वो भारत! है कहाँ मेरा?
(काव्य संकलन)
सत्यमेव जयते
समर्पण
मानव अवनी के,
चिंतन शील मनीषियों के,
कर कमलों में, सादर।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
दो शब्द-
आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
1.विनय गीत
भव्य-भारत-भारती माँ, सच महा महिमा तुम्हारी।
भाग्य-भूतल का बदल दो, बस-विनय इतनी हमारी।।
कर्म सात्विक,धर्म दृढ़ हो, आस्था गहरी समधि-सी।
बीज में हो व्याप्ति मानव, मानवी आकाश-निधि-सी।
उदय हो रवि ज्ञान-उर में, अग्य-तम निर्मूल होबै।
तब प्रभा, प्रति रोम में हो, धमनियों में शौर्य होबै।
माँ-बहाओ इस धरा पर, धर्म की निर्मल बयारी।।1।।
अश्क अखियों में भरे है, देख लो माँ गहन-गम के।
छा रहे है, हर प्रभा पर, घन-गहन ये मेघ-तम के।
हर कदम पर मानवी, बैसाखियों पर चल रही है।
स्वांस- के प्रतिस्वांस में, आपनौं-से, छल रही है।
असह वेदन, माँ उबारो! अर्चना करते तुम्हारी।।2।।
रक्त में सुचिता-जलज-सी, दृष्टि में हो रूप माँ का।
शस्य-श्यामल तरलता हो, रूप पावन हर कृति का।
दुःख-निशा, नहिं हो कहीं भी, अरु कल्पना से परे हो।
बस तुम्ही हो हर प्रभा में, तब प्रभा से, सब भरे हो।
कवन-विधि अर्पन करै माँ! विश्व माँ, माँ हो हमारी।।3।।
2.जीवन मूल है आंगन
अबनी के आंगन ही जीवन मूल हैं।
उनके विना सभी कुछ लगता शूल हैं।
कभी पोस्टर में, खुशियों को पाओगे-
दूरदर्शनों में जीवन कब? भूल है।।
पूर्व जन्म का पुण्य,धनी होना कहलाता?
पाखण्डी अनुवाद हमेषा ही यह गाता।
खींच रहे हैं चित्र-कल्पना के यहाँ मानव।
कर्म योग ही, भोग गरीबी का, बन जाता।।
जरा सोच लो, घर मत लाओ बाजारों को।
जीवन दायक रहने दो, इन व्यवहारों को।
शिक्षा से वंचित करना भी, होती हव्या-
क्या सूझी है, आज यहाँ, इन दरबारों को।।
निज विवेक से, धरती के सब, साज सजाओ।
कहीं बैठकर, इस चिंतन को, सौम्य बनाओ।
सच मानो, मनमस्त, दोष तुम पर आयेगा।
वे पावन व्यवहार, आज हॅंसकर दुहराओ।।
भारत की तस्वीर बना दो, मंगलकारी।
जहाँ गूंजती रहैं सदा, जीवन किलकारी।
हर आंगन में, जन-गण-मन के फूल खिलाओ-
गूंज उठे, भारत की संस्कृति, जन हितकारी।।
3.भाषा का इतिहास
इतने बर्षों बाद, लिखा इतिहास न, भाषा।
तुमसे आशाऐं कितनी हैं? कोई न आशा।
कब जागोगे, समय बीतता जाता,यौं ही-
सून्यवान हो गई, कहो क्या तब अभिलाषा।।
लगता है, भाषा-भी जीवन काट रही है।
बॅंधी गुलामी जंजीरों को, चाट रहीं है।
अपना दिवस मनाने, उनकी यादें करती-
जिनके मन में उद्धारन की बात नहीं है।।
आज मनीषियों की आशाऐं, छद्म वेष हैं।
कलम बेचकर, साथी उनके बने, शेष हैं।
गुमनामीं के, यहाँ कई बाजार लगे है-
अमर शहीदों का, लगता यह नहीं देश है।।
सच मानो तो, झण्डे-डण्डे, नीति त जानैं।
जाति, धर्म, भाषा की, भाषा नहिं पहिचानें।
जन सेवा को, इनने ही, बदनाम किया है-
बेच रहे सम्मान, कि अपना तम्बू-ताने।।
क्या होगा अबनी का? अंबर कांप रहा है।
स्वार्थ आंधियो की, लम्बाई नाप रहा है।
भाषा मुक्ति की आशा, नाकाम लग रही-
जिसके हाथ लगाम, बही कर, कांप रहा है।।
4.आज का दौर है बहरा
सभी कहते भलां, मनमस्त नहीं है, देश यह मेरा।
सुबह जो सूर्य उगता है, अनेकों आपदा घेरा।।
किरणैं कांपतीं हैं, इस धरा पर, पैर धरने में।
जल भी, जल रहा है ताप से, नहीं गाए झरने में।
हिलतीं बृद्धपन-सीं, पेड़ की वे, नव-षिराऐं भी-
जंगल हो गया बूढ़ा, पतझड़, पात झरने में।
कहीं आबाज नहिं आती, मानो षून्य का डेरा।।1।।
सनन-सन्न-सन्न हे अवनी, आहट है नहीं कोईं
कितनीं दहषतों जीवन, झिल्ली भी नहीं रोई।
समय चक-वाक सा ठहरा, देखो! दो किनारों पर-
कहानी कोई नहीं सुनता, लगे ज्यौं, रात हो सोई।
चांदनी, चांद भी छूकर, उदासी ले खड़ी चेहरा।।2।।
बीथीं मानवों हीनीं, सभी चैराहे, हैं खूनी।
सभी हैं मोड़ शंकाकुल, हर जगह, कू्ररता धूनी।
अनेकों रंग ले गिरगिट, ताकते ठौर अपने-से-
गीदड़, राव बन बैठे, सिंह की माँद है सूनीं।
समय, कितना अराजक है, मौन ने, किस कदर घेरा।।3।।
मानवी तड़फती हरक्षण, दानवी चैन से सोती।
भयावह से भरी दुनियां, लगै-आजादी है खोती।
कहाँ वहाँ खैर, मानव की? जहाँ हो दानवी चिंतन-
ये धरती, आज यूं लगती, अपनी अस्मतों खोती।
कोई मनमस्त नहीं सुनता, आज का दौर है बैहरा।।4।।
5.बो भारत है कहाँ मेरा?
रातें चांद-सी जिसकी, सुनहरा सुबह का डेरा।
दुनिया पूजती जिसको, वो भारत है कहाँ मेरा?
जीवन के तराने थे, कहीं नहीं दुःख बवण्डर था।
वेदों की ऋचाओं-सा, जहाँ सुख का समन्दर था।
अवनी निज पगों चलती, लेकर धरिता अपनी-
अनूठी शान-षौकत-सा, जीवन का कलेण्डर था।
कहाँ वह, राम की धरती, जहाँ दासत्व, नहिं चेरा।।1।।
कहाँ नट नागरी लीला, जिसे लख काम हारा था।
ब्रजरज-पावनी लोटन, देव-ऋषि रूप धारा था।
कहाँ संवाद उद्धव-सा, गीता-ज्ञान माधव का-
धर्म-कुरुक्षेत्र-सा संवर, असत्, सत् से जहाँ हारा था।
कहाँ है युग कहानी वे, जिन पर, आज क्यों पैहरा।।2।।
कहाँ गई बौद्ध, जिन वाणी, द्वेत-अद्वेत का साया।
कबीरा, सूर, तुलसी से, जीवन मार्ग जो पाया।
कहाँ रैदास की छानें, जहाँ पारस गई खौंसी-
मीरा, मीर की पीड़ा, जिसमें ष्याम का साया।
कहाँ हैं लक्ष्मी, राणा, जिनको युगों ने टेरा।।3।।
कहाँ वो गांव की गलियां, जहाँ रज पावनी होती।
कहाँ चैपाल हैं अब-वे, जहाँ पर न्याय ही जीतीं।
पावन नीति के त्यौहार है अब, वे कहाँ प्यारे-
जहाँ बलिहार होकर के, रजनी-नेह में सोती।
वे तारे कहाँ गये अब तो, जिनको चांद ने हेरा।।4।।
हॅंसती झाईयाँ संझाकी, कहाँ गइ्र्र, अब नहीं दिखतीं
जीवन की कहानी वे, नहीं अब तारिका लिखतीं।
तमिश्रा दूर करते थे, वे दीपक अब कहाँ प्यारे-
वे ख्वाबों के कहाँ झरने, जहाँ पर जिंदगी हॅंसती।
कहाँ है, रेत के वे घर, जिन पर, प्यार था मेरा।।5।।
जमाना किस कदर बदला, हवाऐं क्या ब्यथा कहतीं।
मचलता क्यों नहीं बचपन? जिगर खामोषियां दहतीं।
कहाँ वे प्यार की लोरीं, जिन्हें गा, माँ सुलाती थी-
सब कुछ छिन गया क्यों कर, जवां खामोष क्यों रहती।
हुई आबाज क्यों गूंगी, जमाना क्यों हुआ बहरा।।6।।
खुशबू और उजालौं का, जमाना कहाँ गया प्यारे।
गुम-सुम क्यों बने बैठे? जीवन गीत कुछ गा रे।
अष्क ये, खूं सने क्यों कर, हथेली कांपती किससे-
गई मर्दांनगी कहाँ पर, जमाने किसलिए हारे।
खोई कहाँ मनमस्ती, यही है दर्द, बस मेरा।।7।।
उठालो कलम-कत्र्तव्य की, बनाना है वही भारत।
कलम के तुम सिपाही हो, करते आपसे आरत।।
जो भारत स्वर्ग था अब तक, कहाँ है आज वह बोलो-
अब भी गौर कुछ करलो, क्यों कर अश्रु,यौं ढारत।
तुम्हें सौगंध है माँ की, करो नहिं कोई अब, बेरा।।8।।
6.जीवन यात्रा
जीवन यात्रा कठिन, सरल कर जीना सीखो।
ओ मानव! मानव होकर, कुछ करना सीखो।।
क्यों करते बरबाद समय को, सोचो भाई।
ऊल-जलूकी संवादों क्यों, बुद्धि खपाई।
कई जन्मों की साध, साधना बन गए मानव-
राजमार्ग को छोड़, पगडण्डी क्यों अपनाई।
हीरों के घर बैठ, शाक-बेचन क्यों सीखो।।1।।
पैरों में क्यों लखो? दूर-दृष्टि अपनाओ।
तुमसे आगे कौन? राह उनकी पर जाओ।
इस छीछा-लेदर में, खुद को मिटा रहे क्यों?
तुम हंसी-अवतंस, होष में अब भी आओ।
दुनियां भीड़-भाड़ से हट, कुछ जीना सीखो।।2।।
जिस दिन, तुम अपने को, प्यारे जान पाओगे।
यह दुनियां, अनदेखी होगी, मान जाओगे।
सदाचरण का पाठ सीखना, इस धरती पर-
नर से बढ़, नारायण तुम ही हो जाओगे।
कहाँ जाना, मनमस्त, मौक्ष-द्वारे से सीखो।।3।।