जहाँ ईश्वर नहीं था - 3 Gopal Mathur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जहाँ ईश्वर नहीं था - 3

3

पर उनके पास हितेश की बात मानने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं था. उन दोनों के चले जाने के बाद हितेश मेरे पास सरक आया, जैसे हमारे बीच कोई भेद भरे संवाद होने हों. उसने मेरे दोनों हाथों को अपनेे  हाथों में ले लिया और फुसफुसाया, ”अब बताओ, हुआ क्या है ?“

मैं चुप बैठा रहा. यदि मैं उसे बता देता कि मैं मर चुका हूँ, तो निश्चय ही वह मेरा मजाक उड़ा देता, ”दरअसल मुझे सुबह से ही कुछ महसूस नहीं हो रहा है.....“

”क्या सिर पर कोई चोट वगैहरा लगी थी ?“

”नहीं.“

”कोई डिप्रेशन ?“

मैंने अपना सिर हिलाया.

”आॅफिस या घर में कोई काॅम्प्लीकेशन ?“

”बिल्कुल भी नहीं.“

कुछ देर तक वह मुझे देखता रहा. फिर सोचते हुए बोला, ”नीचे क्लीनिक में चलो. कुछ एग्जामिनेशन्स करने पड़ेंगे.“

उसने मेरे अनेक क्लीनिकल एग्जामिनेशन्स किए. सभी रिपोर्ट्स नोर्मल निकलीं. दिल भी सामान्य गति से धड़क रहा था, साँसें भी यथावत चल रही थीं और आँखें भी ठीक थीं.

अन्त में उसने घोषणा की, ”आप बिल्कुल ठीक हैं... सिर्फ आपको शाॅक ट्रीटमेन्ट की जरूरत है....“

उसनेे मुझे बिजली के झटके लगाए, ”क्या कुछ महसूस हुआ ?“

”नहीं डाॅक्टर.... कुछ भी नहीं.“

अब डाॅक्टर के बेचैन होने की बारी थी. उसके इतने वर्षों का अनुभव कोई काम नहीं आ रहा था. खीज कर उसने मुझसे खासा बुरा व्यवहार करना शुरू कर दिया. उसने मुझे बताया कि वह मुझे शुरू से ही नापसंद करता रहा था. वह मुझे गंदी गंदी गालियाँ देने पर उतर आया था और मुझेे यह बताना भी नहीं भूला कि यदि मैं बीच में नहीं आता तो आज मेरी पत्नी उनकी पत्नी होती !

मुझे गुस्सा दिलाने या चिढ़ाने के उसके सारे प्रयास व्यर्थ जा चुके थे. मुझ पर रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ा था.

इस बीच उसके कमरे का सारा सामान हवा में घूमने लगा था. किसी निश्चित गति से नहीं, बेतरतीब सा, जैसे तेज अंधड़ में न जाने क्या क्या इधर उधर उड़ने लगता है !

चैम्बर में सिर्फ उसी की आवाजें गूँज रही थीं. एक आवाज़ दूसरी आवाज़ का गला घोटने को आमादा थी, जबकि मैं चुपचाप उसका बोलना सुन रहा था और शायद उसकी असिस्टेंट भी. वह बोलना भी नहीं था, सिर्फ होठों का फड़फड़ाना था. जैसे ऊपर वाला होठ नीचे वाले से कुश्ती लड़ रह हो. काफी देर तक बड़बड़ाने के बाद जब वह चुप हुआ, तब वह जोर जोर से हाँफ रहा था. उसे साँस लेने के लिए बार बार सतह पर आना पड़ रहा था. उसका चेहरा पसीने से तर था और वह थका हुआ लग रहा था.

थोड़ी देर खामोशी छाई रही.

”आपको इस तरह मेरा नाराज होना बुरा लगा होगा, इसके लिए मैं माफी चाहता हूँ.“ कुछ देर बाद डाॅक्टर ने कहा.

”नहीं डाॅक्टर, मुझे जरा भी बुरा नहीं लगा. दरअसल मुझे कुछ महसूस ही नहीं हो रहा है.“ मैंने उसे सीधे देखते हुए कहा.

”जरा सा भी नहीं.... ?“

”जरा भी नहीं.“ मैंने झिझकते हुए कहा, ”डाॅक्टर साहब, मुझे लगता है कि मै कि मैं मर गया हूँ...... मर गया हूँ और जिन्दा हूँ.“

यकायक कमरे में शान्ति छा गई, असीम शान्ति. अंधड़ भी थम गया और कमरे का सामान यथावत अपनी अपनी जगह पर आ लगा.

डाॅक्टर प्रेसक्रिप्शन पर कुछ लिखते लिखते अचानक रुक गया. अब वह मुझे ध्यान से देख रह था और अपना बाॅल पेन अपने हाथ में घुमाए जा रहे था, ”आपको ऐसा कब से लग रहा है ?“

”आज सुबह से.....“

”सुबह ऐसा क्या हुआ था ?“

”कुछ भी नहीं.... मैं रोज़ की ही तरह सोकर उठा, मैंने चाय बनाई, पर मुझे कोई स्वाद नहीं आया.... अखबार पढ़ने का प्रयास किया, पर पढ़ नहीं पाया..... शेव बनाना चाहता था, लेकिन अपनी अँगुली कटा बैठा....“

”यह तो कोई कारण नहीं हुआ.....“

”डाॅक्टर, महत्वपूर्ण ये घटनाएँ नहीं हैं, महत्वपूर्ण यह है कि मैं इन्हें करते हुए कुछ भी महसूस नहीं कर पा रहा था.“ मैंने सुबह की सारी घटनाएँ डाॅक्टर को विस्तार से बताईं, ”यह तो कुछ भी नहीं, आपके इलेक्ट्रिक शाॅक तक मैं सहजता से झेल गया, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो !“

डाॅक्टर की निगाहें अब तक मुझ पर गड़ी हुई थीं.

”मुझे पूरा विश्वास है कि यदि आप मेरी एक टांग या हाथ काट दें, तब भी मैं उफ् तक नही ंकरूँगा.“ मैंने कहा.

इस बार वह कुछ ज्यादा बेचैन दिखाई दिया, जैसी कि मेरी पत्नी यह सच जानने के बाद सुबह घर पर दिखाई दे रही थी, जैसे कि मेरी पत्नी का चेहरा उनके चेहरे पर चस्पा हो गया था.

”अपनी हथेली मेज़ पर रखो.“

अभी मैंने हथेली मेज़ पर रखी ही थी कि उसने पूरी ताकत लगा कर अपना बाॅल पेन मेरी हथेली के बीचोंबीच घौंप दिया. खून की एक धार फूट निकली थी. उसका पेन मेरी हथेली में धँसा हुआ था.

डाॅक्टर की असिस्टेंट जोर से चींख पड़ी थी.

और मुझे लगा, जैसे किसी चीटीं ने काटा हो ! बस !!

”दर्द हुआ ?“ डाॅक्टर ने पूछा.

”नहीं.... जरा भी नहीं.“

उसने जल्दी से पेन बाहर खींचा और चिल्ला कर अपनी असिस्टेंट से ड्रेसिंग करने के लिए कहा. वह डेªेसिंग रूम की ओर भागी और जल्दी से एक ट्रोली ले आई, जिसमें ड्रेसिंग का सामान रखा हुआ था. बिना एक भी पल गंवाए उसने ड्रेसिंग मेरे जख्म पर लगा दिया. मैंने देखा कि वह काँप रही थी, जबकि मैं जड़वत बैठा हुआ था. यन्त्रणा का एक भी भाव मेरे चेहरे पर नहीं था.

”आपकी कुछ और जाचें करवानी होंगी. फिलहाल आप ये दवाईयाँ ले लीजिए.“ वह बोला और अपने कपड़े झाड़ने लगा, जिन पर अभी अभी आए अंधड़ की गर्द जमा हो गई थी.

000

मैं क्लीनिक के कम्पाउन्ड में अपनी कार के पास यूँ ही खड़ा रहा और पोर्च में गिरे पेड़ के पत्तों को देखता रहा. मैंने कब उन्हें गिनना शुरू कर दिया था, मुझे स्वयं ही इस बात का पता नहीं चल पाया था. जरा सी भी हवा चलती तो पत्ते उड़ने लगते और मुझे फिर से गिनती शुरू करनी पड़ती.

मुझे ठीक से नहीं मालूम कि पत्नी को आने में कितना समय लगा. वह समय से बाहर का समय था, जो अपनी अस्मिता खो कर स्वयं को ढूँढ़ रहा था. मैंने समझने का प्रयास किया कि उस अपरिभाषित समय में मैं कहाँ था ? शायद वहीं या कहीं नहीं...... कहीं समय के दायरे से परे तो नहीं ! यह एक भयानक अहसास था, जिससे मुझे डर जाना चाहिए था, पर मैं डर नहीं रहा था. मैं अनवरत संज्ञाविहीन बना हुआ था.

मैंने अपनी हथेली को देखा, जिस पर पट्टी बँघी हुई थी. गहरे लाल रंग का एक चिकत्ता ठीक बीचों बीच उभर आया था. क्षण भर के लिए मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह मेरा ही खून था. डाॅक्टर के अनुसार वह मेरे जीवित होने का पुख्ता सबूत था जबकि मेरे मर जाने का सबूत मेरे मन के भीतर कहीं गहरे छिपा हुआ था.

तभी पत्नी बाहर आई. बहुत सारी घबराहट उसके चेहरे पर चस्पा थी. मैं तटस्थ भाव सेे उसे आते हुए देख रहा था.

”तुम घबराओ मत. तुम्हें कुछ नहीं हुआ है. यह एक प्रकार का मेन्टल डिसआॅर्डर है.... दिमाग का नर्वस् सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा हैं. दवाईयाँ लोगे, तो ठीक हो जाओगे.“

”तब तक ऐसा ही रहूँगा ?“ मैंने पूछा. हालांकि मैं अपनी इस हालत से ज़रा भी परेशान नहीं था.

”तुम बिल्कुल ठीक हो...... अच्छा बताओ, मैं कौन हूँ ?“

”तुम मेरी पत्नी हो.“

”हम कहाँ गए थे ?“

”डाॅक्टर के पास.“

”देखा, तुम्हें सब कुछ पता है..... तम्हें कुछ नहीं हुआ है.“

पत्नी के इतने आसान विश्लेषण से मैं हतप्रभ रह गया. मुझे यह भी लगा कि चूँकि मैं हतप्रभ रह गया हूँ, इसका सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि मैं थोड़ा बहुत जीवित अवश्य हूँ. पर यह कैसा विचित्र जीवित होना था, जिसमें जीवन का लेश मात्र भी अंश नहीं था !

रास्ते से दवाईयाँ खरीदते हुए हम घर आ गए. उसने न तो मुझे आॅफिस जाने दिया और न ही खुद गई.

000

फिर मैं अकेले ही घर से बाहर निकल आया. रास्ते कहीं खो गए थे और अब वहाँ एक लम्बी अंधेरी सुरंग थी, जिसमें मुझे टटोलते हुए आगे बढ़ना पड़ रहा था. यूँ तो सुरंग में अंधेरा था, पर थोड़ी देर बाद आँखों ने अंधेरे में देखने की कूवत हासिल कर ली थी. सुरंग की दीवारों पर सीलन थी, पता नहीं वे आँसू थे कि आहें ! शायद मैं रोना चाहता था, किन्तु रो पाना मेरे बस में नहीं गया था.

आप कुछ करना चाहें और नहीं कर सकें, इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है ! हालांकि मैं इस अहसास को पूरी तरह महसूस कर पाने की स्थिति में नहीं था, किन्तु यह अवश्य लग रहा था कि कुछ अनचाहा अवश्य घटित हो रहा है.

शायद मैं बहुत देर उस सुरंग में चलता रहा था. गहरा अंधेरा और घुटन हाने के बावजूद भी न तो मेरा दम घुट रहा था और न ही मुझे साँसों की जरूरत महसूस हो रही थी. मैं कहाँ जा रहा था और क्यों जा रहा था, इन प्रश्नों का मेरे पास कोई माकूल जवाब नहीं था. बस, चलते जाना था, क्योंकि चलने के अतिरिक्त कुछ और किया जाना संभव नहीं था.

काफी देर बाद मुझे रौशनी का एक मुहाना दिखाई दिया. पता नहीं मैं उस मुहाने तक पहुँचा था या वह मुहाना स्वयं मेरे पास खिसक कर आया था. पर इतना तो मुझे अहसास हो ही गया था कि वह मुहाना मुझे उस सुरंग से निजात दिला देने वाला था.

जहाँ में बाहर निकला, वह एक शहर था. ऊँची ऊँची इमारतें, भागता दौड़ता ट्रेफिक, तेज आवाजें, एक दूसरे से अपरिचित लोग, हाँफती काँपती साँसों में बिंधी जिन्दगियाँ...... और एक दम तोड़ती नदी, झुलसे हुए पेड़, धूँए में लिपटा आकाश.....

मैंने एक बेनूर सी लड़की को सड़क के किनारे बहते गंदे नाले के पास सिसकते हुए देखा.

”तुम कौन हो ?“ मैंने उससे पूछा.

”मुझे नहीं पहचानते ! मैं आॅक्सीजन हूँ.“

मैंने सद्भावना से उसके सिर पर हाथ फेरा, ”तुम्हारा यह क्या हाल हो गया है ! मैं तुम्हारा इलाज करवाऊँगा.“

तभी एक पुलिस वाले ने मेरे पांव पर जोर से डंडा मारा, ”लड़की को छेड़ता है ! चल थाने.“

वह मुझे खींच कर थाने ले जाने लगा. लड़की अपनी निरीह आँखों से मुझे जाते हुए देखती रही. वह कुछ भी कर पाने र्की िस्थति में नहीं थी. वह वैसे ही सिसकती रही.