तोड़ के बंधन - 8 Asha sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तोड़ के बंधन - 8

8

“हाल कैसा है जनाब का.” फोन पर मयंक की आवाज सुनते ही मिताली ने सारे ताव-तनाव पीछे धकेल कर अपने आप को सहज किया.

“कहो कैसे रस्ता भूल पड़े.” कहिये जनाब! आज कैसे याद फरमाया.” मिताली ने भी उसी लहजे में प्रतिउत्तर दिया.

“कुछ खास नहीं, बस! आज जरा फुर्सत में था तो सोचा कि तुम्हें डिस्टर्ब किया जाये. तुमसे मिलने की तमन्ना है… प्यार का इरादा है... और इक वादा है...” गाने की पंक्ति का अगला शब्द “जानम” मयंक चबा गया.

“क्या बात है! बड़े रोमांटिक हो रहे हो. नीतू पास नहीं है क्या?” मिताली हँसी.

“अरे यार! वो तो अपनी मंडली के साथ किटी पार्टी में गई है. ये भी नहीं सोचा कि बेचारे पति नाम के जीव को सप्ताह में एक ही तो छुट्टी मिलती है. कम से कम इस दिन तो उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहिए.” मयंक ने नीतू की शिकायत की.

“अच्छा जी! और तुम जो हर रोज उसे अकेली छोड़ कर ऑफिस जाते हो. वो कुछ नहीं.” मिताली ने नीतू का ही पक्ष लिया.

“अरे उसे कहाँ अकेलापन लगता है. वो अपनी सहेलियों के साथ मजे करती है. या तुम यूँ भी कह सकती हो कि घरेलू औरतें ही सही मायने में अपने पति की कमाई पर ऐश करती हैं. है के नहीं?” मयंक ने बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए कहा.

“बातों में कोई तुमसे नहीं जीत सकता.” मिताली फिर हँस दी.

“सुनो मिताली! बुरा न मानो तो एक पर्सनल बात पूछूँ?” मयंक ने कहा.

“पूछो ना!”

“क्या तुम्हें अकेलापन नहीं खलता? क्या किसी पुरुष के साथ की जरुरत महसूस नहीं होती?” मयंक ने कहा तो मिताली को समझ में नहीं आया कि इस अटपटे प्रश्न का क्या उत्तर दे. यदि ना कहे तो वह झूठ ही होगा. और यदि कहे कि- “हाँ! महसूस होती है. बहुत अधिक महसूस होती है. लेकिन ये कमी एक पुरुष की नहीं बल्कि पति की होती है. पति की कमी खलती है जब वह शादियों में देर रात तक रुकने में असहज महसूस करती है. पति की कमी खलती है जब बच्चों के बीमार होने पर अकेली हॉस्पिटल की लाइन में खड़ी होती है. पति की कमी खलती है जब बच्चों के रिपोर्ट कार्ड पर पिता की जगह खुद को हस्ताक्षर करने पड़ते हैं. और भी न जाने कितने ही ऐसे अवसर आते हैं जब जिंदगी में पति की कमी बहुत शिद्दत के साथ महसूस होती है.” लेकिन मिताली प्रत्यक्ष कुछ भी नहीं कह सकी. मयंक लगातार हैलो-हैलो बोल रहा था.

“मयंक! ये जो हमारी-तुम्हारी उम्र है ना, इसे जिंदगी की शाम कहते हैं. और शामें अकेले काटना कितना मुश्किल होता है क्या ये तुम समझ सकते हो? जवानी को हम दिन कह सकते हैं और बुढ़ापे को रात. दिन आसानी से गुजर सकता है क्योंकि करने को बहुत से काम होते हैं और मिलने-मिलाने को यार-दोस्त भी. रात नींद में गुजारी जा सकती है. नींद ना भी आए तो नींद की दवाई ली जा सकती है. लेकिन ये मध्यवय वाली उम्र यानी कि जिंदगी की शाम. इसे ही अकेले बिताना मुश्किल होता है. कैसे कह दूँ कि मुझे कमी नहीं खलती. इन अकेली शामों के साथी बनने वाले पुरुष भी बहुत मिल जाएंगे लेकिन रिश्तों की जवाबदेही कोई नहीं लेना चाहता. ” मिताली ने डूबती आवाज में कहा.

“सुनो! तुम चाहो तो मुझे इस तन्हाई में साझेदार बना सकती हो.” मयंक के स्वर में बेतहाशा लाड़ झलक रहा था.

“ये कमीने दोस्त ही तो होते हैं जिन्हें तन्हाइयों पर कब्जा करने का अधिकार दिया जा सकता है. वरना किसी की क्या औकात जो हमसे हमारा एक पल भी छीन ले.” मिताली ने जोरदार हँसी के साथ कहा. वह तुरंत ही अपनी क्षणिक अवसाद वाली स्थिति से बाहर आ चुकी थी.

“ये तो तुमने सौ टका सही बात कही है मिताली. अच्छा सुनो! अगले सप्ताह शायद आने का कार्यक्रम बने. तुम तो फ्री हो ना! कुछ घंटे मेरे लिए.” मयंक ने बताया तो मिताली भी खुश हो गई.

“हाँ-हाँ! क्यों नहीं. नीतू भी आ रही है ना. बहुत मजा आएगा. बच्चों का भी मन दूसरा हो जायेगा.” मिताली ने चहक कर कहा.

“नीतू तो शायद ना आ पाए. मैं एक ऑफिशियल टूर पर आ रहा हूँ, उसी दिन वापसी है. सोचता हूँ कि काम निपटा कर कुछ देर तुमसे गपशप कर लूँ, चाय-कॉफ़ी पी लूँ. तो मेरा टूर मुकम्मल हो जाये.” मयंक ने आदतन ठहाका लगाया और फोन काट दिया.

मंगलवार को मयंक का फोन आया कि वह लंच मिताली के साथ ही करेगा और वह भी उसके घर पर. बॉस से कहकर मिताली जल्दी ही ऑफिस से निकल आई.

“क्या पता उसके पास कितना समय हो.” सोचते हुये मिताली ने रास्ते में पड़ती कान्हा स्वीट्स से दो स्पेशल थाली पैक करवा ली ताकि घर पर खाना बनाने में समय जाया न हो और वह मयंक को पूरा समय दे सके. बच्चों के लिए दो मीडियम पिज्जा और पेप्सी की बड़ी बोतल भी ले ली.

घर पहुँचकर उसने ड्राइंगरूम ठीकठाक किया और टीवी चलाकर मयंक का इंतज़ार करने लगी. बच्चे अभी स्कूल से नहीं आए थे. ठीक एक बजे डोरबेल बजी. देखा तो मयंक ही था. मिताली ने एक बार ड्राइंगरूम और डाइनिंग पर सरसरी निगाह डाली और दरवाजा खोल दिया.

“कैसी हो मिताली?” चहकते हुये मयंक ने मिताली को गले लगाते हुये कहा.

“ठीक हूँ. आओ.” कहते हुये मिताली ने उसे अपने से अलग किया और सोफ़े पर बैठने का इशारा किया. देर तक इधर-उधर की बातें होती रही. कॉलेज के पुराने दिनों और दोस्तों को याद कर-करके हँसते रहे. इसके बाद दोनों ने साथ-साथ खाना खाया और वापस ड्राइंगरूम में आ गए. इस बार मयंक सोफ़े पर नहीं बैठा बल्कि दीवान पर पसर गया. मिताली सोफ़े पर बैठ गई. कुछ देर चुप्पी सी पसरी रही. बातों का छूटा सिरा आखिर मयंक ने ही पकड़ा.

“इतना हैवी खाना खिला दिया तुमने कि बस!  उठा ही नहीं जा रहा.” मयंक ने अंगड़ाई लेते हुये कहा. उसे यूं बेपरवाही से लेटते देखकर मिताली असहज हो गई. किसी पराये पुरुष के साथ इस तरह एकांत में होने की कल्पना वह कभी नहीं कर पाई थी.

“कोई बात नहीं. तुम थोड़ी देर रेस्ट कर लो. बच्चे भी आते ही होंगे.” कह कर उठती हुई मिताली ने कमरे की लाइट बंद कर दी. कमरे में नीम अंधेरा फैल गया.

“मिताली!” मयंक ने पुकारा. मिताली ठिठक गई. मयंक दीवान पर उठकर बैठ गया.

“काश! मैं तुम्हारी परेशानियों का हल बन पाता.” मयंक भावुक हो गया.

“मेरी परेशानियों के हल तो मुझे खुद ही खोजने होंगे लेकिन तुमसे बात करती हूँ तो अच्छा लगता है.  समय का पता ही नहीं चलता. मन बरसों पहले के उस दौर में चला जाता है जहाँ परेशानी नाम की कोई चिड़िया ही नहीं हुआ करती थी. तुमसे मिलना... बातें करना... बड़ा अच्छा लगता है.” मिताली गुनगुनाने लगी. मयंक ने भावुकता में उसके दोनों हाथ थाम लिए. प्यार से उसकी आँखों में देखने लगा. परिस्थितियाँ वातावरण पर हावी होने लगी. मिताली जम गई. उसने वहाँ से हटने की कोशिश की.

“अभी ना जाओ छोड़कर... कि दिल अभी भरा नहीं...” मयंक फुसफुसाया. मिताली के हाथ ठंडे पड़ गए. वह पसीने से नहा उठी. मयंक उसके बिल्कुल पास आ चुका था. मिताली उसकी साँसे अपने चेहरे पर महसूस कर रही थी. उसका मन चाह रहा था कि वह मयंक को धक्का देकर वहाँ से भाग खड़ी हो लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकी क्योंकि मयंक की पकड़ बहुत मजबूत थी. मिताली के सोचने-समझने की शक्ति क्षीण पड़ती जा रही थी. कुछ ही देर में वह मयंक के साथ दीवान पर थी. उसकी आँखें मुँदने लगी और फिर...

कुछ घटनाएँ पूर्णतया परिस्थितियों के अधीन होती हैं. उनके लिए किसी विशेष कारक को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता. आज जो भी घटित हुआ उसके लिए भी मिताली की यही धारणा थी क्योंकि सच यही था कि उसे इस घटना के घटने से पहले इसके घटित होने की कोई चाहत नहीं थी. लेकिन घटना तो घट चुकी थी और इस सच को झुठलाया भी नहीं जा सकता.

मयंक आँखें मूँदे दीवान पर लेटा हुआ है. लेटी हुई तो हालाँकि मिताली भी वहीं थी लेकिन वह अब कुछ देर पहले वाले पलों से बाहर आ चुकी है. मिताली उठकर सोफ़े पर बैठ गई. शून्य में दृष्टि जमाये कुछ सोचने लगी.

“क्या कर रही हो तुम मिताली! लोकेश से दूरी बनाने के लिए तुमने मयंक से नज़दीकियों का सहारा लिया. अब मयंक के इतना नजदीक आ गई कि हर दूरी ही मिटा डाली. क्या ये लोकेश के प्रति अन्याय नहीं?" मिताली के मन ने कचोटा.

“मैं ये सब नहीं चाहती थी. लेकिन... बस हो गया.” अपनी कमजोरी पर अफसोस जताती मिताली ने अपने मन को सफाई देनी चाही लेकिन मन कहाँ इतना नादान था कि उसके बेबुनियाद स्पष्टीकरणों को इतनी आसानी से स्वीकार कर लेता. वह बहस पर उतर आया.

“कहीं ऐसा तो नहीं कि मयंक ये सब सोच कर ही आया हो. हो सकता है कि वह भी तुम्हें रास्ते में पड़ा नोट ही समझ रहा हो जिसे उठाकर जेब में डाल लिया जाये.” मन ने अपनी आशंका जाहिर की जिसे मिताली ने खारिज कर दिया.

“नहीं! मुझे ऐसा नहीं लगता. मैंने कहा ना, बस हो गया.” मन के प्रश्नों से कतराती मिताली खीज उठी.  उधर मन भी इतनी ही खीज से भर गया.

“तो फिर इतना क्यों सोच रही हो? भूल जाओ. जो हुआ सो हुआ.  लेकिन क्या इस घटना के बाद तुम मयंक के साथ सहज रह पाओगी?” मन का अगला प्रश्न था.

“शायद नहीं. लेकिन मैं क्या करती. कुछ परिस्थितियों की साजिश और कुछ शरीर की माँग...  मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाई. लेकिन तुम फिक्र मत करो. भविष्य में मैं ऐसी कोई परिस्थिति नहीं आने दूँगी. मैं मयंक से दूरी बना लूँगी.” मिताली ने एक बार फिर अपने पक्ष में दलील दी. मन हँसा.

“लेकिन कैसे? क्या मयंक से दूर जाने के लिए किसी तीसरे व्यक्ति की सहायता लोगी? इस तरह तो तुम इस चक्र से कभी बाहर ही नहीं आ पाओगी. क्या तुम्हें रिश्तों में संतुलन बनाना नहीं आता?” मिताली को लगा मानो उसका मन उसे अपने प्रश्नों के घेरे में कसता चला जा रहा है. वह झटपटाने लगी किन्तु मन को संतुष्ट करने के लिए उसके पास कोई जवाब नहीं था. मिताली की आँखें बार-बार दीवान पर लेटे मयंक की तरफ उठ रही थी. चंद लम्हों पहले की अपनी कमजोरी याद कर उसकी आँखें छलक उठी.

"रोने से क्या होगा. तूफान तो गुजर चुका है. अब तो केवल विनाश की निशानियों को सहेजना ही शेष रहा है. सुनो मिताली! बाँध की पाल यदि एक बार टूट जाए तो हर बरसात उसके छलकने की संभावना बनी रहती है. बेहतर होगा कि बाँध को छलकने की सीमा तक भरने ही ना दिया जाये. समझ गई ना तुम?” मन ने मिताली को समझाने की कोशिश की. उसे मिताली से सहानुभूति हो आई थी. मिताली ने अच्छे बच्चे की तरह उसकी बात मानते हुये हामी में अपना सिर हिलाया लेकिन वह अकेले मयंक को ही सारे घटनाक्रम का दोषी मानकर कोई सजा नहीं देना चाहती थी. मिताली ने मन ही मन तय कर लिया कि भविष्य में वह कोशिश करेगी कि बाँध छलकने की कगार तक ना पहुँचे.

बहुत देर तक दीवान पर कोई हलचल नहीं हुई तो मिताली ने मयंक की तरफ देखा. वह निश्चेष्ट सा लेटा छत को ताक रहा था. शायद वह भी मिताली की तरह अपने मन के कटघरे में खड़ा था. तभी मयंक का फोन बज उठा. मयंक ने फोन देखा और काट दिया फिर उठकर मिताली के पास सोफ़े पर बैठ गया.

“मैं नहीं जानता कि जो हुआ वो गलत था या नहीं लेकिन प्लीज! कोशिश करना कि इससे हमारे रिश्ते में कोई फर्क नहीं आए.” मयंक ने कुछ देर पहले घटी घटना की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुये मिताली को अपराधबोध से मुक्त करने की कोशिश की. मिताली ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन वह समझ गई थी कि इतनी देर से मयंक भी अपनेआप से जूझ रहा था.

“चलता हूँ. अपना खयाल रखना. हम बाद में बात करेंगे.” कहते हुये मयंक ने मिताली के बुत को गले लगाया. मयंक चौंक गया. उसे लगा मानो उसने कोल्डड्रिंक की ठंडी बोतल को पकड़ लिया जिस पर वाष्पीकरण से बनी पानी की बूंदें ठहर गई हैं.

“आय एम सॉरी!” कहते हुये उसने मिताली को कस कर अपने से सटा लिया. दोस्त का कंधा पाते ही मिताली की आँखें बरसने लगी. उस सैलाब में मिताली की ग्लानि, आक्रोश, पीड़ा और हार की निराशा सब कुछ बह गया. मयंक ने उसके गाल थपथपाए और दरवाजा खोलकर बाहर चला गया. मिताली देर तक दीवान को देखती रही.

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