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“मम्मा! इस शनिवार मेरे स्कूल में पैरेंट-टीचर मीटिंग हैं. आपको आना है.” आज निधि ने स्कूल से आते ही कहा तो खाना परोसती मिताली के हाथ रुक गए.
“भागने से समस्याएं कभी हल हुई हैं क्या. अब तो वैभव के हिस्से के काम भी मुझे ही करने होंगे. आज नहीं तो कल,नौकरी के लिए भी तो घर से बाहर निकलना ही होगा. अपना बोझा खुद ही उठाना पड़ता है. क्या हुआ जो कोई पल दो पल के लिए हमारे इस भार को कम कर दे लेकिन सदा के लिए तो कौन हमारी जिम्मेदारी लेगा.” मिताली मन ही मन न जाने कितना दूर तक सोच गई.
“ठीक है. शनिवार को चलेंगे हम दोनों.” मिताली ने बेटी के हाथ पर हाथ रख कर उसे आश्वस्त किया और खाना परोसने लगी.
शनिवार को जब मिताली निधि के साथ स्कूल जाने के लिए घर से निकलने लगी तो अनायास निगाहें पोर्च में खड़ी गाड़ी की तरफ उठ गई. पूरी कार धूलियाधूल हो रखी थी. और होती भी क्यूँ नहीं. वैभव ने ही उसे आखिरी बार छुआ था.
“गाड़ी और लाड़ी, चलती-फिरती ही अच्छी लगती हैं. अगर रूठ के कहीं खड़ी हो जाएँ तो फिर भगवान ही मालिक है...” वैभव अक्सर उसे चिढाता हुआ कहता था. मिताली को गाड़ी पर प्यार उमड़ आया. उसके हाथ यंत्रवत से शीशे की धूल साफ़ करने लगे.
“कहीं जा रही हैं भाभीजी? मैं ड्रॉप कर दूँ?” नुक्कड़ वाले पड़ौसी मिस्टर कपूर ने ऑफर दिया. कुछ सेकंड के इस एक वाक्य को बोलने के दौरान ही मिस्टर कपूर की आँखें उसे ऊपर ने नीचे तक तोल आई. सकुचाई मिताली ने अपनी साड़ी का पल्लू अपने चारों तरफ और भी अधिक कस लिया. वह कुछ बोली नहीं बस ना में अपनी गर्दन हिला दी.
“नो थैंक्स अंकल! हम चले जायेंगे.” जवाब निधि ने दिया और मिताली की तरफ मुस्कुरा कर देखा मानो कह रही हो- “ठीक कहा ना!” मिताली बेटी का हाथ थाम कर आगे बढ़ गई. तभी पर्स में रखा उसका मोबाइल बज उठा.
“हैल्लो मिताली जी! मैं तपन बोल रहा हूँ. आज शाम आप घर पर ही हो तो मैं आ जाऊँ?” वैभव के ऑफिस से फोन था.
“जी, कोई ख़ास काम था क्या?” मिताली ने पूछा.
“वो मैं आकर ही बताऊंगा.” तपन ने कहा. मिताली जानती थी तपन से वैभव के रिश्ते को. दोनों में बहुत छनती थी. कितनी ही बार वैभव लंच में तपन के लिए उससे स्पेशल डिश बनवा कर ले जाता था. खाने के बाद तपन हमेशा उसे फोन करके थैंक्स बोलता था. हालाँकि वह तपन से पहले भी कई बार मिल चुकी है लेकिन तब वह उसे “भाभीजी” कहा करता था. आज “मिताली जी” संबोधन उसे खाने में किरकिरी सा लगा. लेकिन अब परिस्थितियां भी तो पहले से एकदम उलट हैं. समय अनुकूल न हो तो रिश्तों को संबोधन में बदलते देर ही कितनी लगती है. विचारों के बवंडर के साथ उड़ती मिताली निधि के साथ चली जा रही थी. उसने तपन को शाम को घर आने के लिए हामी भर दी थी.
“आइये तपन जी! कहिये कैसे आना हुआ?” मिताली ने भी जमाने के तेवर महसूस करते हुये “भैया” को “तपन जी” में बदल दिया. वह उसे लेकर ड्राइंगरूम में आ गई. तपन ने महसूस किया कि मिताली के चेहरे पर उदासी की परत गहरी होते-होते अब स्थायी होने लगी है.
“ये वैभव के कुछ क्लेम ड्यू थे. जहाँ-जहाँ टिक लगा है, आप इन पर साइन कर दीजिये.” तपन ने कुछ पेपर्स टेबल पर फैला दिए. मिताली ने पढ़ा. साइन करने वाली जगह लिखा था- “वाइफ ऑफ़ लेट श्री वैभव सिन्हा” मिताली के हाथ काँप गए. आँखें डबडबा गई. कागजों पर लिखे अक्षर गड्डमड्ड हो गए.
मिताली के हाथों ने पेन चलाने से इनकार कर दिया. उँगलियों की पकड़ ढीली होते ही हाथ में पकड़ा हुआ पेन उँगलियों के बीच झूल गया. मिताली ने उसे कैद से आजाद कर दिया. मिताली के होठ थरथराने लगे. कितनी भी कोशिश कर ले मिताली लेकिन वैभव का जिक्र आते ही जतन से बाँधे आँसुओं के बादल फाहा-फाहा बनकर उड़ जाते हैं.
तपन ने हिचकियाँ रोकने की कोशिश करती मिताली के कंधे पर स्नेह से हाथ रखा. उसकी सहानुभूति की आँच पाते ही वेदना की जमी बर्फ पिघलने लगी. अनजाने ही मिताली का सिर तपन की बाँह से आ लगा. भीतर के ग्लेशियर पिघलने लगे. इसके साथ ही बाँह का घेरा बदन के इर्दगिर्द कसने लगा. अचानक तपन के हाथ फिसलते हुए मिताली की पीठ सहलाने लगे. मिताली चौंक गई. उसे यूँ लगा मानो सैंकड़ों केंचुए एक साथ उसकी साड़ी में घुस कर इधर-उधर रेंगने लगे. लिजलिजे स्पर्श को महसूस कर उसे उबकाई सी आ गई. एक झटके में मिताली ने तपन का हाथ परे झटका और पेन उठा कर धड़ाधड़ कागजों पर साइन करने लगी. मानो रिश्तों की बेशर्मी का गुस्सा इन कागजों पर निकाल रही हो.
“कोई धणीधोरी तो है नहीं... न रोक ना टॉक... खुले कपाट हैं... घुसे चले आओ... हुंह! अकेली औरत को परोसी हुई थाली समझते हैं सब के सब... बस! आओ और जीम लो...” गुस्साई मिताली ने तपन को चाय तक के लिए नहीं पूछा.
“चलता हूँ मिताली जी! कभी कोई जरुरत हो तो आधी रात को भी याद कर लीजियेगा. बंदा सिर के बल दौड़ा चला आयेगा.” कहते हुये तपन ने अपनी आँखें उसकी छाती पर गड़ा दी. मिताली को उनकी चुभन साड़ी के भीतर सीने तक महसूस हुई.
जवाब में मिताली कुछ भी नहीं कह पाई. उसने अपना चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया. खिसियाया हुआ तपन टेबल पर बिखरे कागजात समेटने लगा.
माँआआ.... निधि की चीख सुनकर रसोई में चाय बनाती मिताली घबरा गई. सुना तो चीख बाथरूम में से आ रही थी. मिताली दौड़ कर गई तो देखा तोलिया लपेटे निधि बाथरूम के कोने में खड़ी काँप रही है.
“क्या हुआ? क्यों चिल्लाई?” मिताली ने पूछा. निधि के मुँह से बोल नहीं फूटे. डर से भरी हुई आँखें सिर्फ ऊँगली से सामने वाली दीवार की तरफ इशारा भर कर पाई. अब चीखने की बारी मिताली की थी. वहाँ दीवार पर चिपकी एक हट्टी-कट्टी छिपकली उन दोनों को ही घूर रही थी.
“तू फटाफट कपड़े पहन कर सामने वाले लोकेश अंकल को बुला कर ला. तब तक मैं इस पर नजर रखती हूँ. ये कहीं छिप गई तो ढूंढना मुश्किल हो जाएगा.” मिताली ने सहमी हुई निधि को हिम्मत बंधाने की कोशिश की. निधि जैसे-तैसे कपड़े पहन कर बाहर की ओर लपकी.
“उफ़्फ़! कितनी कमजोर हूँ मैं. न छिपकली भगा सकती हूँ. न कोकरोच मार सकती हूँ. क्या कर पाऊँगी मैं अकेली. कैसे सब होगा मुझसे अकेले.” मिताली अभी अपना मूल्यांकन कर ही रही थी कि लोकेश अंकल अपने साथ सींक वाली मोटी झाड़ू लेकर छिपकली का शिकार करने आये. भयभीत निधि बाथरूम के बाहर ही खड़ी हो गई.
“बोल बेटा! इस दुश्मन को मारना है या कैद कर लें?” लोकेश ने निधि का डर दूर करने की कोशिश की.
“मार ही डालिए अंकल.” निधि ने उसे जोश दिलाया. इस समय यह छिपकली ही उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन नजर आ रही थी जिसे वह किसी भी कीमत पर जीवित नहीं छोड़ना चाहती थी.
“तो ये ले!” कहते हुए फटाक-फटाक करके लोकेश ने छिपकली पर वार करना शुरू कर दिया. घबराई हुई छिपकली ने अपनी पूँछ त्याग दी. छिटकी हुई पूँछ फर्श पर तड़पती हुई बहुत ही वीभत्स लग रही थी. देखकर मिताली को उबाक सी आ गई. अब तक लोकेश ने दुश्मन पर काबू पा लिया था. उसने घायल छिपकली और उसकी पूँछ को झाड़ू में लपेटा और बाहर फैंक आया.
“निधि! बेटा मेरा मोबाइल नंबर सेव कर ले. जब भी कोई छिपकली...कोकरोच...या झींगुर... घर में तो क्या आसपास भी दिखाई दे ना, तो फ़ौरन मुझे कॉल कर देना. मैं अपना हथियार लेकर हाजिर हो जाऊंगा.” लोकेश ने सीना फुलाते हुए इस अंदाज से कहा कि मिताली की हँसी छूट गई.
“चाय पीकर जाइये लोकेश जी! बना ही रही थी. निधि तू नहा ले बेटा. तेरी मैगी भी बन ही गई समझ.” मिताली ने हँसते हुये कहा. आज पहली बार उसने किसी पड़ौसी को खुद से आमंत्रित किया था.
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