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तोड़ के बंधन - 11 - अंतिम भाग

11

इन दिनों मिताली कुछ ज्यादा ही सोचने लगी है. माथे पर दिखती तीन लकीरें दिनोंदिन स्थायित्व की ओर बढ़ रही है. लेकिन सिर्फ सोचते रहने से ही क्या होता है. जितना वह विचारों के अंधड़ में विचरती, उतनी ही अधिक धूल से सन जाती.

“माँ! कहाँ खोई रहती हो आजकल ? जानती हो ज्यादा सिर खपाने से बाल सफ़ेद होने लगते हैं?” निधि उसे सामान्य करने की कोशिश करती जिसे मिताली सिर्फ मुस्कुरा कर टाल देती.

दूसरी तरफ विशु यह सोचकर ग्लानि से भर उठता कि माँ की परेशानी का कारण वही है लेकिन उसे भी मिताली गले लगाकर आश्वस्त कर देती कि उसके विचारमग्न होने का कारण वह नहीं है.

इन दिनों वह मयंक से भी फोन पर अधिक लंबी बातचीत नहीं करती सिर्फ हाँ-हूँ करके फोन रख देती. लोकेश से भी सूखी रामा-शामा के अलावा कुछ नहीं. सिन्हा साब ने बहुत कोशिश की बात करने की लेकिन मिताली की जुबान नहीं खुली तो नहीं ही खुली. कई बार उन्होंने चाय की प्याली के सहारे मिताली के मन की भीतरी तह तक जाने की कोशिश भी लेकिन मिताली थी कि उस परत तक किसी को पहुँचने ही नहीं दे रही थी.

मिताली का सोचना सबके लिए एक पहेली बन गया लेकिन इन सबसे विगल वह सिर्फ सोचती रहती... सोचती रहती... मिताली की सोच बाधित नहीं होती. वह निरंतर मंथनरत रहती. मन में मंथन चल रहा है... कौन जाने विष निकलेगा या अमृत... मंथन तो अमृत पाने के लिए ही किया जाता है लेकिन विष को भी तो साइड इफैक्ट की तरह झेलना ही होगा...

जब भी वह अपनी आँखें बंद करती, सिन्हा साब, लोकेश, मयंक और जेठानी... एक-एककर उसके सामने आ जाते... मिताली को लगता जैसे हर कोई उसे अपनी जायदाद समझ रहा है. मानो वह कोई जीवित प्राणी नहीं एक पुतला मात्र है. जिसे देखो वही उसकी आवाज को अपनी प्रतिध्वनि बनाना चाहता है. वे ऐसा क्यों चाहते हैं कि जो वो बोलें मिताली उसी सुर में अपना सुर अलापे.

कभी वह सोचती कि इस उपलब्धि पर तो उसे खुश होना चाहिए कि उसकी परवाह करने वाले इतने सारे लोग हैं. जब वैभव उसकी फिक्र करता था तब भी तो उसे पति पर कितना प्यार आता था. इन सब पर भी आना चाहिए. आखिर ये सब भी तो उसकी खुशी ही चाहते हैं ना!

लेकिन वैभव के प्यार में जो अधिकार था वह मिताली को इन सबकी परवाह में महसूस नहीं होता. वैभव को वह आधी रात को भी जगाकर डिस्टर्ब कर सकती थी लेकिन इनमें से एक के लिए भी वह ऐसा नहीं सोच सकती. इन्हें तो दिन में भी फोन करते समय दो बार सोचना पड़ता है कि कहीं व्यस्त तो नहीं. चाहे बात करने का कितना भी मन हो, कुसमय के फोन तो अगले दिन पर ही टालने पड़ते हैं. मन को मारना पड़ता है. एक संकोच की... मर्यादा की... दीवार आड़े आ जाती है. ऐसा लगता है जैसे वह किसी दूसरे यात्री की रिजर्व सीट पर यात्रा कर रही है और किसी भी स्टेशन पर उसे सीट खाली करनी पड़ सकती है. वैभव के साथ ऐसा नहीं था. उस यात्रा में उसकी अपनी कन्फ़र्म सीट थी.

“मैं तुम्हें वो अधिकार देना चाहता हूँ. इस नाते तुम्हारे लिए सबसे बेहतर मैं ही सोच सकता हूँ.” एक कोने से लोकेश कहता.

“हम तो बरसों पहले से ही दोस्त हैं. इस नाते तुम्हें मेरी सलाह ही माननी चाहिए.” मयंक अधिकार जताता.

“दुनियादारी का अनुभव मुझे इन सबसे अधिक है. मेरी सलाह अधिक महत्त्वपूर्ण है और व्यावहारिक भी.” सिन्हा साब भी अपना मत रखते.

“चाहे लाख मतभेद हों लेकिन खून के रिश्ते खून के ही होते हैं. है तो निधि और विशु आखिर हमारे ही खानदान का खून. हमसे अधिक इनकी फिक्र किसी और को कैसे हो सकती है.” जेठ-जेठानी का अपना दावा था.

चारों अलग-अलग बोलते जाते... बोलते जाते... मिताली पैंडुलम की तरह कभी इसकी तो कभी उसकी तरफ डोलने लगती... फिर सबकी शक्लें आपस में इतनी मिल जाती कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना मुश्किल हो जाता... मिताली लट्टू सी गोल-गोल घूमने लगती और फिर धड़ाम से गिर जाती... गिरते ही उसकी आँख खुल जाती और वह फिर से सोचने लगती.

“देखा जाए तो गलती मेरी ही है. मैंने ही इन्हें अपनी सोच पर हावी होने दिया. मैं ही कमजोर थी जो रोने के लिए अपनी दीवार छोड़कर इन लोगों के कंधे पर अपना सिर टिका रही थी. सहानुभूति पाने की खातिर अपने लिए सहारे खोज रही थी. क्या सचमुच मैं कमजोर हूँ? शायद हाँ! तभी तो अपने और अपने बच्चों के लिए फैसले खुद लेने के बावजूद भी इनमें से किसी एक का अनुमोदन तलाश करती रही. लेकिन नहीं! ये मेरी कमजोरी नहीं थी, ये तो मेरे भीतर का डर था जो मुझे अपने लिए गए फैसलों पर विश्वास नहीं करने देता था.” कभी-कभी वह खुद अपनेआप को दोषी ठहराने लगती.

“नहीं-नहीं! ना तो ये मेरा डर था और ना ही कमजोरी. दरअसल मैं अपनी सुविधा देखने लगी थी. मैं अपनेआप को छलावे में रखकर खुश हो रही थी. या फिर शायद मैं अपने किसी गलत फैसले के परिणाम की ज़िम्मेदारी लेने से बचना चाह रही थी. लेकिन यदि मैं ऐसा ही चाह रही थी तो फिर जेठ-जेठानी की दखलंदाजी से उखड़ क्यों जाती हूँ? क्यों नहीं उनके फैसलों के आगे अपना सिर झुकाती? जब भी मुझे सहायता की जरूरत महसूस हुई उस समय मैं लोकेश, सिन्हा साब या मयंक की तरफ ही क्यों देखती हूँ?  कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं अपनी जिंदगी में सचमुच किसी पुरुष की कमी को महसूस करने लगी थी. शायद यही सच होगा. लेकिन यदि ऐसा है तो फिर मैंने उस कमी को पूरा करने का प्रयास क्यों नहीं किया. हालाँकि उन्होंने कभी खुलकर नहीं कहा लेकिन क्या मैं नहीं जानती कि माँजी मुझसे क्या आशा लगाए थी? लेकिन शायद मेरा अवचेतन मन वैभव के स्थान पर किसी अन्य की कल्पना करने को तैयार नहीं है.” मिताली फिर सोचने लगती.

“खैर! कारण चाहे जो भी रहा होगा लेकिन अब सोचने की बात ये है कि क्या मुझे सदा-सदा यूं ही, इन्हीं परिस्थितियों में रहना होगा? क्या हमारी जिंदगी के फैसले सदा बाहरी लोगों की राय पर ही निर्भर होंगे? क्या मुझे चलने के लिए सदा बैसाखियों की जरूरत पड़ेगी?

नहीं-नहीं! मैं ऐसा नहीं होने दूँगी. अब मैंने तय कर लिया है कि मुझे अपनी सोच पर किसी का अधिकार नहीं चाहिए. तपन और महेश जी जैसे लोग तो सदा से हमारे समाज का हिस्सा रहते आए हैं लेकिन इनसे सुरक्षा के लिए मुझे किसी लोकेश, सिन्हा या मयंक का सहारा नहीं लेना है. अपने डर की छिपकलियाँ हमें खुद ही भगानी होंगी. क्या हुआ जो वैभव हमारे साथ नहीं है. मैं नहीं मानती कि पति के बिना स्त्रियों की जिंदगी के रंग खत्म हो जाते हैं. मैं खुद को स्याह-सफ़ेद रंगों की चादर से बाहर निकालुंगी.

दुनिया में ऐसी मैं अकेली तो नहीं. हजारों-लाखों मितालियाँ होंगी जो अपनी जिंदगी आप जीती हैं. जो अपने लिए गलत फैसलों पर भी अफसोस नहीं करती. अपनी हर ठोकर को एक सबक मानकर उसका स्वागत करती हैं. मैंने तो फिर भी वैभव के साथ सुखमय जीवन के पंद्रह बरस जीये हैं बहुतों को तो इस सुख के स का भी पता नहीं.

ऐसा नहीं है कि मैं सबसे कट जाऊँगी या फिर अपने चारों तरफ कोई सुरक्षाचक्र बना लूँगी. मैं भी सामाजिक प्राणी हूँ. मुझे भी खुश रहने के लिए किसी साथी या साधन की आवश्यकता अवश्य होगी लेकिन मैं उस साधन की आदी नहीं बनूँगी. उस साथी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दूँगी बल्कि मैं स्वयं यह तय करूंगी कि मुझे किस साधन या साथी को किस हद तक स्वीकार करना है. फिर चाहे वह लोकेश हो, मयंक हो, जेठानी हो कोई ओर...

निर्णय लेने के साथ ही मिताली की विचारशृंखला पूरी हो गई. माथे की लकीरें सामान्य होकर वापस अपने स्थान पर आ गई. सिकुड़े हुये होठ अपनी लंबाई बढ़ाकर यथास्थान चले गए. मन के भीतर एक गुनगुनाहट ने अंगड़ाई ली और मन गा उठा- “काँटों से खींच के ये आँचल... तोड़ के बंधन बांधी पायल...

मिताली अपने कमरे में गई. अलमारी खोली और हल्के रंगों वाली सभी साड़िया-कुरते निकाल कर बाहर करने लगी. तभी टेबल पर रखा फोन बजने लगा. मिताली ने बिना नाम देखे ही फोन को साइलेंट कर दिया और गुनगुनाते हुए अपनी अलमारी व्यवस्थित करने लगी.

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इंजी. आशा शर्मा

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