वो भारत! है कहाँ मेरा? 2 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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वो भारत! है कहाँ मेरा? 2

वो भारत! है कहाँ मेरा? 2

vo bharat kahan hai mera 2

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

7.डिस्टेंशन का दौर

डिस्टेंशन का दौर,जन्मदर घटा रहा है।

मानव संग, पशु-पक्षी पर भी दिखा रहा है।।

दूर-दूर रहना सीखा है, हर मानव ने।

करदी दूरी बड़ी, आज कोविड दानव ने।

बहुत दिनों के बाद,पास रहना सीखा था-

विश्व बन्धुता घटा लई,मानव-मानव ने।

सब,सब से रहैं दूर, पाठ यह शिखा रहा है।।1।।

निज जन से,सम्पर्क टूट गया,यहाँ मानव का।

संसति कैसे बढे? प्रश्न ऐही-जानव का?

पशु-पच्छी भी, डिस्टेंसन को,मान रहें हैं-

वे-झुण्डी संवाद,कहीं दिखता,जानव का।

कोविड से नुक्षान, बड़ा-सा दिखा रहा हैं।।2।।

षेर, स्यार, पच्छी डिस्टेंषित, दूर-दूर डोलें।

मानव के अनुयायी बन,नहीं आपस में बोलें।

भय अवषाद लिए कोरोना,चिंता में जीते-

माटी-गंध, नहीं जीवन में,पत्ते नहीं खोलें।

धरती से धरती को, यह तो, बटा रहा है।।3।।

मानव दर उतनी घट हो, जितना डिस्टेंसन।

संतानें पैंदा नहीं होगी, यही टेंशन।

विन मानव संसार? प्रश्न यह खड़ा यहाँ है-

क्या करने जा रहा,यहाँ पर,यह डिस्टेंशन।

किलकारी गुम होंय, यही कुछ दिखा रहा है।।4।।

8.धन्यवाद तुमको!

कोरोना-सी महामारी भी, ले आए हमको।

यादों में ही,सदां रहोगे, धन्यवाद तुमको।।

सात दशक बीते, अब तक तो, ऐसा नहीं देखा।

अनजाने बन, खींच रहें हो, लक्ष्मण-सी रेखा।।

विना जरुरत की बातों पर, झगड़े मोल लिए-

राहों में, जनता का मरना, को देगा, लेखा।

बेरोजगारी इती बढ़ा दई, धन्यवाद तुमको।।1।।

नोट हमारे कागज बन गऐ, जब से तुम आऐ।

दो हजार के नोट दिखैं नहिं, सब गायब पाऐ।

खड़े धूप में, बहे पसीना, नोटों के लाने-

जी.एस.टी ने, गजब ढा दिया, समझ नहीं पाऐ।

मंहगाई,खा गई कमाई, धन्यवाद तुमको।।2।।

पैंतीस ए, और तीन सौ सत्तर, श्री नगर मैंटा।

आगा-पीछा,कुछ नहीं देखा, बांध कमर फैंटा।

एन.आर.सी. से देखी हालत, खूं होली खेलीं-

लगी रटन,अयोध्या मंदिर की, चला दिया रैंहटा।

पाक-चीन से नित-प्रत खटपट, धन्यवाद तुमको।।3।।

सारा विश्व, मौज से घूमा,नहीं चिंता घर की।

जनता के आंसू नहीं पौंछि, ऐसे तुम हरकी।

आगे कहा करोगे? तुमसे देश कांपता है-

मन की बातें, को रो ना भई,बाई आंख फरकी।

कोई भी, मनमस्त न लगता, धन्यवाद तुमको।।4।।

9.खुद पहचान बनों

उधर से, जब इधर, हजरत हो गऐ।

झुनझुनों की भीड़ से, अब बच गऐ।।

आप, अपने में,अजब पहिंचान हैं-

लग रहा अब, उधर बाले रो गऐ।।

मंच की रौनक तुम्ही थे, यौं लगा।

जागरण का शंख-गहरा अब बजा।

कूकने वाली, चिरैंइयां, मौन हैं-

देश का, वातावरण, सच अब जगा।।

देखलो, गैंगा समाऐं, बन्द हैं।

भोर से ही, आपसी में, द्वन्द हैं।

द्रोपदी-सा चीर,खिंचता दिख रहा-

उघड़ गए, लगता सभी छर-छनद हैं।।

अब समझ आई,जो कीनी भूल हैं।

सेब समझ थे, कढे़ वे, बबूल हैं।

कंटकों के बाग, यौं ही लग गऐ-

नहीं रही कुमकुम, निकली धूल हैं।।

मामला यौं,बहुत ही गड़बड़, रहा।

फूल सारे झड़ गऐ,पतझड़ रहा।

आंसमा के, गिन रहे तारे,खड़े-

नहीं कढ़ा मनमस्त स्वर,भड़भड़ रहा।।

10.रामराज्य आ गया?

राम राज्य आ गया,भरत-भू पर क्या भाई?

सुदृढ़ व्यवस्था यहाँ?,नया कुछ दिया दिखाई?

कश्मीर शिरमुकुट,हिमालय गौरवशाली।

जहाँ पर पत्थर बाजी,होती रोज निराली।

कितनीं खायीं मार,जवानों के शिर फूटे-

हाथों में संगीन,क्या थी?गोली खाली।

हुक्मरान का हुक्म,पालते हैं सब भाई।।1।।

ऐ.लो.सी. सीमा की,सुनते रोज कहानी।

हो गए कई शहीद,जुल्म का दर्द-रबानी।

अंग-भंग कई भए,शीश लौटे नहीं अबतक-

पाकिस्तानी घौंस सुनत,भा खून का पानी?

पैर छुए,दयीं भैंट,कहा हम भाई-भाई।।2।।

झूठे नाटक किए हमींने,खुलकर देखा।

स्ट्रायक कीं बहुत,नहीं जिनका,कही लेख।

कोरी मारा मार,फतह अब तक नहीं पायी-

कैसी-क्या सरकार?बघारै कोरी शेखा।

भू मातम से पटी,गोद खालीं कई पाई।।3।।

कृषक कर्ज में मरे,घोषणा नित,नव होती।

पा-कर्मण पुरुस्कार,भरत-भू,छुप-छुप रोती।

आन्दोलन कर कृषक,मर रहे गोली खाकर-

राजनीति चुप बैठ,चैन से,खुद ही तो सोती ।

कैसा आया दौर,कहानी कही न जाई।।4।।

जन-जन है हैरान ,नोटबन्दी के कारण।

बैंक करीं आजाद,मीड़िया हो गई चारण।

जी.एस.टी. की मार,हुआ व्यापार नदारत-

टेक्सों की भर मार,रहा नहीं कोई तारण।

मुखिया भ्रमण विदेश, न कोई चिंता भाई।।5।।

बनीं योजना बहुत,सफल नहिं होती देखीं।

रोड़ अधूरे डरे,करै को इनकी लेखी।

पुल बह गए कई एक,नींव नहीं मिली कहीं पर-

चोरी हो गए कुआ,रही नक़्शे में शेखी।

कैसा है अंधेर,पोल-पवांय यहाँ आई?।।6।।

रेलें भी बेहाल,कहीं-कई डिब्बे छोड़े।

अता-पता कोई नहीं,किधर को,वे गए दौड़े।

शयनगार में गार्ड,सो गया गहरी नींदों-

पहुंचा अन्तिम पांयन्ट,गिने तो त्रय को तौड़े।

कोई चिंता नहीं,रेल तऊ दौड़त पाई।।7।।

कम्प्यूटर में आज,खेत के खेत खो गए।

गऊचर चर गए लोग,कई एक मरघट खो गए।

रस्ता गए हिराय,वृक्ष विन जंगल रो रहे-

बिगड़ौ पर्यावरण,मेघ नींदो में सो गए।

नद-नदियां गयीं सूख,मिटा जल,जन तरसाई।।8।।

उजड़े गांव अनेक,षहर की हवा बिगड़ गई।

बीमारी बढ़ गई,स्वास्थ्यघर,कोई वैद्य नयीं।

दवा नदारत भई,गलीं-नालों में फैंकीं-

मर रही जनता रोज,व्यवस्था क्या यहाँ सो गई।

संसद हुल्लड़ रोज,लात-घूंसा तक जाई।।9।।

इतना सब कुछ देख,कहैं अच्छे दिन आए।

अमृत हो गई सिटी,गांव भी ग्रीन कहाए।

कर्णधार जो रहे,सो गए अपने बॅंगलों-

राम-राम कह राम,सभी ने,दिना बिताए ।

है भारत मनमस्त?देखलो मेरे भाई।।10।।