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360 डिग्री वाला प्रेम - 36

३६.

परिवर्तन

अब आरिणी ने अपना सारा ध्यान जॉब की ओर लगा दिया. कॉलेज की पढ़ाई से अलग होती है व्यवहारिक दुनिया, यह कुछ ही हफ़्तों में समझ आ गया था उसे वह सारा समय समर्पण के भाव से काम करती, नई टेक्नोलॉजी को सीखने-समझने और जानने में समय देती. शेष समय में स्वयं पर भी ध्यान देती. लेकिन आरव का ख्याल भी किसी साये की तरह पीछे लगा रहता… उसकी दवाई का समय होता तो वह चिंतित हो जाती कि पता नहीं ली भी होगी या नहीं…. ऐसे में वह वर्तिका को फोन कर उसी से अनुरोध करती.

उधर वर्तिका के जीवन में भी बसंत की पदचाप थी. वह कभी घर पर होती तो कभी पलाश के साथ बाहर… ऐसे में आरिणी को संकोच होता उसके कुछ गुलाबी पलों को डिस्टर्ब करने में कभी अपने कॉलेज के दिन भी आँखों के आगे जीवंत हो उठते.

आज फिर वर्तिका की कॉल आई थी. खास बात यह थी कि वह दिमाग से कम और दिल से ज्यादा बात करती थी. स्नेह और स्वभाव उसके कृत्रिम नहीं नैसर्गिक थे, इसीलिए आरिणी की उससे अधिक मित्रता थी. उसने बताया कि,

“मम्मी जिद्दी हैं, वह कभी अपनी कोई गलती नहीं मानेंगी. उनको शालीनता से अनदेखा कर के ही आपको जगह बनानी होगी. न भैया और न पापा को आपसे कोई शिकायत है, और मम्मी भी मात्र अपने संकुचित सोच के चलते किसी न किसी जटिलता में स्वयं भी पड़ती हैं, औरों को भी डालती हैं.”

 

बाकी समय वह पलाश के बारे में बताती रही. यूँ वर्तिका भी समझती थी कि पलाश का जिक्र आरिणी के दर्द की अनुभूति बढ़ा सकता है लेकिन वह भी उस मधुमास से गुजर रही थी जहाँ न चाहते हुए भी आप सुवासित बयार के साथ उड़ते ही जाते हो. पलाश के अलावा आजकल उसे कुछ सूझता भी कहां था.

 

आरिणी चुप रही. इस बात पर चर्चा को बढ़ाने या तर्क देने का कोई लाभ नहीं दिखाई देता था. वह समय को परखना चाहती थी और अपने करियर को पंख देकर कुछ सपनों को साकार करना चाहती थी. फिर भी, उसका मोह अभी भी आरव में था. वह चाहती थी कि आरव भी अपने जीवन को संवारने पर ध्यान दे, न कि घर पर रहकर अवसाद में घिरता चला जाये.

 

आज रविवार था. आरिणी नितांत खाली और अकेली थी. न जाने क्यों उसे आरव की रह-रह कर याद आ रही थी. यूँ तो उसके साथ बिताए पल हमेशा स्मृतियों में जीवंत रहते थे, पर आज न जाने क्यूं ऐसा कुछ लग रहा था कि आरव को उसके साथ की जरूरत है. दुविधा और संशय के बावजूद उसने आरव को कॉल किया. कॉल उठी, लेकिन वह आरव न था, दूसरी ओर जो चिर-परिचित स्वर सुनाई दिया, वह उर्मिला जी का था.

 

“कहो…! कैसे कॉल किया आपने?”,

 

उनके स्वर में व्यंग्य और तिलमिलाहट स्पष्ट ध्वनित हो रही थी.

 

“नमस्ते मम्मी जी. कोई खास बात नहीं थी. कैसे हैं आप लोग?”,

 

आरिणी ने सम्मानजनक स्वर में पूछा.

 

“तुमको क्या लेना-देना, सोचा था शादी कर देंगे बेटे की तो वह भी खुश रहेगा और हम भी… पर तुम तो न जाने किस मिट्टी की बनी हो, किस घमंड में रहती हो, न अपने पति का ख्याल है, न हम लोगों का, बस अपनी मर्जी का करने का मिलता रहे तो खुश होती हो तुम.”

 

“मम्मी जी, ऐसा न कहिये प्लीज… मैंने क्या कमी रखी है आपके मान-सम्मान में, बताइए तो जरा!”,

 

आहत आरिणी ने पूछने की हिम्मत की.

 

“अब मेरा मुंह न खुलवाओ, तुम यूँ ही अपनी मर्ज़ी का करती रहो, और हम पर और हमारे बेटे पर तरस खाओ, जिस हाल में भी रहे वो, तुम ही जिम्मेदार हो जो भी चल रहा है अभी! इससे तो बेहतर तुम तलाक ले लो उससे और उसे मुक्त करो”,

 

और उन्होंने फोन काट दिया.

 

लखनऊ में जो व्यवहार उन्होंने किया था, उससे आरिणी किसी तरह से उबर पाई थी, स्थान परिवर्तित और जॉब ज्वाइन करके, लेकिन लगता था मम्मी जी कुछ न कुछ गम्भीर करके ही रहेंगी. उसने अब इस मामले से अपने पेरेंट्स को भी अवगत कराने का निर्णय लिया. यह उसके लिए अब कोई छोटी बात नहीं रह गई थी. दूसरे आरव भी अब या तो मां की ओर से बोलता था, या उसमे अपनी मूक सहमति रखता था.

 

“कहो तो हम लोग बात करके देखें”,

 

मां ने कहा.

 

“नहीं… रहने दो आप. कदम-कदम पर बेइज्ज़ती कराने से बेहतर है, घर पर बैठो शान्ति से. वे भी खुश हम भी”,

 

आरिणी ने दो टूक कहा.

 

“पर ऐसा कब तक चलेगा…”,

 

मां ने हमेशा की तरह अपनी चिंता प्रकट की.

 

“जब तक ईश्वर चाहेगा मां. तुम समझ सकती हो कि मैंने अपना सौ प्रतिशत दिया है इस रिश्ते में. अब और क्या करूं मैं… आप ही बताओ”,

 

आरिणी ने रुआंसी होकर कहा.

 

“चलो आराम से बात करेंगे उनसे… आज तो माहोल गर्म-है, तो अच्छा नहीं लगता. थोडा ठंडा होने दो, तब शायद वह अच्छे से बात कर पायें”,

 

माधुरी ने बेटी को सुझाव दिया.

 

बात वहीं खत्म हो गई. लेकिन वास्तव में बात खत्म नहीं हुई थी. अब आरव के मेसेज भी नहीं आते थे. उसने गौर किया कि उसकी जॉइनिंग के बाद से ही आरव ने दूरी बनाई थी. उस से पहले तो वह कभी कभार मेसेज भेजकर हाल-चाल ले भी लिया करता था. यह बात आरिणी को बहुत चुभती भी थी.

 

कंपनी के काम में समय अच्छा बीतता था. काम करते हुए और लोगों को एक दूसरे से सहयोग तथा अपनत्व की भावना की जैसी कल्पना आरिणी ने की थी, उस से बेहतर ही माहौल उसे मिल गया था. बस, पढाई खत्म होने के बाद जीवन में यही काम अच्छा हुआ था.

 

वर्तिका आज फिर परेशान थी. उसने इस बीच हुई बातों के लिए दुःख भी प्रकट किया, पर कोई हल किसी के पास न था. न ही कोई विषय की गम्भीरता को समझ रहा था. दो नव विवाहित लोग इस परिस्थिति में प्रसन्न कैसे रह सकते हैं, वह भी तब जब उनमें से एक मानसिक विकार से पीड़ित हो. पहले उसे जहाँ आरिणी की भी कुछ गलतियां लगती थी, वहीं पलाश के आगमन ने उसकी विचारधारा बदल दी थी. वह सभी घटनाओं का पुनरावलोकन कर रही थी. समझ रही थी की आरिणी ने बस इस रिश्ते में खोया ही खोया है.

 

आरिणी की मम्मी की ओर से उर्मिला जी को कॉल कर इस विषय में अप्रसन्नता दिखाना कुछ अतिरेक की स्थिति बन सकती थी. उन्होंने कभी समस्या सुलझाने के प्रयास नहीं किये, अपितु आरिणी पर दोषारोपण की ही बात की. इससे बात बिगड़नी ही थी. पर कॉल किया जाना जरूरी था, इसलिए किया. लेकिन उर्मिला जी तो कुछ और ही सोचे बैठी थी. नाराजगी से बोली,

 

“आप यह निर्णय लीजिए कि आपको अपनी बेटी को भेजना भी है या नही या वह सब अपने मन का करेगी”,

 

यह उर्मिला जी थी जो माधुरीजी को जली कटी सुना रही थी.

 

“ऐसा कुछ नहीं, पर आजकल के बच्चे अपने मन के मालिक होते हैं,और वे खुद बेहतर फैसला ले सकते हैं”,

 

सौम्यता से कहा उन्होंने.

 

“नहीं, साफ कहिये न कि उसकी मर्जी के आगे किसी की कोई हैसियत नहीं, न आपकी न हमारी. आज से आपके और हमारे रिश्ते खत्म ही समझिए… गलती हुई हमसे”,

 

कहकर उर्मिला जी ने कॉल विच्छेदित कर दी.

 

माधुरी अवाक रह गई. बात इतनी बढ़ जाएगी, उन्होंने सोचा न था. उन्होंने स्वयं कॉल किया उर्मिला जी को, पर उन्होंने नहीं उठाई उनकी कॉल. आरव को किया, वो भी मिस्ड में चली गई.

 

घबराकर उन्होंने बेटी को फोन लगाया, पर वह व्यस्त थी, बोली शाम को फ्री होकर बात करूंगी. अभिनव से बात हुई तो बोले कि शाम को राजेश जी से बात करते हैं, चिंता मत करो.

 

‘चिंता मत करो’... भला क्यूं न करूँ मैं चिंता! एक बेटी, वह भी इतनी भली इतनी होनहार, और अगर उसको खुशी भी न मिल पाए तो चिंता क्यूं न हो!

००००

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