अनमोल सौगात - 2 Ratna Raidani द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अनमोल सौगात - 2

भाग २

२० वर्षीय नीता बी.ए. फाइनल ईयर में पढ़ रही थी। अपने कॉलेज की टॉपर और अन्य गतिविधियों में भी हरफनमौला थी। खेल कूद का भी उसे बहुत शौक था। बैडमिंटन उसका पसंदीदा खेल था। बी.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह आगे और भी पढ़ना चाहती थी।

नीता के पिता शशिभूषण पांडे वैसे तो मूल रूप से उत्तरप्रदेश के जौनपुर शहर के निवासी थे किन्तु सरकारी नौकरी में होने के कारण कई सालों से विभिन्न प्रदेशों में उनका तबादला होते रहता था। इस समय वे मध्य प्रदेश के जबलपुर में बिजली विभाग में उच्च पद पर कार्यरत थे। उन्हें बड़ा सरकारी क्वार्टर और गाड़ी भी मिली हुई थी। वे बहुत ही समय निष्ठ और अनुशासन प्रिय थे। उनके अंतर्गत कई सहकर्मी काम करते थे। उनकी प्रभुत्व जमाने की आदत सिर्फ उनके ऑफिस तक ही नहीं अपितु परिवार के अंदर भी दिखती थी। नीता की बड़ी बहन रीता विवाहित थी और अजमेर में अपने परिवार के साथ रहती थी। नीता की माँ उर्मिला एक मृदु और सरल स्वभावी गृहणी थी। कुल मिलाकर नीता एक ठेट उच्चमध्यम वर्गीय परिवार की थी जहाँ परिवार के मुखिया का निर्णय ही सर्वोपरि होता था उस जमाने में।

"नीता, उठो बेटा ! आज तुम्हें प्लेग्राउंड में खेलने नहीं जाना है क्या?" उर्मिला ने रसोईघर से आवाज़ लगायी।

 

नीता हड़बड़ाकर उठी। घडी सात बजने का संकेत दे रही थी। कॉलोनी के बीचों बीच एक बेहद खूबसूरत पार्क था जहाँ मॉर्निंग वॉक के लिए पैसेज और विभिन्न खेलों के लिए कोर्ट्स बने हुए थे। नीता रोज अपनी सहेली संध्या के साथ सुबह-सुबह वहाँ खेलने जाती थी।

 

नीता ने संध्या को फ़ोन किया, "हैलो संध्या! मैं बस १५-२० मिनट में पहुँच रही हूँ। तुम भी पार्क में आओ।"

 

"हाँ, मैं भी बस तैयार हो रही हूँ। थोड़ी सी देर में मैं भी पहुँचती हूँ।" यह कहकर संध्या ने फ़ोन रख दिया।

 

नीता अपना रैकेट और शटल कॉक लेकर पार्क में पहुंची किन्तु संध्या अभी तक नहीं आयी थी। मौसम काफी खुशनुमा सा था तो नीता ने वॉक करना शुरू कर दिया। अचानक उसके पैरों के पास वॉलीबॉल की बॉल आकर टकरायी। उसने बॉल हाथ में लेकर इधर उधर देखना शुरू किया, तभी एक हैंडसम युवक उसके सामने आ खड़ा हुआ।

 

"जी माफ़ी चाहता हूँ। आपको कहीं लगी तो नहीं?" युवक ने थोड़ा झिझकते हुए पूछा।

 

"जी नहीं, मैं बिल्कुल ठीक हूँ। और आपको माफ़ी मांगने की कोई जरूरत नहीं। बॉल तो कहीं भी जा सकती है।" नीता ने बॉल वापस करते हुए कहा।

 

नीता की इस बेतक्क्लुफ़ी पर वह युवक मुस्कुरा दिया। दोनों की निगाहें एक दूसरे से हटना ही नहीं चाह रही थी किन्तु अचानक आयी आवाज़ से दोनों का ध्यान भंग हुआ।

 

"अरे ओ रवि! जल्दी बॉल लेकर आओ।" कुछ लड़कों ने पीछे से आवाज़ लगायी। इधर संध्या भी नीता को आवाज़ लगाते हुए आ चुकी थी। दोनों को बिना पूछे ही एक दूसरे का नाम पता चल गया।

 

"चल ना नीता।" संध्या उसे अपने साथ बैडमिंटन कोर्ट की तरफ ले गयी। रवि भी वापस अपने दोस्तों के साथ खेलने चला गया।

 

एक घंटे बाद खेल ख़त्म करके जब नीता वापस लौट रही थी तो एक बार फिर से गेट पर उसकी निगाहें रवि से टकरायी। पर इस बार नीता के चेहरे पर सिर्फ मुस्कान ही नहीं एक लालिमा भी थी। नीता तेज क़दमों से घर की तरफ निकल गयी और रवि वहीं गेट पर खड़े होकर उसे जाता हुआ देखता रहा।

 

"नीता, जल्दी से नहाकर आजा। नाश्ता लगा दिया है।" उर्मिला ने नीता को वापस घर में आते हुए देखकर कहा।

 

नीता भागकर अपने कमरे में चली गयी। उसके दिल में एक अजीब सी खुशी की लहर दौड़ रही थी जिसे वो खुद भी नहीं समझ पा रही थी। आज से पहले उसने ऐसा कभी महसूस नहीं किया था। तैयार होते होते आज वो कोई धुन भी गुनगुना रही थी। तभी उसके पापा की आवाज़ आयी, "नीता, जल्दी आओ।"

 

वह जल्दी से तैयार होकर नाश्ते की टेबल पर आयी जहाँ पहले से उसके पापा शशिकांत जी अपना अखबार लिए हुए बैठे थे।

 

"इस बार हमारी कॉलोनी में खेल प्रतियोगिता होने जा रही है। मैं चाहता हूँ नीता तुम भी बैडमिंटन प्रतियोगिता में भाग लो।" शशिकांत जी ने नीता की और देखते हुए कहा।

 

"जी पापा! मैं और संध्या रोज सुबह खेलने जाते हैं।" नीता ने कहा।

 

"सिर्फ खेलना ही काफी नहीं है। इसके लिए बहुत प्रैक्टिस की जरूरत है। प्रतियोगिता में कई राउंड्स में अलग अलग प्रतियोगियों के साथ खेलना होगा। मैं चाहता हूँ की इस बार ट्रॉफी तुम ही जीतो।" शशिकांत जी का आदेशात्मक स्वर था।

 

"जी पापा!" नीता ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। नीता का मन तो कहीं और ही था। रवि की आवाज़, उसका देखने का अंदाज़, उसकी मुस्कान नीता के दिलोदिमाग में घर कर गयी थी। वह कौन है यह जानने की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी क्योंकि इसके पहले उसे कभी इस कॉलोनी में देखा नहीं था।

 

"नीता ओ नीता, तुम्हारा ध्यान कहाँ है आज?" उर्मिला ने नीता के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

 

"कही तो नहीं, मम्मी!" नीता नज़रें झुकाकर नाश्ता करने लगी।

 

"अच्छा सुनो, मैं और तुम्हारे पापा थोड़ी देर के लिए पास वाले शर्मा अंकल के यहाँ जाकर आ रहे हैं। तुम नाश्ता करके बाकी सब रसोई में रख देना।"

 

"ठीक है मम्मी। आप लोग आराम से जाकर आओ मैं ये सब कर दूंगी।" नीता ने कहा।

 

मम्मी पापा के जाने के बाद नीता अपना नाश्ता और रसोई के बाकी सब काम खत्म करके अपने कमरे में आ गयी। उसने अपनी किताबें खोली लेकिन आज उसे उन पन्नों पे अक्षरों की जगह कुछ और ही दिखाई दे रहा था। रवि की बड़ी बड़ी आँखें जो गेट पर से उसे जाता हुआ एक टक देखे जा रही थी।

 

उधर रवि का हाल भी कुछ ऐसा ही था। रवि की आंखों में नीता का वो मासूम सा चेहरा, उसकी प्यारी सी मुस्कान और कानों में भी उसकी मधुर आवाज़ गूँज रही थी, "बॉल तो कहीं भी जा सकती है।"

 

क्या इसे ही कहतें हैं पहली नज़र का प्यार, दोनों यही सोचते हुए एक दूसरे के ख्यालों में खो गए।