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मिट्टी के दीये

सुनयना नोएडा के किसी प्राइवेट कंपनी में प्रबंधन से जुड़ी है। वह बेटी सुकन्या को प्यार से सुकू बुलाती है। उसने जब सुकू को गेहूं के आटे से दीया बनाते देखा, तो पहले उसे बहुत तेज गुस्सा आया। गुस्सा इस बात पर कि खामख्वाह वह किचन की स्लैब को गंदा कर रही है। वह अच्छी तरह जानती है कि उसके हाथों से आटे की लोई गिरकर स्लैब से चिपक जाएगी या फिर नीचे गिरकर फर्श को गंदा कर देगी। फिर उसे साफ करने में बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। सुनयना के डांटने पर बड़ी मासूमियत से सुकू ने जवाब दिया, ' मम्मा, तुम हमेशा यह कहती रहती हो कि मिट्टी भी अब प्रदूषित हो चुकी है। मिट्टी से मत खेला करो। इसलिये मैंने थोड़ा दिमाग लगाया और आटे को गूंथ कर दीये बनाने की तरकीब निकाल ली। कम से कम आटा तो प्रदूषित नहीं होता है।' छठी क्लास में पढ़ने वाली बच्ची के मुंह से बड़ी बात सुनकर सुनयना सोच में पड़ गई। उसे ऐसा महसूस हुआ कि विकास की बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है उसके बाद की पीढ़ी के बच्चों को। रोजगार की तलाश में इन बच्चों के माँ-बाप ने बड़े शहरों की ओर रूख कर लिया। मकान की ईएमआई चुकाने और रोज ऑफिस की आठ-दस घण्टे की ड्यूटी पूरा करने के चक्कर में उन लोगों ने पर्व-त्योहारों के अवसर पर भी अपने गांव आना-जाना छोड़ दिया। इस वजह से ये बच्चे इतना तक भी नहीं जानते हैं कि जो रोटी वे खाते हैं, वह गेहूं से तैयार होती है। खेतों में लगी किसी फसल को देखना तो उनके लिए बहुत दूर की बात है। शहर में बढ़ते प्रदूषण को उन्हें झेलना पड़ रहा है, सो अलग। ' मन में चल रहे विचारों को वहीं विराम देते हुए सुनयना ने सुकू को 3-4 मुट्ठी आटे गूंथकर दे दिए। उसने देखा कि सुकू ने आटे से ही सुंदर 10-12 दीये बना लिए हैं। दीयों को आकर्षक बनाने के लिए उसने अलग-अलग वाटर कलर से उन्हें पेंट भी कर दिया। उसके दीयों को देखकर सुनयना को अपने बचपन के दिन याद आ गए। मोबाइल, व्हाट्सएप और फेसबुक रहित होने के बावजूद बिहार के एक छोटे से गांव में उसका बचपन कितना गुलजार रहता था। दशहरा, दीपावली और छठ तीनों को बिहार में महापर्व की संज्ञा दी जाती है। इसलिए लगभग 1 महीने तक गांव-शहर में खूब धूम-धड़ाका रहता है। जाहिर है पढ़ाई-लिखाई और स्कूल से भी बच्चों को लंबे समय तक छुट्टी मिल जाती है। सुनयना पुराने दिनों की याद में खो गई है। स्वयं से वार्तालाप करते हुए वह कह रही है- दशहरा के अवसर पर शहर जाकर दुर्गा जी की कई मूर्तियों को देखते, चाट-पकौड़े खाते और कुछ छोटे-मोटे खिलौने खरीदते हुए घर लौटने के बाद हम सभी भाई-बहन उदास हो जाते थे। लेकिन हमारी आंखें इस आस में चमक जातीं कि आगे तो दीवाली की रौनक बाकी है। उन दिनों ज्यादातर घरों में मिट्टी के दीये और मोमबत्तियां ही जलाई जाती थीं। कुछेक घरों में ही मास्टर बल्ब की रौनक रहा करती। घरौंदा जिन्हें बिहार में घरकुन या घरको कहा जाता है, उसे तैयार करने में हम सभी जुट जाते। रघुवीर हमारे नाना के खेतों की रखवाली करते थे। दीपावली पर हम सभी भाई-बहन गंगा जी के पास से मिट्टी लाने के लिए उनकी खूब मिन्नत करते। वे मिट्टी लाकर हमारा घरको बनाते। हम बच्चे उस समय ऐसा मानते थे कि गंगाजी की ताजी मिट्टी से घरको मजबूत बनता है। हमारा घरको कम से कम तीन मंजिल का होता। हर मंजिल सीढ़ियों से जुड़ा रहता। घरको को सुरक्षा प्रदान करने के लिए उसे चारदीवारी से भी घेरा जाता। टूटी चूड़ियों और खराब हो चुके मास्टर बल्ब से हम उसे सजाते हुए न जाने कितनी काल्पनिक कहानियां गढ़ लेते। उनमें से एक पसंदीदा यह कहानी जरूर होती कि दूसरे बच्चों की अपेक्षा हमारा घरको सबसे मजबूत और साफ-सुथरा बना है। मिट्टी से तैयार घरको को मजबूती देने के लिए पहले उसे गोबर से लीपा जाता और फिर घर की पुताई में काम आ चुके चूने और कई तरह के रंगों से उसे रंगा जाता। घरको को लीपने-पोतने का काम या तो चौका-बर्तन करने वाली स्त्री करती या फिर रघुवीर। फिर हम सभी इन्तजार करते मिट्टी के बर्तन-खिलौने बेचने वाली उस ग्रामीण स्त्री का, जो मिट्टी के रंग-बिरंगे खिलौने दे जाती। हम नानी से मनुहार करते कि वे हमें ज्यादा से ज्यादा खिलौने खरीदकर दें। रसोई के बर्तनों वाले खिलौनों में सबसे खूबसूरत खिलौना होता आटा पीसने वाली चक्की, जिसे बिहार के गांवों में जांता भी कहा जाता है। दीपावली की रात घरको के सामने खिलौने वाले पतीले ( कुहिया) में मूढ़ी और गुड़- चीनी के तरह-तरह के खिलौने भरकर सजाना कितना मजेदार होता था। इन खिलौनों को हाथी, घोड़े, चिड़िया आदि का आकार दिया जाता। कुहिया में सतंजा यानी सात प्रकार के भूजे को भी डाला जाता था। चावल, गेहूं, मकई, चना, मूंगफली, तिल के अलावा इसमें एक मोटा अनाज माढ़ा (मोटा अनाज) का भूजा भी डाला जाता था। यह तो पता नहीं कि अब बिहार में किसान इसे उपजाते हैं या नहीं। हमलोगों ने कभी न कभी खेत-खलिहान में न केवल बीज-बिरवे को देखा है, बल्कि किसानों को फसल काट कर बोझा बनाते और भूसा अलग कर अनाज को घर पहुंचाते भी देखा है। तभी तो हम किसानों के दर्द और अन्न के महत्व को जानते हैं। मेट्रो सिटी में रहने वाले बच्चे न खेतों से अनाज घर पहुंचते देख पाते हैं और न घरको को मिट्टी के खिलौने से सजा पाते हैं।'
घर -ऑफिस संभालती सुनयना के मन में यह टीस बराबर बनी रहती कि उसकी बेटी को प्राकृतिक वातावरण में रहने का अवसर नहीं मिल पाया है। संयोगवश ऑफिस में अचानक बॉस ने उससे पूछा, क्या आप दो साल के लिए पालमपुर ( हिमाचल प्रदेश) के ऑफिस में स्थानांतरित हो सकती हैं? मेट्रो सिटी से सीधे छोटे शहर जाकर क्या आप स्वयं को
एडजस्ट कर पाएंगी?' उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ' वहां आपको कई सारी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ सकता है। सुरक्षा और बच्चों की अच्छी पढ़ाई की तो मैं गारंटी ले सकता हूं।' सुनयना के स्थान पर कोई और होता, तो शायद बॉस के इस प्रश्न को करियर में उन्नति नहीं, बल्कि अवनति की तरह लेता। पर उसने बिना देर किए सहमति में अपना सिर हिलाया और तुरंत पूछ बैठी, ' सर पालमपुर के लिए कौन सी तारीख को मुझे निकलना होगा? बच्चों की तरह उसके उतावलेपन को देखकर बॉस मंद-मंद मुस्कुराने लगे। उन्होंने बताया, 'आपकी रुचि और इच्छा को देखते हुए ही ऑफिस ने यह निर्णय लिया है।' उधर सुनयना के लिए तो यह मुंह मांगी मुराद पूरी होने की तरह था। उसने अपनेआप से कहा, ' यदि मेट्रो सिटी में रहने वाले बच्चों को भारत की सच्ची तस्वीर से परिचित कराना है, तो उन्हें कुछ समय के लिए गांव या छोटे शहर या कस्बे में रखना ही होगा।' कुछ दिनों बाद सुनयना अपने बच्चों के साथ पालमपुर आ गई। एक साल से अधिक समय बीत चुका है। यहां छोटी-मोटी दिक्कतें तो उसके साथ होती रहती हैं, लेकिन सुकू यहां प्रकृति और सामाजिक जीवन के कई जरूरी पाठ अब तक सीख चुकी है। वह खेत-खलिहान और फसलों-पशुओं के बारे में कई ऐसी बातें जान चुकी है, जिनके बारे में अब तक वह सिर्फ किताबों में पढ़ पाई थी। यहां आकर वह न जाने कितनी सारी पक्षियों को उनकी आवाजों से पहचानने में सक्षम हो चुकी है। उसने 'प्यारे पक्षी' नाम से एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बना लिया है, जिन पर समय-समय पर पक्षियों के फोटो और वीडियो भेज कर वह नोएडा में रह रहे अपने दोस्तों को भी परिचित कराती रहती है। कल दीपावली है। हालांकि यहां भी सजावट के इलेक्ट्रॉनिक सामान से बाजार सज चुके हैं, लेकिन चीनी सामान के विरोध के कारण इस बार स्थानीय लोगों ने दीपावली पर मिट्टी के दीये से घर-आंगन रोशन करने का संकल्प लिया हुआ है। इसलिये सुकू और उसकी कुछ दोस्तों ने मिलकर न सिर्फ मिट्टी के दीये की खरीदारी की है, बल्कि स्वयं मिट्टी से पचास दीये भी तैयार कर चुकी हैं। सुनयना यह सब देखकर खुश हो रही है। उसके हाथ ईश्वर से दुआ के लिए उठ रहे हैं कि काश! असली भारत को देखने-समझने का अवसर सभी बच्चों को मिले...
स्मिता

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