तोड़ के बंधन - 3 Asha sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तोड़ के बंधन - 3

3

लोकेश... उनका पड़ौसी...  मिताली और वैभव के प्रेम का गवाह था. सड़क के दूसरी तरफ घर के ठीक सामने ही तो रहता था. दोनों का रूठना-मानना... प्यार-मोहब्बत... झगड़ा-सुलह... सब कुछ उसकी रसोई की खिड़की से साफ़-साफ़ दिखाई देता था. वह बात-बात में उनके छलकते हुए स्नेह को महसूस करता था. यूँ तो वह किसी से कोई खास मतलब नहीं रखता था लेकिन वैभव और मिताली से जब भी टकराता था तो हाय-हैल्लो जरूर कर लेता था.

लोकेश के बारे में मिताली भी अधिक कुछ नहीं जानती थी. बस इतना ही कि वह उनके सामने वाले घर में अपनी माँ के साथ रहता है. कहाँ नौकरी करता है ये तो मिताली नहीं जानती लेकिन सुबह-सुबह लगभग आठ बजे अक्सर ही उसे कंधे पर लैपटॉप वाला काला बैग टंगाये जाते देखती है. उम्र लगभग चालीस के आसपास... मध्यम कदकाठी... और मुस्कुराता सा चेहरा... आँखों पर चढ़ा सुनहरे फ्रेम का चश्मा और कनपटियों पर झलकती सफेदी उसके व्यक्तित्व को अतिरिक्त गरिमा प्रदान करती है.

पड़ौसियों से उड़ती-उड़ती खबर सुनी थी कि लोकेश की शादी तो हुई थी लेकिन दो-चार महीने बाद ही पत्नी ने साथ रहने से इन्कार कर दिया. अब शायद तलाक का केस चल रहा है. फैसला हुआ या नहीं मिताली नहीं जानती. लोग कहते हैं कि पत्नी ने लोकेश पर नामर्दी का इल्जाम लगाते हुए तलाक की मांग की है. लोकेश ने भी बिना प्रतिकार किये तलाक के कागजों पर साइन कर दिए थे. तब से आजतक किसी ने लोकेश के घर में उसकी माँ के अलावा किसी अन्य महिला को नहीं देखा था.

मिताली ने महसूस किया कि उस धीर-गंभीर व्यक्तित्व के पीछे एक सरल-सहृदय व्यक्ति भी छिपा है जो अपने जबरदस्ती के ओढ़े गए आवरण से बाहर आने को आतुर है लेकिन नारियल के खोल सा यह कवच इतना मोटा है कि लोकेश इसे बेध नहीं पा रहा था.

निधि और विशु से बतियाना लोकेश को सचमुच अच्छा लगता है या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि ये पितृविहीन बच्चों के प्रति उसके मन में उपजी सहानुभूति भी हो सकती है लेकिन हाँ!यह सच है कि आजकल लोकेश की दिलचस्पी इन बच्चों में बढती जा रही थी.

मिताली ने सिर्फ लोकेश ही नहीं बल्कि मोहल्ले में सभी से एक दूरी ही बना कर रखी है. पहले भी वह किसी के यहाँ अधिक आना-जाना नहीं करती थी और अब वैभव के न रहने पर तो उसने अपनेआप को और भी अधिक समेट लिया है. लोकेश तो ठीक सामने वाले घर में ही रहता है इसलिए बड़ते-निकलते सामना हो ही जाया करता है. घर की छिपकली भगाने वाली घटना के बाद अब मिताली उसे नमस्कार कर लेती है.

लोकेश की माँ एक पढ़ीलिखी और समझदार महिला लगती है इसलिए टकराने पर मिताली उन्हें भी प्रणाम कर लेती है. वे भी कभीकभार अकेली या लोकेश के साथ उससे मिलने घर आ जाती हैं.

उन्होंने ही एक बार बताया था कि जब लोकेश लगभग पंद्रह वर्ष का था तभी उसके पिता की मृत्यु हो गई थी. लोकेश एक मल्टी नेशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर काम कर रहा है. लगभग दस वर्ष पहले उसकी शादी एक सुंदर सी लड़की से हुई थी लेकिन शादी के महीने भर बाद ही पत्नी उसे छोड़कर मायके चली गई थी जो फिर कभी लौट कर वापस नहीं आई. शायद वह किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह करना चाहती थी लेकिन परिवार और समाज के दबाव के कारण इस शादी से इंकार नहीं कर पाई.

शादी के बाद उसने लोकेश से पति-पत्नी वाला कोई संबंध नहीं रखा था. फिर लोकेश ने ही उसे ये रिश्ता खत्म करने की सलाह दी थी. और कोई आरोप समझ में नहीं आया तो उसने लोकेश से इसी आधार पर तलाक की मांग की कि वह शादी के काबिल ही नहीं है. जब मन ही नहीं मिले तो तन को बांधने से क्या लाभ. लोकेश ने भी उसे खुशी-खुशी आजाद कर दिया. अब वह अपने पूर्व प्रेमी के साथ शादी करके दूसरे शहर में रह रही है. उसके जाने के बाद लोकेश ने दुबारा शादी करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. हालाँकि सभी माँओं की तरह उनकी भी इच्छा है कि लोकेश भी गृहस्थी के खूँटे से बंध जाए लेकिन लोकेश किसी तरह राजी ही नहीं होता इसलिए अब वे माँ-बेटा दोनों अकेले ही अपने संसार में खुश हैं.

सच्चाई जानकार मिताली के दिल में लोकेश के प्रति इज्जत और भी बढ़ गई साथ ही सहानुभूति भी. कहते हैं कि दो एक सी अवस्था के व्यक्ति एक-दूसरे को बेहतर समझ सकते हैं शायद इसीलिए लोकेश की माँ मिताली के और लोकेश निधि और विशु के दर्द को करीब से महसूस कर पा रहे थे. क्योंकि लोकेश ने खुद भी अपने पिता को अपनी किशोरावस्था में ही खोया था इसलिए वह समझ सकता था कि दोनों बच्चे किस मानसिक यंत्रणा से गुजर रहे होंगे. हालाँकि लोकेश इस बात से बिल्कुल अनजान था कि मिताली उसके बारे में इतना कुछ जानती है.

“मिताली! मैंने भी लगभग तुम्हारी ही उम्र में अपना जीवनसाथी खोया था. इसलिए मेरी पूरी सहानुभूति तुम्हारे साथ है. ये बात सौ टका सही है कि जीवन में आए उस खालीपन की भरपाई न तो कोई कर पाया था और ना ही कोई कभी कर पायेगा लेकिन जरा मुझे भी तो देखो. मैं भी उस दर्द की नदी को पार करके आई हूँ ना. तुम भी कोशिश करो बेटा. जानती हूँ कि ये काली रातें अकेले काटना कितना मुश्किल है लेकिन काटनी तो पड़ेंगी ही ना.

एक तरह से देखा जाए तो तुम्हारी स्थिति मुझसे कहीं बेहतर है. पति के न रहने पर तुम्हें उसकी जगह नौकरी मिल जाएगी. तुम कम से कम अपने पांवों पर तो खड़ी हो जाओगी. अपने बच्चों को तो पाल लोगी. मेरे सामने तो दो समय की रोटी का भी संकट आ खड़ा हुआ था. और जब पैसा पास ना हो तो कोई सगा-संबंधी भी पास नहीं आता. ये तो मेरी पढ़ाई-लिखाई कुछ काम आ गई और मैंने घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. हाँ! संतोष की बात थी कि लोकेश के पापा जाने से पहले हमारे सिर पर छत कर गए थे. मैं और मेरा ईश्वर ही जानते हैं कि हमने किनारा कैसे पाया है.” पुराने दिन याद कर माँजी का स्वर भर्रा जाता.

“सुनो बेटी! ये सिर्फ दिखावे के लिए कहने की बात नहीं है, तुम मुझे अपनी माँ न सही मौसी ही समझ लेना लेकिन कभी भी किसी भी समय याद करोगी तो मैं और लोकेश हमेशा तुम्हारे साथ खड़े मिलेंगे.” माँ अक्सर ही मिताली को हिम्मत दिलाती रहती थी.

उनकी कहानी सुनकर मिताली के भीतर भी जीने की ललक जगती और वह अपने भीतर के  साहस को बटोरकर जिंदगी को सहज जीने के प्रयासों में जुट जाती. ऊपरी तौर पर तो मिताली अपने आप को बहुत मजबूत दिखाने की कोशिश करती लेकिन मन ही मन वह हालातों का सामना करने में खुद को बहुत कमजोर पा रही थी. दरअसल वैभव ने उसे कभी कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपी ही नहीं थी.यहाँ तक कि परिवार के साथ आउटिंग पर जाते समय मिताली के सामान की पैकिंग भी वही किया करता था. मिताली के मोबाइल चार्जर से लेकर उसके पहचान पत्र तक का ध्यान वही रखता था.अब अचानक जब मिताली पर सारी जिम्मेदारियां एकसाथ आ गई तो वह घबरा जाती है.

वैभव को गए साल होने को आया. दर्द की घिसी चादर में जिद्दी मुस्कुराहटों ने छेद कर लिए थे. कभीकभार हँसी भी बंद तहखानों से बाहर झाँकने आ जाया करती थी. बिखरे-बिखरे से लम्हे व्यवस्थित होने लगे थे. बाहर से शांत दिखने वाले सागर के भीतर तलहटी में कितने तूफ़ान मचलते हैं ये भला किनारे पर खड़ा कोई कहाँ जान पाता है.

कहते हैं कि जिंदगी से बड़ी कोई पाठशाला नहीं होती. समय सब कुछ सिखा देता है. धीरे-धीरे तीनों को इस दिनचर्या की आदत होने लगी. घर की एक चाबी निधि के पास रहने लगी. कुल मिलाकर वे तीनों वैभव की यादों के साथ जीना सीखने की कोशिश करने लगे थे.

सप्ताह-दस दिन दो मिताली ऑटो से ऑफिस गई लेकिन हर दिन सड़क के मोड़ पर खड़े होकर ऑटो का इंतज़ार करने और आने-जाने वाले हर पड़ौसी द्वारा ऑफर की जाने वाली लिफ्ट को ठुकराते-ठुकराते जब वह उकता गई तो उसने हिम्मत जुटा कर कार की सर्विसिंग करवाई और नई बैटरी डलवाकर अब अपनी कार से आना-जाना करने लगी. रोज गाड़ी को साफ़ करना... पेट्रोल भरवाने पंप तक जाना... गाड़ी की सर्विसिंग करवाना जैसे कितने ही ऐसे काम थे जिन्हें पहली बार करवाने का अनुभव मिताली जिंदगी भर नहीं भूल सकती.

परिवार को यदि सदस्यों की गिनती से बड़ा-छोटा कहा जाये तो मिताली एक बहुत बड़े कुनबे से संबंध रखती है. मायका-ससुराल दोनों को मिलाकर उसके परिजनों की एक बड़ी संख्या है लेकिन यदि मुश्किल के समय काम आने वालों को गिना जाये तो यह संख्या उँगलियों पर गिनने लायक भी नहीं है.

माँ तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़कर दूसरे धाम चली गई थी. मिताली की शादी से पहले उसका भाई ऑस्ट्रेलिया रहता था और मिताली अपने पिता और भाभी- भतीजों के साथ यहाँ इस शहर में. उसकी शादी निपटाकर पिता भी भाई के परिवार के साथ ऑस्ट्रेलिया शिफ्ट हो गए. अब तो भाई ने वहाँ की नागरिकता भी ले ली. मायके का परिवार इतना दूर हुआ कि पिता तो अपने दामाद की असमय हुई मृत्यु पर भी नहीं आ सके थे. उन्होने अपने छोटे भाई यानी मिताली के चाचा को भेजकर पीहर पक्ष की औपचारिकताओं को निभा भर दिया था. उसके बाद चाचा ने भी उससे अधिक मेलजोल नहीं रखा. शायद डर गए होंगे कि कहीं भतीजी रोज-रोज मदद के लिए उनकी देहरी न चढ़ने लगे.

ससुराल में वैभव के बड़े भाई का परिवार है. सास-ससुर ने अपने जीते जी बंटवारा कर दिया था. जेठजी ने तो बहुत पहले ही उनसे अपना रास्ता अलग कर रखा था. उन्हें लगता था कि वैभव ने अपने छोटे होने का फायदा उठाकर पैतृक मकान अपने नाम करवा लिया है. इसी नाराजगी के चलते वे वैभव के परिवार के साथ समाज में दिखाने जितना ही रिश्ता रखते थे. और अब तो उन्हें ज़िम्मेदारी गले पड़ने का डर भी सता रहा था इसलिए वे मिताली से परे-परे ही रहते हैं. शेष रिश्तेदारों से मिताली को ना तो कोई उम्मीद है और ना ही वह किसी का अहसान लेना चाहती है.

घड़ी की सुइयों के हिसाब से दिन रातों में और शामें सुबहों में ढल रही थी. सब रोबोट की तरह अपने-अपने ओढ़े हुए दायित्व निभा रहे थे.

बच्चों का स्कूल और खुद का ऑफिस... सुबह का समय मिताली के लिए बहुत भागमभाग वाला होता है. उठते ही सबका चाय-दूध... उसके बाद नाश्ता... दोपहर का खाना और सबके टिफिन... पीछा करते हुये भी वह घड़ी की सुइयों को पकड़ नहीं पाती.

“माँ! आज टिफिन में क्या डाल रही हो?” विशु की आवाज बाहर तक आ रही थी. लोकेश अपने घर के बाहर ही खड़ा था. हालाँकि किसी की बातचीत सुनना सभ्यता नहीं कहलाता लेकिन न जाने क्यों लोकेश इस वार्तालाप को सुनने का लोभ संवरण नहीं कर सका. उसने अपने कान मिताली के जवाब की तरफ लगा दिए.

“क्या बनाऊं! फ्रिज में सब्जी तो कुछ है ही नहीं. सॉस-भुजिया के सैंडविच बना देती हूँ.” मिताली फ्रिज का दरवाजा खोलकर खड़ी हो गई.

“रोज-रोज नहीं खाए जाते मुझसे सूखे सैंडविच. आप सब्जी लाती क्यों नहीं हो. पापा थे तो सब्जियों से फ्रिज भरा रहता था. तब तो आप ही परेशान होकर पूछती थी कि क्या बनाऊं. और अब कुछ बनाती ही नहीं हो.” पहले से ही झल्लाए विशु का स्वर तेज हो रहा था.

“अच्छा ठीक है. शाम को ऑफिस से आते समय सब्जियां लेती आऊँगी. बता क्या-क्या लाना है. लेकिन आज तो प्लीज सैंडविच ही ले जा. अभी तो मुझे भी देर हो रही है.” मिताली बेटे की खुशामद करने लगी. माँ-बेटे की नोकझोंक सुनकर लोकेश मुस्कुराता हुआ अपने घर की तरफ चल दिया.

शाम को ऑफिस से लौटते समय मिताली सब्जी मंडी की तरफ मुड़ गई. चारों तरफ सब्जियों के ठेले-गाड़े सजे हुए खड़े थे. रंग-बिरंगी सब्जियां और फल मिताली को सदा ही लुभाते रहे हैं. पहले भी वह कई बार वैभव के साथ यहाँ आई है लेकिन कभी सब्जी खरीदने भीतर नहीं गई. हमेशा बाहर ही खड़ी रहकर इस अद्भुत नज़ारे का आनंद उठाती रही है.

शाम होने के कारण सब्जियां अब कुछ अलसाने लगी थी. उन पर पानी के छींटे डाल-डालकर ताजा बनाये रखने का प्रयास करते सब्जी वाले सस्ती-महँगी उन्हें निपटाने के मूड में थे इसलिए आवाज लगा-लगा कर ग्राहकों को बुला रहे थे.

“कहिये मैडम जी! क्या दूँ. लौकी, तुरई, बैंगन या फिर पालक-मेथी. सब एकदम ताजा हैं. ये देखिये! सेब ठेठ कश्मीर से आये हैं. कितने तोल दूँ. दो किलो कर दूँ?” सब्जी वाले ने कहा तो मिताली का ध्यान भंग हुआ.

“कभी फल-सब्जियां खरीदी नहीं ना... हमेशा वैभव ही लाया करते थे. समझ में नहीं आ रहा कि कौन सी अच्छी है. कहीं घर जाकर पता चले कि घास-फूस उठा लाई हूँ तो नाहक ही बच्चे मजाक बनायेंगे.” सब्जियों पर नजर डालती मिताली सोच रही थी.

“अरे वाह! लगता है आज तो माँ पाँव भाजी बनाने वाली है. इतनी सारी सब्जियां जो लेकर आई हैं.” मिताली को सब्जियों से भरे थैले गाड़ी से उतारते देखकर विशु चहका. उसकी आवाज सुनकर निधि भी बाहर आ गई और सब के सब सब्जियाँ भीतर लाने में मिताली की मदद करने लगे.

“हाँ-हाँ! आज पाँव भाजी ही बनाउंगी.” उसने स्नेह से विशु के बाल सहला दिए.

आज महीनों के बाद रसोई खाने की खुशबू से महकी थी. निधि सब्जियाँ काटने-छीलने और उबालने में लगी थी तो मिताली मसाले भूनने में जुट गई. विशु बार-बार आकर रसोई में झाँक रहा था.

“चलो-चलो! खाना तैयार है.” निधि ने प्लेट बजाकर भाई को आमंत्रित किया. मिताली भी हाथ-मुँह धोकर डाइनिंग पर बैठ गई. विशु ने आज अपने पेट और मन दोनों को तृप्त कर लिया था मानो बरसों का भूखा हो. मिताली उसे खाते हुए आश्चर्य से देख रही थी.

“माँ! बची हुई पाँव भाजी मुझे कल टिफिन में डाल देना. सच्ची! बहुत टेस्टी बनी है.” विशु ने आखिरी टुकड़ा खाते हुए कहा.

“अब बस कर विशु वरना पेट दुखेगा.” निधि ने उसका मजाक उड़ाया. मिताली उनकी ठिठोली में खो गई.

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