पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 24 Abhilekh Dwivedi द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 24

चैप्टर 24

लापता।

किसी भी इंसानी भाषा में मेरे दुःख-दर्द व्यक्त नहीं हो सकते थे। मैं जैसे ज़िंदा दफन था; अब धीरे-धीरे भूख प्यास से तड़पकर मरने के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिख रहा था।
वास्तविकता में मैं उन सूखे और सख्त चट्टानों पर रेंग रहा था। मैंने इससे पहले इतनी शुष्कता नहीं झेली थी।
लेकिन मैंने खुद से जानना चाहा कि मैंने उस धारा का साथ कैसे छोड़ दिया? इसमें कोई दो राय नहीं कि उसे इसी गलियारे से गुज़रना था जिसमें मैं अभी हूँ। अब मुझे ध्यान आया कि क्यों मुझे अपने साथियों की आवाज़ नहीं सुनायी दे रहे थे या मेरी पुकार उन तक क्यों नहीं पहुँची।
दरअसल मैंने जब ग़लत मार्ग पर चलना शुरू किया तो मैंने उस छोटी नहर के बारे में सोचा ही नहीं।
अब साफ था कि जहाँ हम रुके थे वहीं से पानी की धारा ने किसी और कंदरा की तरफ रुख किया होगा और मैं अपनी धुन में किसी और कंदरा की तरफ मुड़ गया था। फिर किस अनजाने गहराई की तरफ मेरे बाकी के साथी चले गए? मैं कहाँ हूँ?
वापस कैसे जाऊँगा? कोई निशान या चिन्ह तो है नहीं। इन ग्रेनाइट के कंकड़ों पर पैरों के निशान भी नहीं थे। इस भयानक समस्या से निकलने में मेरा दिमाग सुन्न होता जा रहा था। सारे तर्क और खयाल के बाद मेरी हालत के लिए बस तीन ही शब्द काफी थे:
लापता! गुमराह! गुमशुदा!
जिस गहराई में मैं खोया था उसको मापना भी असंभव था।
पृथ्वी के नब्बे मील की परत का भार मुझपर वैसा ही था जैसे एटलस के कंधों पर ग्लोब का भार था। इस पीड़ादायक भार से लग रहा था कुचला जाऊँगा। यहाँ बिल्कुल ऐसा माहौल था कि कोई भी सही आदमी पागल हो जाए।
मैं सब कुछ याद करने की कोशिश करने लगा जो भूल चुका था। बहुत मुश्किल से मैं ये सब कर पा रहा था। हैम्बर्ग, जहाँ हमारा घर था, मेरी प्यारी ग्रेचेन - ये सब जो पहले हकीकत थे, एक साये की तरह मेरी आँखों से ओझल होकर अब मेरे धुँधले खयाल बन चुके हैं।
वो सब मेरे सामने थे लेकिन सच में नहीं। अपने क्षणिक मतिभ्रम में मैंने पिछले सभी गुज़रे पलों का एक चित्रपट सा देख लिया था। वो जहाज और उसके नाविक, आइसलैंड, एम०फ्रिड्रिक्सन और स्नेफल्स के बेमिसाल शिखर! मैंने खुद से कहा कि अगर इस अवस्था में भी मैं अगर उम्मीद रखता हूँ तो ये मेरी उन्मत्तता है। अच्छा रहेगा निराशा को ही मौका दिया जाए!
हालाँकि मैंने शांति से और दार्शनिक होते हुए सोचा कि क्या वाकई कोई ऐसा होगा जो मुझे पृथ्वी पर वापस ले जाए, जो मेरे सिर के ऊपर बने हुए विशाल चट्टानी ढक्कन को चीरकर या टुकड़े-टुकड़े कर के मुझे यहाँ से निकाले? कौन मेरी मदद करेगा उन सही रास्तों के लिए, मेरे साथियों से मिलने में?
जड़-मूर्खता और पागलपन मिलकर एक उम्मीद की परछाई को नचा रहे थे।
"ओह, मौसाजी!" मैं कराह रहा था।
यही शब्द मेरे होठों पर आए; क्योंकि मैं जानता था कि मौसाजी के लिए भी मेरा साथ ना होना कितना बड़ा नुकसान है और वापसी में वो ज़रूर शांति से मुझे खोजेंगे।
जब मैं पूरी तरह से पराजित और शक्तिहीन महसूस करने लगा और कोई सहायता या सहयोगी की आशा नहीं थी, तब मैं भगवान से विनती करने लगा। अपने मासूम बचपन की यादें, माँ की धुंधली यादें, सब मुझे याद आने लगे थे। मैंने फिर से प्रार्थना शुरू किया। मुझे इतना तो हक है कि मैं उस भगवान को याद रहूँ, जिन्हें मैंने चकाचौंध में भुला दिया था और जिन्हें अब मैं बुरी तरह से जगा रहा था, ईमानदारी और सच्चे दिल से उनकी प्रार्थना कर रहा था।
इस विश्वास के पुनः जागरण से मुझमें एक शांति का संचार हुआ और मैं फिर से अपने दिमाग और ताकत को एकजुट करने लगा जिससे कि इस अघोषित मुसीबत से छुटकारा मिले।
मैं भूल चुका था कि अभी मेरे पास तीन दिन का जुगाड़ है। पानी का बोतल पूरा भरा हुआ था। बस, यहाँ अकेला रहना ही असम्भव था। मुझे हर कीमत पर अपने साथियों को खोजना होगा। लेकिन कौन सा रास्ता लेना चाहिए? ऊपर की तरफ या नीचे? इसमें कोई संदेह नहीं कि ऊपर की तरफ मेरे पैरों के निशान होंगे।
शांतिपूर्ण और ध्यानपूर्वक कदमों से मैं मुझे वहाँ पहुँचना होगा जहाँ से मैंने उस धारा को छोड़ दिया था। मुझे किसी तरह उस विभाजनकारी बिंदु पर पहुँचना होगा। एक बार यहाँ पहुँचा और पानी की धार मेरे पैरों के नीचे दिखी फिर तो मैं स्नेफल्स के मूँह तक पहुँच ही जाऊँगा। मैंने पहले ये क्यों नहीं सोचा? ये बचने के लिए सबसे उपयुक्त उपाय है। इसलिए अब सबसे ज़रूरी था हैन्स की नदी के धार को खोजना।
कुछ खाने और पीने के बाद मैं किसी तरोताज़ा दैत्य जैसा उठा। लोहे के डंडों के सहारे मैं ऊपर की तरफ चढ़ने लगा। चढ़ाई काफी सख्त और तकलीफदेह थी। लेकिन मैं उम्मीद और ध्यान से ऐसे ही बढ़ रहा था जैसे पता हो कि किसी घने जंगल से निकलने का एकमात्र रास्ता कौन सा है।
लगभग एक घण्टे तक कुछ महसूस नहीं हुआ। इसके बाद जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था याद करने की कोशिश कर रहा था कि कुछ जाने-पहचाने मोड़ या घुमाव दिखे। लेकिन ऐसा कोई निशान नहीं मिला जो मुझे मदद करे और मैं समझ गया कि ये गलियारा मुझे वहीं ले जाएगा जहाँ मैं अपने साथियों से बिछड़ा था। बिना किसी मकसद के ये पृथ्वी का एक अंधकूप था।
जैसे ही मेरे सामने बड़े चट्टानों की लंबाई शुरू हुई मैं समझ गया कि मेरी किस्मत में क्या है और उस शुष्क ज़मीन पर गिर पड़ा।
जिस दुःख और डर की अवस्था में मैं जा चुका था उसका वर्णन असंभव है। मेरी आखरी उम्मीद और साहस, जिसके बल पर मैं खड़ा था, उसने भी ग्रेनाइट के निर्दयी पत्थरों को देखकर जवाब दे दिया था।
मुझे पता था यहाँ से उड़कर निकलने की कोशिश बेकार है क्योंकि ये शक्तिशाली भंवरजाल, बिना किसी सहयोग या इशारे के चारों और फैला हुआ है। बस, अब यहाँ लेटे हुए प्राण त्याग देना था। सबसे घृणित मौत होती है कहीं लेटे हुए मर जाना।
मुझे ये भी खयाल आया कि किसी दिन जब पृथ्वी की इस गहराई में मेरे कंकाल के अवशेष मिलेंगे तब कुछ दिलचस्प और गंभीर वैज्ञानिक चर्चाओं को मौका मिलेगा।
मैंने ज़ोर से चिल्लाने की कोशिश की लेकिन थके बेजान और भर्राए आवाज़ मेरे सूखे होठों तक ही रह गए। मैं सांस लेने के लिए हाँफ रहा था।
इन सभी यातनाओं के मध्य एक नए भय ने मेरे अंदर जगह लेना शुरू कर दिया। मेरे पास जो लालटेन था वो गिरने की वजह से बेकार हो चुका था। मैं उसे बना भी नहीं सकता था। उससे रोशनी मद्धम से और मद्धम होते हुए बुझने के करीब जा रही थी।
उस विद्युतीय यन्त्र की मद्धम होती रौशनी में मैं निराशा और हताशा से घिर रहा था। उसी समय शायद ग्रेनाइट की दीवारों पर किसी परछाई ने हरकत की। रौशनी की आखरी चिंगारी तक मैंने पलक झपकाने की हिम्मत नहीं की। हर पल यही लग रहा था कि अभी सबकुछ शेष होगा और मैं हमेशा के लिए रह जाऊँगा इस बियाबान अंधेरे में!
और जब लौ में बुझने से पहले की फड़फड़ाहट शुरू हुई, मैं जितना देख सकता था और पूरा दम भर कर, कोशिश करने लगा कि जहाँ तक ये रास्ता दिखाये मैं वहाँ तक पहुँच जाऊँ; क्योंकि फिर मैं हमेशा के लिए इस अनंत और निराशावादी अंधकार में खो जाऊँगा।
एक दारुण कराह मेरे होठों से निकली। पृथ्वी के ऊपरी सतह पर कितना भी अंधकार हो लेकिन रौशनी कभी अपनी शक्ति नहीं खोती हैं। रौशनी कितनी भी मद्धम क्यों ना हो जाए उसकी पहुँच इतनी और ऐसी होती है कि आँखों की पुतली वहाँ पहुँच जातीं हैं। यहाँ ऐसा कुछ नहीं था, गहन अंधकार ने मुझे बिल्कुल अंधा बना दिया था।
मेरा सर बुरी तरह से चकरा रहा था। मैंने उन निर्जन पत्थरों के सामने हाथों को उठा कर खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था। दर्द से बेहाल था। पागलपन जैसा सवार था। पता नहीं मैंने क्या किया था। मैंने दौड़ना, उड़ना, उस भंवरजाल में इधर उधर भटकना, नीचे की तरफ चले जाना शुरू कर दिया, जैसे इन्हीं परतों के नीचे का निवासी हूँ और दहाड़ते, चिल्लाते और रोते हुए जब नुकीले चट्टान से घायल होकर खून से लथपथ हुआ तो अपने ही टपकते खून को पीने के लिए बावला हो गया था, क्योंकि ये पत्थर मुझे निकलने का कोई रास्ता नहीं दे रहे थे।
मुझे जाना कहाँ था? कहना नामुमकिन था। मैं किसी भी बात से बिल्कुल अनजान था।
इसी तरह कई घण्टे गुज़र गए। काफी देर के बाद जब मैं अपनी पूरी ताकत खो चुका था, एक सुरंग के किनारे मैं बेहोश होकर गिर पड़ा।