कोड़ियाँ - कंचे - 4 Manju Mahima द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कोड़ियाँ - कंचे - 4

Part-4

डॉक्टर ने सबको बताया, ‘उन्हें माइल्ड अटैक आया है, सो हमने प्रारम्भिक इलाज तो कर दिया है, अब इनको थोड़े आराम के बाद शहर ले जा कर जाँच करवानी होगी. वहाँ एन्ज्योग्राफी करने के बाद ही पता लगेगा कि इनकी शिराओं में कहाँ और कितने प्रतिशत ब्लाक है?’

डॉक्टर के इस कथन ने सभी को चिंता में डाल दिया...

गायत्री देवी को इस तरह हड़बड़ी में निकलना अच्छा नहीं लग रहा था, वे हवेली में और अधिक घूमना चाहती थीं, पर मजबूरी थी. गाड़ी में बैठते ही उन्होंने सचिव से सारी जानकारी ली, क्यों उन्हें जयपुर इस तरह आकस्मिक रूप से बुलाया गया है आदि. प्रोफेसर की अस्वस्थता से वे बिलकुल बेखबर थीं और उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था कि वे इस तरह बिना कुछ बताए छोड़कर चले गए, यह सर्वथा शिष्टाचार के खिलाफ भी था. उन्हें इस प्रकार की आशा नहीं थीं, वे सोच रहीं थीं कि भला उनसे अधिक उन्हें ऐसा क्या ज़रूरी काम हो सकता है?

‘गेस्ट हाउस आगया, क्या आप उतरना चाहेंगी या सामान मंगवा लूं?’ सचिव ने पूछा.

‘ओह!! नहीं मैं ज़रा रूकूँगी, आप सबको मीटिंग केंसिल होने की सूचना भिजवा दीजिए.’ यह कह वे अपने रूम की ओर चल दीं.

अपनी सहायिका दक्षा को अपना सामान पैक करने को कह वे वाशरूम की ओर बढ़ गईं. दिल कुछ साथ नहीं दे रहा था दिमाग का.......दिमाग में जयपुर के बारे में उत्सुकता थी, सरकारी कामकाज की बातें थीं, तो दिल यहाँ हवेली में घूमने की ज़िद कर रहा था, उसकी पुरानी यादों की दीवार जैसे हरहरा रहीं थीं.

इसी कशमकश वे वाशबेसिन पर मुँह धो रही थीं, सामने दर्पण में उन्हें अपनी शक्ल की जगह एक नन्ही लड़की का चेहरा नज़र आने लगा, जिसके कटे हुए घुंघराले बाल बेतरतीबी से इधर उधर फैले हुए थे, हाथ में एक सुन्दर सी गुड़िया थी, जो आँखें टिमटिमाती थी. पता नहीं ये अब तक कहाँ थी? इस भागदौड़ की ज़िन्दगी में उसे यह कभी दिखाई ही नहीं दी, आज पता नहीं कैसे हवेली से पीछा करती हुई चुचाप चली आई.. उसका मन हुआ वह यहीं बाथरूम में शांति से आँखें बंद करके बैठ जाए .

यादों के ‘सी-सौ’ में ऊपर नीचे हो ही रही थी कि दक्षा ने खटखटाते हुए कहा , ‘ मैम, बाहर नाश्ता लग गया है, आपका इंतज़ार हो रहा है.’  उफ़!! फिसलपट्टी से फिसल कर जैसे वह नीचे ही आ गिरी..

‘हाँ, आई बस एक मिनट.’ जल्दी ही अपने को संयत कर गायत्री, अपने नेता की मुद्रा में आ गई. नाश्ता कर सब लोग फुर्ती से अपनी अपनी कारों में बैठने लगे. गायत्री जी की कार में उनके सचिव और उनकी सहायिका दक्षा बैठीं और कारवां चल पड़ा बूंदी की ओर..

गायत्री जी के पति आई. ए. ऐस थे और बूंदी कलेक्टर थे. जहाजपुर में गायत्री जी के मामा पहले विधायक थे. उनकी कोई संतान नहीं थी और पत्नी का भी देहांत बहुत पहले हो गया था. दो साल पहले वे केंसर की गिरफ्त में आगए, पेट का केंसर था, ओपरेशन भी कराया पर गले और मुँह तक आगया....बहुत अधिक तकलीफ़ देखी. घर में कोई तीमारदारी के लिए भी नहीं था. बच नहीं पाए. वैसे अपने जमींदार पिता की तरह उनकी साख अच्छी नहीं थी. गाँव वाले उन्हें थोड़ा बहुत मानते तो थे, पर डर से.

उनकी सीट खाली हो जाने पर पार्टी ने गायत्री देवी के सम्मुख चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रख दिया. बहुत बार ना करने पर भी जब पार्टी का आग्रह बराबर बना रहा तो पति से सलाह करके उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. अपने मम्मी पापा को तो वे बहुत पहले ही खो चुकी थीं. हवेली की वे स्वत: ही मालकिन बन गईं थीं. अपने छात्र जीवन में भी वे बहुत सक्रीय रहीं थीं. वाद-विवाद प्रतियोगिता, काव्यपाठ आदि में कई पुरस्कार प्राप्त कर चुकी थीं और साथ ही आकर्षक व्यक्तित्व की धनी भी थीं. अत: वे पूरी तरह से योग्य थीं. इसी कारण उन्हें चुनाव जीतने में कोई परेशानी नहीं हुई. स्वभाव से भी वे बहुत कोमल, मृदुभाषी और विनीत थीं.

डायरेक्टर के पद पर प्रोफेसर की नियुक्ति भी वरदान सिद्ध हुई और इस कॉलेज का फैलता हुआ नाम गायत्री जी की उपलब्धियों में जुड़ गया. इतने कम समय में एक छोटे से अनजान गाँव को प्रसिद्धि दिलवा देना कम बात नहीं थी .

गायत्री देवी गाड़ी में बैठ तो गई और गाड़ी आगे की ओर बढ़ गई, पर उनका मन न उसमें बैठा और न ही आगे की ओर बढ़ रहा था. वह तो पीछे-पीछे की ओर ही दौड़ रहा था. गायत्री ने आँखें बंद कर मन को बेलगाम छोड़ दिया.

वह दौड़कर फिर जा बैठा हवेली की मुंडेर पर... अपनी नानी और मामा से सुनी कई बातें याद आने लगीं जो उसने नाना जी के बारे में सुनी थीं.

जमींदार साहब की ऊँची हवेली उस गाँव की शान थी. जमींदार सा. का गाँव में रुतबा था. उनके लिए गाँववालों के दिल में बहुत सम्मान था। ये जमींदार सा. अन्य तथाकथित जमींदारों जैसे कठोर और अमानवीय नहीं थे। इनके मन में बहुत करूणा और संवेदनशीलता थी। ये स्वयं भी काफ़ी पढ़े-लिखे, छह भाषाओं के ज्ञाता थे. साथ ही साहित्य प्रेमी, देश प्रेमी और प्रकृति प्रेमी भी.

हवेली से लगा हुआ उन्होंने बहुत ही सुन्दर बग़ीचा बनवाया था, जिसमें आज की भाषा में कहें तो ‘लैंडस्केपिंग’ का पूरा ध्यान रखा था. बगीचे के ठीक बीच में लाल रंग के खड़े पत्थर लगवाकर  एक बड़ा सुन्दर हौज़ बनवाया था, जिसमें एक ख़ूबसूरत पीतल का फ़व्वारा लगा था. माली के साथ खड़े रहकर उन्होंने धूप और दिशा के आधार पर फल और फूलों के कई पेड़ भी लगवाए थे। वीर भद्र सिंह हवेली के चौकीदार के परिवार को तो उसने देखा है, वे नाना जी के समय से वहीं रह रहे थे. उनके चार बच्चे थे शायद एक बड़ा शील भद्र, बलभद्र, कला और लाला.

गायत्री जी गाड़ी में आँखें मूंदे अपने अतीत के सागर में अपना बचपन खोजने का प्रयत्न कर रहीं थीं. स्मृतियों की लहरें एक के बाद एक आकर उनके ज़ेहन से टकरा रहीं थीं और लौट रहीं थीं, गायत्री उन्हें अनायास पकड़ने की कोशिश कर रही थीं. एक सैलाब सा महसूस हो रहा था उन्हें ...उसे लगा की लहरों ने उसे खींच लिया है और वे लहरों पर हिचकोले खा रही हैं.

तभी उसे बलभद्र का ध्यान आया। वे दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे, हालांकि वह उससे शायद एक साल बड़ा था. उसे याद आया... उसकी चित्रकारी बहुत अच्छी थी, वह अपनी ड्राइंग उसी से ही बनवाती थी. उन्हें फूलों की बेल बनाने को बहुत दी जाती थी, उसे तो ठीक से रंग भरना भी नहीं आता था, वही उसे सिखाता था कि कैसे आउट लाइन गहरे से बनाकर फिर रूई से अन्दर की तरफ फैलाना होता था. फिर वह ज़ेब से कौड़ी निकालकर उसे कलर पर घिसता था, जिससे पेस्टल कलर एक समान हो चमकने लगता था..जब से उसने  कौड़ियाँ खेलने के लिए उसे दीं थीं, तभी से वह उन्हें ज़ेब में रखने लगा था. वह उनसे कुछ न कुछ चमत्कार करता ही रहता था. कभी जादू से उन्हें गायब कर देता, कभी ले आता.....उसे देखने में बहुत मज़ा आता और वह और कला जो उसकी बड़ी बहन थी, उससे चमत्कृत हो जाते पर अब उसे लग रहा है कि वे दोनों कितनी बुद्धू थीं.

एक गहरे निश्वास के साथ सोचा अब पता नहीं कहाँ होंगे, वे लोग चौबीस साल में तो दुनिया इधर से उधर हो जाती है..समय का प्रवाह पता नहीं कहाँ ले गया होगा?