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वो भारत! है कहाँ मेरा? 4

वो भारत! है कहाँ मेरा? 4

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

17.करवटें

करवटें ले रहा था मैं,पड़ा अपनी ही खटिया पर।

रखकर शीश को यौंही,मस्त कोहनी की तकिया पर।

समय थोड़ा ही गुजरा था,कि पल्टा खा गई करवट-

चिंतन-उलझते पहुंचा,रही उखड़ी जो,बखिया पर।।1।।

याद लेतीं रहीं करवट,मैं कहाँ से,कब चली होगी।

ठिकाना नहीं पड़ा अबतक,बीज बोती रही होगी।

पन्ने कई-कई पलटें,ठिकाने की ही,चाहत में-

खूब ऊॅंघीं औ अलसाई,मगर जागी अवश्य होगी।।2।।

जिंदगी की कहानी है,जिंदगी यौं ही जी सकते।

करवटें बदलनी पड़ती बिना बदले,न रह सकते।

छोटे जीव से लेकर,बड़ों तक,करवटें बदलीं-

बात तो वहाँ तक जाती,विना करवटें न सो सकते।।3।।

जभी करवट ने ली करवट,नया कोई दृष्य ही आया।

गुनगुनाई,आपमें करवटें,नया कोई गीत ही गाया।

पहॅुच गई,आप ही वहाँ पर,जहाँ अल्हड़ जवानी थी-

कितनी लीं,वहाँ करवट,गणना कौन कर पाया।।4।।

उकेरे कई गए होगें,वहाँ पर चित्र जीवन के।

करवटें गई कराहौं तक,लेकर दर्द,टीभन के।

वहाँ नहीं होष था कोई,वहाँ बेहोशी का दरिया-

उखड़ते ही गए टांके,न जाने क्यों,सीवन के।।5।।

लगा करवट कहानी ये,वहीं चिंतन धरातल है।

प्रकृति के साए में पलकर,यही बनता हिमाचल है।

पता नहीं,कौन सी करवट,किधर को ले गई होगी-

स्वर्ग बनती कभी वो ही,कभी जेहन्नुम कही होगी।।6।।

यहीं से जिंदगी करवट,अपने बीज वो जाती।

उदर के दीर्घ सागर में,कहानी आप हो जाती।

अनेकों करवटें लेकर,वहीं से चल पड़ी मानो-

कहानी कई पढ़ी होगीं,यादें आज जो आती।।7।।

पले जहाँ कई अभिमन्यु,युधिष्ठिर,भीम,केशव से।

यहीं धृतराष्ट्र भी पलते,हिरण्यकष्यप और हिरणाक्ष से।

यहीं से राम-रावण भी,कंश और कालिया जानो-

करवटों की रवानी में,रक्षक और भक्षख से।।8।।

इस तरह करवटें लेती,जिंदगी बाहर,जब आई।

हृदय के पालने पलती,करवटों की ही,परिछाई।

जीवन दांए से बांए,होता ही चला आया-

बनाऐ पुल कई यहाँ पर,खोदीं कई नई खाई।।9।।

पता नहीं,किस हवा साऐं,करवटें कौन,क्या लेता।

जीवन किस हवाले हो,बने को,कौन का,खेता।

धरती-धूल जो सोया,वही कब,मखमली होता-

करवटों का बड़ा जीवन,कौन को,कौन-क्या देता।।10।।

जिंदगी चली ही होगी,कभी करवट के साया में।

लकड़ी बीन जीती थी,कभी वृक्षों की छाया में।

चली होगी वो जंगल से,महल तक,अभी जो आई-

किसी ने करवटें देखीं,रहीं कब,किस समाया में।।11।।

पिया कहाँ डाबरी पानी,किसके प्यार में सोई।

करवटें जिंदगी बदलीं,कहाँ-कितनी रहीं रोई।

मगर हम भूल जाते हैं,करवटों की कहानी को-

किसी से सीख ली होगी,पुस्तकें पढ़ी हों,कोई।।12।।

सफर वह बहुत लम्बा है,सोचा क्या?कभी इस पर।

इस तरह करवटें बदली,भरोसा कर सभी,सब पर।

पता नहीं कौनसी करवट,जिंदगी-धूप-छाया में-

यही करवट कहानी है,चलना सभी को जिस पर।।13।।

चलना कहाँ से सीखा,उॅंगली कौन ने थामीं।

तुम्हारी इस अमानत पर,किसने कब,भरी हामी।

तुम्हारी मंजिलो का,यहाँ,मसीहा कोई तो होगा-

करवटें किस तरह बदलीं,बनीं हो कौन अनुगामी।।14।।

करो तो याद करवट को,तुमने लीं कहाँ कितनी।

जीवन डायरी रक्खो,याद हों आपको जितनी।

जिंदगी के न्यायालय में,सभी को बताना पड़ती-

कितीं मनमस्त करवट लीं,बता दो,याद कर,जितनी।।15।।

करवटें सोचकर बदलो,करवटें बेशकीमत हैं।

लौटकर,फिर नहीं आतीं,इनकी कई कीमत है।

निरर्थक नहीं बदलना है,गौर इन पर करो प्यारे-

कितनी ये रहीं सार्थक,क्यों कि,ये तो सीमित हैं।।16।।

तुम्हारी जिंदगी सच में,नई करवट कहानी है।

इस पर गौर करना है,नहीं,नानी कहानी है।

अभी भी समय इतना है,इनको सार्थक कर लो-

इन्हें तुम भूल मत जाना,सभी की जानी मानी हैं।।17।।

जीवन साथ चलतीं है,करवटें सभी की भाई।

चुकाना ही पड़ी सबको,कीमत यहाँ पाई-पाई।

तुम्हें सोने नहीं देगीं,तुम्हारी पिक्चरी दुनियां-

कहाँ पर,कब खिलीं होलीं रचाई कहाँ,कब राई।।18।।

सबको याद रखना है,करवटों की कहानी को।

ये भूलीं जा नहीं सकतीं,नहीं इनकी रवानी को।

भलां ठुकराओ तुम यौंही,पल-पल याद आतीं हैं-

कभी-भी चढ़ा नहीं पाए,कोई उतरे पानी को।।19।।

समय की चाल को देखो,करवट सोचकर लेना।

करवटें जिंदगी ही हैं,मानो आज भी कहना।

समय को जान,मत भूलो,नहीं फूलो अभी इतना-

करवटें कब बदल जाए,समय को साध कर रहना।।20।।

निर्थथक यदि कहीं बदली,करवटें याद आऐंगी।

भलां समझो,नहीं समझो,कहानी आप गाऐंगीं।

रहे पछताव ही इनका,इसे भी भूल मत जाना।

उजाला नहीं मिलेगा फिर,अंधेरी रात आऐंगी।।21।।

करवटों की इवारत को,कहैं इतिहास के पन्ने।

इन्हें परिमाणु-वत समझो,रजकण नहीं ये नन्हे।

पता नहीं करवटें ये ही,कबै विस्फोट कर डालैं-

इसलिए होष में रहना,मिटैं कब जिंदगी सपने।।22।।

करवटें दास्तां कहतीं,सभी अहंकार की सारी।

सभी ने देखलीं,परखीं,कितनी मीठीं और खारीं।

यहाँ पर आए बहुतेरे,जिनने करवटें लीनी-

सुयोधन,कंश,हिटलर भी,सिकन्दर की भई न्यारी।।23।।

करवटों के मिजाजों को,सभी ने भोग कर देखा।

खाली हाथ ही लौटे,नहीं कर पाए भी लेखा।

पता नही आज भी प्यारे,करवटें ऊॅंट किस बैठे-

अभी तक खींच नहीं पाए,लम्बी कोई भी रेखा।।24।।

समय की करवटें देखों,किधर की ओर जातीं हैं।

न भूलो करवटें अपनी,जीवन की ही थाथी हैं।

वे साबित रह न पाऐगे,जिन्होने करवटें भूलीं-

करवटें बहुत कुछ कहतीं,यही मनमस्त पाती है।।25।।ं

18.भारत-दर्द

जब अखण्डिता,खण्डित करने,कोई यहाँ बीज बोते हैं।

स्वतंत्रता की बलिवेदी पर,तब सहस्त्रों गांधी रोते हैं।।

इस अखण्डिता की खातिर में,कितनी कुर्बानी दे डालीं।

कितनी माँगें सूनी-सूनी,कितनी गोदी माँ की खालीं।

ऐसी विषम अवस्था में भी,तुम गहरी नींदों सोते हैं।।1।।

घर से सीता हरण हो रहे,पग-पग चीर द्रोपदी खिंचते।

अस्मद लुटीं अहिल्या फिरतीं,मानव अट्टहास दे,नचते।

बौना बना आज का चिंतन,राम,भीष्म पौरुष खोते हैं।।2।।

पेट-पीठ मिल एक हो रहे,आग भूंख की गहरी तन में।

फिर क्यों जश्न ,खुशी का आलम,स्वर्ण-प्रभा के इस उपवन में।

बिटिया पीले हाथ बिना लख,कई बावुल, जीवन खोते हैं।।3।।

खालें खींच रही मंहगाई,राजनीति की चालैं ऐसीं।

पगडण्डी से संसद तक भी,ठुकतीं देखीं टालैं कैंसीं।

मौज मनाते शकुनी मामा,धर्मराज जीवन ढोते हैं।।4।।

इस आपा-धापी अंधड़ में,लगता यूं,आजादी खोई।

समय संगठित होना होगा,रोक सकें मनमस्त न कोई।

नहीं आई विकाष की गंगा,लगता आष्वासन थोथे हैं।।5।।

19.मानव का इतिहास क्या होगा?

सम्बन्धों की हाट उठेगी,इच्छित भोग जहाँ पर होगा।

बिन जमीर के जीवन कैसा,मानव का इतिहास क्या होगा?।।

मानव का चिंतन यह कैसा,मरियादा की आनि मिटादी।

नारी नर की खान रही है,किन्नरदाई बिछात,बिछादी।

षोर उल्लुओं सा कैसा यह,कागों की पंचायत बिठादी।

इस दरिंदगी के दलदल में,कल ही,मानव जीवन रोगा।।1।।

इति स्वतंत्र नारी भई जहाँ पर,बिगड़े हैं सम्बन्ध ही सारे।

सॉन्तून इतिहास उजागर,गंगा से कैसे थे हारे।

सभी जानते हैं कुन्ती को,बनी पाण्डवों की जो माता-

कैकई के कर्तव के आगे,दषरथ दसौ दिषा से न्यारे।

पढ़लो कुछ इतिहास पुरातन,जीवन का मंजर क्या होगा।।2।।

उच्छखल भई पवन जमीं-भी,नंदनवन,वीरान हो गए।

सरिताओं के अगम वेग में,गहन जड़ों के वृक्ष ढह गए।

वे-मरियादा सागर जब-जब,प्रलय सृष्टि का तांडव देखा?

मरियादा में रहना मानव वेद,पुराण सभी तो कह गए।

जहाँ नहीं मरियादा होगी,धर्म,धरा का रुप क्या होगा।।3।।

मनीषियों का चिंतन कैसा, नर-नारी सम्बन्ध विखण्डन।

जीवन-सरिता कैसी होगी?,कैसा होगा मंडन-खण्डन।

ऐसी धारा वही धरा तो,डूब जाऐगा,धर्म,धरा से-

मानव,मानव नहीं रहेगा,दानवता का होगा,नर्तन।

मानवता मनमस्त बचा लो,आने बाला दर्षन रोगा।।4।।

20.परिवर्तन

अबतो इस सरकार को,बिल्कुल मिटा दो,

गैर के विस्तर की,आदी हो गई है।

क्या कहै? कितनी कहैं,इसकी हकीकत,

बेहिया और बेषर्म भी,हो गई है।।

गैर शिर-पैरों की बातें,यहाँ नुमायन्दे कर रहे,

ख्ब्वाबसानी,आसमानी पुल,बनाने में लगें हैं।

कागजों की नाव,कब लगती किनारे?

देवताओं की कहैं क्या?भूत-भी यहाँ से भगे हैं।।

लग रहा है,इस धरा के भाग्य रुठे,

उल्लुओं के,बॅंध गए,षैहरे,यहाँ पर।

गीदड़ों की,यहाँ बारातें सज रहीं हैं,

गुम हुए वे,सिंह के लहड़े कहाँ पर।।

लोंमड़ी,मॅंहदी रचाए फिर रहीं हैं,

काग-भी,मनहर तारानों में पगें हैं।

भालुओं को,न्याय सिंहासन,मिला क्या?

गर्दभों के सींग,अब उगने लगे हैं।।

माँगतीं हैं,कैकयीं,अपने वरों को,

मंथरा कीं,मंत्रणाऐं पुज रहीं हैं।

राम-सा,वनवास होना,शेष है अब,

कौशला कीं,दीप बातीं,बुझ रहीं हैं।।

देखते हो,किस तरह से हैं सजे दरवार इनके,

देश के हालात की,चिन्ता न जिनको।

राजमंत्री,राजमद की,गोलियां खाए खड़े हैं-

अंग रक्षक,हो अनंगे,नाचते हैं,धौर दिनको।।

वतन की हालात्,देखो तो मनीषी,

रातभर ही,रात यहाँ,रोती रही है।

जल्द ही,अब भोर का,तारा उगाओं,

यह धरा भी,अश्रुमुख धोती रही है।।

समय की चाहत,यहाँ बदलाव लाना,

बीहड़ों को, सब्ज-बागों में सजाओ।

मानवी की पौध का,रोपण करो यहाँ,

सप्त-स्वर में,सप्त रागों को,सुनाओ।।

आदमी होगे तभी तुम,आदमी-से,

जन्म लेने का,सही कुछ अर्थ होगा।

स्वर्ग के,माँनिन्द करदो,इस धरा को,

नहीं तो,यहाँ जन्म लेना,व्यर्थ होगा।।

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