तोड़ के बंधन - 1 Asha sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तोड़ के बंधन - 1

1

“एक तो सुबह की भागादौड़ी दूसरे तुम... बच्चों की तरह हर तीसरे दिन शर्ट का बटन तोड़ लाते हो.” झल्लाती मिताली पति की शर्ट पर बटन टाँकने के लिए सुई में मैचिंग धागा पिरोने लगी.

“मुझे भी अपना तीसरा बच्चा ही समझो तुम तो.” मालती के चेहरे पर गर्दन झुकाते हुए वैभव ने अपनी बायीं आँख चला दी. उसकी इस शरारत पर मिताली झेंप गई और सुई बटन से होती हुई उसकी उंगली में धंस गई. एक सिसकी सी निकली और अगले ही पल मिताली की उंगली वैभव के मुँह में थी. इसी बीच उंगली से निकली एक लाल बूंद वैभव की सफ़ेद शर्ट में समा गई.

“सुनो! तुम गहरे लाल रंग की लिपस्टिक ही लगाया करो.” वैभव ने उंगली मुँह से बाहर निकालते हुये कहा.

“क्यों?” मिताली ने अपनी उंगली को सहलाते हुये पूछा.

“बिल्कुल ऐसी ही लगती है तुम्हारे गोरे मुखड़े पर लाल लिपस्टिक.” वैभव ने उजली शर्ट पर लगी रक्त बूंद उसे दिखाई. मिताली दर्द में भी मुस्कुरा दी. आज मिताली वही लिपस्टिक हाथ में लिये खड़ी कहीं खो सी गई थी.

एक लिपस्टिक ही क्यों, इस घर के चप्पे-चप्पे... कण-कण... में वैभव की यादें गुंथी हुई हैं. कहीं भी हाथ धरो, बस! वैभव उसमें जीवित हो उठता है. पूरे छह महीने हो गए उसे भौतिक रूप से उससे जुदा हुए लेकिन आज तक भी मिताली का मन नहीं माना कि उससे जुड़ी वस्तुएं किसी को दान कर दे या फिर कहीं उठा कर ही रख दे... फेंकने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. अभी तक तो उसकी हिम्मत इस्तरी किए हुए कपड़ों के उस गट्ठर को भी हाथ लगाने की नहीं हुई जो वैभव के जाने के बाद धोबी देकर गया था.

“जब मेरी मूंछे निकलेंगी तब मैं पापा का शेविंग किट यूज करूँगा.” विशु अपने पापा के शेविंग ब्रुश को चेहरे पर फेरता हुआ कहता.  वैभव की टूथब्रश तक जस की तस वॉशबेसिन पर टंगे स्टैंड में रखी हैं.

क्या भूले क्या याद करे! मिताली को यूँ लगता है मानो धनक के सातों रंग जिनसे उसकी जिंदगी रंगीन बनी हुई थी आज एक साथ मिलकर श्वेत रंग में तब्दील हो गए. कौन कहता है कि दुनिया से जाने वाला अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं जाता कोई मिताली के दिल से पूछे तो पता चले कि जाने वाला क्या नहीं ले कर जाता. वैभव को ही देख लो. सब कुछ ही तो ले गया अपने साथ. उसकी आँखों की चमक... होठों की हँसी... चेहरे का नूर... यहाँ तक कि उसका आत्मविश्वास भी... कुछ भी तो शेष नहीं रहा मिताली की जिंदगी में.

उनके जाते ही सबकुछ ठहर सा गया. कहने को तो घर के सभी काम पहले की ही तरह से होते हैं. खाना भी बनता है और सब खाते भी हैं लेकिन उसमें से स्वाद नदारद है. घर में सब हैं... वह भी और दोनों बच्चे भी... लेकिन सिर्फ एक व्यक्ति के न होने से घर की बोलती दीवारें इस कदर चुप्पी साध लेती हैं ये अहसास उसे वैभव के जाने के बाद ही हुआ.आपस में लड़ने-झगड़ने वाले बच्चे एक ही रात में कितने सयाने हो गए थे... अक्सर ही जब वह चुपचाप अपने मन के गुबार को आँखों के रास्ते बाहर निकाल रही होती है तब दोनों बच्चे उससे लिपट जाते हैं. गले में बाँहें डाल कर अपने पापा की तरह कहते हैं- “वी द फैमिली...” और तब... एक सामूहिक सिसकी तीर की तरह घर की नीरवता को बेधती हुई निकल जाती है.. ऐसा लगभग हर रोज ही होता है.

घर के तीनों प्राणी एक-दूसरे के सामने बहुत मजबूत और हिम्मत वाले बने रहते हैं लेकिन अलग-अलग तीनों ही जानते हैं कि वे एक नाटकीय किरदार निभा रहे हैं. तीनों के बीच इस रिश्ते में सब कुछ कहा भी है और बहुत कुछ अनकहा भी.

इधर ये तीनों अंधकार में एक-दूसरे का हाथ थामे धीरे-धीरे टटोलते हुए से... दीवारों को थामते हुए अपने गम की सुरंग से बाहर निकलने के लिए प्रयास कर रहे हैं उधर दोस्त-रिश्तेदार और करीबी इनकी आने वाली जिंदगी को लेकर कयास लगाते नहीं थक रहे. हर एक अपना काम धंधा छोड़ कर इन्हीं तीन प्राणियों की फ़िक्र में घुला जा रहा है.

“कैसे कटेगा इनका आगे का सफर... बच्चे अब क्या करेंगे... घर का खर्चा तो चलो जैसे-तैसे वैभव की पेंशन से चल जायेगा लेकिन बाकी खर्चों का क्या होगा.. मेरे ख्याल से मिताली को वैभव की जगह नौकरी मिल जायेगी... नहीं-नहीं! नौकरी तो बेटे को ही मिलनी चाहिए... मिताली कितने दिन कर पायेगी... लेकिन बेटा तो अभी बहुत छोटा है, तब तक घर कैसे चलेगा? तब तो फिर बेटी को ही ये नौकरी लेनी चाहिए... लेकिन बेटी ने शादी के बाद माँ-बेटे को अकेला छोड़ दिया तो क्या होगा? दामाद भी तो लायक होना चाहिए. बेटी के लिए अच्छा रिश्ता क्या मिताली खोज पायेगी? क्या मिताली बेटे का भविष्य उतना ही अच्छा संवार पायेगी जितना वैभव संवार पाता?” ऐसी और भी न जाने कितनी जिज्ञासाएं... कितने कोतूहल... कितनी चर्चाएँ थी जिन में हर व्यक्ति उलझा हुआ था... सबको खुद अपनी कम और वैभव के परिवार की फ़िक्र अधिक थी.

इस परिवार के हर क्रियाकलाप पर सबकी पैनी नजर थी. जहाँ भी चार व्यक्तियों का जमघट लगता, चर्चा का केंद्र सिर्फ मिताली ही होती... लेकिन मिताली भी न जाने किस मिट्टी की बनी थी, मजाल है जो अपनी योजनाओं के बारे में जरा भी सुराग दे दे कि वो आगे क्या करने वाली है... बिल्कुल कछुआ हो गई है. सब कुछ कठोर आवरण में ढक लिया. लेकिन सुबह बच्चों के उठने से पहले मिताली एक बार अपने आवरण से बाहर आती और रात भर से भरे अपने दर्द के प्याले वैभव की तस्वीर के सामने उलीच आती. दिन भर बूँद-बूँद कर फिर से उन्हें भरने के लिए.

पैंतीस पार की मिताली... पन्द्रह वर्ष का वैभव का साथ... चौदह की निधि और बारह का विशु... बस चार लाइनों में सिमटी थी मिताली की कहानी... खूबसूरत तस्वीर सी बनने जा रही जिंदगी पर नियति ने एकाएक जैसे नीली स्याही की पूरी बोतल उंडेल दी हो... पूरा कैनवास ही बदरंग हो गया.

लेकिन मिताली न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी... न टूटती है न झुकती है... न रोती है ना गिड़गिड़ाती है... न असहाय लगती है ना दयनीय दिखती है... ऐसा भी कहीं होता है भला? एक अकेली विधवा औरत बिना किसी के रहमोकरम, दया-सहायता... बिना किसी के आगे रिरियाये... जीने की कोशिश कर रही है... ये बात किसी को भी हजम नहीं हो रही. किसी को भी सामान्य नहीं लग रही.

एक दिन वह हो ही गया जिसकी सब आस लगाए बैठे थे. मिताली ने अपने घर से चार घर दूर वाले पड़ौसी महेश जी को फोन किया. वैभव का महेश जी से कुछ दोस्ताना था.

“महेश जी!वैभव के ऑफिस से फोन आया था...कुछ जरूरी कागजों पर साइन करने हैं... क्या आप मेरे साथ चलेंगे?” मिताली ने झिझकते हुये अनुरोध किया. पूरी दुनिया में मिताली ने सिर्फ उस पर भरोसा जताया था. महेश को वीआइपी महसूस करवाने के लिए इतना ही काफी था.

“हाँ-हाँ! क्यों नहीं... बताइए कितने बजे चलना है?” महेश ने अपना उत्साह छिपाने का भरकस प्रयास किया.

“आप ग्यारह बजे तक आ जाइये... बस! घंटे भर का ही काम है, उसके बाद आप फ्री हैं.” मिताली ने सकुचाते हुए कहा.

“अरे भाभी! आप तो फॉर्मेलिटी कर रही हो. आपका ये देवर हर वक्त आपकी सेवा में हाजिर है. आप तो बस हुकुम कीजिये.” महेश कुछ और भी कहना चाह रहा था लेकिन मिताली ने बिना अधिक सुने फोन काट दिया.

आज इतने दिनों बाद मिताली अपनी अलमारी खोल कर सोच रही थी कि क्या पहने. इससे पहले तो कभी ये ख़याल मन में आया ही नहीं था.

“सफ़ेद से लेकर काला और बैंगनी से लेकर लाल तक... हर रंग खिलता है तुम पर...” उसके “क्या पहनूँ?” के सवाल पर वैभव उसे यही कहता था. कुछ सोचकर मिताली के हाथ लाइट ग्रे कलर वाली साड़ी की तरफ बढ़ गए.

“मोहे भाये ना हरजाई... रंग हलके...” अचानक ही वैभव साड़ी में मुखर हो उठा. मिताली ने मुस्कुराते हुए उसे छोड़ कर मैरून कलर की साड़ी की तरफ हाथ बढ़ाया लेकिन पता नहीं क्यों वह उसे अलमारी में  से निकाल नहीं सकी फिर हल्के ऑरेंज कलर की साड़ी निकाली और खुद को उसमें लपेट लिया. एक छोटी सी मैरून बिंदी भी माथे पर लगा ली.

कुछ तो मिताली थी भी सुंदर और कुछ वैभव के जाने के बाद आज पहली बार उसने अपने चेहरे-मोहरे को जरा ठीक किया था. यूँ लग रहा था जैसे अरसे से बंद पड़े मकान को किसी ने झाड़-बुहार के साफ़ किया हो. महीनों बाद मिताली के इस रूप को देखकर महेश पलकें झपकाना भूल गया.

वैभव को लेकर मिताली के प्रति सहकर्मियों की सहानुभूति अभी तक बनी हुई थी इसलिए सारी औपचारिकताएं तुरत-फुरत निपटा कर उसे फ्री कर दिया गया. ऑफिस से बाहर निकले तो सूरज सिर पर तपने लगा था.

“आज गर्मी बहुत है. क्यों न एक-एक गिलास जूस पी लिया जाये?” बामुश्किल आज गन्ना मशीन पर चढ़ा था. महेश मशीन पर चढ़े गन्ने का पूरा रस निकाल लेना चाहता था. एक तो पहली बार किसी के साथ कार में बैठना मिताली को बहुत ही अटपटा लग रहा था और दूसरे महेश का अतिरिक्त अपनापन...  मिताली इस परिस्थिति को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. तुरंत बोली.

“बच्चे स्कूल से आते ही होंगे. हमें चलना चाहिए. आपको यदि पीना है तो शाम को देवरानी के साथ आइये. उसे भी अच्छा लगेगा.” सुनते ही महेश का मुँह उतर गया. उसे शायद अपनी जल्दबाजी भी समझ में आ गई थी. बिना एक भी शब्द बोले उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

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