पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 26 Abhilekh Dwivedi द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 26

चैप्टर 26

पुनः प्राप्ति की ओर।

जब मुझे होश आना शुरू हुआ और अपनी मौजूदगी का एहसास होने लगा, मैंने देखा मेरे चारों ओर हल्का अँधेरा है और मैं एक नर्म मोटी चादर पर लेटा हुआ था। मौसाजी मुझे देख रहे थे, उनकी आँखें मुझपर टिकी हुई थीं, उनके चेहरे पर गहरा दुःख और आँखों में आँसू थे। मैंने जैसे ही पहली सांस ली, उन्होंने मेरे हाथों को थाम लिया। उन्होंने जैसे ही मेरे आँखों को खुलते देखा, वो ज़ोर से चीखने लगे।
"ये जीवित है। ज़िंदा है ये।"
"हाँ मेरे प्यारे मौसाजी।" मैं बुदबुदाया।
"मेरे बच्चे," उन्होंने अपने सीने से मुझे चिपकाते हुए कहा, "तुम बच गए!"
जिस स्वर में उन्होंने ये शब्द कहे थे उसे सुनकर मैं पिघल गया था, खासकर जिस तरीके से उन्होंने मुझे संभाला हुआ था। हालाँकि प्रोफ़ेसर उन लोगों में से हैं जो इतनी जल्दी भावुक नहीं होते और ना ही अपनी भावुकता को दिखने का मौका देते हैं। उसी समय हैन्स भी वहाँ आ गया। उसने मेरे हाथों को मौसाजी के हाथ में देखा और भले मुझे पता था कि वो अल्पभाषी है लेकिन उसकी आँखों में संतुष्टि की चमक थी।
"दिन शुभ हो।" उसने कहा।
"दिन शुभ हो हैन्स, दिन शुभ हो।" मैंने उसके शब्दों को समझते हुए जवाब दिया था। "मौसाजी, अब हम सब साथ हैं तो ये बताइये कि हम सब अभी कहाँ हैं? मैं सब कुछ भूल चुका हूँ।"
"हैरी, कल देखते हैं।" उन्होंने कहा। "अभी तुममें बहुत ज़्यादा कमज़ोरी है। तुम्हारे सिर पर काफी लेप और पट्टियाँ हैं जिन्हें छूना नहीं है। मेरे बच्चे अभी सो जाओ, आराम करो और कल सब पता चलेगा, जो भी तुम जानना चाहोगे।"
"लेकिन," मैं रो पड़ा। "मुझे बता दीजिए कि समय क्या हुआ है, दिन कौन सा है?"
"अभी रात के ग्यारह बजे हैं और आज रविवार है। अगस्त महीने का नौंवा दिन है। और अब अगले दिन से पहले मैं तुम्हें कोई भी सवाल करने नहीं दूँगा।"
मैं सच में बहुत कमज़ोर महसूस कर रहा था और इसलिए मेरी आँखें खुद बंद हो गयीं। मुझे वाक़ई एक रात वाली अच्छी नींद की ज़रूरत थी और तब मुझे एहसास हुआ कि उस अंधेरे गुफा में मैं चार दिनों तक फँसा हुआ था।
अगली सुबह जब मैं उठा तो अपने चारों ओर देख रहा था। मैंने देखा कि सफर के लिए बिछौनों से मेरा बिस्तर बना हुआ था और मैं एक चित्रमय गुफा में था जहाँ अद्वितीय निक्षेप इंद्रधनुषी रंगों में चमक रहे थे, जहाँ ज़मीन भी नरम और बालुओं में चांदी की चमक थी।
अँधेरा हल्का था। ना कोई लालटेन जल रहा था, ना कोई विद्युतीय रौशनी थी लेकिन फिर भी एक रौशनी की चमक वहाँ छनकर आ रही थी।
किसी किनारे पर समुद्री लहरों और बहाव जैसे आवाज़ को मैं हल्के और बुदबुदाते हुए रूप में सुन पा रहा था और मुझे ऐसा भी लगा जैसे हवाओं में हलचल हो शायद।
मुझे ऐसा लगा मैं जाग नहीं रहा हूँ बल्कि सपने देख रहा हूँ। कहीं ऐसा तो नहीं कि वहाँ गिरने की वजह से मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया हो और मुझमें कोई पागलपन घर कर गया है? कुछ देर सोचने और गौर करने के बाद मैं समझ गया कि मैं ग़लत नहीं हो सकता। मेरे आँख और कान मुझे धोखा नहीं दे सकते।
"ये किरणें एक भाग्यशाली दिन का सूचक हैं।" मैंने खुद से कहा, "जो इन विशालकाय पत्थरों को चीरकर यहाँ इस गुफा तक पहुँच रहीं हैं। लेकिन इन लहरों में बुदबुदाहट का मतलब क्या है, इन समुद्री तरंगों के शोर का मतलब क्या है? हाँ मैं पवन वेग भी सुन पा रहा हूँ लेकिन हो सकता है मेरा ये वहम हो? कहीं मेरे बीमार रहने के दौरान मौसाजी किसी और सतह पर तो नहीं आ गए! कहीं मेरी वजह से उन्होंने अपने खोज को त्याग कर किसी अंत की तरफ तो नहीं मुड़ गए!
मैं ऐसे ही कुछ सवालों और पहेलियों में उलझा हुआ था तभी मौसाजी वहाँ आ गए।
"दिन शुभ हो हैरी!" उन्होंने खुश होते हुए कहा, "मुझे लगता है अब तुम काफी ठीक हो।"
"मैं, पहले से बेहतर हूँ।" मैंने अपने बिस्तर पर बैठते हुए कहा।
"मुझे पता था ऐसा होगा क्योंकि तुम पूरी शांति से और भरपूर नींद ले रहे थे। मैं और हैन्स बारी-बारी से तुम्हारा खयाल रख रहे थे और तुम्हारे सुधार पर हमारी नज़र थी।"
"आप सही कह रहे हैं मौसाजी।" मैंने जवाब दिया। "मुझे अगर कुछ खाने के लिए मिल जाता तो मेरे लिए अच्छा होता।"
"तुम्हें मिलेगा मेरे बच्चे, ज़रूर मिलेगा। अब तुम्हें बुखार भी नहीं है। हमारे बेमिसाल साथी हैन्स ने तुम्हारे घावों पर मरहम-पट्टी अच्छे से की है और ऐसे मलहम का इस्तेमाल किया जिससे कि घाव तुरंत भर कर सूख गए, पता नहीं उस मलहम का राज इसे कैसे पता था। और देखो, तुम्हारे घाव सब ठीक हैं। हैन्स एक बेमिसाल बंदा है।"
वो बात करते जा रहे थे और खाना परोस रहे थे और मैं तेजी से सब निगलते जा रहा था। जैसे ही मेरी भूख शांत हुई मैंने सवालों का सिलसिला शुरू कर दिया था जिसके जवाब वो बिना संकोच के दिये जा रहे थे।
मुझे तब पहली बार समझ में आया कि मैं उस गलियारे के नीचे एक सीध में गिरा था। और मेरे साथ कई बड़े पत्थर, कंकड़ साथ चले आये थे जिसके नीचे मैं दबकर मर भी सकता था। मैं पत्थरों के साथ लुढ़कते हुए मौसाजी के बाँहों में गिरा था। और तब मैं बेहोश और खून से लथपथ था।
"ये वाक़ई में चमत्कार है," प्रोफ़ेसर की अंतिम प्रतिक्रिया थी, "तुम हर बार बच गए। लेकिन अब हमें ध्यान रखना होगा कि हम कभी नहीं बिछड़ें, और ऐसे कभी ना मिलें।"
"हमें ध्यान रखना होगा कि हम कभी नहीं बिछड़ें।"
इन शब्दों ने मुझे अंदर तक हिला दिया था। मतलब अभी सफर खत्म नहीं हुआ है। मैं मौसाजी को आश्चर्य और कौतूहल सा होकर देख रहा था। मौसाजी ने मेरे रवैये को देखते हुए सवाल किया, "क्या बात है हैरी?"
"मैं आपसे एक गंभीर सवाल करना चाहता हूँ। आप कह रहें है कि मैं अब बिल्कुल स्वस्थ हूँ?"
"हाँ, बिल्कुल हो।"
"और सारे हाथ-पैर सही सलामत हैं और चल-फिर सकता हूँ?" मैंने पूछा।
"कोई शक नहीं।"
"लेकिन मेरे सिर का क्या?" मेरा तुरंत सवाल था।
"वो! एक-दो चोटों के बाद भी वो वहीं सलामत है, तुम्हारे कंधों पर।" कहकर मौसाजी हँसने लगे।
"लेकिन मुझे लग रहा है कि मेरा सिर सही नहीं है। मुझे तो लग रहा है मैं अभी भी चैतन्यरहित हूँ।"
"ऐसा क्यों लगता है तुम्हें?"
"मैं बताता हूँ कि मुझे क्यों लग रहा है कि मैं होश में नहीं हूँ।" मैने कहा, "क्या हम पृथ्वी के ऊपरी सतह पर नहीं हैं?"
"बिल्कुल नहीं।"
"तब क्या मैं वाक़ई में पागल हो गया हूँ जो मुझे दिन की रौशनी नहीं दिख रही? हवाओं को नहीं सुन पा रहा और समुद्री लहरों को नहीं सुन पा रहा?"
"और यही सब बातें तुम्हें विचलित कर रहीं हैं?" मौसाजी ने मुस्कुराते हुए पूछा।
"क्या आप समझा सकते हैं?"
"मैं समझाने की कोई कोशिश नहीं करूँगा क्योंकि सारा मामला समझाया नहीं जा सकता। लेकिन तुम खुद ये सब देखना और फिर तय करना। फिर तुम इस भूविज्ञान के चमत्कार को देखना जो अभी भी कल्पनीय है और हम इसे दुनिया के सामने लाएँगे।"
"तब तो हमें आगे बढ़ना चाहिए।" मैंने अपनी उत्सुकता को बिना दबाए कहा।
"ज़रा रुको मेरे प्यारे हैरी।" उन्होंने कहा, "बुखार के बाद इस खुली हवा में निकलने से पहले तुम्हें अपना ध्यान रखना होगा।"
"खुली हवा में?"
"हाँ मेरे बच्चे। मैं तुम्हें आगाह कर रहा हूँ कि हवा यहाँ प्रचण्ड है और मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी किसी भी लापरवाही की वजह से तुम्हें कोई हानि पहुँचे।"
"लेकिन मौसाजी मैं आपको विश्वास दिला रहा हूँ कि मैं पूरी तरह से ठीक हूँ।"
"थोड़ा धैर्य रखो मेरे बच्चे। किसी की भी एक तकलीफ सबके लिए नुकसानदेह साबित होगी। हम समय नहीं बर्बाद कर सकते क्योंकि हमारा समुद्री जहाज अब ज़्यादा दूर नहीं होगा।"
"समुद्री जहाज?" मैं पहले से ज़्यादा आश्चर्य में पड़ते हुए चीखा।
"हाँ। तुम एक दिन और आराम करो फिर हम कल नाव की सवारी करेंगे।" मौसाजी ने गूढ़ मुस्कान के साथ कहा।
"नाव की सवारी!" इन शब्दों से मैं आश्चर्यचकित था।
नाव की सवारी? कहाँ और कैसे? क्या हम किसी नदी या झील के ऊपर हैं या हमने कोई धरती के भीतर कोई समुद्र खोजा है?क्या इसकी गहराई में कोई नाव है जो किसी लंगर पर बंधी है?
मेरी जिज्ञासा अपने चरम पर जा पहुँची थी। मौसाजी ने पूरी कोशिश की मुझे रोकने के लिए लेकिन विफल रहे। आखिर में जब उनको लगा कि मेरी अधीरता से मुझे लाभ कम और हानि ज़्यादा होगी और जब संतोष होगा तभी मैं शांत हो पाऊँगा, तब उन्होंने भी हार मान लिया और मुझे इजाज़त दे दिया।
मैं तुरंत कपड़े पहनकर तैयार हो गया और पूरी सावधानी बरतते हुए चादर ओढ़ कर उस गुफा से बाहर देखने के लिए दौड़ा।