तुम्हारे बाद - 2 Pranava Bharti द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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तुम्हारे बाद - 2

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ये तेरी रूह का साया मुझे परचम सा लगे

लरजते आँसू भी मुझको कभी शबनम से लगें

यूँ ढला रहता है तू जिस्म में मेरे अक्सर

कि तेरा दिल भी मुझे अपनी ही धड़कन सा लगे

कभी यहाँ तो कभी उस ओर दिख ही जाता है

ये तेरी ही दुआओं का कुछ असर सा लगे

ये रंजोगम भी कैसे बनाए हैं मालिक

सबकी ही आँख का आँसू मुझे अपना सा लगे

जाने शिकवा करूँ या शुक्रिया करूँ किसका

मेरी रूह में कहीं कुछ हौसला सा लगे

 

8-----

बहुत शान से जी ली थी ज़िंदगी मैंने

और बहुत से ज़हर भरे प्यालों को भी पिया ही था

न खबर थी मुझे साँस यूँ भी गलती है

और ज़िंदगी भी ठिठर जाती है अक्सर सबकी

ये चरागाँ किधर से निकलके आते हैं

जो अंधेरों को उजियारे में बदल जाते हैं

ये ज़िंदगी की लरज को भी मीठा करते हैं

और चाहते हैं कि अंधेरों में मुस्कुरा लूँ मैं

इन अंधेरों से मेरे दोस्त फिर डरना कैसा

‘उसने’ कुछ तो रचा होगा ही तकदीर में मेरी

उसका ही शुक्रिया हर पल अदा मैं कर दूँ तो

यही मेरे सुकून का मुझे तोहफ़ा भी मिले

इन अंधेरों के बाद ही उजाला होता है

ज़िन्दगी है यही कोई हँसता तो कोई रोता है ||

9 ----

किस आँगन में जाऊँ किसको पीर सुनाऊँ

मन के टुकड़े-टुकड़े तितर-बितर हैं

कैसे छंद बनाऊँ

बेतरतीबी से जब मन में उलझी रहती साँसें

धागों में गूंचें पड़ जाएं हाल सुधर न पाते

कैसे खोलूँ गूचें उनकी नहीं समझ आता है

शोर दबादब मन के आँगन, सहा नहीं जाता है

यादों के पहरे हों बैठे जाने क्यों मन ऐंठे

ताल सभी बेसुर लगते हैं, बेसुध सारी बातें

प्यार, मुहब्बत झूठे लगते, लगते रूठे-रूठे

कैसे पाऊँगी सुकून मैं घाव अधिक गहरा है

कोई तो हल मुझे सुझा दो, सब तरफ़ा फर है !!

 

10 ----

उड़ते हुए गगन के पंछी के पर कटे हों जैसे

सपनों के जंगल में जाने आग लगी हो ऐसे

मन के कोने-कोने में उगते वीरानी - जंगल

कैसे साफ़ करूँ मैं मन को ये उगते हैं पल-पल

कितनी सौंधी पवन चली थी, कितने फूल खिले थे

खिल-खिल आँगन करता रहता, कितने चमन मिले थे

शाख़ हवा से डोली ऎसी झर-झर जाते पत्ते

पीले पड़े स्वप्न सारे ही झूठे थे या सच्चे

आज कुँवारी पवन बहकती कैसे उसे पुकारूँ

जब जीना दूभर हो जाए क्या छोडूँ, क्या वारूँ

ताल-ताल अनगित अभिलाषा, सिमट रहीं हैं जल में

जल दिखता है, शुष्क हो गईं पर क्यारी हलचल में

संदेशों से भरी पोटली, गुम हो जाए जैसे

अब जीवन के रंग बने हैं बेरंगे हों जैसे ||

 

11 ---

सारी दुनिया में जो मची है भूकंपी ये दौड़

कोई नहीं किसीका देखो मुड़कर चारों ओर

फूल पीर के उगे हुए हैं कैसे निकला जाए

आगे-पीछे नहीं है कोई किसे–कौन समझाए ??

ईर्ष्या में सब भीग रहे हैं, काँटों को ही सींच रहे हैं

कैसे बात बनेगी कोई जब सारे ही तने खड़े हैं

अभिलाषा की बांधे पोटल, अहं भाव दिल के आँगन में

आँगन साफ़ करेंगे कैसे अहं यहाँ जब अड़े हुए हैं

पहरेदार पड़े हैं सोए, कैसे उनकी नींद खुलेगी

चिंता करने से न बने कुछ सोचो, राह मिलेगी

जब तक राह न ढूंढें मिलकर

बैसाखी लेकर हाथों में मिलती राह न कोई प्रस्तर

तनकर होना होगा सबको खड़ा यहाँ पर साहस से ही

अँधियारा छूमंतर होगा जब मुट्ठी बांधेंगे जमकर ||

 

 

12 ----

अचानक

हाँ, अचानक ही हो जाता है सब-कुछ जैसे

डाल पर बैठा मिट्ठू ‘राम-राम ‘रटता

उड़ जाता है, पलक झपकते ही

देखते-ही देखते बादल छिपा लेता है

सूरज को अपनी मुट्ठी में

साँसों की धड़कन हो जाती है अचानक निरीह

लहराती नदिया बन जाती है एक सूखा समन्दर

साँस की डोर बहक सकती है जब भी चाहे

वो महल आस के उड़ते–उड़ते हो जाते हैं भूधर

कभी आस आती है, कभी साँस निकलती जैसे

ये ज़िंदगी का फलसफ़ा है दोस्त तू सुन ले

खट्टा हो मीठा, या कड़वा हो तू हसरत बुन ले

बना ले आशियाँ प्यार का, बहारों का

तू बहक ले इसी मंझधार में

इंतज़ार कर न किनारों का ------||