एक किस्सा ऐसा भी Smita द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक किस्सा ऐसा भी

स्मिता

छींटदार नीले रंग का पर्दा अपनी जगह पर सुसज्जित हो गया था। देवधर बाबू, जिन्हें पूरा गांव भगतजी कहता था, अपनी खटिया पर लेट चुके थे। अपने बेटे की पदचाप उन्हें साफ सुनाई दे रही थी। बेटा बिल्कुल बरामदे तक आ चुका था। जाड़े का दिन था, इसलिए भगतजी ने कम्बल को अपने चेहरे तक खींच लिया। धीरे-धीरे उनके कराहने की आवाज कमरे से बाहर बरामदे तक आने लगी। जैसे ही बेटा घर के अंदर घुसा, उनका छोटा बेटा, यानी भगतजी का पाेता पिता के पैरों से लिपट गया। वह उनकी पैंट की जेब में हाथ डालकर पूछने लगा, "पिताजी! आज आप मेरे लिए क्या लाये हैं?' अभी वे जेब से कुछ निकाल ही रहे थे कि भगतजी के कराहने की आवाज उन तक पहुंच गई। अपने बाबूजी की आवाज सुनते ही वे बेचैन हो उठे। बेटे को स्वयं से परे धकेला और भगतजी के कमरे की तरफ बढ़ चले। अभी वे बाबूजी के कमरे में दाखिल होने ही वाले थे कि पिंजरे में बैठा तोता-सीताराम-सीताराम की रट लगाने लगा। (पालतू तोता बाबूजी के बेजोड़ अभिनय को अक्सर ताड़ लेता है और उनके कुछ कहते ही सीताराम-सीताराम की रट लगाने लगता है।) तोते को अनदेखा करते हुए बेटा बाबूजी के कमरे के अंदर प्रवेश कर गया। उसने देखा कि बाबूजी खटिया पर लेटे हुए हैं और कराह भी रहे हैं। उन्होंने झट से उनकी नब्ज टटोली, माथा छुआ और दिल के पास कान लगाकर धड़कन सुनने की कोशिश की, पर उन्हें बाबूजी के शरीर की सभी मशीनें ठीक से काम करती मालूम जान पड़ीं। भगतजी झट से उठ बैठे और बेटे से कहने लगे, "अरे मेरे माथे और हाथ को क्यों टटोल रहे हो? मरदुआ दिल की धड़कन से भी मेरी बीमारी का पता नहीं चलेगा। आज सुबह से ही मुझे सीने में दर्द हो रहा है। मैं रोज तुम्हें डॉक्टर के पास चलने को कहता हूं, लेकिन तुम व्यस्तता का बहाना बना कर टाल जाते हो। देखना इसी तरह एक दिन मेरी रामकहानी खत्म हो जाएगी।' इतना सुनते ही बेटा घबड़ा गया और लगभग चिल्लानेवाली आवाज में उसने मां को आवाज लगाई।  "मां आज बाबूजी ने खाने में क्या-क्या लिया है? वह खाना खराब तो नहीं हो चुका था?' मां ने जवाब दिया, "अरे नहीं खाना तो बिल्कुल ताजा बना था। अब क्या बताएं तुम्हें। सुबह10 बजे इन्होंने केवल चार रोटियां ही खाई, दोपहर में थरिया (थाली) में परोसे भात को तो छुआ तक नहीं। एक बार में सेर भर अनाज खाने वाले तुम्हारे बाबूजी अब तो उसका आधा भी नहीं खा पाते हैं।' इस पर बेटे ने कुछ भी उत्तर तो नहीं दिया, लेकिन कुछ झुंझलाता हुआ रसोई की तरफ जरूर बढ़ चला। रसोई में रात के खाने की लगभग तैयारी हो चुकी थी। पत्नी पति के जूतों की आवाज सुनकर थोड़ा सहम गई। बेटा वहां पहुंचकर पत्नी से बाबूजी के भोजन लेने के बारे में प्रश्नों की झड़ी लगा दी। उसने सब्जी की कढ़ाई से ढक्कन उठा लिया और पूछने लगा, "यह दिन की बची हुई सब्जी तो नहीं है?' पत्नी के न में सिर हिलाते ही कहा, "फिर कैसे खराब हो गई बाबूजी की तबियत?' लगता है उनकी जन्मकुंडली किसी ज्योतिष से फिर से दिखानी पड़ेगी। स्वस्थ होने के बावजूद उन्हें बीमार होने का भ्रम क्यों बना रहता है? तभी माँ ने बहू को आवाज लगाई और सूचना दी, "आज बाबूजी के लिए जरा तेज मसाले और नमक वाली दो मोटी रोटी बना देना। उनकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।'  मां जी के सुर में सुर मिलाकर पिंजरे में तोता भी अपनी खाने की कटोरी पटकने लगा और कहने लगा-सीताराम सीताराम। ऐसा लगभग हर सप्ताह होता। भगतजी को जब भी बेटे से ज्यादा प्यार पाना होता या उन्हें सादी सब्जी और रोटी खाने का मन नहीं करता, तब वे तबियत खराब होने का बड़ा बढ़िया अभिनय कर लेते।

गांव के बुजुर्ग बताते थे कि देवधर बाबू बचपन से ही खाने में चिकनफट (हमेशा तला-भुना भोजन खाने वाला) थे। जवानी में जब भी बाजार जाते, तो भोला हलुवाई की दुकान पर बैठकर गरमागरम जलेबी और समोसा जरूर खाते। बुढ़ापे में तो उनका बाजार जाना न के बराबर हो गया था, लेकिन उनकी जिह्वा स्वयं को बूढ़ी मानने से इंकार करती। वह यदा-कदा भगतजी से तले-भुने और सुस्वादु भोजन लेने की हठ करने लगती थी।

भगतजी के वैसे तो चार बेटे थे, पर छोटे तीन बेटे अपने-अपने हिस्से की जमीन-जायदाद लेकर अलग हो गए थे। बेटे-बहुओं को माता-पिता से कोई खास मतलब नहीं था। इसलिए बड़े भाई अपने परिवार के साथ कैसा बर्ताव करते, इन सभी बातों के बारे में सोचने के लिए उन्हें कभी समय ही नहीं मिला। बड़ा बेटा और उनका परिवार भगतजी के साथ रहता था। बेटा अपने पिता से बेहद प्यार करता था। पहली संतान होने के कारण पिता का भी लगाव बड़े बेटे की तरफ ज्यादा था। गांव के बड़े-बुजुर्ग बड़े बेटे की खूब तारीफ करते। कारण आजकल तो जवान बेटे-बहू बूढ़े मां-बाप का ख्याल रखना तो दूर, उनके साथ रहना भी पसंद नहीं करते हैं। बड़े बेटे को भी अपनी प्रशंसा खूब भाती और वह इस प्रशंसा की चाह में बाबूजी की खातिर घर-बाहर अजीबोगरीब हरकतें भी कर जाता। कभी एक जरा-सी बात पर पूरा घर सिर पर उठा लेता। पत्नी और बच्चों की पिटाई कर देता, तो कभी बाहर वालों से झगड़ जाता। वह हर बात को बाबूजी के सम्मान से जोड़ लेता और हो-हल्ला मचाने लगता। गांव वाले इसके पीछे भी एक कहानी बताते थे। बड़ा बेटा जब छोटी उम्र का था, तो अक्सर वह देखता कि भगतजी के छोटे भाई और बहन उन्हें किसी न किसी बात को लेकर भला-बुरा कहते रहते। छोटी-छोटी बातों पर भी वे उन्हें बेइज्जत कर देते। बड़े बेटे के बाल मन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। उसने तभी ठान लिया कि बड़े होने पर वह किसी कीमत पर बाबूजी की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं करेगा। परिणाम यह हुआ कि वह सही और गलत में भी फर्क करना भूल गया। भगतजी अक्सर शाम में बुजुर्गों के साथ गांव की चौपाल पर बैठते और गांव-घर की चर्चा के साथ-साथ अपने घर की भी राम कहानी रस लेकर सुनाते। उनके हमउम्र श्रोतागण उनकी बातें सुनकर मन ही मन उनसे ईष्र्या करते। भगतजी अपनी बात जरा ऊंची आवाज में सुनाते, ताकि आस-पास से गुजरने वाले को भी घर में उनकी हैसियत के बारे में पता चल जाए। वे कहते, "मैं एक बार बेटे के दिमागकी चाभी घुमा देता हूं, तो वह मेरे लिए बहु और अपने दोनों बेटों की भी अच्छी तरह मरम्मत कर देता है।' एक बार अचानक भगतजी के घर की ओर कई लोगों को जाते हुए देखा गया था। पता चला कि भगतजी अपनी खटिया पर पैर छितरा कर लेट गए और कहने लगे कि मैं अब मर रहा हूं। मुझे इच्छा मृत्यु का वरदान मिला हुआ है। इस पर गांव की एक सम्मानित बुजुर्ग महिला ने कहा था, "भगतजी की आयु अभी पूरी नहीं हुई है। इतना हट्टा-कट्ठा इंसान इतनी जल्दी मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता।' उनकी इस बात पर गांव की एक युवा बहु ने उनकी ओर विस्मित होकर देखा, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, "अरे वह पहले भी स्वर्ग घूम आने का दावा कर चुके हैं। उस समय तुम ब्याह कर भी इस गांव में नहीं आई थी। उस दिन भगतजी आंगन में बिछे खटिया पर आंखें बंद कर लेट गए और सांस को कुछ देर के लिए रोक लिया। जब बेटों ने पास जाकर उन्हें हिलाया-डुलाया, तो कुछ देर बाद आंखें मलते हुए खटिया पर से उठ गए और पूछने लगे, मैं कहां आ गया? अभी तो मैं सोने की बनी दीवारों के बीच खड़ा था। दीवारों से हीरे-जवाहरात की लड़ियां लटकी हुई थीं।सुंदर अप्सराएं-सी औरतें एक-कोने से दूसरे कोने तक जा रही थीं। जान पड़ता है, मैं स्वर्ग चला गया था। हाय ईश्वर ने मुझे दोबारा मृत्युलोक क्यों भेज दिया?-इतना कहते हुए वे अपनी छाती पर मुक्का मारने लगे और रोने लगे। हां आँखों से एक बूंद आंसू टपक नहीं पा रहा था।उनका यह बेजोड़ अभिनय देखकर तीनों बेटे और बहुएं तो मुंह दबाकर हंसने लगीं,  लेकिन बड़ा बेटा उन्हें पकड़ कर रोने लगा। उसे लगा कि पिताजी को कोई गंभीर बीमारी हो गई है। इसलिए वे इस तरह की बातें कर रहे हैं।'

सचमुच ईश्वर कुछ लोगों को विचित्र बनाते हैं! उनकी लीला वे ही जानें।

भगतजी के बारे में एक किस्सा यह भी था कि खेलते समय बच्चों को जब भगतजी दिखाई पड़ जाते, तो वे खेल छोड़ उनके नाम के आगे "बगुला' शब्द जोड़ कर कुछ ऐसी आवाज में बोलते कि आस-पास खड़े लोगों को तो सुनाई न दे सके, लेकिन भगतजी को सुनाई दे जाए। बच्चे अपनी दोनों हथेलियों को आसमान की तरफ कर लेते और एक सुर में गाने लगते- बगुला-बगुला दान दे चिनिया बादाम दे...। जैसे ही भगतजी के कानों तक बच्चों का यह कविता-पाठ पहुंचता, वे दांत किटकिटाकर बोलने लगते, "ठहर जाओ, मैं सभी बच्चों के पिता से शिकायत लगाऊंगा कि तुमलोग बीमार आदमी का मजाक उड़ाते हो।' बच्चे खी-खीकर हंसने लगते और कहते, "हमलोग तो आसमान में उड़ रहे बगुलों से कुछ मांग रहे थे। आपका नाम तो बगुला नहीं है भगतजी'। इसपर भगतजी गुस्से से भभकते हुए कहते, "ठहर जाओ, मैं अपने बेटे से तुम सभी के बारे में शिकायत लगाऊंगा। वह तो अवश्य तुमलोगों की टांगें तोड़ देगा। जानते नहीं कि वह मुझसे कितना प्यार करता है। अगर मैं कहूं तो वह मेरी सलामती के लिए अपने बीवी-बच्चों के करेजे का खून निकालकर मुझे पिला दे।' इतना सुनते ही बच्चे डर कर वहां से भाग जाते।

उनके जमाने के भाई-बंधु बताते थे कि भगतजी के लिए उनके मां-पिता ने मनौती मांगी थी। गांव में प्लेग फैलने के कारण उनके जन्म से पहले 3 भाई और 1 बहन की मौत हो गई थी। इसलिए उनके माँ-पिता ने यह मनौती मांगी थी कि यदि यह बच्चा लंबी आयु पाएगा, तो देवघर में बाबा भोलेनाथ के दरबार में उसका मुंडन कराया जाएगा। दैवीकृपा से भगतजी भले-चंगे रहे और दस वर्ष की उम्र में उनका देवघर में बाबा वैद्यनाथ के आगे मुंडन कराया गया। मुंडन के बाद पूरे गांव को पूरी-बुनिया(बूंदी) का दंगल(भोज) खिलाया गया। कालांतर में भगतजी के बाद 3 बहनें और 2 भाई संसार में आये और उन सभी ने लंबी आयु भी पाई। छोटी उम्र में भगतजी यह भलीभांति जानते थे कि वे मां-पिता के लाडले हैं, इसलिए उन्हें पढ़ाई-लिखाई के लिए डांटा नहीं जाएगा। जब भी स्कूल में गुरुजी डांटते या डंडे से पिटाई करते, तो वे दूसरे दिन स्कूल जाते ही नहीं थे। पेट दर्द या सिरदर्द का बहाना बना देते। और तो और उस दिन बीमारी के नाम पर कुछ अच्छी चीजें भी उन्हें खाने को मिल जातीं। यह आदत बड़े होने पर भी उनमें कायम रही। पांचवीं कक्षा के बाद तो उन्होंने स्कूल जाना भी बंद कर दिया। पढ़ाई-लिखाई से तो उनका पिंड ही छूट गया। दिनभर खेलते, खेत पर जाते और चादर तानकर सोते। बीच-बीच में शरीर पर किसी प्रेतात्मा के सवार होने का भी नाटक कर लेते। बहुत आराम से उनका बचपन बीता। जवान होने पर शादी भी हो गई। फिर वे घर की खेती-किसानी से जुड़ गए। संयोगवश गांव में चिट्ठी बांटने का काम मिल गया, सो लोगों के बीच नौकरी पा लेने की भी हेठी दिखाने लगे। अब पाठक मन में ये प्रश्न कतई नहीं लाएं कि कितनी उम्र में भगतजी को नौकरी मिली और कब वे सेवा मुक्त हुए? आखिर उनकी उम्र क्या होगी? बातचीत में उनकी मां बताती थीं कि 1934 के भूकंप वाले साल में देवधर पैदा हुआ था, तो उनके पिता बताते भूकंप से 2 साल पहले हुआ था हमारा लाल। उस दिन नागपंचमी थी। ताऊ बताते जिस साल देवधर पैदा हुआ, उसी साल अंग्रेज हमारे गांव आये थे। कोई यह भी कहता कि अरे भगतजी ने तो भारत छोड़ो आंदोलन में डंडे भी खाये थे। उनकी सही उम्र पता करने की बजाय ये जान लें कि बुजुर्ग होने के बावजूद स्वस्थ शरीर और कुछ आदतों की वजह से युवाओं को भी वे मात देते थे। जैसे ही उनके घर में गांव की कोई लुगाई दाखिल होती, उनका मिजाज हरिया(खुश होना) जाता। चाहे वे लाख बीमारी का अभिनय कर रहे हों, उठकर बीच आंगन में आ जाते और हंस-हंसकर स्त्रियों से बात करने लगते। रास्ते में नई-पुरानी बहुओं के दिख जाने भर की देरी थी, वे उन्हें रोककर दुनिया-जहान की बातों पर गप्पें लड़ाने लगते। कई बार तो जब स्त्रियां उन्हें देख लेतीं, तो अपना रास्ता बदल लेतीं। घर में तो वे छिप-छिप कर चारों बहुओं की बातों को सुनने की कोशिश में लगे ही रहते थे। जब किसी की उन पर नजर पड़ जाती, तो कई बार कुछ सामान लेने का बहाना बना देते, तो कभी किसी पोते को आवाज लगाने लग जाते। गांव की ही एक बहू बताती थी कि वे औरतों की बातें सुनने या उन्हें देखने के लिए अपने घर के दरवाजे पर माला फेरने बैठ जाते थे। हाथ माला पर और नजरें आती-जाती औरतों पर। भगतजी कभी-कभी दुआर पर चार छह मोटी-मोटी पोथी भी अपने आस-पास रख लेते। बगल के बटुकजी हंसते हुए उनसे कहते, "आज आपके घर किसी बहुरिया के पिताजी आने वाले हैं, जो उन्हें दिखाने के लिए इस तरह मोटी-मोटी पोथी पूरे दुअार पर बिखेर लिए हैं? पहले इतना पढ़े होते, तो कलक्टर तो जरूर बन जाते।' इतना सुनते ही भगतजी शर्मा जाते। इस कहानी में खतरनाक मोड़ तब आया जब एक सुबह भगतजी के यहां से तोते की सीताराम-सीताराम की लगातार आवाजें आने लगीं। ऐसा लगा कि वह पिंजरा तोड़कर उड़ जाना चाहता है। उसकी आवाज सुनकर ही दांत में सिर के पल्लू को दबाई स्त्रियों की भीड़ उनके यहां लगने लगी। सभी ने देखा कि सामने ओसारे पर खून से लथपथ बड़ी बहू की लाश पड़ी थी। एक कोने में उनका बेटा और बड़ा पोता चुपचाप किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बैठा था। एक स्त्री ने रोते हुए छोटे बेटे को बहला-फुसलाकर पूछा, तो उसने तोतली जुबान में बताया कि रात में भगतजी को लेकर माता-पिता में कहा-सुनी हो गई थी। पिताजी ने गुस्से में आकर मां की ओर मूसल फेंक दिया था, जो सीधे उसके सिर से जा लगा और मां वहीं गिर पड़ी...। आगे क्या हुआ होगा, इसका अनुमान कोई भी पाठक सहजता से लगा सकता है। यह कहानी सच्ची है, जिसे बचपन में नानी ने हमें सुनाई थी, जिसे आज हम आपको सुना रहे हैं।