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ताज़िया

ताज़िया

प्रो. रामेश्वर उपाध्याय नित्य नियमानुसार वॉकिंग पर जाने के लिए अपना स्पोर्टस सू पहन रहे थे कि उनका ध्यान टेलीविजन पर चल रहे चैनल ‘सहारा समय ‘ की तरफ खिंच गया—हेड लाईन मे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा आ रहा था – “ शहर में कर्फ्यू ,दो सम्प्रदायों के बीच दंगा भड़का , एक युवक की बीच सड़क पर खीचकर तलवार द्वारा निर्मम हत्या , राजधानी से रैपिड एक्शन फोर्स बुलाई गई “
प्रो. उपाध्याय इस शहर में पैंतीस वर्षों से रह रहे हैं ; लेकिन ऐसा समाचार उन्होंने पहली बार सुना है इस शहर के संदर्भ में। देश के अन्य महानगरों,नगरों,कस्बों तथा क्षेत्रों में उन्होंने ऐसी खबर सुनी थी। विचलित हो जाते है वे ऐसी खबरों को सुनकर। भारत की महान् गौरवमयी परंपरा को पददलित करने के इस दुष्कृत्य पर वे आक्रोश से भर जाते हैं ; उनका शरीर काँपने लगता है कटे वृक्ष की भाँति।क्या यह वही आर्यावर्त है जिसने नाग, शक , हूण, कुषाण ,इस्लाम सभी संस्कृतियों को शरण दी थी ? जिसके पहलु में आकर विश्व की अनेक संस्कृतियाँ एकाकार हो गई।अब इस गौरवमयी संस्कृति को कौन घुन की तरह धीरे-धीरे खोखला कर रहा है ; जिसकी रक्षा के लिए घुटने तक धोती पहनने वाला साबरमती का संत अपनी लाठी टेंकते हुए नोआखाली गया था ; गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे निर्भीक पत्रकार ने अपना बलिदान दिया था। क्या वह संस्कृति , वह परंपरा , वह विश्व-दुर्लभ जीवनशैली खत्म हो जायेगी ?
नही ! नहीं ! ऐसा नहीं होगा। प्रोफेसर भीतर तक काँप उठे।
बिछावन पर लेटकर वे विचारमग्न हो गए।समाधान की चाहत में उनके मस्तिष्क क्षेत्र में दौड़ शुरू हो गई।उनका विचारवान अश्व इस कोने से उस कोने तक दौड़ लगा रहा था ---- प्रशासन और पुलिस हाँ, इनसे थोड़ी-सी राहत मिलती है ,लेकिन यह तो इसका समाधान नहीं है। तो फिर – -- राजनीति ---- नेता --- नेता शब्द जेहन में आते ही वे बिछावन से उठ गए।ऊँबकाई-सी आने लगी ।जो स्वयं इन फसादों का जड़ हो, वह क्या इसे सलटायेगा आशा का दीये का लौ डँवाडोल होने लगा और वे बिछवन पर निढ़ाल पड़ गए। थोड़ी देर में उन्हें झपकी आ गई ------ अरे ! ये तो बापू –सी आकृति लग रही है --- पास --- और पास --- हाँ -- हाँ ये तो बापू ही हैं। बापू की लाठी और कदमों की ध्वनि और पास आ गई। बिल्कुल-बिल्कुल पास। --- -- अरे बापू तो मेरे सिर के पास बैठ रहे हैं ---- उनका मुँह मेरे कान से जा सटा है ------“ प्रोफेसर ! यह कार्य तुम्हें ही करना होगा --- क्या तुम्हें याद नहीं दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान , अश्वेतों पर हो रहे अत्याचारों का जब मैंने विरोध किया था --- अकेला ही था मैं --- अकेला--- । तुम्हें भी अकेला ही बढ़ना होगा --- बेटा ! यह समय का आग्रह है -- भारत माँ की पुकार है --- आगे बढ़ो ---तुम्हारें हर कदम के साथ कोई-न-कोई नेहरू , सुभाष, राजेंद्र , कलाम, जयप्रकाश जुड़ता ही जायेगा --- आगे बढ़ो – आगे बढ़ो --- ।“ आगे बढ़ो --- आगे बढो की आवाज उसकी कानों में बार गुँजने लगी।
आँखें खुल चुकी थी और चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश था । अदम्य साहस और ऊर्जा से उनका शरीर रोमांचित हो उठा था ।
[2]
“प्रोफेसर साहब! आज बहुत देर कर दी आने में |” एक ही स्थान पर जोगिंग करते हुए रिटायर्ड सूबेदार मेजर बलवंत सिंह ने कहा|
“वाकई बहुत देर हो चुकी है मेजर साहब!“ प्रोफ़ेसर उपाध्याय सूबेदार मेजर बलवंत सिंह को मेजर साहब के संबोधन से ही बुलाते हैं। मेजर साहब सेना से सेवानिवृत्त हो अपने संचित जमा पूँजी से शहर में एक अनाथालय चलाते हैं। गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाले सरकारी आर्थिक सहायता, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्राप्त अनुदान एवं प्रोफेसर सदृश अन्य मित्रों के सहयोग से इस छोटे से शहर में उनकी संस्था समाज सेवा के पद पर मंथर गति से गतिशील है।
“ अरे ! साहेब, मैंने कितनी बार कहा है खुलकर कहा करें अपनी बातें।आपकी दर्शन भरी बातें इस फौजी को समझ में नहीं आती।“ मेजर ने शिकायत भरे स्वर में कहा।
“ हाँ ! हाँ ! अब खुलकर कहना और करना दोनों पड़ेगा।‘’
“ अरे भाई ! नीले कपड़े को और नील में न डुबोइए। ‘’ स्पष्ट कीजिए।
“ मेजर साहब आपने आज सुबह में टेलीविजन देखा था।‘’
“ नहीं तो । ‘’
“ तो फिर कब देखेगा जब सारा देश की सांप्रदायिकता की आग से जलकर नष्ट हो जाएगा तब।‘’
“ ये क्या कह रहे हैं प्रोफेसर साहब । ‘’
“ आज सहारा समय का मुख्य खबर है , शहर में कर्फ्यू , दो संप्रदायों के बीच दंगा भड़का, दिन-दहाड़े बीच सड़क पर मार-काट निर्मम हत्या, घर फूँक डाले गए , रैपिड एक्शन फोर्स बुलाई गई । ‘’ अब और क्या सुनना चाहते हैं मेजर साहब अंतिम शब्द के साथ प्रोफेसर के भीतर की तड़प स्पष्ट दृष्टिगत होने लगी थी।
“ प्रोफेसर यह तो बहुत बुरी खबर है | ना जाने कहाँ से सोया हुआ शैतान जाग जाता है और भाई ही भाई का गला काटने पर उतारू हो जाता है। असामाजिक तत्वों के नापाक इरादे सफल हो जाते हैं और मानवता शर्मसार हो जाती है । लेकिन इस शहर में ऐसा नहीं -- नहीं -- नहीं होने देंगे हम । ‘’ मेजर के कदम एकदम शिथिल हो गए थे।
“ मेजर रास्ते में आ रहा था तो हकीम अफजल रिजवी मिले थे। बता रहे थे कि यह घटना बक्शीपुर के मियाँ मोहल्ले में घटी। एक तरफ से बारात जा रही थी और दूसरी तरफ से मुहर्रम का झंडा उठाये नौजवानों का जत्था। ना जाने यह क्या हुआ हो हल्ला मच गया, पत्थरबाजी होने लगी और बात बढ़ती गई । कुछ सिरफिरे आवारा लौंडो ने तलवार खींच लिया बारात में से नेता बन रहे नौजवान को भरे बाजार में खस्सी तरह काट डाला ।‘’ प्रोफेसर के आवाज में कसक-पीड़ा स्पष्ट झलक रही थी ।
सामने राशन के दुकान पर बैठे सेठ फकीरचंद गुप्त कह रहे थे कि लड़की के छेड़-छाड़ पर बात आगे बढ़ी थी । आजकल के लौंडे जो न करायें वह कम है ।‘’
कुछ आगे बढे तो साइकिल पर दोनों तरफ दूध का डब्बा लटकाए सामने से रामबरन यादव आते दिखाई दिए। पास पहुचते ही प्रोफेसर ने साईकिल के हैंडिल को पकड़ते हुए कहा “ शहर में कर्फ्यू है और आप दूध बेचने निकल पड़े ।‘’ फिर उन्होंने कहा “ अरे साहब जी ! यह आपसी जर-जमीन का मामला है । नेता लोग मुफ्त में दंगा का नाम देकर अपना वोट बैंक बनाने में तुले हैं। जानते नहीं अगले साल चुनाव है।‘’
मैंने कहा “ यादव जी ! गौर करने की बात यह नहीं है कि दंगा का कारण बारात-जुलूस का टकराव, लड़की को लेकर की गई छेड़छाड़ या आपसी जमीन जायदाद का मामला है बल्कि यह है किसका परिणाम क्या हुआ , क्या हो रहा है और क्या होगा । यदि इसे अभी न रोका गया तो यह आग अपनी लपटों में धीरे-धीरे पूरे प्रांत फिर पूरे देश को ले लेगा । जलेगा कौन ? मानवता इंसानियत ----- धू-धू कर इंसानियत जलेगी और हैवानियत का नंगा नाच होगा। गाँधी के सपनों का भारत का क्या यही हश्र होगा ? ‘’ प्रोफेसर अपने ही रौ में कहे जा रहे थे।
“ हम ऐसा नहीं होने देंगे प्रोफेसर ---- ऐसा नहीं होने देंगे --- । ‘’ मेजर ने प्रोफेसर का कंधा थपथपाते हुए कहा ।
दोनों मित्र अनाथालय की तरफ चल पड़े ।
[3]
सेवानिवृत्त होने के बाद मॉर्निंग वॉक के पश्चात् प्रोफेसर उपाध्याय और मेजर बलवंत सिंह साथ साथ अनाथालय जाते थे । वहाँ अनाथ बच्चों के साथ अपना कुछ समय बिताते थे । वे दोनों भी बच्चे बनकर कुछ पल के लिए अपने उम्र से बहुत पीछे बचपन की गलियारों में चले जाते थे। वहीं बच्चों के साथ खेलना छोटी-छोटी बातों पर रूठना, लड़ना- झगड़ना और फिर मिलजुल कर हँसना।
दोनों जन विचार निमग्न आगे बढ़ते जा रहे थे कि कुछ नौजवान छोकड़ो की आवाज सुनकर उनका ध्यान टूटा । वे विजय चौक पर पहुँच चुके थे।
“ अबे मनीष ! देख क्या लिखा है, स्वामी भैरवानंद गिरफ्तार ।‘’ निमेष ने अखबार के पन्नों को पलटते हुए कहा।
“ आगे पढ़ पूरा क्या लिखा है ? ‘’ अजय ने उतावलापन दिखाते हुए कहा।
“ शहर में फैले दंगा को ध्यान में रखते हुए उमापतिपुर से आते समय स्वामी भैरवानंद को उनके साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया गया । इसके अतिरिक्त नगर विधायक रधाकृष्ण गुप्त और नगर पार्षद अभिषेक श्रीवास्तव को भी गिरफ्तार कर लिया गया है । ऐहतियाती तौर पर प्रशासन द्वारा उठाए गए कदमों के तहत इनलोगों को गिरफ्तार किया गया है।“
“ यह तो सरासर सरकार द्वारा कटुओं की मदद है।‘’ राधेश्याम ने तेज स्वर में कहा ।
“ अबे ! आगे तो सुन गिरफ्तारी के बाद पहुंचे संवाददाताओं को संबोधित करते हुए स्वामी जी ने कहा- तीन दिन बाद तीस तारीख को मुहर्रम का ताज़िया पूरे शहर में कहीं भी नहीं निकलेगा । सरकार मुझे गिरफ्तार कर सकती है लेकिन शहर की हिंदू जनता इसका प्रतिकार लेकर रहेगी । कहने की साथ ही भगवा वस्त्र लहराते हुए उन्होंने हिंदुत्व का जयघोष किया । ‘’
“ इस बार कोई भी कटुआ साला -- नहीं बचेगा समझ क्या रखा है -- , सब को जिंदा जला देंगे । बाबा गिरफ्तार हो गए तो क्या हुआ ; छोड़ेंगे नहीं किसी र-- रस्साले को । ‘’ अजय का गुर्राहट भरा स्वर था ।
“ बड़े कट्टर होते हैं साले खस्सी की तरह काट दिया -- । अब देखते हैं कहाँ –कहाँ तलवार भाँजते है भोसरीवाले -- ।‘’ निमेष दहाड़ा ।
“ भूल गए पिछला खूनी हवन--- सफाया कर दिया था सालों का --- । मनीष ने क्रूर मुस्कान के साथ कहा ।
तब तक प्रोफेसर उपाध्याय एवं मेजर बलवंत दोनों ही उनके पास पहूँच चुके थे ।
“ किसे काटने और जलाने की बात कह रहे हो भाई ।‘’ प्रोफेसर का मृदुल स्वर था ।
“ कटुओ को -- और किसको ---- पाकिस्तान समझ रक्खा है ।‘’ मनीष ने अपनी रौ में कहा ।
“ आखिर क्यों भाई ।‘’
“ आखिर क्यों कहते हैं , पढ़ा नहीं अखबार आपने कैसे खस्सी की तरह अपने हिंदू भाई को काट डाला --- --- बर्दास्त करने की भी सीमा होती है ।‘’ तमतमाया हुआ स्वर अजय का था ।
“माना उसने गुनाह किया है तो किसी गुनाहगार की सजा बेगुनाहों को क्यों भाई।‘’ मेजर का शालीनता से भरा स्वर था ।
“बेगुनाह—हेह – सब साले कटुआ एक ही होते हैं – इनको काटने – जलाने में कोई पाप नहीं । ‘’ निमेष प्रतिशोध की आग में जल रहा था ।
‘’ लेकिन उनसे हमदर्दी रखने वाले आप लोग हैं कौन ?’’ अजय झल्लाया।
“ मैं भी आपकी व उनकी तरह एक इंसान हूँ ।‘’ प्रोफेसर अत्यंत प्यार भरे स्वर में कहा ।
“क्या बाहियात बातें कर रहे हैं -- कहाँ कट्टु सा-ले , मुर्गी पालने वाले और कहाँ हम सनातनी हिंदू ।‘’ राधेकृष्ण डपटा ।
“ आखिर वे भी तो हैं इंसान ही। खतना करने से आदमी बदल थोड़े जाता है । वे भी तुम्हारी हमारी तरह ही इसी देश के मिट्टी, पानी, हवा, आसमान में रहते हैं । फिर इतनी घृणा, ईर्ष्या, जलन और शत्रुता क्यों ? क्या उन्होंने तुम्हारा धन –संपत्ति चुरा ली है ; तुम्हे मारा –पीटा है या खेत काट लिया है। कोई भी तो कारण नजर नहीं आता मुझे घृणा का। फिर ऐसी नफरत क्यों। चेतो भाई चेतो ! इन स्वार्थी ,धन लोलुप नेताओं-ठेकेदारों की बातों मे आकर अपने ही भाई के लिए जहर मत उगलो । ‘’ प्रोफेसर की वाणी गम्भीर होती जा रही थी ।
“ नहीं –नहीं हम दोनों एक नहीं हो सकते हैं उनका धर्म अलग है और हमारा अलग – फिर ये कट्टु हमारे भाई कैसे ----? ‘’ अजय का स्वर झल्लाहट से भरा था ।
“ धर्म के अंतर से इंसान में कोई अंतर नहीं होता है मेरे दोस्त ! क्या हिंदुओं के हाथ, पैर, मुँह ,नाक , कान तथा शरीर के अन्य अंग अलग होते हैं और मुसलमानों के अलग । यदि नहीं तो धर्म के नाम पर इंसानियत में बँटवारा क्यों । असली धर्म तो जोड़ता है दोस्त तोड़ता नहीं । ‘’ प्रोफेसर के स्वर में अपनत्व का भाव था ।
प्रोफेसर ने मनीष को इंगीत करते हुए कहा “ आपके घर में कितने सदस्य है ?’’
“ छ:”
“कौन-कौन’”
“दादाजी, माँ , पिताजी , मैं , मेरा भाई राजीव और मेरी बहन दीप्ति ।‘’
“ क्या सभी सदस्यों के विचारधारा एवं सोच एक हैं ।‘’
“ नहीं ‘’
“ लेकिन एक ही परिवार में रहते हैं ; एक दूसरे के दु:ख-सुख में भागी बनते हैं ।‘’
“हाँ ‘’
“ बस यही बात है बंधु ! हमारे इस भारत देश में ।यहाँ हर धर्म के लोग रहते हैं ,अलग-अलग विचारधारा के लोग रहते हैं।सबके अपने-अपने धर्म ,आचार-विचार ,खान-पान ,पहनावा-ओढ़ावा, रहन-सहन हैं फिर भी हम एक देश के वासी हैं एक परिवार की तरह ।फिर कोई हिंदू हो , मुस्लिम हो, सिक्ख हो, ईसाई हो कुछ फर्क नहीं पड़ता है।सब जब मिलते हैं तो एक राष्ट्र बनता है और वह है अपना प्यारा भारत -- -- अपनी माता ---हम सबकी माता --- भारत माता---- ।‘’ प्रोफेसर का स्वर भारी होने लगा था ।
प्रोफेसर ने जो देशप्रेम का प्रकाश फैलाया था उसके आलोक में चारों नत मस्तक हो चुके थे ।
[4 ]
अनाथालय से आने के बाद प्रोफेसर सहेब को नाश्ता करने की इच्छा नहीं हो रही थी । हृदय के भीतर तरह –तरह के विचार उठ रहे थे। आज चौबीस तारीख है । छ: दिन बाद ही मुहर्रम का त्योहार है ।साम्प्रदायिक ताकतों ने ललकारा है “ताज़िया नहीं उठेगा।‘’ पुरखों ने जिस परम्परा को निभाया था वह टूट जायेगी --- । नहीं ऐसा नहीं हो सकेगा।मुहर्रम में ताज़िया जरूर अपनी परम्परा के अनुसार निकलेगा । यदि ताज़िया नहीं निकला तो यह भारतीयता की हार होगी। साम्प्रदायिक ताकतें जीत जायेंगी------। ---नहीं – नहीं जरूर निकलेगा --- -ताज़िया --- मुहर्रम के दिन -- मुहर्रम के दिन --- । टेबुल पर थाली रखने की आवाज के साथ ही ध्यान भंग हुआ ।
“ नाश्ता कर लीजिए, देर हो रही है।‘’
“ सुलु ! रहने दो मन नहीं कर रहा है।‘’ उन्होने दर्द भरे स्वर में कहा।वे अपनी पत्नी सुलोचना को सुलु कहते हैं।
“आपकी सेहत वैसे ही दिन-प्रति-दिन गिरती जा रहा है।नाश्ता नहीं करेंगे तो कैसे चलेगा। चलिए, एक ग्लास दूध ही पी लीजिए।‘’
“नहीं रहने दो । मैं जरा बरकतुल्ला भाईजान से मिलकर आ रहा हूँ।‘’
“क्या बात कर रहे है आप , शहर में कर्फ्यू है और आप जा रहे है बरकतुल्ला भाई साहेब से मिलने , वो भी बड़ी मस्जिद के पास।‘’
“ठीक है , कर्फ्यू है तो क्या भाई भाई से नहीं मिल सकता है।‘’ कहते हुए वे घर से निकल गए।
अली बरकतुल्ला हसन अलवी एक त्रैमासिक पत्रिका “आखर’’ के सम्पादक थे। भारतीयता की प्रबल सम्वाहिका है उनकी पत्रिका । इस पत्रिका के प्रमुख स्तम्भकार है प्रो. रामेश्वर उपाध्याय। शहर के सभी बुद्धिजीवियों की चहेती पत्रिका है यह।अलवी का मकान ही पत्रिका का कार्यालय है।
रास्ते में हर चौक पर पुलिस का पहरा है। प्रोफेसर तेज कदमों से मस्जिद की तरफ बढ़ रहे थे। सभी घरों के दरवाजों पर सन्नाटा पसरा हुआ था। चूँकि प्रोफेसर अकेले जा रहे थे और उम्र के चौथे पड़ाव पर थे इसलिए पुलिस ने पूछताछ नहीं किया। लगभग तीस मिनट के बाद वे अलवी साहेब के दरवाजे पर खड़े थे। उसके थोड़ी दूरी पर ताज़िया दिखाई पड़ रहा था जो मस्जिद के सामने चबूतरे पर रखा हुआ था। ताज़िया को देखते ही वे अपने बचपन की यादों में खो गए। उनके छोटे-से गाँव भटगाई का चाँद अहमद गदका भाँज रहा है ,वकील मियाँ लाठी का करतब दिखा रहा है और बउध चाचा फरसा को ऐसे घुमा रहे हैं मानो वह उनके हाथ में चिपक गयी हो। सुदर्शन राय के भाले का चमचमाहट उनके आँखों के सामने उभरने लगा। या अली --- या अली --- या हुसैन --- की आवाज बीच –बीच में गूँज रही है। अरे ये लो --- दो बन्दे कूद पड़े हैं अपना करतब दिखाने के लिए। एक प्रहार कर रहा है लाठियों का -- दूसरा बचा रहा है अपने आप को--- -- अब दूसरा प्रहार कर रहा है पहला बचा रहा है। तनिक भी चूक हो जाये तो सिर फट जाये, लेकिन दोनों मजे खिलाड़ी हैं। बच्चें तालियाँ पीट रहे हैं। हाँ, अब गौतम सिंह और गनीफ खाँ बंदा का करतब दिखायेंगे। दोनों के हाथ की सफाई अद्भुत है , एक से बढ़कर एक । किसे बड़ा कहे किसे छोटा ? अब दोनों गले मिल रहे हैं । ताज़िया को उठाये हुए महीप राय, मंसूर अहमद, हरिहर साहू और अनवर अंसारी आगे बढ़ रहे हैं। अब अगले चौक पर ताज़िया रूकेगा और यही खेल करतब देखने को मिलेगा । ---- अगले चौक पर चाँद अहमद फिर आया है आगे -- अरे यह तो जोगीरा सुना रहा है ---
कलकत्ता से कल मँगाया -- -- बम्बई से पानी
कलकत्त्ता से कल मँगाया -- -- बम्बई से पानी
सारी दुनिया जल गई – भटगाई की निसानी –
जोगीरा --- सर—र—रा- सर—र—रा ---
दरवाजे पर खड़े-खड़े वे अपनी यादों में खोये हुए थे कि दरवाजा खुला।अलवी साहेब ने कहा “ प्रोफेसर साहब ! आप इस वक्त -- --आइए- आइए भीतर आइए। आपको यहाँ आने डर नहीं लगा।‘’
“डर किस बात का, एक भाई का दूसरे भाई के यहाँ आने में डर ? ‘’
“ बात तो आपकी बिल्कुल नेक और दुरुस्त है लेकिन जमाना और आबो-हवा में बदलाव आ गया है भाई। इंसानियत खतरे में है --- साम्प्रदायिकता हावी हो रही है --- ।‘’
“ खैर छोड़िए , ताज़िया की तैयारी कैसी चल रही है।‘’
“ आपने सुना नहीं स्वामी भैरवानंद ने ताज़िया नहीं निकलने देने का आह्वान किया है हिंदू भाइयों से --- - जनता भी उन्हीं के राग में गा रही है --- । नफरत की आग जोरो पर है --- इस स्थिति में – इस मातम के पर्व को और मातम से भरने का कोई लाभ नहीं है, प्रोफेसर साहब।‘’
“लेकिन।‘’
“लेकिन क्या, कुछ नौजवान हमारे मुहल्ले के भी कह रहे है कि ताज़िया निकाला जायेगा , देखते हैं कौन रोकता है – काँट कर रख देंगे – एक –एक को --- -- लेकिन कौन किसका खून करेगा --- -- एक भाई दूसरे का --- बहेगा तो आखिर इंसान का ही लहू --- -- शर्म से गरदन झुकेगा तो मानवता का ही ---- -- ऐसा मुहर्रम मनाने और ताज़िया जुलूस निकालने का क्या मतलब --- नहीं -- नहीं ----।‘’
“बात तो एक हद तक सही है लेकिन पूर्णत: सही नहीं है । यदि हम यहाँ चूक गए, हार गए ,ताज़िया नहीं निकला , जो हमारे पुरखों की परम्परा है ,धरोहर है तो वे अपने मंसूबों में कामयाब हो जायेंगे। आज साम्प्रदायिक जहर चारों तरफ व्याप्त हो गया है और उसका ठेकेदार योगी भैरवानंद कहता है कि ताज़िया नहीं निकलेगा। कल कोई मुल्ला,मौलवी या बुखारी कहता है कि होली नहीं मनाया जायेगा तो क्या होली नहीं मनायी जायेगी ? दीवाली के दीप नहीं जलेंगे तो क्या दीप नहीं जलेंगे ? ईद की नमाज़ नहीं अदा की जायेगी ,लोग गले नहीं मिलेंगे तो क्या लोग गले लगाना छोड़ देंगे ? भारत की आत्मा अनेकता में एकता में बसती है । इन पोंगा पंडितों, कठमुल्लों एवं देश को बेचने वले गद्दार नेताओ के कहने पर देश नहीं चलता है । देश चलता है अपनी परम्परा एवं संस्कृति के साथ कदम से कदम मिला कर --- --।
“आप सही कह रहे हैं प्रोफेसर साहब ! ‘’
“इस गंगा-यमुनी संस्कृति का वाहक हम जैसे बुद्धिजीवियों को ही बनना होगा नहीं तो इस देश की गौरवशाली परम्परा कहीं खो जायेगी , नफरत,घृणा और विद्वेष की भीड़ में । ताज़िया का जुलूस निकलेगा और जरूर निकलेगा और उसमे सबसे आगे मैं रहूँगा -- -- ।‘’ प्रोफेसर की आवाज ऊँची होती चली गई।‘’
अली बरकतुल्ला हसन अलवी की आँखें आँसुओं से भीग चुकी थी और वे प्रोफेसर के तेजोदीप्त मुखमण्डल को बार-बार देख रहे थे । उठकर वे प्रोफेसर के गले से लिपट गए। “ आप जैसा एक भी भारतीय जब तक इस पवित्र धरती पर रहेगा तब तक भारत माता की आँखें शर्म से नहीं झुकेंगी । खुदा आपके नेक इरादे को कामयाब करे।
[5]
ताज़िया को कंधे पर उठाये चार नवयुवक बढ़ रहे थे।जुलूस के आगे-आगे प्रो. रामेश्वर उपध्याय, सूबेदार मेजर बलवंत सिंह ,अली बरकतुल्ला हसन अलवी , अजय, निमेष, राधेकृष्ण और मनीष चल रहे थे। ताज़िया के पीछे-पीछे या अली – या अली--- या हसन के शोर के साथ बच्चें ,जवान ,बुढ़ें चल रहे थे । ताज़िया अपने गंतव्य स्थल की धीरे-धीरे बढ़ रहा था। तभी बक्शीपुर चौक पर – जय बजरंग बली -- हर-हर महादेव के नारे के साथ लगभग सौ व्यक्तियों का जत्था एक गली से हल्ला मचाते हुए आ पहुँचा। भीड़ में सबसे आगे भगवा वस्त्र धारी स्वामी भैरवानंद के शिष्य नित्यानंद त्रिशूल को उछाल-उछाल कर हर-हर महादेव -- जय बजरंग बली-- के जयघोष के साथ भीड़ को आगे बढ़ने के लिए ललकार रहा था।
नित्यानंद ने कड़कती आवाज में कहा “ ताज़िया आगे नहीं बढ़ेगी।‘’
“ आखिर क्यों भाई ? सबसे आगे चल रहे प्रोफेसर ने कहा ।
“स्वामी जी का आह्वान है , स्वामी जी ने कहा है।‘’
“ स्वामी जी के कहने से ताजिया के जुलूस का क्या सम्बंध है। ताज़िया तो उन्होंने बनाया नहीं, सजाया नहीं, कोई योगदान नहीं दिया तो फिर उसे निकालने से रोकने वाले वे कौन होते हैं ? ‘’
“नहीं कहा तो नहीं निकलेगा बस। स्वामी जी की आज्ञा से।‘’ पीछे खड़े महीप सिंह ने अपना फड़सा चमकाते हुए कहा।
“ क्यों भाई ! ताज़िया तो मुहर्रम के दिन हर साल निकलता है तो फिर इस साल क्यों नहीं निकलेगा ? प्रोफेसर ने प्रेमपूर्वक कहा।
“ आप हर बात में अपनी टाँग मत अड़ाया कीजिए प्रोफेसर साहेब।‘’ निर्भय यादव ने अपनी लाठी पटकते हुए कहा।
‘’ मैं टाँग नहीं अड़ा रहा । मुहर्रम के अवसर पर ताजिया तो वर्षों से अपने यहाँ निकलती रही है। यह तो हमारे पुरखों के मिली- जुली सस्कृति का प्रतीक है । इसे रोक कर अपने भाइयों पर अत्याचार मत कीजिए। स्वामी जी जो भी कहे गलत –सलत हम उसे क्यों माने । आखिर आप लोगों की भी तो कुछ सोच-समझ होनी चाहिए।‘’ सूबेदार मेजर बलवंत सिंह ने आगे बढ़कर कहा।
“ नहीं स्वामी जी हमारे नेता हैं और वे जो भी कहेंगे हम जरूर करेंगे।‘’ पीछे से एक युवक चिल्लाया।
“ नेता केवल नफरत फैलाने के लिए, आपस में लड़वाने के लिए या पेट भरने के लिए भी। यह भारत है भाइयो और यहाँ धर्म के नाम पर गुमराह करने की स्वतंत्रता यहाँ का संविधान किसी को नहीं देता। आप लोग अपने भाईचारे के धर्म को निभाइए जो भारतीय जनमानस में सदियों से रचा-बसा है।ताज़िया को आगे बढ़ने में अपना सहयोग दीजिए। अपने देश की गौरवमयी परम्परा को कलुषित मत कीजिए । आप सब से मेरी करबद्ध प्रार्थना है।‘’ इसके साथ ही प्रोफेसर करबद्ध हो गए थे।
“नहीं हम अपने हिंदू भाई के खून का हिसाब लेंगे - बदला लेंगे।‘’ एक युवक भीड़ को चीरते हुए आगे आया।
“ अच्छा भाइयों! ये बताइए यदि आपका सामान यात्रा के दौरन बस में छूट जाता है तो आप अपना सामान उसी बस में ढूढ़ेंगे या सभी बसों को रोक कर ढूढ़ेंगे।‘’ प्रोफेसर ने अत्यंत सहज भाव से पूछा ।
“ उसी बस में।‘’
“ फिर तो जिसने हत्या की, जिसने गुनाह किया उसी को सजा मिलनी चाहिए, सजा दी जानी चाहिए। आप सब क्यों अपने उन बेगुनाह भाइयो पर नफरत की आग बरसा रहे हैं जिन्होंने आपका कुछ नहीं बिगाड़ा।‘’ प्रोफेसर ने रोष भरे स्वर में कहा।
“आप हमें बरगलाने की कोशिश न करें । ताज़िया नहीं जायेगा , नहीं जायेगा, नहीं जायेगा --- चाहे जो हो जाए --- -- । नित्यानन्द के पास खड़े मालाधारी साधु ने अपना त्रिशूल जमीन में गाड़ते हुए क्रोध से तिलमिलाते हुए कहा।
इधर तर्क कुतर्क का सिलसिला चल रहा था और उधर ताज़िया धीरे-धीरे आगे बढ़कर मुख्य सड़क पर पहुँच गया।
“आप हमें रोकने की बेकार कोशिश मत कीजिए प्रोफेस --र ---र । जब स्वामी जी ने कहा है कि ताज़िया का जुलूस नहीं निकलेगा तो किसी भी शर्त पर नहीं निकले—गा--आ -।आप हमारे रास्ते से हट जाए वरना आप हमारे क्रोध की आग में जल जायेंगे प्रोफेसा – र - -र-- ।‘’ नित्यानंद ने दाँत पीसते हुए कहा ।
“ आप चाहे कुछ भी कर ले ताज़िया जायेगा और जरूर जायेगा। हम हर कीमत पर उसे आगे बढ़ाकर रहेंगे।‘’प्रोफेसर ने स्पष्ट स्वर में कहा ।
“ आप नहीं मानेंगे।‘’
“नहीं-- ।‘’
“तो ये लो --- ।‘’ इसी के साथ कल्लू निषाद ने पूरी ताकत से अपनी तेल पिलाई हुई लाठी प्रोफेसर के सिर पर दे मारा।
प्रोफेसर वही पर चक्कर खा कर गिर पड़े। भीड़ जय बजरंग बली के नारे के साथ आगे बढ़ने ही वाली थी कि रैपिड एक्शन फोर्स की पायलट कार अपनी लाल बत्ती जलाये हॉर्न देती पहुँच गई ।कार के पीछे एक वैन पुलिस के जवान भी थे। जवान उतर कर दंगाइयों के पीछे भागे। भीड़ उड़न छूँ हो चुकी थी। स्वामी नित्यानंद के साथी पकड़ लिये गए थे। प्रोफेसर को गोद में पकड़कर बैठे सूबेदार मेजर बलवंत सिंह एकटक से उनके सिर से निकल रहे गर्म लहू के प्रवाह को देख रहे थे जो अपने निष्कलुष धार से मदांध-कलुषित मानवता को प्रक्षालित कर रहा था। अली बरकतुल्ला हसन अलवी की आँखों से आँसू की लड़ियाँ निकल रही थी। मनीष,अजय, राधेकृष्ण तथा निमेष की पथराई आँखें उस रक्तस्नात महामानव के तेजोदीप्त मुखमण्डल को निहार रही थी। धीरे-धीरे बढ़ती जा रही ताज़िया के जुलूस से आ रही या अली – या हुसैन--- की आवाज अब अत्यंत धीमी हो चुकी थी।
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आदित्य अभिनव उर्फ डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव
असिस्टैंट प्रोफेसर , हिंदी विभाग
भवंस मेहता महाविद्यालय, भरवारी
कौशाम्बी (उ. प्र.) – 212201
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