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शगुन

शगुन
कुलदीप ने अपना हाथ, शगुन के हाथ पर दवाब बनाते हुये रखा है, कुछ इस तरह मानो कह रहा हो- "क्या सोच रही हो..? मत सोचो, मैं हूँ न, तुम्हारे साथ।" उसने सिगरेट का एक कश लेते हुये शगुन की आँखों में झाँका है। जिसे कहने के लिये शाब्दिक भाषा की जरुरत नही है और समझने के लिये कानो का सुनना। इस लम्बे, मौन वार्तालाप के समूचे केन्द्र की धुरी, हर बार की तरहा शगुन का परिवार ही रहा है और न चाहते हुये भी वो बोझ कुलदीप की पीठ पर लदता चला गया। भले ही उसने वह अपनी मर्जी से स्वीकारा हो, मगर उसका भार हर बार शगुन ने अपने दिल पर महसूस किया। वह क्या करे? कहाँ जाये? और किससे कहे? कहने के लिये सुनने वाला तो होना चाहिये। एक कुलदीप ही तो है, जो उसकी हर बात को अपना समझ कर निर्णय देने की सामर्थ्य और समाधान की योग्यता रखता है। इसलिये वो भी तो विना हिचक सब उड़ेल देती है।
क्या कभी कुलदीप ने उसकी विषमताओं से पल्ला झाड़ा है ? क्या कभी उन चीजों में अरुचि दर्शायी है? जो रोज-रोज नये रुप में उसके सामने आती रहीं। 'नही कुलदीप, तुम लौह पुरूष हो। समस्याएं तुम्हारे आगे घुटने टेक देती हैं। तुम संवेदना के साक्षी हो। अभिव्यक्ति के माध्यम हो। तुम पूर्ण हो। और फिर तुम मेरे हो...। ऐसा पुरुष साथी को पाकर कोई भी स्त्री धन्य हो जायेगी। मैं भी ऋणि हूँ, निर्भर हूँ, मेरी मानसिक और आर्थिक गतिविधियों के तुम सशक्त मार्गदर्शक हो। पर एक बात सुनो कुलदीप, मेरे लिये खुद को खत्म मत करो। कभी खुद के बारे में भी सोचा करो। क्यो हो तुम इतने भावपूर्ण...? क्यों हो परसुख के आकांक्षी...? क्यो अपना ख्याल कभी नही करते?
"क्या सोच रही हो शगुन..?" कुलदीप के इस स्वभाविक प्रश्न से वो चेतना में लौट आई है और फीकी मुस्कान से माहौल को सहज बनाने की कोशिश की है।
कुलदीप ने सिगरेट का आखरी कश लेते हुये उसे ऐशट्रे में बुझा दिया है। "मैं जानता हूँ तुम क्या सोच रही हो?" कुलदीप ने उसके हाथ को फिर से थाम लिया है, इस बार दोनों हाथों से।
"तुम कब तक मेरा इन्तजार करोगे कुलदीप? तुम शादी कर लो" इस बार जोरदार ठहाका लगाते हुये वह हँस दिया- "अच्छा ठीक है कर लेता हूँ, बताओ किस से करुँ?"
"ये मजाक नही है। कभी तो सीरियस हो जाया करो।"
"मैं सीरियस ही हूँ शगुन, और मैं जिन्दगी भर तुम्हारा इन्तजार करूँगा।" अचानक कुछ याद आते ही कुलदीप ने अपनी जीन्स की दाई जेब से कुछ रूपये शगुन को देते हुये कहा-"ये रख लो, फिर मैं भूल जाऊँगा। सनी की फीस की लास्ट डेट है कल।"
"कुलदीप मैं जल्दी ही लौटा दूँगी। आखिर तुम कितना करोगे हमारे लिये?"
"बस कर दिया न मुझे पराया? खैर जाने दो, तुम्हारा स्वाभिमान मैं जानता हूँ। लौटा देना, और सुनो अगर लौटाने में देर हुई तो चार टके का ब्याज लग जायेगा।"
इस बार दोनों ठहाका लगा कर हँस दिये। "चलो मैं तुम्हे घर छोड़ दूँ।" कुलदीप ने कार का दरवाजा खोलते हुये कहा।
रास्ते भर वह सोचती रही 'अगर कुलदीप न होता तो...तो क्या होता.? क्यों वह हमारा मसीहा बन के आया है? क्यों वह हर पल हमारे परिवार के लिये खड़ा रहता है? क्यों कभी शिकायत नही करता? अपनी इच्छाओं को जाहिर नही करता? क्यों वह मेरा इन्तजार कर रहा है? अब्बल दर्जे की सरकारी नौकरी, गाड़ी, शानदार फ्लैट सब कुछ तो है उसके पास, कोई भी लड़की उससे व्याह करना चाहेगी। फिर, फिर क्यों वह ...? कहीं ये खूबसूरत ख्याब तो नही?" उसने खुद को चिकोटी काटी- "नही ये मेरे ही कोई पूर्व प्रारब्ध हैं, जिसके परिणाम स्वरूप मुझे कुलदीप जैसा दोस्त मिला है।"
"ये क्या बात हुई भला, मैं साथ हूँ, फिर भी तुम न जाने कहाँ खोई हुई हो? शगुन, अपना सारा दर्द मुझे क्यो नही दे देती?" कुलदीप चिन्तित हो उठा है। जवाब में शगुन ने फीकी मुस्कान बिखेर दी है। जब कोई व्यक्ति किसी के अहसान तले दबा होता है तो चाह कर भी खुश नही रह पाता, यही हाल शगुन का भी है। वो अपने प्यार और परिवार दोनों के लिये संजीदा है।
"लो, घर आ गया शगुन"
"आओ अन्दर आओ, माँ तुमसे नाराज हैं। कई दिन से तुम आये नही हो न इसलिये"
"मैं माँ की डाँट खाने के लिये तैयार तो हो जाऊँ" कुलदीप बिल्कुल मासूम बच्चे की तरह कहते हुये हँस दिया है। बात तो सही है, इसलिये शगुन भी हँस पड़ी है।
कुलदीप ने हमेशा की तरह पैर छूकर माँ का आशीष लिया है। माँ भी वास्तव में नाराज ही है। कुछ तो उसके न आने से, और कुछ उसकी आदत हो जाने से। उनको भी कुलदीप में अपना बेटा ही नजर आता है या यूँ कहें कि कुलदीप उन सब की आदत सी बन गया है।
सनी चाय के साथ गर्म-गर्म पकौड़े भी ले आई है। कुलदीप ने ठिठोली करते हुये कहा- "आइये साली साहिबा, बैठिये हमारे पास, वाह पकोडे़....।"
"क्या बात है जीजू, बड़े हैन्डसम लग रहो आप.? एक बार ब्याह हो जाने दो मेरी दीदी से, फिर नही मिलने वाले ये पकौड़े।"
"अच्छा, फिर क्या मिलेगा?"
"फिर तो आपको खुद ही बनाने पड़ेगें"
माँ ने डपट कर सनी को चुप करवा दिया और सभी हँस पड़े। ये हँसी ठिठोली, खुशनुमा माहोल बस तभी तक होता जब तक कुलदीप वहाँ रहता। क्यो कि वो नही चाहती है कि कुलदीप, और चिन्तित हो।
सनी, शगुन की तीन छोटी बहनों में सबसे बड़ी और सबसे समझदार है, वाकि वानी और लकी जो अभी भी कच्चे दिमाग की है, बगैर ये जाने की उनकी दीदी किस तरह उनका पालन-पोषण कर रही है? उनकी ख्वाहिशों के बोझ तले कहीँ गहरे दबती जा रही है। उन्हे दूर तक इसकी परवाह भी नही। इसका एक कारण ये भी है कि शगुन ने कभी इसका अहसास ही नही होने दिया। पिता के असमय जाने के बाद सारा बोझ शगुन के कन्धों पर आ गया, और उसने भी इसे बखूवी संभाला। उसके बाद माँ का लकवा मार जाना शगुन के लिये एक बड़ी चुनौती से कम नही था। उसने इस चुनौती को हिम्मत से स्वीकारा और एक पिता की कमी कभी खलने नही दी। हाँ ये जरुर है कि उसे पिता की कमी खलती तो माँ से लिपट जाती।
एक स्टील मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी में एम डी की पर्सनस असिस्टेंट का जाब कोई बुरा नही है ये बात अलग है कि पाँच सदस्यों का बोझ अकेले उसी के कन्धों पर है। जब भी टूटी, चटकी या हारी हमेशा कुलदीप का कन्धा मिला। यही बजह है कि वह हर बार, हर जंग में जीतती रही।
कुलदीप के जाने के बाद वह माँ से लिपट गयी। आफिस से लौट कर वह रोज यही करती है, जब तक माँ उसके बालों को सहला न दें वह यूँ ही पड़ी रहती है निडाल सी।
बटुये से पैसे निकाल कर सनी को दिये हैं- "ले सनी, कल फीस जमा करने की लास्ट डेट है।" सनी भाव विहल सी खड़ी है उसने डबडबाई आँखों को पोछ कर कहा है-"दीदी आप कितना करोगी? अब मुझे शर्म आती है खुद पर, मेरी भी नौकरी लगवा दो न। घर में चार पैसे आयेंगे, आपका भी हाथ बटेगा।"
"आज के बाद मत बोलना ऐसा। पहले तुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी है। फिर एक बड़ी सी जाव, उसके बाद...." कहते-कहते रुक गयी वह। "बस-बस रहने दो दीदी..मुझे शादी नही करनी है।आप वानी और लकी की सोचो।"
"लो शैतान का नाम लिया और हाजिर... आ लकी तू भी चाय लेले" शगुन ने प्यार से कहा है। मगर लकी के तेबर ही कुछ अलग हैं। उसने शगुन की बात को अनसुना कर दिया है -"दीदी मेरी ड्रेस का क्या हुआ.?"
"लाई हूँ देख कैसी है?"
"ये..? ये कोई ड्रेस है दीदी? आप जरुर मेरी मजाक बनवाओगी।" शगुन ने अपने पैरो तले जमीन को हिलता हुआ महसूस किया। उसे तो लगा था कि आते ही लकी उसके गले लग जायेगी और खुशी से झूम उठेगी। मगर ऐसा हुआ नही । "ये ड्रेस मेरी हैसियत से बाहर है लकी" शगुन ने बुझे हुये मन से कहा है।
"जानती हूँ, फिर क्यों नही करने देतीं मुझे नौकरी? दर असल आपको खुद ही महान बनने का शौक है।"
माँ की गुस्से से गुर्राती आवाज से वह अन्दर तो जरुर चली गयी है, मगर एक गहरी टीस है जो वह छोड़ गयी। शगुन ने उस टीस को अपनी मुस्कराहट से पोछना चाहा। बेशक, सनी और माँ उसके साथ हैं, लेकिन परिवार का एक भी सदस्य अगर नाखुश है तो खुशियों के चार चाँद नही लगते।
'मैं तुम्हारी पिता नही बन सकी। तुम्हारे सपनों को पूरा करने की सामर्थ्य नही है मुझमें। लकी मुझे माफ कर दे।"
शगुन जीवन के इस ज्वार भाटे को सहजता से लेने का प्रयास कर रही है।
वानी अभी तक घर नही लौटी है। सात बज गया है। डोर बैल घनघना उठी है। वानी ही है। "आज इतना लेट? कोचिंग तो पाँच बजे ही छूट जाती है। "कहाँ थी वानी तू?" माँ ने डपटते हुये कहा है। भले ही माँ ने नाराजगी जताई हो मगर वानी पर उसका कितना असर हुआ ये कहना मुश्किल होगा। उसकी आँखों से कटु भाव बहने के लिये रास्ता खोज रहे हैं। शगुन की ओर मुखातिब हुई और सारी की सारी कड़वाहट उड़ेल दी है -"माँ, क्या सारे प्रश्न मेरे लिये ही हैं? मेरे जीवन की रस्सी को क्यों पकड़ रखा है आपलोगों ने? नियमों का पूरा पोटला मेरे सिर पर ही क्यों फूटता है?" नफरत के नवीन अंकुर बड़ी बेवाकी से फूट रहे हैं और शगुन हतप्रभ है। लकी के बाद अब ये वानी? क्या आज काला दिवस है? या किसी गुनाह की सुनवाई की तिथी? उसने माँ की तरफ देखा है और फिर वानी को। उसके समझ का पौधा मुरझाने लगा है।
वानी के शब्द बहुत नुकीले है जो उसके अन्तस को भेद रहे हैं। वो बिफर पड़ी है-"दीदी की महानता का सबूत है मेरे पास। मैं जानती हूँ और आज अपनी आँखों से देख भी लिया है। आफिस के बाद का समय कहाँ व्यतीत होता है? वह कहाँ जाती हैं? जानती हूँ मैं। आज मेरे कालेज के फ्रैन्डस के सामने ही धज्जियां उड़ गयी मेरे सम्मान की। हाथों में हाथ, और इतना बेपरवाह बैठी थीं कि उन्हे होश भी नही था, कोई उन्हे देख रहा है। कुलदीप अभी जीजू नही हैं हमारे, फिर उनके साथ घूमना-फिरना, काफी पीना ये सब क्या है माँ? क्या जवाब दूँ अपने दोस्तों को? कैसे समझाऊँ? मेरी दीदी तो झाँसी की रानी हैं? बड़ी महान है? त्याग की मूर्ति हैं? पूरा घर सभांलती हैं? बोलो माँ? मैं झूठ बोल रही हूँ क्या? कितना हँसे हैं सब मेरे ऊपर? और मैं चुपचाप सब सहती रही। मुठठी भर तसल्ली भी नही है मेरे पास? पिता जी नही हैं, अगर होते तो?"
"चुप रह वानी, मत सता उसे, तुम लोगों के लिये ही तो दिन भर खपती है वो और अपने पिता का नाम मत ले अपनी जुवान से, वो आज होते तो तेरे इस व्यवहार के शर्म से मर गये होते"
माँ तीव्र वेदना से जल उठी है। आज उसे अपनी अपाहिजता पर कोफ्त हो रही है। शगुन के लिये वह तड़प उठी है।
शगुन आज जी भर के रोई। रोती रही और माँ उसे ठाँठस देती रही। सनी भी वही रही उसी के साथ। सोचती रही जीत और हार, पाप और पुण्य, नैतिक-अनैतिक कुछ भी स्थाई नही होते हैं। फिर भी मन डूब रहा है। अतृप्ती घेर कर खड़ी हो गयी है। कौन सा कुविचार है जिसने सिर न उठाया हो? ये कैसा आवेग है जिसने मेरे चरित्र को मलिन कर दिया। क्या वाकई इसे टूटना कहते हैं? पहाड़ सी बेचैनी और खुद को सही साबित करने की जद्दोजहद के परिणाम क्या होगें? नही..मैं खुद को टूटने नही दूँगी। अभी तो जीवन है। जीवन में प्रेम है और प्रेम में सन्तुष्टी है। कुलदीप का इन्तजार व्यर्थ नही होगा। शगुन, सनी और माँ तीनों अपने-अपने तरीके से सोने का सिर्फ उपक्रम ही कर रहे थे।
उस बात को आज महीना हो गया। सनी और वानी के लिये दो अलग-अलग जगह से रिश्ते आये हैं। शर्त बस यही है कि ब्याह एक साथ ही होगा। कारण भी स्पष्ट है कि कम खर्चे में दो बहने निबट जायें फिर लकी रह जायेगी। शगुन ने लोन के लिये अर्जी भी दे दी है। इधर रिश्ता होगा उधर लोन का पैसा हाथ में आ जायेगा। सब कुछ व्यवस्थित सा है।
रिश्ता हो गया। उस रिश्ते में चाहत भी है और नही भी है। सबसे बड़ी बात सनी और वानी को मंजूर है। उनके जीवन नक्शे में एक सुखमयी संसार निहित जो है। जिसकी रोमान्चित कल्पना से वह अविभूत हो उठी हैं। भावी कैनवास पर रंगबिरंगे चित्र उभरने लगे हैं। उनके अन्तरंग परिदृश्य इतने सशक्त है कि वर्तमान संवेदना धूमिल होने लगी है। जहाँ से शगुन की परछाई मात्र दिखाई देती है। मानविय संवेदनाओ का भ्रम जो दिशाओं की परिक्रमा कर लौट आया।
अब सनी आलीशान बड़े से बगलें की मालकिन है, दिल्ली से दूर रीवा में, और वानी एक साफ्टवेयर इन्जीनियर की पत्नी। दोनों ही अपने-अपने हिसाब से सुखी और खुश हैं। इतनी खुश कि लोन की किश्ते चुकाती शगुन का ढलता बदन भी नही दिखाई दिया। सनी चिन्तित जरुर हुई मगर हर बार सीमाओं के लिबास में। वानी का तृप्त परिवेश इतना विशाल है जहाँ से कुछ भी दिखाई नही देता है। सब अपने ही ईर्द-गिर्द घूम कर वापस लौट आता है।
चार बरस हो गये, सनी और वानी के ब्याह को। इन चार बरसों में चार बार ही आई हैं दोनों बहने। सुविधाओं के बगैर जीना मुहाल सा हो जाता है उनका, चाह कर भी शगुन का आग्रह संकोच में बदल जाता। शगुन खाली वक्त में चिड़ियों को दान डालती चि ..चि ..चू ..चू. करती चिडियों में अक्सर उसे सनी और वानी की आवाज सुनाई पड़ती तो कभी उनके चेहरे उभर आते।
आज शगुन का पैतिसवाँ जन्म दिवस है। सुबह ही सबसे पहले सनी और फिर वानी ने फोन पर बधाई दे दी हैं। माँ ने भी चुपके-चुपके एक सूठ सिया है लाल रंग का। लाल रंग उसे बहुत पसंद जो है। आज वह यही सूठ पहनेगी, माँ के आग्रह पर। वरना तो अब श्रंगार बनाव सब बेमानी सा है। लाल सूठ पर लाल बिन्दी कितनी फबती है उस पर। ऐसा कुलदीप ही कहा करता है। कुलदीप.....ओह कुलदीप तुम कैसे हो? तुम्हारा तबादला न हुआ होता तो, तो कितना अच्छा होता। मगर नही -नही मैं स्वार्थ की जमी पर पैर नही रख सकती। तुम खुश हो बस यही मेरे लिये महत्वपूर्ण है। काश ....तुम मेरे साथ होते...।
शगुन, लकी के कमरे की तरफ बड़ी है। सुबह का दस बज चुका है। अभी तक वह कमरे से बाहर नही आई है। क्या बात है? बेशक वह देर से उठती है। मगर इतना भी नही कि दस बज जायें। लकी को ढूँढना इतना मुश्किल तो नही है मगर वह मिलेगी तो तब , जब वह होगी। उसकी स्टडी टेबुल पर पेपर वेट से दबा हुआ एक कागज दिखाई दिया है। शगुन का दिल धड़क उठा है उसने काँपते हाथों को आगे बढ़ाया है ।
"दीदी, मैं जा रही हूँ। हमेशा के लिये। आखिर मेरे भी कुछ सपनें हैं। जिन्हे मैं खुद ही पूरा कर लूँगी। आप पहले ही कर्ज में दबी हो। कैसे कर पाओगी मेरा ब्याह? अब मैं अपना बोझ आप पर नही डालना चाहती। माँ को समझा देना। मुझे भूल जाना। माफ कर देना मुझे....आपकी लकी।"
फफक पड़ी शगुन, घर के पिछबाड़े से झीँगुरों की आवाजों को वह दिन के उजालें मे सुन रही है। गरदन के ठीक बीचोबीच में दिल आ बैठा है और वहाँ से धड़क रहा है। छाती का वास्तविक हिस्सा एकदम खाली है। पाँव हवा के भार से ऊपर को उठने लगे हैं। अब दो गरम बूँदें गालों पर लुढकी हैं। बावजूद इसके आँखें ठहरी हुई हैं।
माँ ये सदमा न बर्दाश्त कर सकी और चल बसी। बबगैर ये जाने, सोचे कि शगुन भी साँस ले रही है, उसके कसैले अनुभव का पलड़ा भारी हो गया और बाजी मार ले गया। सनी और वानी आई, कुछ दिन रहीं, और चली गयीं। वो रहती भी कैसे? अब न तो माँ रही, न ही सुविधाएं। और रहती भी कितना? अपना घर जो है उनका। पति और बच्चे भी।
अब दीवारों के साथ अकेली है शगुन। बिल्कुल अकेली। कई बार बर्तनों से, दीवारों से और कपड़ो से बात की है उसने, लम्बी बातचीत, और कई बार खुद से, हर बार एक विचित्र सवाल, जिसका जवाब किसके पास होगा? ये पथरीला समाज, पत्थर की जड़े नही होतीं। फिर भी कितना कुछ उगता है इसमें? इतना कि कभी नागफनी के काँटों जैसा कभी रेशम के कीड़ो सा नरम। आदतन शगुन ने कटु अनुभवों को मुस्कुराहट में घोल दिया है। माँ को गुजरे हुये पूरे दस दिन हो चुके हैं। रसोई से लेकर माँ के कमरे तक सब एकदम शान्त है। आवाज तभी होगी जब उसके हाथ से चम्मच या गिलास गिर जाये, या फिर वह खुद से चीखे चिल्लाये। वरना तो साँसों की बेहया अवाज है जो सन्नाटे में सुनाई पड़ जाती है। हाँ उसे ठेलना नही पड़ता और न ही चलने का आग्रह ही करना पड़ता है।
लकी माँ को आखरी बार देखने भी नही आई। कहाँ होगी वह? कैसी होगी? फोन तो कर सकती है। क्या उसे खबर ही न लगी होगी? या फिर डरती है? लकी के ख्याल से शगुन विचलित हो गई है। चरमराती जिन्दगी के उसूल ढ़हने लगे हैं। बंद आँखों मे उसकी तस्वीर गले में बाहें डाले है। 'वापस आ जाओ लकी, एक बार तुम्हे देख लूँ। इस सन्नाटे से तुम्हारी कडवाहट भली है। मेरा स्वार्थ तुम्हे खींच रहा है। क्या तुम आओगी लकी?
कुलदीप को भी कनाडा गये हुये एक बरस हो गया। वह शगुन को लकी और माँ के साथ छोड़ कर गया है। जब वह आयेगा तो दोनों को नही पायेगा। क्या कुलदीप वापस आयेगा? इतना आसान है लौटना? नही वह नही आयेगा। एक बार फिर से तड़प उठी वह।
छुट्टी खत्म हो गयी है। आज उसे आफिस जाना है। बिस्तर पर औधीँ पड़ी हुई शगुन उठने का प्रयास कर रही है।
नहा कर तौलिया निचोड़ा है तौलिया के साथ जैसे मन, आत्मा और हिम्मत सब के सब निचुड़ गये हैं। कैसी रिक्तता है ये? कैसी घबराहट? सहसा बादल गरज पड़े हैं। काले बादलों ने घुप्प अंधेरा बिखेर दिया है। बारिश आने वाली है शायद? दो -चार मोटी बूँदों ने पैगाम भेज दिया है। बुझा मन भीगने से कतराने लगा है। शगुन ने कदमों की गति को बाँधना चाहा है।
डोरवैल बजी है। किसकी होगी? एक बार डोरवैल फिर बजी है। आश्वस्त हो गयी वह, ये उसी के घर की है। कौन होगा? मित्र, परिचित, पड़ोसी, रिश्तेदार सब तो अपनी उपस्तिथि करा चुके हैं, और आश्वासन देकर गयें हैं, जरुरत पड़ने पर जरुर आयेंगे। अभी तो मुझे जरुरत पड़ी नही है किसी के आगे हाथ भी नही फैलाया है फिर......फिर कौन होगा? वह भी सुबह सुबह?
शगुन ने लपक के दरवाजा खोला है, और खड़ी रह गयी है। बूँदों ने घनघोर बारिश का रुप ले लिया है। उसी बारिश में भीगा चिर- परिचित चेहरा खड़ा है। "कुलदीप तुम?" शगुन की आवाज की कपँकपाहट को उसने भाँप लिया है और विना कुछ कहे अपनी बाहेँ फैला दी हैं। शगुन उसमें समा गयी है। साँसों ने शब्दों का रूप ले लिया है और बरसों बाद मौन वार्तालाप अपनी सीमाओं से बाहर निकल कर बह रहा है।
छाया अग्रवाल
8899793319














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