वो भारत! है कहाँ मेरा? 12 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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वो भारत! है कहाँ मेरा? 12

वो भारत! है कहाँ मेरा? 12

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

53.कोरोना को हराना होगा

भारत लाकडाउन के पथ से,कोरोना को हराना होगा।

संकल्प-सावधानी के संग,संघर्ष सबै करना होगा।।

नहिं बात कोई,घबराने की,भारत के वीर सिपाही हैं।

इक्कीस दिवस उपवास भी कर,कई बार विजय हम पायी है।

को से कोई,रो-रोड़ समझ,ना-का मतलब ,ना होता है-

कोई भी रोड़,नहीं निकलो,कोरोना भग जावे भाई।

यह कदम,सुरक्षा जनहित में,सबका ही शंख नाद होगा।।1।।

आपातकाल से ही,हमने,इस राह पै,चलना सीखा है।

संघर्ष हमारी संस्कृति है,आरोग्य रहें,यह टीका है।

धाराऐं,लगाई इस बाबत,कफ्र्यू की गनीमत भी आई।

लेगों को समझाने बाबत्,लाकडाउन पथ भी नीका है।

उल्लंघन ना हो,इस पग का,सैना को लगाना भी होगा।।2।।

उपचार नहीं है अन्य कोई,डिस्टैंशन बहुत जरुरी है।

यह चयन,तोड़ना भी चाहिए,इस हेतु,बड़ी मजबूरी है।

इकत्तीस दिवस,इससे भी अधिक,जाना भी पड़ा,तो जाऐंगे-

पर रोग(कोरोना) नहीं रहनें देंगे,आशाऐं-निश्चय पूरी हों।

नवदुर्गा शक्ति,यही पूजा,सबको ही तो करना होगा।।3।।

घबराना नहिं है आज तुम्हें,कई संगर,तुमने जीते हैं।

भारत जन-जीवन की खातिर,विष प्याले भी हम पीते हैं।

गुजरेगा समय यौं ही निश्चय ,ज्ञानी,विज्ञानी,योगी हो-

भारत भू रहती विजय सदां,हमतो,होते नहिं,भीते हैं।

मनमस्त रहेगा,देश मेरा,कोई को,नहिं,डरना होगा।।4।।

54.तुम्हारा त्याग

तुम्हारे त्याग के संबल,हमें साहस बंधाऐगे।

मेरे हमदम,तुम्हारे गीत,नित-प्रति याद आऐंगे।।

बहुत कुछ सोचता हूं,पर-समझ में यह नहीं आता।

बड़ा उपकार है रहवर,बनाऊॅं कौन-सा नाता।

तुम्हें,किस देवताकी मूर्ति,के आकार में समझूं-

नहीं है,कोई परिभाषा,जिसे साकार मैं कर दूं।

जभी बहते दिखूंगा,ये किनारे,याद आऐगे।।1।।

अनेकों जिन्दगी को,जिंदगी का,दे दिया सपना।

कई एक भटकते और भूलतेों को,कर लिया अपना।

कभी जीवन में गर भटका,तुम्हीं फिर याद आओगे-

बहते इस महानद से,किनारे थाम लाओगे।

तुम्हारे प्रेम के संबल,हमें बस थाम पाऐगें।।2।।

न जाना आज तक भी,सोचता! तुम कौन हो मेरे।

चुका नहीं पाऊॅंगा,कई जन्म तक,ऐहसान ये तेरे।

भटकते राहि से,हर मोड़ पर,पदचिन्ह बोलेगे।

विश्व कल्याण के मग में,अनूठे रहस्य,खोलेंगे।

सदां मौजूद हो,फिर भी,कहाँ-दीदार पाऐंगे।।3।।

बुलाते हम सभी तुमको,लौटकर,फेर आ आजाओ।

अनूठे गीत,वे अपने,हमें-फिर से सुना जाओ।

गांव की न्याय चैपालें,प्यार जो बहिन-भइया का-

अलावों की अमर गाथा,पूजन,बैल-गइया का।

सुना दों! बोल वे अपने,हम सभी,मिलकर गाऐंगे।।4।।

55.हारौं के उपहार

खरा-खरा कहने को ही,मैं प्यार मानता।

इन मालाओं को,सच मानो,जंजाल मानता।

सत्ता के गलियारे कुछ हौं,इंषानों के नाम नहीं है।

लहरों से,समझौता करना,नाविक का तो काम नहीं है।।

कोई साथ न होने पर भी,गीत अकेला,अपना गाया।।

मैं तो चला राह अपनी पर,अरमानों को बेच न पाया।

महलों से दूरी है कितनी?झौंपड़ियां से प्यार है कितना?

सत्ता से हूं दूर भले ही,पर खोया नहीं,साहस अपना।।

हाथ-पैर पटके जिसने भी,नद-नदियों से पार हो गया।

पर्वत के,अनगढ़ साऐ में,अनचाहे ही,द्वार हो गया।

फड़-चैखट को चूम न पाया,इससे-तुम-सा,हो नहीं पाया।

कुछ भी कहना,उनके द्वारे,ईमानों को,बेच न पाया।।

आशा और विश्वास यही है,सच का सूर्य,अवश्य ऊगेगा।

कुहरा के आडम्बर के संग,तम का साज,सभी डूबेगा।

नए भोर को लिए यहाँ पर,नई-नई लाली छाऐगी।

नया जागरण-गीत यहाँ पर,सभी दिशा,मिलकर गाऐंगी।।

इसीलिए हूं ,अपने घर पर,अपनी तरह जिया करता हूं ।

अष्टांगी वन्दन नहिं करता,सच का साथ्,दिया करता हूं ।

कोई-सोचे कुछ भी,मैं तो अपने पथ का,पथिक रहा हूं ।

हूं मनमस्त झौंपड़ी अपनी,उनके द्वारे,कभी-कहाँ हूं ।।

56. ममतामयी-माँ

माँ तुम्हारी गोद का,आश्रय बड़ा है।

किलकते,हॅंसते,इसी में तो बढा है।

प्यार कीं लोरीं,कहानी तुम जो कहतीं।

भूल नहीं पाया अभी तक,याद रहतीं।।

धूल से लथपथ,सने थे अंग मेरे।

प्यार से,कहकर लला,तुमने ही टेरे।

खेल में तल्लीन लख,तुम टेरतीं थीं।

स्नेह का,कर कंज,शिर पर फेरतीं थी।।

दे सहारा,आपने चलना सिखाया।

दूध-भातों के कटोरे भर पिलाया।

अंक ले,निज हाथ से,भोजन खिलाऐ।

धूप में खुद,हमें आंचल में सुलाऐ।।

कुछ बड़े करके पिताजी भी गए जब।

कह गए थे,लाड़ले सब,गोद हैं तब।

कल तुम्हीं ने,बहुत कुछ,हमसे कहा था।

प्यार का वो हाथ,शिर पर ही रहा था।।

तुम विखेरी गंध,जैसे-फूल बनकर।

हो गए हो,अब बड़े,चलना है मिलकर।

विजय होगी,हर कदम पर ही तुम्हारी।

सब रहो मनमस्त,आशीश है हमारी।।

समझे नहीं थे,हम तुम्हारी-प्यार भाषा।

इस तरह से,पलट दोगी,आज पाषा।

आज तुम-भी,बेसहारा,कर चलीं हो।

याद आओगीं सदां,कितनी भलीं हो।।

57.कलम की तासीर

कलम की कहाँ गई तासीर,इसको समझ नहीं पाया,

तुम्हारी राहगीरी पर,दुनियां हॅंस रही ऐसे।।

बड़ा अफसोस होता है,तुम्हारी समझ पर रहवर,

ऐसे बांगबां होकर,बागी हो गये-कैसे?

कौन कहता है,कलम तासीर खो बैठी,

जब चली,जहाँ भी चली,संग्राम कर डाले।

जोष इसका है अनूठा,जान नहीं पाए,

बदल डाले तो इसीने,कानून वे काले।।

इसी ने बदली,हमारी जहाँ की तस्वीर को,

क्या कभी खंजर टिके हैं,इस कलम के सामने।

रोक सकती है,जहाँ के विपल्वी हर दौरे को,

भौंथरे ही बन गए हैं,तीर इसके सामने।।

कलम ले,फौलाद-कुब्बत,जब चली,

स्वर्ग आया धरा पर,करलो यंकी।

बदलतीं तस्वीर,इससे ही दिखी,

है इसी की करामात,करलो यंकी।।

कलम नवीसों ने,कलम बदनाम कीनी,

बरना ऐतो-जब चली,मिटती गई भूंख है।

इस तरह हीं कलम की औकाद ओछी है नहीं,

कलम कारों की कलम में,छिपी-ओछी भूंख है।।

58.ग्रीन भारत?

कैसे होगा? ग्रीन देश यह,कुछ तो सोचो,

खुल्लम-खुल्ला लूट रहे जहाँ,मिलकर सारे।

रोज बन रहे रोड़,रोज ही मिट जाते जब,

कैसी तकनीकी आई,क्या कहना-प्यारे।।

अच्छीं-खासी,बनी नालियां तोड़ीं जातीं,

विन सीमेन्टी-कंकरीट से,बना रहे हैं।

पुल-पुलियों की हालातें,नहिं पूंछो प्यारे,

विन सरियों के,कंकरीट से,सजा रहे है।।

फुटपाथों के नाम-निशाने,ढूंढ न मिलते,

अटरम-सटरम कुछपै,कुछ पर दीवालें हैं।

गडडों का है रोड़,धूल-कीचड़ से लथपथ,

मिले हुए हैं सभी,सभी की मिल चालें हैं।।

समयसार,सो रहे,दलालों के बिस्तर पर,

कानों के पूरे कच्चें हैं,देखें नहीं सच्चाई।

अतिक्रमण है जहाँ,न टूटे भवन,वहाँ पर,

तोड़ दए हैं वहाँ,न पाई,जहाँ उघाई।।

टकराते हैं,रोज-रोज वाहन,देखो ना,

टूटीं सडकें,सफाई भी नहीं होती।

अंधों-बूढों की तो हो रही,बड़ी फजीहत,

कोई समेंटत पैंट,समेटत कोई धोती।।

भवन तोड़ दए कई,कई की गौंखें तोड़ीं,

पखानों के गडडों से,वह रहे पनारे।

नौने-नीके भवन,बिगाड़ीं उनकी षक्लें,

अबतक सुधरे नहीं,किसी ने नहीं सुधारे।।

अंधियारों का राज्य,विद्युती आंख-मिचैनी,

विल तो दे रहे खूब,आंकलित खपत घनेरी।

कोई न सुनता-कहीं,कि मिलकर खूब,बज रही,

मंत्री-संत्री मिले,मची है अंध-अॅंधेरी।।

बु़द्धजीवियो! देश बचालो!! तुम्हें कसम है,

सोच रहे नहीं कोई,यहाँ के आला-अफसर।

नेता भाषण देंय,ग्रीन है देश हमारा,

आकर सुनलो प्रभू,प्रार्थना होतीं घर-घर।।

कैसा होगा भविष्य,समझा नहीं आता बिल्कुल,

व्यापारी रहे लूट,कृषक लुट रहे विचारे।

बैठ राह में,यहाँ गरीबी बिकट रो रही,

बेगारों की मार,सभी,रो-रहे बेचारे।।

विषम आवाजें,यहाँ आ रहीं,हर कोने से,

विकट समस्याओं का मंजर,यहाँ मडराता।

लगता है,आजादी सपना,दूर हो रहा,

सुनते हो मनमस्त,कि विपल्व,यहाँ पर गाता।।

59. गांब की नई आस

आशाऐं लेकर बैठा है,डबरा प्यारे,

गृह मंत्री,मुख्य मंत्री,होगे लाल हमारे।

लगता है पी.एम.,राष्टपति भी बन सकते,

डबरा के खुलते दीखे है,भाग्य दुआरे।।

मन सरोवर ही अब तो डबरा को मानो,

अन्य किसी की दाल यहाँ पर नहीं गलती है।

सिंहो के छोनो का,यहाँ अवतार हुआ है,

डबरा है उद्यान,यहाँ सिंहो बस्ती है।।

बेाचारे,बे-चारे सब,कर गए पलायन,

सिंहो का कब्जा है,उनके हकों,बिलों पर।

कैसा है डबरा अब तो,खुद समझो प्यारे

फैहराते झंण्डे है,उनके उच्च किलों पर।।

स्वयं प्रका श होने से,रातों के दिन यहाँ हो गए,

जागे थे,बेचारे जो भी,उल्लू बनकर यहाँ सो गए।

गिद्धों के बे झुण्ड,कहीं भी नहीं दिखते है,

स्यारों के श्रंगार यहाँ पर,सभी खो गए।।

हांजू-हांजू सब ही तो कर रहे यहाँ पर,

किसकी जुर्रत है,अपनी जो-कह भी डाले।

आंख उडाने की फुरसत,अब होगी किसमें,

गीत इन्हीं के प्यारे-प्यारे,गा ले-गाले।।

किसी पांखुरी ने,यहाँ पर यदि पर फैलाय,

कट जाते है,उड़ने से पहले ही,बे पर।

ताक रहे है सब के सब,कोटर में बैठे,

मिले बांदियां खेल,खिल रहे देखों यहाँ पर।।

सच मानो,चाणक्यों का घर है,अब डबरा,

रोज-रोज इनकी ही पौधे,रोपी जाती।

बेचारे,बे लोग,अभी तक समझ न पाए,

बिकी आत्माऐं,दो रोटी,जहाँ पर पाती।।

कितना बतलाए,डबरा की आबो-हवा को,

बहुआयामी दौर लिए,इसकी चलती है।

जीना तो उनका ही सच्चा यहाँ जानीए,

सभी तरह मनमस्त,यहाँ जिनकी चलती है।।

60.विदाई पर्व

अवसर यह विदाई का,हम सब का आना है।

हॅंस खेल मिलों हिलमिल,जीवन का फसाना है।।

पहचान बने तुम ही,फूलों के,तरानों के।

मौसम गुण गांएगे,अनमोल अहानों के।

यादों में सदां होगे,यादों के समंदर बन-

ढलती है सदां शामें,हम सबने जाना है।।1।।

बुानियादें जो तुम डालीं,ताजों-सी सुघर होगीं।

नद-नंद बनें सबही,भारत-भू हरषेगी।

सुचि वेश,सरल काया,संस्कृति के पुजारी बन-

लगते हो विवेकानंद,हम सबने माना है।।2।।

उम्मर की किताबें पढ़,जीवन को बिता डाला।

दस द्वारे रहे फिर भी,नहीं कोई लगा ताला।

निज ज्ञान की संम्पत्ति को,परसादी बना तुमने-

उन्मुक्त करो द्वारा,बांटा ये खजाना है।।3।।

नहिं कोई रहा दूजा,सबको को बपना जाना।

भाई से-सभी भाई,वृद्धों को पिता माना।

बहिनों से बंधा बंधन,बेटिन को विदाई दी-

मनमस्त बिछुड़े दृग से,आंसुओं को बहाना है।।4।।

61.फाइल मेरी ले आओ-बसंत

दब गई कहीं,फाईल मेरी,

काहे इसमें हो रही देरी।

बतला दो मुझको कोई पन्थ।

फाईल मेरी ले आओ बसंत।।1।।

तुम समझदार हो,समझे से,

ऊपर ले लो,इस गमझे से।

विश्वास तुम्हारा अति भारी,

तुम जानत इसके,मंत्र-तंत्र।।2।।

भटकाओं मुझे ना,कहीं अंत,

बाधाऐं कितनीउॅं हो अनन्त।

तुाम घाघ रहे हो,प्रिय अब तक ,

मर्यादा का भी,निभे पंथ।।3।।

मुस्काते बाबू यो बोला,

अॅंखियन से पत्ता सब खोला।

अनजाने लगते हो भाई,

समझादो इनको,ओ! बसंत।।4।।

जब फाईल मेरी आ जाऐगीं,

भरपाई सबरी हो जाऐगी।

यह नई बात कोई नईयां,

मनमस्त नहीं है,कोई संत।।5।।

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वेदराम प्रजापति मनमस्त

गायत्री शक्ति पीठ रोड गुप्ता पुरा वार्ड

क्रं 21 डबरा जिला ग्वालियर म प्र

मो 9981284867