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गड्ढा

गड्ढा

पहले चुनाव और अब कौन जीतेगा या कौन हारेगा के शोर में हम और आप लोकतंत्र की सड़क पर पड़े उस बड़े से गड़्ढे को भूल ही गए थे , जिसका इतिहास है कि सरकार कोई भी बनें वो तो वहीं रहता है । हाॅ उसका भूगोल अवश्य ही बदलता रहता है । वैसे कुछ लोगों का कहना है कि यह गड़्ढा तब भी वहीं था जब ये सड़क नहीं बनी थी । गड़्ढा है तो उसका सड़क के बीचों बीच होना तो लाजमी है । बस इस गड़्ढे की महिमा के चलते अक्सर कुछ लोग जो इस गड़्ढे में जाते है सीधे अस्पताल ही पहुॅचते हैं, कुछ लोग तो उससे भी आगे निकल गए और सीधे स्वर्ग पहुॅच गए । वैसे यदि आप इस गड़्ढे को ध्यान से देखेंगे तो आपको दुनिया के सारे विज्ञान इसी में दिख जाऐंगे । जैसे इस गड़्ढे का रसायन नम मौसम में विलयन के रूप में तो सूखे मौसम में कीचड़ के रूप में होता है । वैसे इसकी भौतिकी भी हमेशा ही गति के नियमों को चुनौती देने में लगी रहती है । बारीकी से देखेंगे तो इस गड़्ढे में गणित, सांख्यिकी, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान भी दिखाई दे जाऐंगे । वैसे इस गड़्ढे का जनक तो अर्थशास्त्र ही है , यह वही अर्थशास्त्र है जिसका प्रयोग ठेकेदार अधिकारियों को और अधिकारी नेताओं और मंत्रियों को खुश करने में करते है । ऐसे अर्थशास्त्र से अक्सर ही गड़्ढों का जन्म होता है ।

इस गड़्ढे पर राजनीति तब प्रारम्भ हुई जब एक विपक्षी नेता की उपपत्नी इस गड़्ढे से होते हुए अस्पताल पहुॅच गई । बस चैनलों को मसाला मिल गया उनके लिए यह खबर देश की समस्याओं में सबसे पहले दिखने लगी । बस वाद-विवादों का दौर प्रारम्भ हो गया । सरकार के प्रवक्ता ने अपना पक्ष रखते हुए बताया कि ‘‘ यह गड़्ढा उस समय का है जब वर्तमान विपक्ष सत्ता में था इस कारण इस गड़्ढे को भरने में कम से कम दस - पंद्रह साल तो लगेंगे ही । ’’ उनका कहने का मतलब बिलकुल ही साफ था कि गड़्ढा तो हम भरेंगे लेकिन दो- तीन बार सत्ता का सुख भोगने के बाद । विपक्ष के प्रवक्ता का कहना था ‘‘ हम स्वीकार करते है कि यह गड़्ढा हमारे समय का ही है लेकिन ये रोड़ भी तो हमने ही बनवाई थी । ’’ बहस और तेेेेज हुई तो गड़्ढे का जाति और धर्म भी बताया जाने लगा । इस बहस की दिशा ऐसी बदली कि कुछ लोगों ने इस गड़्ढे को सांप्रदायिक साजिश बता दिया । ऐसा करके वे केवल और केवल अपनी- अपनी भेेड़ों को अलग करने का प्रयास कर रहे थे । इस गड़्ढे पर जितना समय चैनलों पर वाद-विवाद हुआ उस से कम समय में वो गड़्ढा भरा भी जा सकता था । इन लम्बी -लम्बी बहसों में अक्सर तो गड़्ढा दृश्य से गायब ही रहता । कभी- कभी नेता आपस में गाली-गलौज करते , एक दो बार तो वे हाथापाई पर भी उतर आए। चैनलों को यह मसाला दिन भर दिखाने के लिए पर्याप्त होता ।

बहस से कहीं गड़्ढे भरते है बस गड़्ढा वहीं का वहीं है, जस का तस । फिर किसी ने उस गड़्ढे पर एक बोर्ड लगा दिया ‘‘दुनिया में अभियांत्रिकी का अजूबा --- यह सड़क बिना गड़्ढा हटाए बनाई गई । ’’ बेरोजगारी के कारण लोगों के पास फुरसत भी बहुत है और लोगों को तमाशा देखने का शौक भी । बस अब उस गड़्ढे के आस-पास भीड़ जमा होने लगी । एक बोला ‘‘यार मै तो रोज इधर से जाता हूॅ मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया । ’’ दूसरा बोला ‘‘ मैं तो एक दो बार गिर भी चुका हूॅ।’’ अब लोगों का उस गड़्ढे से जुड़ाव होने लगा , देखते - देखते वो गड़्ढा दर्शनिय हो गया ।

सरकार भी इस मौके को कैसे अपने हाथ से जाने देती प्रवक्ता जी बोले ‘‘ देखिये ये गड़्ढा तो सालों से यहाॅ था लेकिन हम ही है जिसने उसे आज इज्जत दिलाई । ’’ विपक्ष कब चुप रहने वाला था वे बोले ‘‘ आप हमारी उपलब्धि को अपना बता रहे है यह तो हमारा था और हमारा ही रहेगा।’’ गड़्ढा वहीं है । यह गड़्ढा ठीक वहीं है जहाॅ लोकतंत्र की सड़क है । देखा जाय तो यह गड़्ढा ठीक लोकतंत्र के बीचोबीच है । गड्ढा यहीं है जहाँ पहले हुआ करता था । यह गड़्ढा अब बड़ा और बड़ा होता जा रहा है । कुछ लोग इस गड़्ढे को भरना भी नहीं चाहते बस वे सेवा का कालीन इसी गड़्ढे पर बिछाकर बैठते है ।

आलोक मिश्रा"मनमौजी"


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