अपने-अपने कारागृह-28
अगले हफ्ते हमें बेंगलुरु जाना था । जाने का पहला कारण प्रिया का बार-बार उलाहना देना था कि आप मुझसे अधिक भैया को चाहते हो तभी उनके पास लंदन चले गए पर बेंगलुरु नहीं आ पाए । दूसरा अगले महीने की 20 तारीख को परी के पांचवे जन्मदिन के साथ प्रिया के नए घर का गृह प्रवेश का भी आयोजन है । इससे अच्छा अवसर उसे खुश करने का और हो ही नहीं सकता था ।
वैसे भी भारतीय परंपरा के अनुसार गृह प्रवेश के अवसर पर मायके से शगुन लेकर किसी को जाना ही चाहिए । पदम आ नहीं पा रहा था अतः उनको जाना ही था । उनके आने का समाचार सुनकर रिया और परी बेहद प्रसन्न हुई । उनके आने का समाचार सुनकर परी ने उनके सामने अपनी ढेरों फरमाइशें रख दी थीं ...मसलन लैपटॉप ,बार्बी डॉल इत्यादि इत्यादि । लैपटॉप सुनकर उषा चौंकी थी । तब रिया ने बताया कि परी की दोस्त अमिता के पास बच्चों वाला लैपटॉप है । तब से वह लैपटॉप की रट लगाए हुए है और आज उसने आपसे भी लैपटॉप की फरमाइश कर दी ।
अजय ने परी की बात सुनकर कहा, ' वहीं खरीद लेंगे । व्यर्थ सामान बढ़ाने से क्या फायदा ?'
उषा चाहती थी कि परी की फरमाइश का सामान वह लखनऊ से ही खरीद कर ले जाए क्योंकि उसने देखा था कि लंदन पहुंचते ही अनिला को जो खुशी उसके द्वारा भारत से खरीदी बार्बी डॉल पाकर हुई ,उतनी वहां से खरीदी चीजों को पाकर नहीं हुई ।
कुछ शॉपिंग तो उषा ने कर ली थी कुछ बाकी थी आखिर गृह प्रवेश में जा रही थी । इस अवसर पर रिया और पलक के साथ उसके घर वालों के लिए भी तो गिफ्ट लेने थे आखिर समाज में रहना है तो सामाजिक दायित्व निभाने ही होंगे ।
उस दिन बैंगलोर ले जाने वाले समान की पैकिंग करते हुए वह टी.वी. देख रही थी कि एक न्यूज फ्लैश हुई …
कश्मीर के पुंछ सेक्टर में पड़ोसी देश की अंधाधुंध फ़ायरिंग का जवाब देते हुए सेकंड लेफ्टिनेंट जैनेंद्र सिंह शहीद हो गए हैं ।
' अरे यह तो देवेंद्र और सविता का पुत्र हैं । ' टीवी पर फ्लैश होते फोटो को देखकर एकाएक उषा के मुंह से निकला ।
' क्या …? ' अजय ने आश्चर्य से कहा तथा समाचार देखने लगे ।
' ओह ! यह तो बहुत बुरा हुआ ।अभी कुछ दिन पूर्व ही तो उसने आर्मी ज्वाइन की थी ।' उषा ने कहा ।
' हमें उनसे मिलकर आना चाहिए । अन्य काम तो बाद में भी हो जाएंगे ।' अजय ने कहा ।
' चलिए जाकर मिल आते हैं ।' उषा ने सूटकेस बंद करते हुए कहा ।
' चलो ...।' अजय ने कहा ।
डॉ रमाकांत और उमा को लेते हुए वे कर्नल देवेंद्र के घर गए । मीडिया पहले ही उनके घर पहुंचा हुआ था । उसके प्रश्नों के उत्तर में देवेंद्र ने कहा, ' मेरा बेटा बहुत ही साहसी और जुनूनी था । अपनी माँ के मना करने के बावजूद वह फौज में गया । हमें उसकी शहादत पर गर्व है ।'
उषा को देवेंद्र जी पर गर्व हो रहा था । शायद एक फौजी ही ऐसा कह सकता है । देश पर मर मिटने का जुनून हम सिविलियनस में कहाँ ?
सविता नि:शब्द थी । भरी आँखों से वह शून्य में निहार रही थी । उन्हें देखकर उषा के मन में बार-बार आ रहा था ...माना शहीद की माँ कहलाना गर्व का विषय है पर सीने में तो वही मासूम दिल धड़कता है जिसमें अपने पुत्र के लिए कोमल भावनाएं हैं, ढेरों यादें हैं, कुछ सपने हैं । माना सुख-दुख इंसानी जीवन का हिस्सा है पर इतना बड़ा दुख वह कैसे सह पाएगी ? अभी कुछ दिन पूर्व ही तो वह अपनी पुत्री के विवाह का संदेश दे रही थी और अब यह दर्दनाक घटना...।
इस दुखद स्थिति से भी अधिक उषा को यह बात दंश दे रही थी कि आखिर विभाजन का दंश लोग कब तक सहते रहेंगे !! स्वतंत्रता के 73 वर्ष पश्चात भी हम शांति से क्यों नहीं रह पा रहे हैं ? किन मनीषियों की मन की शांति के लिए यह युद्ध हो रहे हैं ? आखिर कैसे इंसान दूसरे इंसान के खून का प्यासा हो जाता है ? माना सरहदें हमें बाँटती है पर क्या हम अपनी-अपनी सरहदों में रहते हुए प्रेम और सद्भाव के साथ नहीं रह सकते !! एक इंसान के शरीर से निकला खून दूसरे को विचलित क्यों नहीं करता ? आखिर हम इतने संवेदन है क्यों और कैसे हो गए हैं ? परमपिता ईश्वर तो एक ही है हम सभी उसकी संतान हैं फिर यह खून खराबा क्यों ?
अनेकों प्रश्न उषा के मन में बवंडर मचा रहे थे । अजय को बैंक का काम था वह उसे घर छोड़ते हुए बैंक चले गए । घर में मन नहीं लगा तो वह ' परंपरा' के लिए चल दी । अजीब इंसानी फितरत है कि खुशी हो या गम इंसान शांति की तलाश में न जाने कहां कहां भटकता फिरता है ।
'परंपरा 'में प्रवेश करते ही गुरुशरण कौर जहाँ उसे अपने हाथों द्वारा बनाए टेबल क्लॉथ को दिखा रही थी वहीं शमीम अपने कुर्ते पर डिजाइन ट्रेस करने की विधि सीमा से पूछ रही थी । कृष्णा अपनी कविता की कुछ पंक्तियां को फेसबुक में हिंदी में शेयर करना चाह रही थी पर कर नहीं पा रही थी ...उसकी सहायता से कृष्णा को अपनी समस्या का समाधान मिल गया था ।
उषा निकल ही रही थी कि रंजना के साथ एक व्यक्ति ने परंपरा में प्रवेश किया । उसे देखकर रंजना ने उससे कहा, ' उषा जी यह है दिव्यांशु सर और दिव्यांशु सर यह है उषा जी ।'
' आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई । आपने और अजय जी ने मिलकर हमारी परंपरा का कायाकल्प कर दिया है ।' दिव्यांशु जी ने विनम्रता से कहा ।
' सर हम तो सिर्फ सहयोग दे रहे हैं । हमें भी यहाँ आकर संतुष्टि मिलती है । किसी के लबों पर अगर हम मुस्कान ला सकें तो यह हमारे जीवन की सार्थकता है ।' उषा ने भी विनम्रता से उत्तर दिया था ।
'धन्यवाद उषा जी । आप जैसे लोगों की आज समाज को बहुत आवश्यकता है । मैं तथा परंपरा वासी आपके सदा आभारी रहेंगे ।'
' जी ऐसा कहकर आप हमें लज्जित मत कीजिये ।'
' ओ.के...।' कहकर दिव्यांशु ने उससे विदा ली ।
उषा भी रंजना को धन्यवाद देकर हजरतगंज खरीददारी के लिए चल पड़ी उसे प्रिया और परी के लिए चिकन का सूट खरीदना था । कल ही प्रिया ने उससे अपना मनपसंद फिरोजी रंग का सूट लाने के लिए आग्रह किया था ।
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दिव्यांशु सर के शब्द तथा 'परंपरा' में आया सकारात्मक परिवर्तन उषा के दुखी मन में खुशी का संचार करने लगा था । जीवन को चलना है, चाहे कितने ही बड़े दुख या अवरोधों का सामना क्यों ना करना पड़े !! यही हाल वृद्धावस्था का है …। माना बढ़ती उम्र के साथ व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता घटने लगती है पर आज उसे लग रहा था कि जीवन की हर अवस्था में चाहे कैसी भी मनःस्थिति हो ,अगर इंसान चाहे तो सक्रिय रह सकता है ।
' मैं कभी हार नहीं मानूँगी... न तन से, न मन से ।' उषा बुदबुदा उठी ।
' अरे बुद्धू, यह सब बातें मन को समझाने के लिए कही जाती हैं ।'
' कौन हो तुम ? कैसी बातें कर रही हो ? ' उषा ने इधर-उधर नजरें घुमाते हुए कहा ।
' अरे जरा संभल कर कहीं एक्सीडेंट न हो जाये ।'
' कौन हो तुम ?' क्रासिंग पर स्टॉप का साइन देखकर गाड़ी रोकते हुए कहा ।
' पहचाना नहीं ...मैं हूँ तुम्हारी अन्तरचेतना !!'
' ओह ! तुम !! अचानक कैसे ?'
' तुमको काल्पनिक भावनाओं में बहते देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं चली आई ।'
' काल्पनिक भावनाओं में ...क्या कह रही हो तुम ?' उषा ने आश्चर्य से कहा ।
' हाँ उषा ...काल्पनिक भावनाओं के संसार से निकलकर यथार्थ के धरातल पर उतर कर सोचो । तुम अभी जो बात स्वयं से कह रही थी, वही बात इस संसार में आया हर प्राणी स्वयं से कहता हैं पर कभी स्वास्थ्य तो कभी परिस्थितियां उसे दूसरों पर निर्भर रहने के लिए मजबूर कर देती हैं । अब ऐसी स्थिति में इंसान अपना मनोबल कायम न रख पाए तो …!' अन्तरचेतना ने कहा ।
' अगर मनोबल ही नहीं रहा तो वह जिंदा कैसे रह पाएगा ?' ग्रीन सिग्नल देखकर उषा ने गाड़ी आगे बढ़ाते हुए प्रश्न किया ।
' एकदम सत्य... पर रहना पड़ता है । तुमने देखा नहीं है 'परंपरा' में ...एक समय ऐसा आता है जब इंसान न तो स्वयं अकेला रह पाता है और न ही बच्चों के पास जाना चाहता है । शायद बच्चे ही उसे अपने साथ नहीं रखना चाहते हों । कुछ खुशनसीबों को छोड़ दें तो एक न एक दिन यह स्थिति हर इंसान के हिस्से में आती ही है । यह हमारे समाज की क्रूर विडंबना है ।' अन्तरचेतना ने कहा ।
' तुम मुझे अवसाद में ढकेल रही हो !!'
' मैं तुम्हें अवसाद में नहीं ढकेल रही हूँ वरन मानव जीवन की कटु सच्चाई से परिचय करवा रही हूँ । हर इंसान को मन के कारागृह में बंद रहते हुए अपने-अपने युद्ध स्वयं लड़ने पड़ते हैं ।'
' मन के कारागृह... अपने -अपने युद्व... तुम कहना क्या चाह रही हो ?' उषा ने फिर प्रश्न किया ।
' मन के कारागृह से तात्पर्य , अपने सुख-दुख को मन में बंदी बनाकर समाज के सम्मुख हंसते हुए, आगे बढ़ते हुए अपने कर्तव्यों को पूरा करना और अपने- अपने युद्ध... तुमने प्रसिद्ध वैज्ञानिक डार्विन का सिद्धांत 'स्ट्रगल फॉर एक्जिस्टेंस 'नहीं पढ़ा । जीवन एक संग्राम है जो इस संग्राम में विजयी होता है, वही जीवन में सफल होता है ।'
' शायद तुम ठीक कह रही हो पर विपरीत स्थिति में इंसान क्या करे ?' उषा ने समाधान चाहा था ।
'वही जो तुम ' परंपरा 'में सिखा रही हो ।'
गाड़ी के सामने स्कूटर आने के कारण ब्रेक लगने के साथ ही उषा विचारों के भंवर से बाहर निकली । सच ही तो कह रही है अन्तरचेतना कोई इंसान हार नहीं मानना चाहता पर परिस्थितियां उसे विवश कर देती हैं । कृष्णा को उसने मन ही मन घुटते देखा है । गुरुशरण कौर का हाल भी उससे छिपा नहीं है । रीता जी अपनी इसी मनः स्थिति के कारण जीना ही नहीं चाहती थीं ।
माना संसार में आया हर इंसान अपने -अपने कारागृह में बंद दुखों से त्रस्त है । कारण चाहे आर्थिक हों या सामाजिक, स्वास्थ्य से संबंधित हों या अपनों के दंश से पीड़ित हों , अगर इंसान स्वस्थ एवं सकारात्मक मनोवृति अपनाये तो विपरीत परिस्थितियां थोड़ी देर के लिए इंसान को भले ही कर्तव्य पथ से विचलित कर दें, अवसाद से भर दें पर वह शीघ्र ही उन पर विजय प्राप्त करता हुआ निरंतर कर्म पथ पर अग्रसर होता जाएगा ।
कर्म ही जीवन है का सिद्धांत अपनाने वाला कभी हार नहीं मानता । हार उसे कमजोर नहीं मजबूत बनाती है और वह अपना लक्ष्य प्राप्त करके ही रहता है । सच तो यह है परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, बिना किसी दोषारोपण के स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल ढालना ही इंसान की सबसे बड़ी खूबी है । अगर उसके साथ कभी ऐसी स्थिति आई तो वह बच्चों या किसी अन्य को दोष देने के वह स्वयं को बदलेगी ... जिस 'परंपरा' में आज वह लोगों को सुकून के पल दे रही है चाहे उसे उसी का हिस्सा क्यों न बनना पड़े ….। सोचते हुए उषा ने चैन की सांस ली ।
हजरतगंज आ गया था । उसने गाड़ी पार्क की तथा शॉपिंग के लिए निकल पड़ी । कल ही उन्हें बेंगलुरु के लिए निकलना है ।
सुधा आदेश
समाप्त