सुंदरी आदित्य अभिनव द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सुंदरी

सुंदरी

अबुल हसन यों तो था पाँचवक्ती नमाजी लेकिन उसका उठना-बैठना हिंदुओं के साथ था। उसके रग-रग में भारतीय सभ्यता और संस्कृति रची-बसी थी। उसे अपनी सभ्यता-संकृति से बड़ा प्यार था। उसकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति के चार आधार ‘ गंगा , गीता, गायत्री और गौ ’ किसी धर्म विशेष यानी केवल हिंदू धर्म ,जिसे वह सनातन धर्म ही कहना पसंद करता है , के लिए ही नहीं वरन् प्रत्येक हिंदू अर्थात् भारतीय के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वह यहाँ रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हिंदू समझता है क्योंकि उसके अनुसार हिंदू-हिंदुत्व कोई धर्म नहीं वरन् एक जीवन-पद्धति ,एक व्यापक विचार-धारा है जो मानवता से भी आगे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘अहिंसा परमो धर्म:’ की अवधारणा से अनुप्राणित है।
बचपन में ही माँ की ममता से वंचित हो जाने वाले अबुल हसन के पिता मक़बूल हसन दर्जी का काम करते थे। वह पढ़ाई में बचपन से ही होशियार था। पड़ोस के हाई स्कूल से मैट्रिक फर्स्ट डिविजन से पास किया था। संस्कृत उसका प्रिय विषय था। संस्कृत में वह पूरे जिले में अव्वल आया था लेकिन आगे पढ़ने की इच्छा आर्थिक तंगी के कारण परवान न चढ़ सकी। बड़ा भाई माजिद हसन कलकत्ता के किसी चटकल फैक्ट्री में काम करता था। जब भारत का विभाजन हुआ और पटसन उत्पादन का अधिकांश क्षेत्र बंगला देश में चला गया तो कलकत्ता की चटकल मिलें धीरें-धीरें बंद होने लगी तो वह गाँव आ गया। थोड़ी-बहुत खेती का काम करता बाकी समय गाँव के आवारा युवकों के सथ ताश खेलना और शाम को गाजा –चिलम का दम लगाना ही अब उसका काम रह गया था।
पिता के इंतकाल हो जाने के बाद अपने चार बेटियों और दो बेटों के लंबे-चौड़े परिवार के पालन-पोषण के लिए उसने गाय खरीदने का मन बनाया क्योंकि खेती-किसानी से बढ़ता परिवार पालना मुश्किल हो रहा था। बड़े भाई से कोई आशा न थी क्योंकि वह मस्त-मलंगा बना घूमता रहता था। उसे परिवार से कुछ लेना-देना नहीं था।उसके खुद के परिवार में मात्र एक बेटी थी फातिमा ,जिसे उसकी बीवी बीस साल पहले ही छोड़कर भाग गई थी। अबुल हसन फातिमा को अपने बेटी से भी ज्यादा प्यार करता था क्योंकि वह उस घर की पहली संतान थी।
“पा लागी पंडीजी ! ” अबुल ने गाँव के पोस्ट मास्टर नागेद्र पाठक को आते देख दूर से ही कहा।
“खुश रह – खुश रह--- ” पाठकजी ने हाथ से आशीर्वाद की मुद्रा बनाते हुए कहा।
“अबुल ! तुम्हारे पिताजी ने डाकघर में बचत खाता खोला था। उसमें हर माह कुछ रुपये डाला करते थे। पासबुक लेकर आना मृत्यु प्रमाण-पत्र के साथ। नोमिनी ने तुम्हारा ही नाम है।”
“ठीक है, पंडीजी ! पैसे की बड़ी दरकार थी । एक गैया खरीदने को सोच रहा था ” अबुल ने सुकून भरे स्वर में कहा।
कपिला गाय जिसका नाम अबुल ने सुंदरी रखा है, के आने बाद उसके दुआर की रौनक ही कुछ अलग हो गई है।गाय के लिए सीमेंट का नाद तो बछड़े के लिए लोहे की और उनके आराम करने के लिए एक एसबेस्टस का ओसारा भी। उसके गले की घण्टी की आवाज वह दूर से ही पहचान लेता है। ओसारा में बैठकर जब सुंदरी पागुर करती है तो उसे वह बड़े प्यार से निहारता है। ऐसा लगता है कि सुंदरी गाय नहीं उसकी माँ है जो गाय के रूप में उसके पास आई है।
सुबह चार किलो और शाम को चार किलो दूध निकलता है चारों थनों से । अबुल का कहना है कि सुंदरी के लिए दोनों बेटे यानी वह और बछड़ा ,जिसका नाम उसने कृष्णा रखा है, बराबर है। इसलिए दो थनों का दूध कृष्णा का और दो थनों का मेरा। दूध निकालने का काम भी वही करता है। दूध निकालने के बाद दूध की बाल्टी जमीन पर रखने से पहले अपने माथे लगाता है मानों सुंदरी ने उसे प्रसाद दिया है जिसे वह स्वीकार कर रहा हो। सुबह का दूध घर के लिए काम आता और शाम का दूध मोहल्ले के उन बच्चों के लिए जिनकी माएँ प्रसवकाल में ही चल बसी थीं।
एक दिन खेत में पानी देते समय, समय भान ही नहीं रहा। आया तो देखता है कि दूध पत्नी ने निकाल लिया है। दूध मात्रा में ज्यादा दिख रहा था।
“रफीक की अम्मी ! दूध निकालने में दिक्कत तो नहीं हुई।”
“नहीं , इतनी सीधी गाय है कि कोई बच्चा भी दूध निकाल ले।‘’
“लेकिन दूध ज्यादा लग रहा है।‘’ ‘
“मैंने थोड़ा पानी मिला दिया।‘’
“यह तुमने क्या किया ? क्या कोई अपने माँ के प्रसाद में पानी मिलाता है ? ‘’ स्वर में क्रोध मिश्रित पीड़ा का भाव था। पाँच मिनट तक बाल्टी में रखे दूध को वह देखता रहा। फिर बाल्टी का सारा दूध धीरे से पागुर कर रहे कृष्णा के सामने रखे लोहे के नाद में डाल दिया।
उसने भतीजी फातिमा और अपनी दो बेटियों समीना और अमीना के हाथ पीले कर दिए थे। बड़े बेटे रफीक ने पड़ोस के गाँव में खुले प्राईवेट कॉलेज में आइ. एस. सी. में दाखिला लिया है। पढ़ने में वह होशियार है। विज्ञान में उसकी विशेष रुचि है। छोटा हकीक गाँव के प्राथमिक पाठशाला में तीसरी जमात में है।
दूसरी बेटी अमीना के देवर के निकाह का न्योता आया है। 24 अप्रैल को निकाह है । अमीना का निकाह गाँव से चालीस किलो मीटर दूर एक कस्बे में हुआ है। उसके ससुर का अपना मोटर गैरेज है जिसको अमीना का पति संभालता है। अबुल ने 24 अप्रैल के सुबह दूध निकाला। दूध को स्टील के डिब्बे में भरने के बाद कपड़े में लपेट कर झोले में रख लिया। खाना खाकर 1 बजे निकला लेकिन अमीना के यहाँ पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। अमीना ने उसे अपने कमरे में बुलवाया तो कुशल-क्षेम के बाद उसने झोले में रखे सब सामान दिखाना शुरु किया । फिर दूध का डिब्बा बड़े प्यार से निकाल कर देते हुए कहा “ ये लो बेटी ! यह है सुन्दरी मइया की तरफ से ।‘’ अमीना ने डिब्बे को हाथ में ले अपने सीने से सटा लिया। निकाह के अगले दिन वह अपने घर आ गया।
“ अबुल भाई! अपनी सुंदरी को जरा बचा के रखना। हो सके तो अपने ओसारे में फाटक लगवा लो। कल रात रघुवीर यादव की भैस चोर चुरा ले गए। ज़माना बड़ा खराब आ गया है।‘’ सुदामा साहू ने अपनी लम्बी गरदन हिलाते हुए कहा।
“ ठीक ही कह रहे हो सुदामा भाई ! पंद्रह दिन पहले ही सुधाकर तेवारी की गैया भी चोरी हो गई थी। क्या करोगे भाई , जमाना ही चोर-उच्चकों का आ गया है। उन्ही की बढ़ंती है।‘’ ठंढ़ी साँस भरते हुए अबुल ने कहा।
आज रात अबुल को नींद नहीं आ रही है। बार-बार वह बिछावन से उठकर ओसारा में जाता और सुंदरी के पीठ पर हाथ फेरता । उसके माथे को सहलाता , फिर बिछावन पर आ आँखें बंद कर सोने का प्रयास करता।
सुबह उठते ही पत्नी ने कहा “ यह तुम्हे हो क्या गया है? न सोते हो न सोने देते हो। इतनी प्यारी है तुम्हे गैया तो वहीं क्यों नहीं सोते।‘’
“ ठीक ही कह रही हो, रफीक की अम्मी ! आज से मेरा बिछावन ओसारे में ही होगा।‘’ अबुल के स्वर में इत्मीनान झलक रहा था।
सुंदरी को आए दो साल पूरे होने को हैं। तीन बार का प्रयास असफल होने के बाद चौथे प्रयास में वह गर्भवती हुई है। छठा महीना चल रहा है । सुंदरी का बढ़ा पेट स्पष्ट दिखने लगा है।
“अबुल! अब कृष्णा को क्यों नहीं बेच देते। आज के समय में बछड़े को पालने का क्या फायदा? अब न तो बैल वाली खेती रही ना बैलगाड़ी। फिर इसको नाहक ही गले का ढोल बनाये हुए हो।‘’ बड़े भाई माज़िद ने उसका मन टटोलते हुए कहा।
“क्या बात करते हो भैया ! क्या कोई अपने भाई को बेचता है? अरे कृष्णा अपना भाई है भाई।‘’
“हुह—भाई--- !’’ कहते हुए माज़िद अपने तेज कदमों से चिलम के अड्डे की तरफ निकल पड़ा।
फातिमा के ससुर को कल रात हार्ट अटैक आया थ। डॉक्टर के पास ले जाए इसके पहले ही प्राण निकल गए। बहुत ही बुरी खबर थी। अबुल ने रुपये-पैसे का इंतजाम कर जाने का निर्णय लिया क्योंकि मस्त-मलंगा माज़िद को तो गांजा-चिलम की दुनिया से फुरसत ही नहीं। जाते वक्त बड़े बेटे रफीक से कहा “सुंदरी का ध्यान रखना। दाना-पानी समय से देना । मैं तीसरे दिन आ ही जाऊगा। ‘’
“ठीक है अब्बा ! आप काहे चिंता करते हैं ? आप जाइए।‘’
तीसरे दिन अबुल को घर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। आते ही सुंदरी के पास गया। सुंदरी के आँखों से आँसू बह रहे थे। वह उसके गले से लिपट गया। बेचैनी की हालत में उसके आँसू पोछने लगा। उसका ध्यान लोहे की नाद की तरफ गया जो खाली पड़ा था।
“रफीक-- रफीक ---! कहाँ हो तुम यहाँ आओ। जल्दी— --- जल्दी -- –।‘’ स्वर में व्याकुलता थी।
“ बताओ—बताओ – बेटा ! कृष्णा---- कृष्णा -- मेरा कृष्णा – कहाँ -- -कहाँ है -------- ।‘’ पागलों की तरह ऊँची-ऊँची आवाज में वह रफीक को झकझोर- झकझोर कर पूछने लगा।
रफीक ने सहमते हुए कहा “ अब्बा -- अब्बा ! बड़े अब्बा कल दो आदमी को लाए थे। वही लोग कृष्णा को ले गए।‘’
“ क्या ? ‘’ अबुल के सामने अंधेरा-सा छाने लगा। वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया।
एकाएक उठा और उस तरफ तेज कदमों से चलने लगा जिधर माज़िद का गांजा-चिलम का अड्डा है। अभी थोड़ी दूर ही गया था कि माज़िद उधर से लाल-लाल आँखें किए हुए चिलम के नशे में आता दिखाई दिया।
“भैया! कृष्णा को कहाँ बेचा ? किसे बेचा?—किसे बेचा ? --- बताओ--- बताओ ।‘’ वह माज़िद के दोनों बाँहों को पकड़ कर जोर-जोर से हिलाने लगा।
“क्या—क्या बकवास कर रहे हो-- कृष्णा – कृष्णा --। उसे जहाँ होना चाहिए वहाँ भेज दिया मैंने। अच्छा रोकड़ा मिला है -- -- ओ भी नकद --- चलो छोड़ो ऐ सब बातें।‘’ कहते हुए लड़खड़ाते कदमों से वह घर की ओर बढ़ गया।
अबुल उसके पीछे-पीछे चिंता और दु:ख से निमग्न बोझिल कदमों से चल रहा था।
दरवाजे पर रखी बेंच पर धम्म से बैठते ही माज़िद ने आवाज लगाई “ रफीक ! एक लोटा पानी लाना।‘’
“भैया! आखिर कृष्णा ने क्या बिगाड़ा था आपका जो आपने उसे बेच दिया -- वह भी हम लोगों की तरह ही —अपनी माँ का लाडला है।‘’ उसके स्वर में मनुहार था।
“हुह—‘’ कहकर माज़िद ने अपना मुँह दूसरी ओर फेर लिया।
“देखो—देखो भैया ! सुंदरी की आँखों से बह रहे आँसूओं को देखो भैया --- वह रो रही है --- -- भैया -- वह अपने बेटे के लिए रो रही है ----- रो रही है वह--- --- ।‘’ कहने के साथ ही वह माज़िद के पैरों के पास बैठ गया।
“बता दो भैया ! बता दो तुम्हे खुदा की कसम – बता दो --- मैं उन्हें रुपये वापस कर अपने कृष्णा को लाऊँगा --- वापस लाऊँगा -- अपनी गैया के आँखों में आँसू नहीं देख सकता-- भैया –भैया –।‘’ कहते हुए वह माज़िद के पैरों पर लोट गया।
पानी पीने के बाद माज़िद को थोड़ा चेत हुआ। अबुल को उठाते हुए बोला “अब कुछ नहीं होगा भाई ! अफज़ल भाई के आदमी कल ही लेकर चले गए कृष्णा को। आज ट्रक में लोड कर लखनऊ भेज देगा।‘’
अरे वही, इब्राहिमपुर वाला अफज़ल कुरैशी न ? ‘’ अबुल ने छटपटाहट भरे स्वर में कहा।
“हाँ— हाँ वही कुरैशी।‘’
“चलो भैया ! अभी चलो। इसी समय हम छुड़ा लायेंगे अपने कृष्णा को। उस कसाई कुरैशी से । चलो भैया --- चलो –।‘’
“चलो चलते है ---। ‘’ माज़िद ने अनमने स्वर में कहा।
“देखो हम दोनो भाई जा रहे हैं अपने कृष्णा को लाने। मत रोओ --- मत रोओ -- - हम लायेंगे अपने कृष्णा को लायेंगे।‘’ वह सुंदरी के माथे को सहला-सहला कर कह रहा था मानो उसे सांत्वना दे रहा हो।
अफज़ल कुरैशी इब्राहिमपुर का सबसे बड़ा माँस व्यापारी है। पूरे कस्बे में उसका दबदबा है । पुलिस से उसकी साँठ-गाँठ है। बाज़ार मे उसकी दो दुकाने हैं । जिसमें हलाल बकरे का मीट और चिकेन बिकता है ।दोनों दुकानें खूब चलती हैं । यह तो दिन का और बाहरी व्यापार है । असली कारोबार तो उसका रात में होता है ,पशु तश्करी का। अच्छी-खासी मोटी कमाई हो जाती है पुलिस को खिलाने-पिलाने के बाद भी। रात को नौ बजने वाले थे। कुरैशी अपने गद्दी पर बैठा रुपये गिन रहा था।
मोटर साईकिल से उतरते ही अबुल ने अफज़ल के पैरों को पकड़ लिया। “ अफज़ल भाई ! ये लो अपने सात हजार और मेरा कृष्णा मुझे वापस कर दो। ‘’
“कौन कृष्णा ?‘’ अफज़ल ने नजर उठाते हुए कहा।
“ वही बछड़ा जो आपके आदमी रघुनाथपुर से खरीद कर लाए है।‘’ माज़िद ने कुरैशी की ओर देखते हुए कहा।
“ अच्छा तो वह बछड़ा ही कृष्णा है।‘’ अफज़ल ने निर्विकार भाव से कहा।
“ हाँ---हाँ-- वही है हमारा कृष्णा – अफज़ल भाई।‘’ विनती का भाव अबुल के स्वर में साफ झलक रहा था।
“लेकिन वह ट्रक तो लखनऊ के लिए रवाना होने ही वाला है। ठीक नौ बजे ट्रक खुल जायेगा मेरे दूसरे दुकान से।‘’
“ अफज़ल भाई ! खुदा के लिए ऐसा मत कहो – कुछ रहम करो – रहम करो ।‘’ अबुल गिड़गिड़ाने लगा।
“ठीक है जल्दी जाओ यदि ट्रक नहीं गया होगा तो तुम्हारा कृष्णा तुम्हे मिल जायेगा।‘’
मोटर साईकिल को तेज गति देते हुए अबुल ने अल्लाह को याद किया। तब तक अफज़ल कुरैशी का फोन ड्राइवर को आ चुका था। मोटर साईकिल दुकान पर पहुँचे-पहुँचे तब तक ढेर सारा धुँआ छोड़ता हुआ ट्रक लखनऊ के लिए रवाना हो गया।
“लखनऊ जाने वाला ट्रक कहाँ है?’’ मोटर साईकिल पर बैठे –बैठे ही अबुल ने व्यग्रता से दुकान की गद्दी पर बैठे अफज़ल के बेटे से पूछा।
“वह तो अभी-अभी खुली है ---वो देखिए – निकल गई।
अबुल मोटर साईकिल को ट्रक की दिशा में पूरी रफ्तार से बढ़ा रहा था, लेकिन ट्रक भी काफी तीव्र गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा था। ट्रक लगभग 800 मीटर की दूरी पर था। मोटर साईकिल का स्पीड इंडीकेटर ---80--- - -90 ---- - 100 ------ 110 --- को छूने लगा। ऐसा लग़ रहा था कि अबुल को ट्रक में लदा कृष्णा ही दिखाई दे रहा बाकी कुछ नहीं। एकाएक स्पीड- ब्रेकर पर मोटर साईकिल लगभग 2 फीट ऊपर उछला और दोनों सड़क पर गिरते ही बेहोश हो गए।
पीछे से आ रहे कार वाले ने दोनों को उठाया। माज़िद को पानी के छींटे मारने पर होश आ गया। उसे कंधे और घुटने में चोट लगी थी। अबुल के सिर पर गहरी चोट लगी थी। सिर के पीछे का हिस्सा उभर आया था। दो व्यक्ति लगातार पंखे से हवा दे रहे थे। पानी के छींटे बार-बार चेहरे पर मारा गया। लगभग बीस मिनट बाद धीरे-धीरे उसने आँखें खोली। आँखें खोलते ही उसने अपने दोनों हाथों को जमीन पर टिका दिया मानो कोई चौपाया जानवर हो।
अबुल के घर सब रात भर जगते रहे। माज़िद अब होशो‌-हवाश में था।लेकिन अबुल होश में होते हुए भी ऐसे कर रहा था मानो वह अबुल नहीं ,कोई चौपाया जानवर हो। पड़ोस के डॉक्टर ताहिर हुसैन ने दोनों भाइयों को दर्द-निवारक इंजेक्शन लगा दिया। अबुल की स्थिति ज्यादा खराब थी अत: उसे नींद का इंजेक्शन भी लगाना पड़ा।
अबुल की पत्नी नज़मा की नींद मा---मा--- की आवाज से एकाएक खुल गई।अरे मा---मा-- की आवाज कौन कर रहा है? वह यह समझने का प्रयास कर ही रही थी कि एक बार फिर मा--- मा—की आवाज से उसका सारा भ्रम दूर हो गया। वह अपना माथा पकड़ कर बैठ गई।
रात को चौथा पहर खत्म होने वाला था। पौ फटने को था। नींद के इंजेक्शन का असर कम होते ही अबुल बछड़े की तरह उछलने-कूदने लगा। कूदते-कूदते वह सुंदरी के पास पहुँच और उसके पैरों को चाटने लगा ठीक वैसे ही जैसे कृष्णा चाटता था। सुंदरी भी उसे प्यार से चाटने लगी।
धीरे-धीरे पूरे गाँव में यह बात फैल गई। लोग आते और अबुल का बछड़ा रूप देख दु:खमिश्रित आश्चर्य से भर उठते।
नज़मा,माज़िद ,रफीक, हकीक किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? हफ्ता गुजर गया,अबुल का कृष्णा रूप ज्यों का त्यों था। डॉक्टर ताहिर हुसैन और गाँव के मुखिया नवल किशोर राय ने मनोचिकित्सक से दिखलाने की सलाह दी। सकीना भी यह खबर सुन अपने पति आफताब के साथ आई थी। आफताब ने कहा “उसके गाँव में एक डॉक्टर है जो पागलों का इलाज करते हैं। कितने ही मनोरोगियों को ठीक किया है उन्होंने।‘’
“ठीक है, मेहमान कल ले चलते है आपके गाँव।‘’ नज़मा ने टीस को दबाते हुए कहा।
सुबह जब रफीक और आफताब ने अबुल को चलने के लिए कहा तो उसने ना में गरदन हिलाते हुए मा--- मा--- कर सुंदरी के माथे को चाटने लगा। रफीक साथ ले चलने के लिए उसे बार-बार पकड़ने की कोशिश करता लेकिन हर बार वह कृष्णा की तरह कुँलाचे भरता और सुंदरी के चारो ओर चक्कर काटने लगता।
एक हफ्ता और इसी तरह गुजर गया। गाँव के लोगो ने कहा कि इसके दोनों हाथों को पीछे करके बाँध दो और कमर में रस्सी डाल कर ले जाओ।
अजीब दृश्य बन गया जब चार नौजवानों ने मिलकर अबुल के हाथ पीछे बाँध दिए और कमर में रस्सी डाल दी। उस समय भी वह बछड़े की तरह उछल रहा था और बार-बार मा--- मा--- की आवाज लगा सुंदरी की तरफ भागने का प्रयास कर रहा था। उधर सुंदरी भी रम्भाकर अपने दु:ख और छटपटाहट व्यक्त कर रही थी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।
अबुल के चिकित्सा का आज सातवाँ दिन था। थोड़ा-सा सुधार दिख रहा था। जीभ बाहर निकाल कर खाने और बार-बार जीभ से जमीन या दीवाल चाटना कम हुआ था। छठे दिन उसे नींद भी आई थी। इलाज कर रहे डॉक्टर महेंद्र भटनागर ने आफताब से कहा “ यह डिसोसिएटिव एमनेसिआ* की बीमारी है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा। आज इसके हाथ और कमर की रस्सी खोल दो। चिकित्सीय परीक्षण कर वे दवाइयाँ लिख रहे थे। सब कुछ शांत वातावरण में चल रहा था।
सामने सड़क पर एक व्यक्ति अपनी गाय को लिए जा रहा था। उसका बछड़ा थोड़ी दूरी पर पीछे-पीछे आ रहा था। बछड़े ने मा---- मा--- की आवाज लगाई तो गाय भी मा---मा--- कर रम्भाने लगी।
देखते ही देखते अबुल एकाएक बछड़े की तरह कुँलाचे भर कूद पड़ा और अपने घर की तरफ कुँचाले भरता हुआ सरपट दौड़ा। लोग देखे- समझे तब तक वह आँखों से ओझल हो चुका था।
इधर, अबुल की चिंता में पूरा घर दु;खी-परेशान था। किसी को भी सुंदरी की चिंता न थी। अबुल के जाने बाद वह चुपचाप पड़ी रहती , न कुछ खाती ,न रम्भाती ; मानो पुत्रशोक मना रही हो। सात दिनों तक दाना-पानी न मिलने से उसका शरीर मृतप्राय हो चुका था। शरीर में कोई गति न थी। आँखों से कीचड़ निकल रहे थे और आसुओं की धार से आँखों के दोनों तरफ लकीर-सी बन गई थी। अपने सिर धरती पर रख बिल्कुल निस्पंद पड़ी हुई थी मानो मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही हो। उसके चारो तरफ मक्खियाँ भिनभिना रही थी। ऐसा लगता था कि उसके प्राण अब निकले तब निकले। लेकिन किसी की प्रतीक्षा में उसके प्राण रुके हुए थे।
अबुल के पीछे-पीछे आफताब और रफीक दौड़ने लगे । लगभग पाँच किलो मीटर की दूरी थी दोनों गाँवों के बीच। खेत- खलिहान ,सड़क, नदी-नालों को पार कर अबुल कुँलाचे भरता हुआ सुंदरी के पास पहुँच गया। रास्ते में कई जगह गिरा-पड़ा था।शरीर पर जहाँ-तहाँ चोट के निशान स्पष्ट दिख रहे थे। आते ही पहले उसने सुंदरी के पिछले पैर को चाटना शुरु किया। फिर पीठ को चाटने लगा। कोई हरकत नहीं देख वह उसके माथे को जोर-जोर से चाटने लगा। न कोई गति ना कोई प्रेम प्रदर्शन। न प्यार से वह पूँछ हिला रही है और न ही उसे चाट रही है। वह अपनी जीभ से उसकी आँखों को चाटने लगा मानो उसे सहला रहा हो। फिर चारो तरफ उछल-कूँद मचाने लगा जैसे कृष्णा करता था। उसकी आँखों में आँसू आने लगे थे। वह मा---मा--- कर सुंदरी के चारो ओर बार-बार चक्कर काटने लगा। वह व्याकुल हो कभी पैरों को , कभी थन को , कभी पीठ तो कभी माथे को चाटता। शायद उसे सुंदरी के अंतिम अवस्था का एहसास होने लगा था। वह अंत में उसके माथे को जोर-जोर से चाटने लगा। एकाएक सुंदरी ने अपना सिर उठाया और जीभ को निकाल कर अबुल के माथे को छुआ। फिर उसका सिर धम्म से धरती पर गिर पड़ा।
तब तक रफीक और आफताब भी आ चुके थे। सामने घटित दृश्य को देख दोनों पत्थर की मूर्ति की भाँति जड़वत हो गए। अबुल अपने दोनों बाहों में सुंदरी को लिये हुए था और उसका जीभ बाहर निकला हुआ था जो सुंदरी के माथे को स्पर्श कर रहा था ।
कुछ देर बाद जब उन्हें चेत हुआ तो आगे बढ़कर रफीक ने अबुल के कंधों को पकड़ उठाने का प्रयास किया लेकिन छूते ही उसका सिर एक तरफ लुढ़क गया। सुंदरी और अबुल दोनों का शरीर ठंढा पड़ चुका था।
-- आदित्य अभिनव
उर्फ़ डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव
सहायक आचार्य (हिंदी)
भवंस मेह्ता महाविद्यालय , भरवारी
कौशाम्बी (उ. प्र. )
पिन – 212201
मोबाइल 7767041429 , 7972465770
ई –मेल chummanp2@gmail.com
जन्म - 30 जून 1970
एम. ए. (हिंदी) यु . जी. सी. (नेट )
विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं मे रचनाएँ प्रकाशित ।
काव्य संग्रह “ सृजन के गीत “ 2017 में प्रकाशित।





* विघटनशील स्मृतिलोप ( Dissociative Amnesia) विघटनशील मनोविकार का एक अंग है, जिसमें व्यक्ति आमतौर पर किसी तनावपूर्ण घटना के बाद व्यक्तिगत सूचना को याद करने में असमर्थ हो जाता है। विघटन की स्थिति में व्यक्ति अपने नये अस्तित्व को मह्सूस करता है।