तोड़ के बंधन - 5 Asha sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

तोड़ के बंधन - 5

5

इधर दोनों परिवारों का बढ़ता मेलजोल मोहल्ले में आम चर्चा का विषय होने लगा. लोकेश भी इन सबसे अनजान नहीं था. हालाँकि वह मिताली को इस आँच से दूर रखना चाहता था लेकिन किस अधिकार से. वह मिताली से इस बारे में चर्चा करना चाहता था लेकिन डरता था कि कहीं भयभीत मिताली ये रिश्ता ही ना खत्म कर दे.

उधर सिन्हा साब ने भी मिताली के साथ अपना नाम जुड़ने की चर्चा उड़ती-उड़ती सी सुनी थी लेकिन उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया. न जाने क्यों वे मिताली के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी महसूस करते थे. शायद वैभव की विधवा होने के नाते.

जब पत्ता-पत्ता मिताली के बारे में ही बात कर रहा हो तो क्या मिताली अनजान थी इन सबसे? नहीं! जानती वह भी सब थी लेकिन अब उसने लोगों की बातों पर कान धरना बंद कर दिया था.

“जब मैं गलत नहीं हूँ. मेरे मन में पाप नहीं है. तो मैं क्यों जने-जने को सफाई देती फिरूँ? कहता रहे जिसे जो कहना है. मुझे किसी की परवाह नहीं. वैसे भी मुश्किल घड़ी में इनमें से कौन था जो मेरे साथ खड़ा था. अब किसी को मेरे बारे में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं. मेरी जिंदगी के निर्णय मेरे अपने होंगे. अपने हर अच्छे-बुरे फैसले की जिम्मेदार मैं खुद हूँ. उसका परिणाम भी भुगतने की हिम्मत है मुझमें.” मिताली स्वयं को हौंसला देती, लोगों की बातों को हवा में उड़ा देती थी.

वैभव मिताली के लिए ओजोन परत की तरह था जो उसे झुलसाने वाली पराबैंगनी किरणों से सुरक्षित रखता था. उसके जाने से उस परत में छेद हो गया है जो कभी नहीं भर सकता. हालाँकि मिताली लोगों की बतकही की अधिक परवाह नहीं करती थी लेकिन “कहीं मैं अपनी सुरक्षा के लिए कोई वैकल्पिक साधन तो तलाश नहीं कर रही?” जैसा विचार भी सिन्हा साब या लोकेश को लेकर उसके दिमाग में कौंध जाता.

इन सब से बेखबर लोकेश की माँ मिताली को लेकर अलग ही सपनों का संसार सजाने लगी थी.

“दो अलग-अलग तस्वीरों को एक साथ जोड़ने से भले ही तस्वीर इतनी खूबसूरत न दिखे लेकिन टूटी हुई तो नहीं दिखेगी ना! बेशक उनके बीच का जोड़ देखने में अच्छा न लगे लेकिन टूटे हुए किनारों से कोई लहूलुहान तो नहीं होगा ना!” लोकेश की माँ कल्पनाओं में मिताली को अपनी बहू के रूप में देखने लगी.

“अरे! आज आप ऑफिस नहीं गई?” लोकेश ने मिताली को बाहर पोर्च में रखे गमलों में पानी डालते देखा तो पूछा.

“आज मन नहीं है.” मिताली बहुत अपसेट लग रही थी.

“कोई बात नहीं, कभी-कभी खुद से भी बातचीत करनी चाहिए.” लोकेश ने कहा. वह तनाव वाले माहौल को सहज करना चाहता था. मिताली ने अपना मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया.

लोकेश का मन तो दिन भर में कई बार मिताली को फोन लगाने को हुआ लेकिन “क्या बात करूँगा” सोचकर हिम्मत ही नहीं हुई. दोपहर होते-होते उसका ऑफिस में बैठना मुश्किल हो गया तो वह घर की तरफ चल दिया लेकिन अपने घर जाने की बजाय मिताली के घर की तरफ मुड़ गया. दरवाजा निधि ने खोला. थोड़ी देर बाद मिताली कमरे से बाहर आई. उसकी सूजी आँखें, बिखरे बाल और अस्त-व्यस्त कपड़े देखकर लोकेश का कलेजा मुँह को आ गया. उसका मन किया कि मिताली को अपने सीने से लगा ले. रोने दे उसे जीभर के. उंडेलने दे अपने मन का दर्द उसके कंधे पर. लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाया. मर्यादा ने उसके पाँव रोक लिए. मिताली उसके सामने वाले सोफे पर बैठ गई. चुप्पी को तोड़ने के लिए हर कोई उचित शब्द तलाश कर रहा था. आखिर विशु ही बोला.

“देखिये ना अंकल! आज सुबह से माँ ने न कुछ खाया न पीया. बनाया भी कुछ नहीं. हमने भी दूध-ब्रेड ही खाई है.” विशु ने मिताली की शिकायत की तो लोकेश ने उसे खींच कर अपनी गोद में बिठा लिया.

“चलो! आज हम पिज़्ज़ा खाने चलते हैं.” लोकेश ने कहा. पिज़्ज़ा का नाम सुनकर विशु का चेहरा खिल गया लेकिन मिताली की कोई प्रतिक्रिया न पाकर उसका मन वापस बुझ गया.

“मिताली जी! मैं आपकी भावनाओं को समझता हूँ और वैभव को याद करने का भी आपको पूरा अधिकार है लेकिन आंसुओं में डूब कर नहीं. इन बच्चों की मुस्कराहट में देखिये उसे. मैं आपको समझाने नहीं बल्कि याद दिलाने आया हूँ कि उसका अंश इन बच्चों में है. उसे महसूस कीजिये. और हाँ! दो कप चाय बना लाइए ताकि आपके साथ मुझे भी पीने को मिल जाये. भूल गई आप? शाम की चाय मैं यहीं पीता हूँ.” लोकेश ने उसे सामान्य करने की गरज से कहा लेकिन उसका प्रयास सफल नहीं हुआ.

“कैसे मुस्कुराऊं लोकेश जी! बहुत कोशिश करके देख ली. कई बार लगा भी कि अब तो शायद आँसू सूख चुके होंगे लेकिन ये सिर्फ मेरा वहम था. वैभव आज भी मेरे पल-पल पर काबिज है. उसके नाम का जिक्र ही काफी है मेरे आँखों के बाँध को तोड़ने के लिए. आप शायद यकीन नहीं करेंगे कि आज भी गाड़ी की डिक्की में वैभव का वो कोट और जूते रखे हैं जो उसने हॉस्पिटल जाते समय पहन रखे थे. वो शर्ट आज भी बिना धुली टंगी है स्टोर में जो उसने अंतिम दफा ऑफिस से आकर उतारी थी. वो कपड़ों का गट्ठर जो उसके जाने के बाद इस्त्री होकर आया था उसे किसी को दान करने के लिए हाथ नहीं उठे आज तक. आप कहते हैं कि सब कुछ भूल कर आगे बढ़ने की कोशिश करूँ. बच्चों के लिए जीऊँ. मैं भी सब समझती हूँ लेकिन इस मन का क्या करूँ? इसे कैसे समझाऊं.” मिताली की आगे की बात उसके आंसुओं के साथ बह गई. लोकेश से अब अधिक बैठा नहीं गया तो वह उठकर अपने घर आ गया.

“लोकेश! ईश्वर ने तो मिताली के साथ बहुत अन्याय किया लेकिन क्या हम उसकी जिंदगी में फिर से ख़ुशी लाने की कोशिश नहीं कर सकते?” माँ के अचानक पूछे इस प्रश्न ने लोकेश को चौंका दिया. हालाँकि वह माँ के कहने का इशारा समझ तो रहा था लेकिन फिर भी अनजान बना रहा.

“इसमें हम क्या कर सकते हैं.” लोकेश ने पूछा.

“क्यों न हम दोनों परिवार मिलकर एक हो जायें. इस घर में स्त्री की और उस घर में पुरुष की कमी पूरी हो जाएगी. बच्चों के सिर पर भी एक जिम्मेदारी वाला हाथ हो जायेगा.” माँ ने स्पष्ट किया.

“माँ, आप भी ना! कुछ का कुछ ही सोच जाती हो. कमाल है आपकी कल्पना शक्ति.” लोकेश ने माँ की बात हँसी में उड़ा दी.

“लेकिन ऐसा सोचने में बुराई क्या है?” माँ ने अपनी बात पर ज़ोर दिया.

“बात बुराई की नहीं है. लेकिन क्या आपको लगता है कि मिताली इसके लिए राजी होगी? वैसे भी अभी तो उसके आँसू भी हरे हैं. नाहक आप उसके दुख को बढ़ा देंगी.” लोकेश ने आशंका जताई.

“जानती हूँ ये इतना आसान नहीं है. मिताली राजी तो नहीं होगी लेकिन उसे राजी करना पड़ेगा. हम उसके मायके-ससुराल वालों से बात कर देखेंगे लेकिन पहले उससे तो बात करें.” माँ कुछ उत्साहित सी हो कर बोली.

“आप जरा धीरज रखो. समय को अपना काम करने दो. अच्छा! एक कप चाय तो पिला दो. आज शाम को पी ही नहीं.” लोकेश ने बातचीत का विषय बदलते हुए कहा.

“ये सच है कि मैं मिताली को पसंद करने लगा हूँ लेकिन क्या मुझे मिताली के जीवन में शामिल होना चाहिए? यदि मैं ऐसा करता हूँ तो क्या उसके प्रति न्याय कर पाऊँगा?” लोकेश ने स्वयं से प्रश्न किया.

“एक दोस्त और शुभचिंतक की हैसियत से जिस तरह मैं उसकी तकलीफ को महसूस करता हूँ क्या वही अहसास पति बनने के बाद भी कायम रहेंगे? क्या मेरा पुरुष मन किसी और पुरुष की उपस्थिति को हमारे बीच स्वीकार कर पायेगा? क्या अंतरंग पलों में वैभव का साया हमारे बीच आकर खड़ा नहीं हो जायेगा? क्या मैं इतना विशाल हृदय रखता हूँ कि मिताली को उसके पूर्व पति की यादों के साथ अंगीकार कर पाऊँगा?” लोकेश के सामने प्रश्नों का एक पहाड़ सा खड़ा होने लगा. उसे उस विशाल पर्वत के सामने स्वयं का अस्तित्व बहुत ही छोटा नजर आ रहा था.

“लेकिन हम तो उसकी परेशानियाँ, उसके दुःख-तकलीफ बांटना चाहते हैं.” लोकेश ने एक क्षीण सा प्रतिकार किया.

“उसे अपना कर क्या तुम उसकी परेशानियाँ बढ़ा नहीं दोगे?” फिर से एक प्रश्न आया.

“वो भला कैसे?”

“अभी तुम उसके दोस्त हो इसलिए मिताली वैभव को याद करके तुम्हारे कंधे पर रो लेती है. तुम्हारी पत्नी बनने के बाद क्या एकाएक वैभव की यादें समाप्त हो जाएँगी? तुम्हारे सामने वह वैभव का जिक्र तक नहीं छेड़ पाएगी. अगर उसने ऐसा किया तो क्या तुम्हारे पुरुषोचित अहम पर चोट नहीं लगेगी? तुम उस घर के पुरुष की कमी बेशक पूरी कर दोगे लेकिन क्या मिताली के पति की कमी पूरी कर पाओगे? जरा ईमानदारी से खुद को टटोल कर जवाब देना.” प्रश्नों की कड़ी में एक और प्रश्न जुड़ा.

”उफ्फ! इतने प्रश्न. लोकेश निरुत्तर हो गया. इसलिए नहीं कि उसके पास इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था. जवाब तो था लेकिन बहुत ही कड़वा और खारा सा.  वह उन जवाबों का सामना नहीं कर पा रहा था.

“मैं मिताली को वक्त दूँगा ताकि वह अतीत से बाहर आकर भविष्य के बारे में सोचे.” लोकेश ने एक अपना भद्र पक्ष रखा.

“वक्त के साथ वैभव की यादें धुंधली तो हो सकती हैं लेकिन मिट नहीं सकती. दो-चार दिन का नहीं पूरे पंद्रह वर्षों का साथ था उनका. क्या तुम उसे उन गठबंधन के धागों से आजाद करवा पाओगे? क्या उसे वैभव की यादों के इस गहरे कुएं से बाहर निकाल पाओगे? है कोई जवाब? नहीं ना!” भीतर से फिर कोई चिल्लाया.

“क्या करे! कुछ भी समझ नहीं आ रहा. मन के प्रश्न अपनी जगह एकदम सही हैं. इंतज़ार तो खैर उसे करना ही होगा लेकिन वह मिताली को यूँ परेशान भी तो नहीं देख सकता ना. ऊपर से लोगों के फिकरे और ताने अलग से. क्या कोई बीच का रास्ता नहीं हो सकता.” लोकेश भंवर में उलझता ही जा रहा था. किसी तरह रात के तीसरे पहर उसकी आँख लगी.

“लोकेश! मेरी बात पर कुछ विचार किया तुमने?” सुबह की चाय हाथ में लिए माँ भी अपने प्रश्न के साथ पुनः मौजूद थी.

“नहीं माँ! मुझे नहीं लगता कि इस विषय पर मिताली से बात करने के लिए अभी सही समय है. या फिर शायद हमें ही अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि मदद और शादी करना दोनों बिल्कुल उलट बात हैं.” लोकेश ने माँ के हाथ से चाय का कप ले लिया. माँ भी वहीं रखी कुर्सी पर बैठकर चाय पीने लगी. अब सिर्फ चाय सुड़कने की आवाजें ही आ रही थी. दोनों के बीच गहरा मौन पसरा था. शायद दोनों ही अपने-अपने तरीके से इस विषय पर मंथन कर रहे थे.

“माँ! तुमने भी तो लगभग इसी उम्र में पिताजी को खोया था. तब तुम अपने बारे में क्या सोचती थी. क्या तुम्हें कभी ये ख़याल आया था कि तुम अकेली मुझे कैसे पालोगी. खुद कैसे रहोगी.” लोकेश ने अचानक पूछा तो माँ ने उसकी तरफ देखा..

“मैं उस दौर से गुजर कर आई हूँ तभी तो मिताली के हालातों को बेहतर समझ सकती हूँ. वो कहते हैं ना कि “जिसके पाँव न फटे बिवाई... वो क्या जाने पीर पराई...” मिताली भले अपने मुँह से कुछ न कहे, चाहे बाहर से कितनी भी मजबूत दिखने की कोशिश करे लेकिन मैं जानती हूँ कि अंदर से कहीं न कहीं उसे भी किसी सहारे की जरूरत है. मैं दावे से कह सकती हूँ कि वैभव के जाने के बाद वह किसी एक दिन भी निश्चिंत हो कर नहीं सोई होगी जैसे वैभव के रहते सोती थी.” माँ आँखें बंद करके बस बोलती जा रही थी मानो अपने अतीत को फिर से जी रही है. लोकेश ने एक गहरी साँस भर कर माँ की तरफ देखा और चाय का खाली कप ट्रे में रख दिया. लोकेश बाथरूम की तरफ चल दिया तो माँ भी ट्रे उठाकर रसोई की तरफ जाने लगी. तभी लोकेश का मोबाइल बजने लगा. माँ ने देखा मिताली का फोन था. माँ ने फोन उठा लिया.

“हैल्लो! बेटा लोकेश तो बाथरूम में है.” माँ ने कहा.

“माँजी! विशु सीढ़ियों से गिर गया. सिर में चोट लगी है. बहुत खून बह रहा है. हॉस्पिटल जाना है. मुझे बहुत डर लग रहा है. मैं विशु को संभालुंगी तो गाड़ी कौन चलायेगा. चलिए कोई बात नहीं. मैं खुद ही कोशिश करती हूँ. कोई ऑटो देखती हूँ.” कहते हुए मिताली ने फोन काट दिया. माँ ने लोकेश को सारी बात बताई तो वह बिना नहाये ही बाथरूम से बाहर निकल आया. जब तक मिताली बाहर आई, वह अपनी गाड़ी निकाल कर तैयार खड़ा था. उसे देखकर मिताली ने राहत की सांस ली.

“फटाफट चलिए. खून रुक ही नहीं रहा.” मिताली ने घबराते हुये कहा.

“आप रोना बंद कीजिये. घबराइए तो बिल्कुल भी नहीं.  मैंने देख लिया है, घाव ज्यादा गहरा नहीं है. मेरा दोस्त डॉक्टर है, हम उसी के क्लीनिक पर चलेंगे.” लोकेश ने घाव देख कर मिताली को समझाया. कुछ ही देर में दोनों क्लीनिक पर थे.

“चोट गहरी नहीं है. लेकिन दो टाँके लगा देता हूँ ताकि घाव जल्दी भर जाये.” डॉक्टर ने भी जब लोकेश की बात ही दोहराई तो मिताली ने अपने माथे पर आये पसीने को पौंछा और लोकेश की तरफ देखकर कृतज्ञता से मुस्कुराई. विशु की पट्टी करवा कर और आवश्यक दवाएं लेकर सब घर आ गए. मिताली ने ऑफिस से तीन-चार दिन की छुट्टी ले ली थी.

“कैसे हो विशु बाबू! कैसे बिताया आज का दिन?” शाम को लोकेश माँजी के साथ उसके हालचाल पूछने आया.

“ठीक हूँ अंकल! अपने दोस्त से पूछ कर आज का होमवर्क कर रहा हूँ.” विशु मुस्कुराया.

“यार ये तुम्हारी अंग्रेजी बड़ी कंजूस है. देखो ना! पूरा सब्जेक्ट सिर्फ छब्बीस अक्षरों में समेट दिया. हमारी भाषा को देखो. कितनी बड़ी व्याकरण है. इसी तरह सारे रिश्तों को भी एक शब्द “अंकल” में लपेट दिया. हमारे यहाँ देखो. चाचा... मामा... ताऊ... फूंफा... हरेक रिश्ते के लिए अलग नाम है. है  के नहीं?” लोकेश ने ठहाका लगाया. उसके साथ सभी हँस दिए.

“तो भइये! आज से तुम मेरे लिए इनमें से कोई एक नाम चुन लो. अंकल से मैं कंफ्यूज हो जाता हूँ कि मैं चाचा हूँ या ताऊ.” लोकेश ने फिर मजाक किया लेकिन माँ उसके इस मजाक के पीछे छिपी मंशा को पहचान गई थी.

“आज से हम आपको चाचा कहेंगे. ठीक है ना विशु!” अब निधि भी उनकी बातों में शामिल हो चुकी थी. विशु ने उसकी बात पर सिर हिलाकर हामी भरी. माँजी भी मुस्कुरा दी.

--------------------------------