सचमुच तुम ईश्वर हो! 5 ramgopal bhavuk द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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सचमुच तुम ईश्वर हो! 5

काव्य संकलन

सचमुच तुम ईश्वर हो! 5

रामगोपाल भावुक

पता- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)

भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो0 09425715707

व्यंग्य ही क्यों

व्यंग्य ऐसी विधा है जो महाभारत के युद्ध का कारक बनी- द्रोपदी का यह कहना कि अन्धे के अन्धे होते हैं, इस बात ने इतना भीषण नर संहार करा दिया कि आज तक हम उस युद्ध को भूल नहीं पाये हैं।

इससे यह निश्चिय हो जाता है कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है। उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।

व्यंग्य की तेजधर उच्छंखल समाज की शल्य-क्रिया करने में समर्थ होती है। आज के दूषित वातावरण में यहाँ संवेदना मृत प्रायः हो रही है। केवल व्यंग्य पर ही मेरा विश्वास टिक पा रहा है कि कहीं कुछ परिवर्तन आ सकता है तो केवल व्यंग्य ही समाज को संतुलित रख सकता है।

सचमुच तुम ईश्वर हो! काव्य संकलन में कुछ रचनायें चिन्तन परक एवं विरारोत्तेजक भी हैं। उनमें भी व्यग्य की आभा महसूस होगी।

दिनांक-19.02.2021 रामगोपाल भावुक

जाले

भोर होते ही

तेज हवा चलने लगी है।

पतझड़ हो रहा है।

आँगन दरख्तों की

सूखी पत्तियों से भर रहा है।

मैं बुहारू उठाता हूँ।

कूडा हवा के झोके से

यहाँ का वहाँ

वहाँ का यहाँ आ जा रहा है।

मेरे झाडने बुहारने का

कोई अर्थ नहीं निकल रहा है।

खेत की मेढ़ पर खड़ा किसान,

लचार नजरों से

उन दरख्तों की ओर निहार रहा है।

वे पर्ण विहीन दिखाई दे रहे हैं।

नमी का कहीं नामों निशान नहीं है।

सृष्टि की अधिकांश नमी तो

ये बड़े- बड़े दरख्त ही सोख लेते हैं।

शेष में ये छोटे छोटे कीट पतंगे हैं।

अन्य जीव जन्तु हैं।

उसमें भी सभी के

अपने अपने हिस्से हैं।

उन हिस्सों पर बहस है।

लड़ाई है, झगड़े हैं।

शोषण है,

मन समझाऊ पोषण है।

यह सब भी इसलिये है-

कि लोग दरख्तों की बातें न कर सकें।

उनके बुने जालों को न गुन सके।

000

आदमियत की भीख

प्यार की परिभाषायें बदल गईं हैं।

अर्थ से जुड़ गईं हैं।

रोटी के अभाव में

आध्यात्म के पग लड़खड़़ाने लगे हैं।

लोग मन्दिरों-मस्जिदों को

दुकानों की तरह सजाने लगे हैं।

ग्राहक सबा रुपये के प्रसाद के बदले,

सबा लाख पाने की लालशा लगाने लगे हैं।

ईमान तक बेचकर खाने लगे हैं।

भगवान खरीद लिया गया है।

पूँजी के आवरण से ढक दिया गया है।

देवालयों की चमक-दमक

पूँजीवादी व्यवस्था की प्रतीक दिखती है।

हर गली हर गाँव में

आदमी की जिस्म बिकती है।

श्रम महलों में कैद पड़ा है।

परतंत्र व्यवस्था का यह अन्तिम घड़ा है।

धर्म संस्कार की बेड़ी गहरादी गई है।

सहनशक्ति पारदर्शी हो गई है।

इसलिये मन्दिर मस्जिदों को डहाने

ठेकेदार तलाशे जाने लगे हैं।

खतरे के निशान के ऊपर

खतरे नजर आने लगे हैं।

मित्र, भाई,माँ बहन मान जाओं।

गरीब की वेदना पहचान जाओं।

अन्यथा, श्रमिक की थकान।

मिटा देगी तेरी आनबान

ये शोषण से सजे महल

ध्वस्त हो जायेंगे।

आदमियत की भीख भी न पायेंगे।

000

राखी से सेंध

वह बनावटी सच्चा

भाई बनकर घर में घुसा।

उसने बातों के झाँसे में देकर

सबको अपना बना लिया।

उसने श्रद्धा और मक्ति का पूरा स्वांग रचा।

उसने राखी के घागे के साहारे

सेंध लगाई।

करली उसने उसीसे सगाई।

सभी उसे नेक नियत वाला

इंसान मानते रहे।

वह अन्दर ही अन्दर कुतरता रहा।

खोखला करता रहा उन सम्बन्धों को

जो हृदय के तल को छूने वाले थे।

उसकी दुधारू गाय पर दृष्टि थी।

वह भावनाओं के खेल में प्रवीण था।

जब उसने पैसे ऐठने

सम्बन्ध तोड़ने का चक्र चलाय।

और जब

हृदय के चकनाचूर होने पर

रक्त की धार बह निकली,

विश्वासघाती से

सतर्क रहने की आह निकली।

000

प्रश्न के उत्तर में प्रश्न

हमारे मस्तिष्क में

अनगिनत प्रश्न उठते हैं।

उनमें जो सबसे महत्वपूर्ण हैं।

उन्हें उठाता हूँ।

हल करने के लिये

छुरी चाकू चलाता हूँ।

कतरनी से काट छाँटकर

मीजान मिलाता हूँ।

इस तरह काटने छाँटने पर भी

अपनी हजामत बनी पाता हूँ।

फिर भी प्रश्नों की गठरी को

बैसी की बैसी ही पाता हूँ।

प्रश्न के हर मोड़ पर

अनेक प्रश्न उठ खड़े है।

हल के बीच चैराहे पर खड़े हैं।

एक अंधेरी गली में घुस जाता हूँ।

वहाँ बड़ी़े बड़ी शानदार इमारतों से

प्रश्न खड़े मिलते हैं।

उनमें से एक प्रश्न उठाता हूँ।

उसके उत्तर में

अनेक प्रश्न खड़े पाता हूँ।

उन सभी प्रश्नों को बार बार दोहराता हूँ।

अंत में अपने आप को

वहीं का वहीं खड़ा पाता हूँ।

000

कैसा गाँधीवाद?

धर्म का, न्याय का,

त्याग का, बलिदान का

बड़ी बड़ी इमारतों पर

फहरा रहा है घ्वज।

यह तो मात्र आवरण

नजर आ रहा है।

तराजू बाँट के सहारे

तौल- तौल कर

आदमी- आदमी का मांस खा रहा है।

दरवाजे पर धर्म ध्वजा के सहारे

ध्वनि विस्तारक यंत्र से

राम नाम के कीर्तन की

कैसिट जोर- जोर से बजवा रहा है।

जिससे मन्दिर के अन्दर की आहट

बाहर न आ सके।

उधर नगर के मुख्य चैैराहे पर

कुछ तथाकथित लोग

एक मासूम लड़की को घेर कर

उससे बदसलूकी कर

अपने बचाव में नारे लगवा रहे है।

सुबह शाम करते हैं

जो गाँधी की हत्या,

वे लच्छेदार भाषणों से

गाँधी वाद ला रहे है।

भारतमाता की

ये न जाने किस नमूने की,

तस्वीर बना रहे हैं।

वे अपने सपनों का

नया भारत बना रहे हैं।

00000

सूखा प्यार

आदमी की टूटी आस्थायें,

मसलना चाहती है,

सारी व्यवस्था को

वह निगाह उठाता है,

बड़े बड़े अवशोषक महलों की ओर,

उन पर काली हाँड़ी के

टँगे चिन्ह नजर आ रहे हैं।

वे बचाना चाहते हैं उन महलों को,

उन पर पड़ीं निगाहों से।

किन्तु ललचाई नजर

टूटी आस्थायें

पत्थर को तोड़ देतीं हैं।

फिर ये तो हैं इंसान की

गगन भेदी दृष्टि

जो आवरण के अन्दर तक झाँक लेती है।

आदमी के बहुरूपियेपन को समझ लेती है।

इन सब बातों को समझते हुए भी

हम उसकी झोली

बेदना से भर रहे हैं।

संसार के सारे अभाव

उसकी झोली में

सिमिटकर आ गये हैं।

वह बिद्रोह न कर दे

इसीलिये सब मिलजुलकर

संसद, विधानसभाओं में

उसे सूखा प्यार जता रहे हैं।

उसके मन को समझााने

नए नए कानून बना रहे हैं।

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