ हैं।

फिर भी सूक्ष्म अंकन की क्षमता।

किसी विदुषी से कम नहीं है।

हंस का नीर छीर विवके

धोखा खा सकता है।

पर सब्जी में डाली गई,

नमक की डेली।

हाथों के पलड़ों से,

पलकों के बाँटों से।

झुला- झुलाकर

इतनी सटीक तौली है

कि जिव्हा होश खोकर

दातों के तले दब गई।

स्वाद के आनन्द में

स्वाद बन गई।

000