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वो भारत! है कहाँ मेरा? 3

वो भारत! है कहाँ मेरा? 3

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

11.कितना कैसा गजब हो गया

कैसा-कितना गजब हो गया,

घर का चूल्हा,कहाँ खो गया।

आंगन के अब दर्श न होते,

तुलसी विरबा,दूर हो गया।।

गोबर लिपीं न दिखतीं देहरीं,

अन्य रंग हावी भए उस पर।

प्लास्टिक के फूलो से स्वागत,

वो ही बंदनवार हो गया।।

झालर,शंख नहीं अब बजते,

टैप बजें मसतानी ध्वनि के।

आरती में बल्वों की ज्योति,

विस्तर से,संचार हो गया।।

गांऐं दौना-पनी चवा रहीं,

कुत्ते खाते दूध मलाई।

तोता-मैंना,द्वार दिखैं नहिं,

कुत्तों का,अवतार हो गया।

गमलौं फूल प्लास्टिक खिलते,

प्राकृत-फूल,भए वन वासी।

घी के दीप,कहीं नहीं जलते,

चैपालों पर,खार हो गया।।

सूप और मॅूसल की कहानी,

सपनों जैसी,भई नदारत।

चूरन की,पन्नियां उड़ रहीं,

हुक्कों का दरवार सो गया।।

भल मनसाहत मिले न ढूंडे़,

नव- शिखियों की लगीं जमाते।

मिला नहीं मनमस्त यहाँ कोई,

भागम-भाग,विहार हो गया।।

12.न्याय की औकाद

व्यवस्था की चादरैं हो ताक पर जहाँ,जान सकते होयेगा परिवेश कैसा।

न्याय की औकाद ओछी हो जहाँ पर,तो बताओ,होऐगा वह देश कैसा।।1।।

वेदना और प्यार में,रंजिस जहाँ हो।

कोयलों की कूक पर,बंदिस जहाँ हो।

चांदनी की चांद से,अनबन कहानी-

सागरों से लहर की,कोई बात ना हो।

जो कभी,साकार ना हो,स्वप्न कैसा।।1।।

तो बताओ-------------देश कैसा।।1।।

सागरों के बीच में-भी ,प्यास भारी।

सूखतीं हों,चांदनी में जहाँ कियारीं।

चमन की भी,आवरु माली ही लूटे-

व्यवस्था की आस्था,हो जहाँ हारी।

दर्द मिश्रित आह का,उपहास कैसा।।

तो बताओ---------वह देश कैसा।।2।।

जहाँ किनारे,आप में ही गए हारे।

नाव जिसकी,डूबती हो बस किनारे।

उठ गया,पुरुषार्थ का जहाँ पर जनाजा-

दूर होते जाय जहाँ, आकाष तारे।

लय-यती विन,गीत का आधार कैसा।।

तो बताओ------------देश कैसा।।3।।

झुलसती हौं,शीत में जहाँ की लताऐं।

स्येन सी,मड़रा रहीं हौं,जहाँ व्यथाऐं।

गांव-वस्ती,ऊसरी होवै जहाँ पर-

उल्लुओं की भीड़,जहाँ वांचे कथाऐं।

आऐगा वहाँ,पावसी पुरवा भी कैसा।

तो बताओ------------देश कैसा।।4।।

मानवी को,जहाँ न कोइ,जान पाए।

दानवी की अर्चना,जहाँ अध्र्य पाए।

मन नहीं प्रमुदित,किसी का एक भी क्षण-

होऐगी कैसी जगह वह,क्या कहाऐ?।

भीड़-भारी गीदड़ौ का नृत्य कैसा।।

तेा बताओ---------देश कैसा।।5।।

जहाँ करीली झाड़ से,मैंना हो बोली।

मोर के जहाँ पंख नौंचे,काग टोली।

वहाँ कभी उद्धार की होगी कहानी-

जहाँ फटी हो,भूंख की अनमोल चोली। होयेगा वहाँ,गर्दभों का राग कैसा।।

तो बताओ----------देश कैसा।।6।।

मौन के प्रतिकार में जहाँ चलै गोलीं।

भेद भारी,एकता की जलैं होलीं।

होऐगा मनमस्त,प्रमुदित मन किसी का?

किस तरह के रोग की,होगी वहाँ होली।।

क्या भरोसा?आएगा मधुमास-कैसा।।

तो बताओ------------देश कैसा।।7।।

आस मिश्रित,डोरि से बॅंधकर खड़े हम।

उस सुबह की ओर ही,मिलकर बढ़े हम।

जिंदगी का राग,जहाँ गाती उरइयां-

मानवी इतिहास,लिखने ही चले हम।

इस धरा का वेष,कब हो पहले जैसा।।

तो बताओ-------------देश कैसा।।8।।

13.कब बनैगे हम-

कब बनैंगे आदमी हम,और कैसे?

जुल्म हम पर ही हुए,और कैसे-कैसे।

जष्न हो या मातमीं,हमको बराबर-

आज तक,हम ही पिटे हैं,ढोलों जैसे।।

तुम गवाए गीत जैसे,हमने गाए।

अश्रु अॅंखियों में रहें और रो ना पाए।

क्या कहैं,इस जिंदगी को,कैसे काटी-

अबतलक तो,आदमी हम हो न पाऐ।।

रात तारे गिने,दिन को दिन न जाना।

अबतलक तो,नहिं बना कोई ठिकाना।

जिंदगी कैसे कटेगी,राम जाने-

वैसाखियों से हम चले,कब-किधर जाना।।

हम जमीं पर,पैर अपने धर न पाऐ।

साख के उल्लू रहे,कुछ कर न पाऐ।

अधर में अटके रहे,हम आज तक भी-

पच्छियों ने,पेड़ पर भी,घर बनाऐ।।

14.आवाम की पुकार

देश के शहीदों को,भूलना कभी नहीं।

जमीर को जगाओ अब,जिंदगी तभी सही।।

सोचना नहीं है और,सोचने की मत कहो।

मित्रता के रब्बाब में,भूलकर भी मत रहो।

जहर में बुझा है अस्त्र,घौंप रहे पेट में-

सहन की हदों से पार,और कितना अब सहैं।

क्रूरता मिशाल पेश,कांपती धीरज मही।।1।।

चल पड़ो,अभी-अभी,मुहुर्त नही देखना।

शांत के विराम की,कहीं भी कोई रेख ना।

गाढ़ दो तिरंगा आज,सींम को भी लांघकर-

रोकना नहीं कदम,रोकने का लेख ना।

क्यों करो विराम अब,आवाम ने यही कही।।2।।

सिर्फ करो युद्ध-युद्ध,राह कोई और ना।

छोड़ दो चतुरंग सैन,जिंदगी को ठौर ना।

होने दो,कुरुक्षेत्र यहाँ एक बार और फिर-

हाथ लो गांडीव,गदा,पार्थ कोई और ना।

शंख-सी पुकार करो,भीष्म,द्रोणकहीं नहीं।।3।।

रुण्ड़ो-मुण्ड़ों पाट दो,दुष्ट की जमीं सभी।

मैंटना है विश्व मेंप,हुआ ना,कोई कहीं।

और केतु कोई ना,तिरंगा की आवाज सिर्फ-

देखना सब चाहते,देर ना,अभी-अभी।

धर्म की धरा की आनि,भाव पुष्प लो सभी।।

15.धीरज धरो

साथियों धीरज धरों,वह सुबह भी आएगी।

जमीर जगमगाएगा,जमीन मुस्कुरायगी।।

डगमगाऐं नहिं कदम,विवके से धरो जरा।

खो रही है,आपसी के,अंधड़ो में यह धरा।

रोपना तुम्हें यहाँ,आज अंगद-पाद को-

कांप जाए वो जिगर,रो पड़े,मरा-मरा।

हो विवेकी सोच तो,नई किरण यहाँ आएगी।।1।।

विश्व महा पंचायत में,शत्रु को पछाड़ दो।

युक्ति ऐसी लाओ कि,तिरंगा फेर गाढ़ दो।

घेर लो सभी तरह,कि नांक-चना चाव ले-

चाल ऐसी ही चलो कि,विश्व नक्षा फाड़ दो।

युद्ध विना हो विजय,आवाम तुम्हें गाऐंगी।।2।।

रास्ताऐं रोक दो,शत्रु के विकाश कीं।

वार्ताऐं बन्द सब,होंय आस-पास कीं।

जाल ऐसा पूर दो,कि बैठ जाए मूक बन-

कद्र कोई,ना करे,आस और विश्वास की।

आपस में ही हार जाए,तुम विजय हो जाऐगी।।3।।

छेक दे जहाँन तो,आप आंसू पिऐगा।

मरे-मरे,आपनी ही,जिंदगी को जिऐगा।

जिंदा नहीं है वो कभी,आपसी समाज विन-

टूटकर जहाँन से,आप गुदड़ी सिंऐगा।

मन हो मनमस्त यौं,अपनी विजय हो जाऐगी।।4।।

16.हवाई युद्ध

नहीं सोचा जरा कुछ भी,हवाई युद्ध कर डाला।

पड़ गया बुद्धि में पाला?,तुमने क्या,ये कर डाला।।

तड़फती आज भी कितनी,लखी कुरुक्षेत्र की धरती।

मिसायलों कीं,वे घनघोरैं,न भूली,याद ही करती।

भलां धर्म राज,राजा भए,मगर नहिं दूब जम पाई-

करवटें बदलते मंजर,कराहैं,आज सुन पड़तीं।

पड़े हैं भीष्म सैया पर,कर्ण नहीं, वो कवच वाला।।1।।

विकासों का तेरा चेहरा,पड़ौसी को भी खलता है।

लड़ाई आपसी करके,लगा सब कोई,भटकता है।

निरा खूं सनी देखी,सदां परिणाम की धरती-

विजय और हार,दोनों का विकासी रथ,अटकता है।

जवानीं बांझ हो जातीं,पंगु हो कूंख का लाला।।2।।

धरा वीरान हो जाती,समय सूनशान होता है।

फसल वही काटना पड़ती,जो-जैसे बीज बोता है।

गवाही आज भी देते,पलट इतिहास के पन्ने-

सभी तुगलक कहैं उसको,धरा कण-कण भी रोता है।

चैहरा जो गुलाबी था,उसे काला क्यों कर डाला।।3।।

जमाना रोऐगा इस पर,पीढ़ियां दंष झेलेंगी।

होलियां कौन से रंग की,जाने कौन खेलेंगी।

तुम्हारी इस मुनादी पर,रचे इतिहास जाऐंगें-

कई चौपालें बैठेंगीं,वितण्डा बांध,ठेलेंगी।

अरे मनमस्त!क्या सोचो,पी-गए क्यों,इती हाला।।4।।

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