तुम्हारे बाद - 4 Pranava Bharti द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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तुम्हारे बाद - 4

19 --------

न जाने कौन रोक देता है मुझको यूँ ही

टोक देता है मुझे कुछ गुनाह करने से

मेरे कदम नहीं बढ़ पाते हैं, थम जाते हैं

और बेबस सी एक आह फिसल जाती है

आसमान से ज़मीं के आँगन तक

तेरी यादों के बीच ही घिरी मैं जाती हूँ

तेरी यादों के ही कँवल खिला करते हैं

और मन घूमता रहता है उनके ही संग

भरी हो भीड़ हरेक सू ही पर मैं तन्हा

तेरी यादों के दरीचों में घूम आती हूँ

जैसे कोई भूली हुई सी कहानी मन में हो

जैसे सागर की रवानी मेरी धड़कन में हो

क्या भूल पाऊंगी मैं उन हसीन लमहों को

जो मेरी साँस, मेरी आस, मेरे तन-मन में हो

चुभे जाते हैं नश्तर से और फिर जाने क्यूँ

मन के सारे ही तार उलझते से जाते हैं

अब इन ख़्वाबों की बातों में असर तो कुछ भी नहीं

जाने क्यों सब ही मुझे रूठे हुए लगते हैं ||

 

20-----

जाने क्यों उग आई है तन्हाई पत्ते-पत्ते पर

और चरागों ने भी दम तोड़ दिया हो जैसे

यूँ तो साँसें चला ही करती हैं हर पल सबकी

पर क्या आस भी मन में यूँ पला करती है

जैसे कोई सुबह को खोल आँख मुस्कुराता हो

और अपनी याद से सहला के लौट जाता हो

यूँ तो साँसें हैं, धड़कन है, और हैं यादें

फिर भी कुछ तो कमी सी है, नज़र न आती है

वो तो कुछ है जो भीतर रुंधा सा बसता है

जैसे किसी तार से जैसे गला सा कसता है

कुछ फ़कीरी सी है जो पकड़े है दामन मन का

और मुस्कान खो गई है जाने क्योंकर

लाओ चराग दो तो मेरे हाथों में

मैं उसे ढूंढ लाऊँगी कहीं से भी जाकर ||

 

21 -----

बहुत शान से जी ली थी ज़िंदगी मैंने 
ढेर से ज़हर के प्याले पी गई थी मैं 
चढ़ा नकाब चेहरे पे मुस्कुराती थी 
ज़िंदगी के फ़लसफ़े को गुनगुनाती थी 
न खबर थी मुझे साँझ के पहर में यूँ 
गला करती हैं ये शामें जो खिलखिलाती थीं 
आज जीवन का सही अर्थ जान पाई हूँ 
सभी चेहरों के अंदाज़ समझ पाई हूँ 
आज लगता है, नहीं प्यार की कीमत कोई 
बाँट दो उनमें प्यार जिनको ज़रुरत इसकी 
क्यों यूँ झोली में लिए घूमते रहते हो तुम 
तुमने बाँटा है प्यार जिनको न ज़रुरत थी 
जिनको चाहत थी उनको तो महरूम किया
न उनको प्यार दिया, न ही उनसे प्यार लिया 
रात की बेला का तुम यूँ न इंतजार रहो 
प्यार नेमत है उसे न कभी बेकार करो 
हरेक शाख़ पर ही फूल मुस्कुराएँगे 
स्नेह, प्यार बाँटो उन्हें जिनको इसकी इज्ज़त हो ||

 

22-----

थी उदासी की परतें 
कुछ ग़म की सियाही थी 
नम सी आंखें थीं कुछ दिनों से 
जीवन में जैसे कुछ तन्हाई थी 
कल रात अचानक दो तितलियाँ
आकर स्वप्न में झिंझोड़ गईं
जो कुछ टूटा-फूटा था भीतर
उसे उजालों की ओर मोड़ गईं 
एक नर्म सी थी, एक थी गुस्ताख
आँखें तरेरीं उसने, फुलाया मुह
'नहीं करूंगी बात !'
ये ज़िंदगी है, रूठ जाती हो कभी क्यूँ यूँ ही?'
भूल जाती हो मुस्कुराना
याद रहता है बस बेबात सहम जाना
मैं तुम्हारी ज़िंदगी का हिस्सा हूँ
यह न समझ लेना मैं बस एक किस्सा हूँ !
दूसरी आई स्नेह से दुलारती
अँधेरे को बुहारती
उजाले की शम्मा हाथ में पकड़े थी कोई
थमा दी मेरे हाथों में शम्मा प्यार की, 

मनुहार की, स्नेह की, दुलार की-----
"मैं जुगनू हूँ, तुम्हारी आँखों में रोशनी बन रहती हूँ, 
अँधेरे को भगाती, प्रेम पीती हूँ
आओ, रंग घुल रहे हैं फिज़ाओं में
बासंती हवाएं हैं, तराने हैं, जीने के सौ बहाने हैं
शाखों में, पातों में, दिनमें, रातों में
रंग बिखरे हैं प्यार के, ममता के, करुणा के

झोली भर इनकी, उड़ा दो हवाओं में
कोई वंचित न रहे धरा पर, ऐसा कुछ कर जाना
गुमसुम न रहना, कोई ऐसा शजर बो जाना
जो सूखे न कभी, ऐसी रंगों भरी फसल उगा जाना
मेरी आँखों में वो तराना है
मुट्ठीमें स्नेह, प्रेम का गीत जो बंद है,  
सबके साथ मिलकर गुनगुनाना है
रंगों से मन सबके रंग जाना है
ये ही तो जीने का खूबसूरत सा बहाना है-----||

 

 

 

23-----

 

फुटपाथों पर सोए पड़े लोग क्यों नज़र नहीं आते

जिंदगी की कहानी में उनके नाम क्यों हैं खो जाते

क्यों हो जाती हैं गुम उनकी हसरतें, उम्र के दरीचों में खो जाती हैं

उम्मीदें उनकी और कहानी उमर की हथेली पर काढ़ दी जाती है

वो सवालों सी दाग दी जाती है, काट लिए जाते हैं हाथ उनके

और खालों में भी भूसा भरवा दिया जाता है

उठते सवाल हैं मन में मेरे, क्या वो नहीं हैं बाशिंदे इस धरती के

क्या वो आए हैं यहाँ दुःख की चादरें ओढ़े

और चुभने लगती हैं उनकी धड़कन मेरे भीतर कहीं

ज्यूँ कोई तीखी हवा के झोंके सिहरन दें

ऐसे मैं काँप उठती हूँ, याद करके उन्हें

और तलाशने लगती हूँ, उनकी हसरतों को अपने भीतर मैं ||

 

 

24-----

कितनी रातें गुज़ारी हैं बातें करते शजर से

कितनी साँसें ली हैं उसके नीचे मैंने

कितने ही राज़ साँझा किए हैं उससे मैंने

कितने आँसू पिए हैं ओस की बूंदों मानिंद

कितने भीगे हुए लम्हे चुराके रखे हैं

और कितने ही कदम भी चली हूँ उसके संग

आज सूखे हुए पत्ते मुझे बुलाते हैं

देते हैं कसमें मुझे लौट-लौट आते हैं

इसकी शाखों पे मौसमी परिंदे गुनगुनाते थे

और उन सबने अपनी कहानी मुझे सुनाई थी

वो जो मुस्कुराए थे मेरे हमसफ़र बनकर

उनके ही साथ कितनी बार गुनगुनाई थी

आज वो हो गए हैं कुछ यूँ ही गुमसुम से

देख मुझको तन्हा उनकी आँख भर आई

ख़ुद को पाते हैं तन्हा देखकर उदास मुझे

भीगे लम्हे बिखर न जाएँ कहीं मेरे

एक बरसाती से उन सबने दबा रखा है

मेरे आँसू दिखाई न दें किसीको भी

मुझको अपने तले सबने बिठा रखा है

चिलचिलाती धूप में साया है ये शजर

और मैं हूँ कहाँ मुझको ही न रहती है खबर ||