वो भारत! है कहाँ मेरा? 7 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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वो भारत! है कहाँ मेरा? 7

वो भारत! है कहाँ मेरा? 7

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

31.वासन्तिका छवि(होली)

यॅू मन करता,होरी तेरे-अंग,रंग भर दॅू।

बासन्तिका छवि पर,सबकुछ,न्यौंछावर कर दॅू।।

घन केषों के जाल-पाष की,उलझन में उलझा।

बुद्धि में पागलपल इतना,अबतक नहीं सुलझा।

भ्रमरों की गुन-गुन मादक-सी,मनचाहा संगीत-

षयामलता,उपमान रहित हो,श्रावण-घन परतीत।

गुंजा-कुन्द सुत्र में पोकर,प्यार माँग,भर दूं।।1।।

श्रवण गुलाबी,गुल-गुल्लक से,उभय-भाग दरसे।

विधि-विधान की,विविध कलापर,अन्दर मन हरषे।

कनक-कुण्डलों की आभासे,कसक जगी न्यारी-

मधुप,अनकहीं,कहैं बैठकर,केषर की क्यारी।

झलमलात,ताटंक झालक पर,चन्द्र चमक धर दॅू।।2।।

अति विषाल सुचि-भाल लाल पै,षषि-भी षर्माया।

काली अॅंधियारी मावस पर,कालिख बन छाया।

छल-छलात छवि की छलकन में,चाहत की रेखा-

अनपढ़ मन,पढ़ने की खातिर,ज्यौं चातक-लेखा।

मधुर,मनोहर मादकता को,चुम्बन से भर दूं।।3।।

बल खातीं भैाहैं,कमान वन,भावुकता लातीं।

कितने उपमानों को खोजें,बुद्धि चकराती।

बनी-ठनी-सी,नयन राधिका,रब विहीन बातें-

मनमस्तों के हाव-भाव में,समझ लेत घातें।

चारू-चन्द्र मुख,चपल छवि से,पावन मन कर लॅू।।4।।

32.मनुहार-बासन्ती

आओ मित्रों! आज सजाऐं,इस बसन्त की अनुपम झांखी-

सरस-सोहानी-सरसों पियरी,बासन्ती मनुहार ला रही,

सप्त-स्वरों में,राग-गा-रही।।

रवि किरणों ने,रक्ताभ से,अवनी का अभिनन्दन कीना।

वीणा वादिन के पूजन में,अपना सर्वस,अर्पण कीना।

ओस कणों से,दूर्वादल ने,पदम-पाद,प्रच्छालन करके-

मंद-मंद वह,मलय पवन भी,मनमोहक-मधु-गंध ला रही।।

सप्त------------------गा रही।।1।।

कोयलिया के कुहुक गीत से,मधुकर-भी,मनमस्त हो गया।

आम-आम के,बौर-बौर पर,अपने में ही,आप खो गया।

पीउ-पीउ पपिहा की सुनकर,उमड़ी पीर,विरहणी उर में-

भीतर-बाहर,बाहर-भीतर,डोलत,कहीं न चैन-पा रही।।2।।

सप्त-----------------गा रही।।

अम्बर के तारों की चमकन,चन्द्र चांदनी के संग मिलकर।

बाग-बगीचों,अगर-बगर में,चम्पा कलियों सी भी खिलकर।

मंद-मंद,मकरंद-पदों से,रून-झुन,रून-झुन कर नूपुर की-

मन महकी,अबराई में से,मनहु-उर्वसी,आज-आ रही।।

सप्त-----------------गा रही।।3।।

बासन्ती की,लौनी छवि लख,बौराए से पग,मग परते।

बदली नयनों की नैनायी,चन्द्रमुखी से,रंग हो झरते।

मदन-वदन का,असन-वसन भी,रग-रग-रंगा,बसन्ती रंग में-

पीत रंग में,रंगी-रंगीं-सीं,मनहु दिशाऐं,चलीं आ रहीं।।4।।

अवनी-अंबर,मिलन पेख कर,सुलझीं,उलझीं,विटप-बेलियां।

अंग,अनंग रूप,अगणित धर,करता दिखता,रंग रेलियां।

चारौ तरफ,बसन्ती बहकी,मरियादाऐं,वे-मरियादित-

हो मनमस्त,दसौ-दिसि नांचीं,बासन्ती की छटा,छा रही।।5।।

33.धधकती-ज्वाला

इनकी,उनकी और कहो,किन-किन की,कह दैं,

अबतक सबने,ना जाने,क्या-क्या कर डाला।

आज धधकती है अन्तर में,विषधर ज्वाला।।

रोज पढ़ें अखबार,पत्रिका,लेख,कहानी-

जिधर देखते,उधर मिलैं,अगणित घोटाला।

सब कहते,विकास की गंगा,बही धरा पर-

यह कैसा विकास कि,काला मॅुह कर डाला।।1।।

दूध बिक रहा मारा-मारा,गली-गली में-

महावली-कस्टम से विकती,यहाँ पर हाला।

उपदेषों में झलके,जिनके त्याग-तपस्या-

पिछले दरवाजे से,चुपके कहते ला-ला।।2।।

इतनी धाक् जमाली अपनी,चहुगिर्दी में-

कैसे बोलें इतना,मॅुह पर,लग गया ताला।

उठा तर्जनी,तर्जन करते,समझ रहे क्या?

वे मौसम का,हम पर पड़ा हुआ है पाला।।3।।

बहुत हुआ,अब कैसे सहन करैंगे,कब तक-

समय आ चुका,एक-दो-तीन,होने बाला।

अब तो,राम भरोसे,जीवन छोड़ो-भइया-

कैसे रहें मनमस्त,चहूं दिस,काला-काला।।4।।

34.दर्द-की पीर

की,की,की से,का,का,कै देंय।

विना कहे ही,सौ-सौ कै देंय।।

रोजयीं-द्वारे,घुरवन ठाड़े।

ऊषेंयीं पढते,सौ-सौ पहाड़े।

उनने,उनके,खेत चरालए,

आके हम पै, आंखें काढे़।

झूंठ गवाही,की-की दे देंय।।1।।

हां-जू,हां-जू,करते-करते।

बोझिन मरगए,धरते-धरते।

पड्रम-पड्रम,दौड़ लगाए।

गधा-गधी से,जीत न पाए।

आन,रैंगटन,कान कतर देंए।।2।।

सांसी कैतन,घिची मरोरें।

बिना कये ही,खुपड़ी फोरें।

बुरौ जमानौं,आ गओ भइया।

चितवन टेढ़ी,ऐंठत मौरे।

आस-पडौसिन,ऊसैंयी,सै देंय।।3।।

इतै,दम-दमी,उतै न बोलें।

रये छिपाऐं,सौ-सौ पोलैं।

बहुत हो गईं,कबनौं सै-है।

खरी-खरी अब सबरी कै-है।

मन में आतयी,बदले,लै-लेंय।।4।।

फैंट बांध कैं,ठाड़े हो गए।

हाथ,लुहांगिन पै,अब धर लए।

मुठी बॅंधी,नयना रतनारे।

दांत मिच गए,मन हुंकारे।

आजादी,परवाने बन गऐ।।5।।

35.भारत प्यारा

भारत प्यारा,देश हमारा,शान्त,समादर वेष है।

हिम-सागर,जागरूक पहरूए,सुचि सौरभ संदेश है।।

काष्मीर शिर मुकट मनोहर,कुम-कुम,विकसित भाल है।

धबल कान्ति,जल-विन्दु कलोलित,गंग-यमुन की माल है।

कंठाभरण हिमाँचल,झिलमिल,तारागण,अनुदेश है।।1।।

राजस्थानी-उत्तरांचल संग,भुजदण्डी जहाँ शान है।

दिव्य-दिवाकर की आभा संग,दिल-दिल्ली,पहिचान हैं।

मनमस्ती,ममत्व का परिचम,मध्यप्रदेश-विशेष है।।2।।

महाराष्ट्र,बंगाल सु-भूषण,यू.पी.उत्तर खान है।

कर्नाटक,बिहार अरू केरल,अंग राग-सी शान हैं।

सघन वनों सी,सुभग बनावट,अंग-अनंग विशेष है।।3।।

मंद गंध युत,मधुर समीरण,रंग-राग का राग है।

भारत का,भू-भाग सुहानों,नन्दन वन-सा बाग है।

सागर चरण पखारे प्रतिदिन,यह प्यारा मम देश है।।4।।