पुरस्कार Alok Mishra द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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पुरस्कार




बहुत दिनों से सोच रहा था, कि कुछ नहीं बोलूंगा क्योंकि हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है। फिर हमें चुप रहना आता ही कहाँ है ? अब साहब लेखक लोगों की बिरादरी में पुरस्कार वापस करने का फैशन चल निकला हैं । हम तो ठहरे छोटे-मोटे लेखक, हम क्या वापस करें कि लोग हमें भी जाने। ले-दे के एक सामाजिक साहित्यिक संगठन में हमें बडे जोड़-तोड़ के बाद एक पुरस्कार दिया था। उसमें भी आयोजन का सारा खर्च हमें ही करना पड़ा। यहाँ तक की मंच पर प्रदान किया जाने वाला स्मृति चिन्ह, शाॅल और श्रीफल भी हमनें ही खरीदा और चेक वाले लिफाफे को खाली ही गोंद लगाकर चिपकाया है। हालांकि इस पुरस्कार को प्राप्त करने के पश्चात फोटो सहित अनेक अखबारों में छपाने के लिये हमने सारी ऐड़ी-चोटी लगा दी थी। अब हमारा खरीदा हुआ स्मृति चिन्ह हमारे ही ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ा रहा है।

अब कुछ लोग कहते है कि लेखकों के दिन खराब आ गये है। वे बताते है कि आपात काल में लेखकों को पुलिस के डन्डे खाने पड़ते थे और अब कुछ डन्डे, झण्डे और टोपी वाले लोग पुलिस वालों के सामने ही मारते है। हमारे साथ तो खैर ऐसा कुछ नही हुआ। हाँ एकआध बार किसी ने धमकी भरे लहजे में सावधान रहने की सलाह अवश्य दी है। भाई अपने भी बाल-बच्चें हैं, लिखना तो बस शौक है, क्यों अपनी जान को आफत में डाले। सो हमने कलम को थोड़ा तिरछा करके लिखना प्रारंभ कर दिया। इससे हुआ ये कि हमारी कलम से व्यंग्य निकलने लगे। समझ में आये तो भले और न आये तो और भले। वे मूर्ख डण्डे, झण्डे और टोपी वाले पढे़-लिखे तो है नही, वे तो सड़क छाप गुण्डों से अधिक समझ थोडे़ ही रखते है जो हमारे व्यंग्य बाणों को समझ सकें। आप लोग भी बहुत भले मानस है जो उन्हें यह नहीं बताते कि मैनें उनके विषय में कुछ लिखा है। बस इस तरह मैं उन सड़क छाप लोगों से बचा रहता हूॅ।लेकिन आज तो मेरा दिल धक्क से रह गया, लगा रक्तचाप बढ़ गया है। मेरे घर के दरवाजे पर लल्लन भाई खड़े थे चार-पाॅच मुसडण्डों के साथ। उन्हें भगा तो सकता नहीं था, सो बनावटी नम्रता के साथ उनका स्वागत कर बैठने को कहा। उनके लिये हमारी औपचारिकता के कोई मायने नही थें। वे पसरकर सौफे पर बैठ गये। हमसे बात करना छोड़ अपने लौण्डे़-लपाड़ों को निर्देश देने लगे, ‘‘क्यूं रे कल्लू....... तलवारे गढ्ढा मोहल्ला पहूंचायी की नहीं ? ’’ ‘‘मुन्ना....... कित्ते बम बना लिये तूने ?’’ ‘‘छुट्टन....... यदि कोई लफड़ा होता है तो पच्चीस-तीस लोण्डे तैयार रखना।’’ उनके शार्गिद उन्हें जवाब देते रहें। मेरी थूक तो गले में अटकी थी वहीं अटकी रही। मैं धीरे से बोला ‘‘ लल्लन भाई ......’’ तब उनका ध्यान मुझ पर गया। वे बोले ‘‘क्या है गुरूजी धर्म की रक्षा के लिये ऐसा करना जरूरी है ।’’ मैने हाँ मे मुण्डी हिलाई। वे बोले ‘‘ हाॅ......तो हम यहाँ इसलिये आये थे कि कुछ साल पहले हमने आपको पुरस्कार दिया था .....दिया था कि नही .......हाॅ वहीं ।’’ हमने स्मृति चिन्ह की ओर इशारा किया। वे बोले जा रहे थे ‘‘ तो क्या है, हमने सुना है कि लेखक लोगों का बड़ा दिमाग चढ़ गया है। वो धर्म रक्षा को गुण्डागर्दी समझते है और पुरस्कार वापस करने लगे है।’’ मै बोलना चाहता था ‘‘लल्लन जी....’’ वे हमें बोलने नही देना चाहते थे इसलिये बीच में बोले ‘‘ आप तो चुप ही रहें तो अच्छा है। देखीये आप पुरस्कार वापस करने की सोच रहे हो तो .......। आप तो ऐसा करें कुछ धर्म-कर्म के विषय में लिखे। ये जो दुसरी जात वाले है न ये बहुत प्रचार करते है फिर हम क्यों न करें ? बस ऐसे चार-पाॅच पुरस्कार आपको और दिलवा देंगे। ’’ हमने फिर बोलना चाहा ‘‘ लल्लन जी......’’ वे फिर बोले ‘‘हमने कहा ना आप चुप रहिये। हम आपको समझा रहे है कि इस लिखने के चक्कर में न आप घर के रहोंगे और न घाट के। इसलिये लिखों खूब लिखों लेकिन सोच समझकर .....और पुरस्कार वापस करने की तो सोचना भी नहीं ........वर्ना बहुत बुरा होगा। ’’ हम कुछ कह पाते इसके पूर्व ही वे अपनी फौज के साथ चले गये। हम सोचते रहे, लिखने के लिये भावनाओं के साथ-साथ सोचना-समझना भी जरूरी होता जा रहा है। हमनें एक बार स्मृति चिन्ह की ओर देखा और एक बार मेज पर पड़ी कलम को। सोचा किस धर्म के विषय में लिखूं ? कौन सा धर्म है जो दूसरों को छोटा समझता है ? मैं सोचने लगा कि लल्लन जैसे लोग क्या धर्म को जानते भी है ? यदि वे धर्म को नही जानते तो किस धर्म की रक्षा कर रहें हैं ? या वे सब कटपुतलियां है राजनीति के बड़े नाटक की । उनके जाने के बाद मैंने महसूस किया कि मेरे पड़ोस में रहने वाले खान साहब थोडे़ आशंकित रहने लगे। उन्होंने एक दिन लल्लन के आगमन के विषय में पूछ ही लिया। मैं बोला ‘‘ आपके और मेरे बीच जो संबंध है उसे ऐसे हजारों लल्लन मिलकर भी नहीं बिगाड़ सकते । शरारती तत्व जितने आपके यहाँ हैं उतने ही हमारे यहाँ भी। बस आज-कल उनकी फसल लहलहा रही है।’’

मैंने पुरस्कार वापस करने के विषय में कभी सोचा भी नहीं था। यह अवश्य सोचा था कि यदि लिखना कठिन हुआ तो लिखकर डायरी में रखूंगा माहौल ठीक होने पर छपने के लिये दूंगा। पर लल्लन जैसे लोगों की धमकी में मुझे पूरा झकझोर दिया। मैं उनकी स्तुतियां नही कर सकता। उनकी धर्म रक्षा को उचित ठहराना याने धर्म संर्घष को बढ़ावा ही देना होगा। मैं अपना रास्ता नहीं बदल सकता और न ही मुझे किसी लल्लन से चार-पाॅच और पुरस्कार चाहिए। लेकिन इस पहले वाले पुरस्कार का क्या कंरू, जिसने मुझे उस लल्लन के साये में लाकर खड़ा कर दिया है। शहर में दूर्गा विर्सजन की धूम है बस हमनें भी सोच लिया कि रावणों की इस निशानी को दूर्गा जी के साथ ही विर्सजित कर दिया जाये। न अखबार में छपा, न कोई शोर हुआ और न ही किसी चैनल पर वाद-विवाद; हमने अपना पुरस्कार विर्सजित कर दिया। फिर भी यक्ष प्रश्न यह है कि लिखूं या ना लिखूं ?

आलोक मिश्रा "मनमौजी"