जहाँ ईश्वर नहीं था - 4 - अंतिम भाग Gopal Mathur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जहाँ ईश्वर नहीं था - 4 - अंतिम भाग

4

मैंने कहा, ”भले ही मुझे थाने ले चलो, पर उस बेचारी को कुछ खाने को तो दे दो. लगता है उसने सदियों से कुछ खाया नहीं है. बेचारी मर जाएगी.“

पुलिस वाला गुर्राया, ”वह जिन्दा बच जाएगी, तो हम मर जाएँगे..... फिर हमें अगला केस कहाँ से मिलेगा !“

”आप समझ नहीं रहे हैं भाई साहब. वह जीवित रहेगी, तभी तो आप जिन्दा रह पाएँगे.“ मैंने उसे समझाने का प्रयास किया. पर वह हर समझ से परे जा चुका इन्सान निकला. उसे सिर्फ अपने पुलिस केसों का टार्गेट पूरा करना था.

क्या वह पुलिस वाला भी मर चुका था ? मेरी तरह ? क्या मैं सपंदनहीन लोगों के शहर में आ गया था ! इस शहर तक पहुँचने में उस अंधेरी सुरंग को पार करना क्या आवश्यक था ? कहीं वह सुरंग एक मृत शहर को दूसरे मृत शहर से जोड़ने का माध्यम भर तो नहीं थी !

अनेक प्रश्न मुहबाए खड़े थे. एक प्रश्न दूसरे प्रश्न को जन्म देकर नई उलझने पैदा करता जा रहा था. प्रश्नों के हुजूम में उत्तर कहीं नहीं थे. दरअसल उत्तरों की किसी को परवाह भी नहीं थी. क्योंकि उत्तरों का सीधा सम्बन्ध समाधानों से होता है. और यदि समाधानों का क्रियान्वयन कर दिया जाता, तो सारी अव्यवस्था व्यवस्थित नहीं हो जाती !

पुलिस स्टेशन में मुझे खूब मारा पीटा गया. मैं लहूलुहान था, पर मुझे कोई दर्द महसूस नहीं हो रहा था. वे मुझसे पैसा चाहते थे. अंत में जब उन्हें विश्वास हो गया कि मेरी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी, तब उन्होंने मुझे उठा कर सड़क पर फैंक दिया.

वहीं मुझे एक हैण्डपम्प दिखाई दिया. मुझे शायद पानी पी लेना चाहिए था, हालांकि मुझे कोई प्यास महसूस नहीं हो रही थी. मैंने पानी निकालने का प्रयास किया, लेकिन एक बूँद भी पानी बाहर नहीं आया. हैण्डपम्प का मुँह सांय सांय करता रहा.

”भाई, क्या दूर देश से हो ?“ किसी ने सान्त्वना भरी आवाज़ में पूछा.

”पता नहीं... शायद इसी देश से हूँ.“

”तो इतना भी नहीं जानते कि जमीन का पानी मर चुका है !“ वह मुझे हैरत से ताक रहा था.

मुझे हैरान होना चाहिए था, पर हुआ नहीं, ”अच्छा ! तो क्या प्यास भी मर चुकी है ?“

”प्यास भला कैसे मर सकती है !“ उसने दूर इशारा करते हुए कहा, ”वह लम्बी कतार देख रहे हो न ! वहाँ राजा की सरकारी दुकान से पानी मिलता है, एक बाल्टी रोज़.“

”बस ! इतने से तो मेरे मोज़े भी न धुलें !“

अब वह मुझे घूरने लगा था, ”तो मेरा शक ठीक निकला. तुम इस देश के नहीं हो, क्योंकि यहाँ तो एक बाल्टी से पूरा दिन निकालना पड़ता है.“

वह मुझ पर झपटा, जैसे बाज़ अपने शिकार पर झपटता है. मैंने पाया कि उसकी सान्त्वना देती आवाज़ एक खूंखार गुर्राहट में बदल चुकी थी. पर इससे पहले कि वह मुझे पकड़ पाता, मैं पूरा जोर लगा कर भाग छूटा. मैं भाग रहा था मैं क्यों भाग रहा था, यह तो पता नहीं, पर बदहवास नहीं था. न तो बच जाने की कोई खुशी थी और न ही किसी प्रकार का कोई डर. मैं बस भागे चला जा रहा था.

जिस जगह मैं रुका, वह जगह एक बीयाबान थी. दूर दूर तक कहीं कोई नहीं था. न आदमी, न जानवर, न पेड़, न हवा !

ईश्वर भी नहीं था वहाँ !

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पर आखिर मैं कब तक भागता ! अन्ततोगत्वा पकड़ा गया. उसने सबसे पहले मेरे पाँवों में भारी पत्थर बाँधे, ताकि मैं भाग न सकूँ. लेकिन न तो मुझे पत्थरों का बोझ महसूस हो रहा था और न ही चल पाने में कोई असुविधा. मैं चाहता तो एक बार फिर भाग सकता था. पर भागा नहीं. मेरे पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि मैं क्यों नहीं भागा !

वह मुझे राजा के पास ले गया.

राजा एक ऊँचे तख्त पर बैठा हुआ था. उसका चेहरा अँधेरे में गुम था. उसका कोई चेहरा था भी कि नहीं, यह भी निश्चयपूर्वक कहा नहीं जा सकता. पर इतना तो निश्चित था कि वह हमें देख पा रहा था, हम उसे नहीं. उसकी केवल आवाज़ सुनी जा सकती थी.

जो आदमी मुझे घसीटता हुआ राजा के पास ले गया था, उसने मुझे भरे दरबार में दरबारियों के बीचों बीच पटक दिया. सारे दरबारी सिर झुकाए अपनी अपनी कुर्सी सँभाले हुए बैठे हुए थे. उन सभी के ऊपर एक एक तलवार लटकी हुई थी, जिसका रिमोट राजा के पास था.

”जहांपना, मैं एक विदेशी को लाया हूँ, जो घुसपैठ कर के यहाँ आ गया है.“ वह आदमी बोला.

राजा गुर्राया, ”तुम कैसे कह सकते हो कि यह घुसपैठिया है.“

”यह हैण्डपम्प में से पानी निकालने की कोशिश कर रहा था. अगर यह इस देश का होता, तो क्या नहीं जानता कि जमीन का पानी मर चुका है ?“

”अच्छा !“ राजा ने हुंकार भरी.

”और यह लम्बी लम्बी कतारों के बारे में भी कुछ नहीं जानता...... फिर तो यह घुसपैठिया ही हुआ न !“

राजा का गुस्से से लबालब स्वर मुझ तक आया, ”बिल्कुल. तुम्हें बताना पड़ेगा कि आखिर तुम आए कहाँ से हो ?“

”एक सुरंग से......“

”किस सुरंग से ?“

इस बार जो आदमी मुझे वहाँ लाया था, वह बोला, ”हर आदमी अपनी ही सुरंग से चल कर यहाँ पहुँचता है जहांपना.“

”ठीक कह रहे हो.“ अब राजा मुझे सम्बोधित कर रहा था, ”तुम्हारा अपराध सिद्ध हुआ..... तुम्हें फाँसी की सजा सुनाई जाती है.“

”पर मैं तो मर चुका हूँ. मरा हुआ दुबारा कैसे मारा जा सकता है !“ मैंने कहा.

राजा थोड़ी देर सोचता रहा, फिर बोला, ”तो फिर तुम्हें उस अंध कूप में डाल दिया जाएगा, जहाँ फाँसी पर लटकाने के बाद लाशें फैंकी जाती हैं, जहाँ चील, कव्वे और गिद्ध रहवास करते हैं.“

मैं कुछ नहीं बोला. बल्कि सच तो यह था कि मुझे यह जान कर तसल्ली मिली कि अब मेरे साथ मेरी देह को भी मृत्यु मिलने वाली थी. तसल्ली क्या होती है, यह चीज़ मुझे अपने मरने के बाद पहली बार महसूस हुई थी.

राजा के आस पास छाया अंधेरा अब धीरे धीरे मेरी ओर बढ़ने लगा था. चुपचाप बैठ कर तमाशा देखने वाले दरबारी भी उस अंधेरे की ज़द में आने लगे थे. वे यथावत चुप थे, संभवतः राजा के पास रिमोट से भयभीत. जो आदमी मुझे राजा के पास लाया था, वह अन्तघ्र्यान हो चुका था. मेरे पाँवों में बँधे पत्थर अपने आप खुल कर कहीं चले गए थे. मैं ठीक से कुछ समझ नहीं पा रहा था, पर शायद मैं उडा़ने भरने की कगार पर था.

”पर हम तुम्हें यूँ ही अंध कूप में नहीं फैंकेगे. तुम्हारी अन्तिम इच्छा अवश्य पूरी करेंगे.“ राजा का अपेक्षाकृत नर्म स्वर मुझ तक आया, ”तुम्हंे हैण्डपम्प के पास पकड़ा गया था. तुम्हें खत्म करने से पहले हम तुम्हें पानी अवश्य पिलाएँगे. क्या तुम प्यासे हो ?“

मैं एक विचित्र स्थिति में था. शायद प्यास जैसी कोई चीज मुझे महसूस भी हो रही थी. पर यह प्यास उससे भिन्न थी, जिससे गला सूखता है. मैंने कहना शुरू किया.

”हाँ, मैं प्यासा हूँ. मेरी आँखों को प्यास लगी है. मैं नर्म मखमली सुबह देखना चाहता हूँ, मुस्कराते हुए फूलों पर ओस की बूँदें देखना चाहता हूँ. कितना खुशनुमा होगा तितलियों को और गिलहरियों को और चिड़ियाओं को और बादलों को और हवाओं को देखना, जो घरों के छोटे छोटे बच्चों से बतिया रही होंगी. मंदिरों में घंटियों की घ्वनियाँ होंगी, गुरूद्वारों में शब्द कीर्तन, मस्जिदों में अज़ान और चर्चों में कोरल्स. उन्हें गाकर फिर सब एक साथ बगीचे में आएंगे और गले मिल कर खुशियों का मधुर गीत गुनगुनाएंगे. पिछली रात उन गीतों को तारों ने लिखा होगा, चाँद ने संगीत दिया होगा और खामोश सड़कों ने जिसे सबसे पहले गुनगुनाया होगा. तमाम कायनात उस गीत को सुनेगी, पेड़ झूमने लगेंगे, जमीन खिल उठेगी, नीला आकाश अपनी स्निग्ध आँखों से उसे पीने लगेगा. रिश्तों को बासी नहीं होने दिया जाएगा, दोस्त, पड़ौसी सब मिल कर बगीचे में परिन्दों का कलरव सुनेंगे, जो उनके अपने बच्चों के कंठ से फूटा होगा....... सब के मन में आशा की एक किरण होगी, कि आज का दिन अच्छा जाएगा. न राजा होगा, न रंक. पृथ्वी अपनी निश्चित गति से घूमती रहेगी और माँएं अपने बच्चों के लिए मीठे पकवान बनाएँगी. प्रेम जीने के लिए हवा पानी की तरह आवश्यक होगा. झाड़ियों के पीछे दुबके प्रेमी जोड़े वहीं जमीन पर प्रेम की कविताएँ लिखेंगे, जिन्हें कालजयी आख्यानों में जगह मिलेगी. हिंसा शब्दकोश का एक शब्द बन कर रह जाएगी और पीड़ा को भी पीड़ित किया जाएगा. दुःख होगा, पर दुःखों से मुक्ति दिलवाने वाले ज्यादा होंगे. हर व्यक्ति अपना गवाह खुद होगा. उसकी जवाबदेहियाँ उसके अपने कन्धों पर टिकी होंगी, जिनका इतिहास उसे स्वयं लिखना होगा. आदमी की परछाईयाँ उससे लम्बी नहीं होंगी. नदी के पुल पर खड़ा हर व्यक्ति आत्महत्या नहीं करेगा और न ही सूने प्लेटफाॅर्म पर खड़ा इन्सान मरने के मंसूबे लिए हुए माना जाएगा. चित्रकार सुनहरे चित्र चित्रित करेंगे जिनमें उल्लाहस के रंग भरे होंगे, गायकों की सुरलहरियाँ मन को खुशियों से स्पंदित कर देंगी और नृत्यांगनाएँ पृथ्वी को रिझा देने वाले नृत्य करेंगी. झीलों में पक्षियों का बसेरा होगा और मछलियाँ नीली झील में अठखेलियाँ करती रहेंगी. ठाठें मारता समुद्र अपनी बाहें खोल कर नदियों के साफ जल का स्वागत करेगा और बारिशें हर छत पर बरसेंगी......“

बोलते बोलते मुझे लगा कि मुझे मेरे ही शब्दों ने रस्सी बन कर बांध दिया था. असंतुलन की स्थिति में मैं लड़खड़ा कर गिर गया. बेहोश होते होते मुझेे राजा की आवाज सुनाई दी, ”अब समझ में आया कि यह जीते जी क्यों मर गया था !“

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”अब कैसा महसूस कर रहे हो ?“ पत्नी ने पूछा.

”अब काफी ठीक लग रहा है.“ पत्नी से संभावित बहस से बचने के लिए मैंने कहा.

लेकिन पत्नी ने मेरा झूठ ताड़ लिया था, ”तुम झूठ बोलने लगे हो, इसका मतलब यह हुआ कि तुम ठीक हो रहे हो !“

वह मुझे खुश दिखाई दी, खुश भी और आश्वस्त भी. जैसे उसने अपनी तमाम चिन्ताएँ बुहार दी हों. अचानक वह मेरे पास आकर बैठ गई और उसने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, ”जानते हो, आज बच्चों ने तुम्हारे लिए एक सरप्राइज़ पार्टी अरेन्ज की है.“

मैं उसे लगातार देखे जा रहा था.

”वैसे तो उन्होंने तुम्हें बताने के लिए मना किया था, पर मुझे बताए बिना रहा नहीं जा रहा.“ वह मेरे कुछ और पास खिसक आई, ”वे आज रात तुम्हारा बर्थ डे किसी रिसोर्ट में प्लान कर रहे हैं.“

”मेरा बर्थ डेे ! पर मैं तो मर चुका हूँ !!“

एक झटके से उसने अपना हाथ खींच लिया. वह मेरी एक ही बात सुनते सुनते पक गई थी और शायद गुस्से में मेज़ पर रखा काँच का गिलास जमीन पर दे मारती कि तभी दोनों बच्चे वहाँ आ गए.

”अरे ! रुचि और ईशान ! अब तक कहाँ थे तुम दोनों ?“ मैंने उन्हें देखते ही कहा.

सहसा पत्नी जोर से चिल्लाई, ”देखा, तुमने अपने बच्चों को पहचान लिया. तुम मरे नहीं हो, तुम जिन्दा हो !“

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