Part-5
कार में एक लम्बी चुप्पी छाई हुई देख गायत्री जी ने सोचा कि क्यों नहीं अपनी कुछ यादें इन लोगों से ही शेयर की जाएं, बिचारे बोर हो रहे हैं, सो कहने लगीं, ‘आप लोगों को पता है? मैं यहीं इसी हवेली में जन्मी हूँ और मेरा पहला स्कूल इसी गाँव में था. मैं दस वर्ष की उम्र तक यहीं रही थी.’ यह सुनकर दोनों ही चौंक गए ..फिर उन्होंने हँसते हुए सुनाना शुरू किया..
जब मम्मी पापा वहाँ आकर रहने लगे तो मम्मी ने मामाजी से बात कर पिछली ड्योढ़ी में स्कूल चलाने की बात कही तो उन्होंने भी सोचा कि गाँव में एक भी ढंग का स्कूल नहीं है, क्यों नहीं एक स्कूल खोल लिया जाए. मामाजी और मम्मी ने सरकार से अनुमति लेकर राजकीय प्राइमरी स्कूल खोल लिया. सरकारी मदद से उन्होंने उस हिस्से को कुछ ठीक भी करवा लिया.
इसी तरह बातों ही बातों में बूंदी आ गया..दूसरे दिन 10 बजे जयपुर के लिए निकलने का तय कर सबको सुबह समय से पहुँचने की हिदायत देते हुए उन्होंने सचिव जी से कहा, ‘ज़रा प्रोफेसर बलदेव को फ़ोन करके पूछ लेना कल क्या बात होगई, और अखबार में छपी खबरों की कटिंग हमें भी भिजवा दें. शुभरात्रि’ कह गायत्री जी अपने बंगले में प्रवेश कर गई...
प्रोफेसर बलदेव के लिए डॉक्टर ने सबको बताया, ‘उन्हें माइल्ड अटैक आया है, सो हमने प्रारम्भिक इलाज तो कर दिया है, अब इनको थोड़े आराम के बाद शहर ले जा कर जाँच करवानी होगी. वहाँ एन्ज्योग्राफी करने के बाद ही पता लगेगा कि इनकी शिराओं में कहाँ और कितने प्रतिशत ब्लाक है?’
डॉक्टर के इस कथन ने सभी को चिंता में डाल दिया.
प्रोफेसर बलदेव की तबियत कुछ संभली तो पर वे काफी कमज़ोरी महसूस कर रहे थे.
डॉक्टर्स ने उन्हें ‘आउट ऑफ़ डेन्ज़र’ बताकर अन्य सबको घर जाने के लिए कह दिया. उन्हें प्राइवेट रूम में शिफ्ट कर दिया गया. रात को उनकी पत्नी गौरी ही वहाँ रहीं.
दूसरे दिन अब बलदेव अपने को कुछ ठीक महसूस कर रहे थे. तभी डॉक्टर बंसल सा. राउंड पर आए, ऑक्सीजन की ट्यूब हटाकर उन्हें ज़ोर ज़ोर से साँस लेने को कहा, पूछा साँस लेने में कोई दिक्कत तो नहीं आ रही? प्रोफेसर ने बताया कि नहीं ट्यूब हटाने पर वे अच्छा फील कर रहे हैं. डॉक्टर ने अब भविष्य के लिए काफी हिदायतें दे डालीं और उनकी पत्नी से बोले, ‘ आज हम इन्हें ऑब्जरवेशन में रख रहे हैं, कल आप इन्हें घर ले जा सकती हैं, पर अभी कॉलेज नहीं जाना है. घर पर पूरा आराम करें और तब तक आप किसी को कहकर कोटा या जयपुर हार्ट स्पेशेलिस्ट (heart specialist) से बात कर अपॉइंटमेंट ले लें.’ मुस्कुराते हुए डॉक्टर बंसल ने प्रोफेसर से हाथ मिलाया और आगे बढ़ गए.
गौरी ने राहत की सांस ली...जैसे एक बड़ा तूफ़ान बिना किसी नुक्सान के गुज़र गया हो. मन ही मन अपनी कुलदेवी का शुक्रिया अदा किया और मुस्कुराते हुए बलदेव की ओर देखा, वे उन्हें ही देख रहे थे. ‘क्या कर रही थीं?’
गौरी ने कहा, ‘कुछ नहीं देवी माँ को धन्यवाद दे रही थी, उन्हीं की कृपा से आप बच गए.’
बलदेव बोले, ‘तुम औरतें भी ना, गज़ब दिमाग रखती हो. सारी मेहनत बिचारे डॉक्टर सा. ने की और श्रेय दे दिया देवी माँ को...वाह वाह !!! डॉक्टर सा. को तो तुमने धन्यवाद नहीं दिया?’
सीधी-साधी गौरी थोड़ी सकपकाते हुए बोली, ‘वह क्या हैं न जी, वह देवी माँ ही डाक्टर सा.के सरीर में आकर तुम्हें ठीक कर गईं ना...इसी वास्ते..’
‘ अच्छा, तब तो डॉक्टर सा. की पढाई-लिखाई बेकार ही रही, पहले उन्हें पता होता तो सीधे तुम्हारी देवी माँ के पास ही चले जाते.’ बलदेव ने गौरी की टांग खिंचाई करते हुए मज़ाक में कहा.
‘ अब रहने भी दो, यही तो मुसीबत है, तुम पढ़े-लिखों को तो कोई बात समझ ही नहीं आती.’ गौरी ने भी अपना मुँह बनाकर नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा.. फिर दोनों ही हँस पड़े.
‘ देखो अब तुम्हारा अधिक बात करना ठीक नहीं, तुम चुप होकर लेट जाओ. मै तुम्हारे लिए पपीता काट कर लाती हूँ.’
‘ अरे सुनो, मुझे सेक्रेटरी से बात करना बहुत ज़रूरी है, संजू को बुलाओ तो ज़रा.’
बगीची ‘ऑपन वर्कशॉप’ का सेटिंग उन्हें कैसा लगा होगा? पत्रकारों ने उनके बारे में क्या-क्या लिखा होगा? इन्हीं सब प्रश्नों ने उन्हें परेशान कर दिया. उनका मन हो रहा था अभी ही सेक्रेटरी संदीप को बुलाकर सब बातें पूछ डालें. उन्हें यह अटेक उसी समय आना था. कितने महत्वपूर्ण क्षण थे वे उनके लिए.. रात-दिन मेहनत करके यह सब तैयारी की थी और ऐन वक्त पर खुद ही उसका भरपूर आनंद नहीं ले सके.
तभी मोबाइल की घंटी बजी..
गायत्री जी के सचिव संदीप का फोन था.. ‘हल्लो!’
‘कौन बोल रहे है? क्या प्रोफेसर सा. से बात हो सकती है?
‘मैं बोल रहा हूँ’
‘सर, मैं संदीप, आपके हार्ट-अटैक के बारे में संजय जी से मालूम हुआ, अब तबियत कैसी है, सर आपकी?’
‘हाँ, पहले से बेहतर है, पर थोड़ी कमज़ोरी महसूस कर रहा हूँ अभी. कल तक शायद छुट्टी मिल जाएगी.’
‘मैडम भी आपके लिए पूछ रही थीं, लीजिए बात कीजिए उनसे..’
प्रोफेसर थोड़ा उठकर बैठ गए, उधर से मधुर आवाज़ सुनाई दी.. ‘कैसे हैं आप? उस दिन पता ही नहीं लगा, हम आपको ढूँढते ही रह गए, अभी संदीप ने बताया आपको अटेक आया था. अब तबियत कैसी है? बड़े बहादुर हैं आप!! समय रहते आप अस्पताल पहुँच गए, अच्छा रहा. हमें इत्तला क्यों नहीं की?’
‘जी, बेहतर है अब. कल तक छुट्टी मिल जाएगी, पर डॉक्टर ने कोटा हार्ट-स्पेशलिस्ट से मिलने को कहा है. 3-4 दिन आराम करने के बाद जाना होगा.’
‘कोई बात नहीं, आप पूरा आराम करें, छुट्टियाँ लेकर कोटा दिखाकर आएँ. कोई मदद की ज़रूरत हो तो बताएं. शुभकामनाएं ..’
‘जी, ज़रूर नमस्ते.’
फोन रखकर उन्होंने गौरी की ओर देखा और कहा, ‘गायत्री जी का फोन था.’
‘हाँ, मैंने सुना, सोच कर नाराज़ हो रही होंगी कि उन्हें मझधार में छोड़कर कहाँ चल दिए ? हा..हा..’
‘तू भी गौरी..चलो अब मैं शांति से सोना चाहता हूँ.’
‘ठीक है, मैं ज़रा घर होकर आऊँ, खाना बनाकर लाती हूँ, डाक्टर सा. ने कहा है, घी बिलकुल नहीं देना है, रोटी पर भी नहीं. अपना ध्यान रखना और अब सो जाओ, कहकर मुस्कुराते हुए हाथ ज़ोर से दबाकर बोली, राम राम..
प्रोफेसर सा. ने चैन की सांस ली ...पास पड़ी कौड़ियाँ उठाईं, और उन पर हाथ फिराते हुए सोचने लगे, इनके मिलते ही गायत्री जी का फोन आया..फिर खुद ही अपने इस अंधविश्वास पर हँस दिए.
प्रोफेसर ने कौड़ियाँ तकिए के नीचे रखीं और सोने के लिए करवट बदली, पर जैसे ही गौरी जाती नन्हीं परी न जाने कहाँ से आ जाती उनके सपनों में ..अचानक ही बलदेव सोते सोते ही चिल्लाने लगे, ‘परी, उस रास्ते में कांटे बहुत हैं, सुनो.. सुनो..गिर जाओगी, बचना..’ तभी गौरी आई, हडबडाकर
बोली, ‘अजी, कांई होयो..?’
क्यों क्या हुआ? मैं कुछ बोल रहा था क्या? ‘हाँ तो, परी गिर जाओगी ..’ गौरी ने कहा, ‘अपनी परी अभी सकूल से आई नहीं ना, इसीलिए उसकी चिंता कर रहे होंगे सपने में.’
‘हूम’ बिटिया का घर का नाम परी रखने के कारण बच गए आज बलदेव.
‘खाना ले आईं? क्या हुआ बच्चे स्कूल से नहीं आए क्या? घर पर कौन है?’ ढेर सारे प्रश्न पूछकर वे अपने आपको संयत करना चाह रहे थे. ‘ज़रा पानी पिलाना.’
तभी पीछे-पीछे दोनों बच्चे भी आगए, ‘कैसे हैं पापा?’
‘अरे! आगए तुम लोग भी?
‘हाँ, पापा, पता है आज हम आपके कॉलेज की प्रदर्शनी देखने गए थे.’
परिधि बोली, ‘और पापा, वहाँ हॉल में सबकी पेंटिंग्स भी देखीं. आपकी तो कमाल की थीं. पापा वो गेम कौड़ियों वाला, आपने क्या खूब बनाया था? आपके पास जो कोड़ियाँ रहती हैं, उनसे क्या वह गेम खेलते हैं?’
बलदेव ने कहा, ‘हाँ, यह कौड़ियाँ पासों का काम करती हैं, इनसे कोई भी खेल खेला जा सकता है, चाहे साँप-सीढ़ी हो, लूडो हो, चौपड़ हो, और जो गेम मैंने चित्र में बनाया है, वह है ‘चंगा पौ’. ’
‘अच्छा तो इसीलिए आप हमेशा अपने पास कौड़ियाँ रखते हो, कभी भी खेल सको.’ परिधि ने अपना दिमाग इस्तेमाल करते हुए कहा.
इस पर पराग ने कहा, ‘हट! अब थोड़े ही पापा खेलते हैं, वे तो इन्हें अपना ‘लक्की चार्म’ कहते हैं. हे! ना, पापा. उस दिन आप माँ को कह रहे थे..मैंने सुना था.’
बलदेव पहले तो दुविधा में पड़ गए कि इन बच्चों को क्या कहें? पर फिर कहने लगे, ‘पहले मुझे यह ‘चंगा पौ’ खेलने का बहुत शौक था, इसलिए इन्हें सदा अपनी ही ज़ेब में रखता था, पर बाद में पता नहीं कैसे मुझे लगने लगा कि ये मेरे लिए लक्की हैं, ऐसे ही विश्वास बनता चला गया..’
‘पर क्या ऐसे किसी पर विश्वास करने से क्या सच अपनी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं?’ पराग ने पूछा.