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कोड़ियाँ - कंचे - 1

Part-1

राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में बूंदी से कुछ ही (41) किलोमीटर दूर जहाजपुर गाँव की हवेली में बना पोलिटेक्निक कॉलेज के सभी छात्र मुख्य द्वार बनाने की तैयारी में लगे थे, दोनों ओर स्तम्भ खड़े कर उन्हें एक सुन्दर नक़्क़ाशी वाले पट्टे से जोड़ा गया और उसके नीचे एक बड़ा सा बैनर टाँगने की तैयारी चल रही थी, तभी एक कार आकर रुकी. सभी का ध्यान उस ओर गया ...छात्रों में हलचल हुई ... ‘सर’ आ गए, ‘सर’ आ गए. सब अपना कार्य छोड़ खड़े हो गए और प्रणाम की मुद्रा में सबके हाथ जुड़ गए.

प्रो. बलदेव सिंह राजपूत, निदेशक, पोलिटेक्निक कॉलेज, एक स्नेह भरी मुस्कान से उतरे.. खादी का कुर्ता पजामा और जैकेट पहनने वाले प्रोफेसर को आज चूड़ीदार पजामा और अचकन में देख सभी छात्र दंग रह गए. पैंतीस वर्षीय प्रोफेसर सा. इस पोशाक में युवा दिख रहे थे.

आपस में कनखियों से देखते हुए सबकी आँखों में एक प्रश्नचिह्न था, एक लडके के मुँह से फुसफुसाहट निकली, ‘वाह!! क्या बात है? आज तो सर, पहचान में ही नहीं आ रहे.’

दूसरे लड़के ने आँख मारते हुए उत्तर दिया, ‘आज हमारी विधायक गायत्री राजावत जी प्रदर्शनी का उद्घाटन करने जो आने वाली हैं.’

तीसरे लड़के ने कहा, ‘वह तो है ही. लेकिन, आज हमारा संस्थापना दिवस भी तो है, इसलिए सर का टिप टॉप होना तो बनता ही है. वैसे आज तो सभी सजे-धजे नज़र आ रहे हैं. देखा नहीं हमारा यह कॉलेज कितना चमक रहा है.’

लगभग तीन वर्ष पहले यहाँ से निर्वाचित विधायक गायत्री राजावत ने अपने पुरखों की इस हवेली को कॉलेज बनाने के लिए सरकार को सौंप दिया था. गायत्री जी द्वारा चयनित होने पर ही वे यहाँ निदेशक के पद पर कोटा से आए और खूब लगन और मेहनत से इस पुरानी जर्जर हुई हवेली को नए सिरे से बनवाकर एक सुन्दर रूप दे दिया.

प्रो.बलदेव सबके अभिवादन का उत्तर देते हुए मुख्य द्वार से भावों में उलझे कब हॉल में पहुँच गए पता ही नहीं लगा, उन्हें जब भान हुआ तब वे हॉल में लगी अपनी ही बनाई तस्वीर के सम्मुख खड़े थे। उनका एक हाथ ज़ेब में था. प्रोफेसर के मुँह से आह भरते हुए निकला ‘नन्ही परी’

वे जिस तस्वीर के सामने खड़े थे, उसमें एक पारिजात (हार श्रृंगार) का पेड़ बना हुआ था.... जो बहुत सारे पारिजात के फूलों से लदा हुआ था। उसके ठीक नीचे दो लड़कियाँ हाथ में खुला दुपट्टा पकड़े खड़ी थीं और एक छोटा लड़का एक ऊँचे पत्थर पर चढ़कर पेड़ को हिलाने की मुद्रा में खड़ा था। पेड़ से फूल झड़ते से दिखाई दे रहे थे..... कुछ हवा में और कुछ लड़कियों के दुपट्टे में और कुछ उनके सिर पर। दोनों लड़कियों की पीठ ही नज़र आ रही थी. एक फ्रॉक पहने हुई थी और उसके घुंघराले केश गर्दन तक गोलाकार रूप में फैले हुए थे ... दूसरी लड़की घघरी-ब्लाउज में थी और उसकी पीठ पर दो लंबी चोटियाँ नज़र आ रही थीं. इस पेंटिंग के दायीं ओर नीचे कोने में चित्रकार के हस्ताक्षर B.D.Raj और j के ऊपर बिंदी की जगह एक नन्हीं सी परी बनी हुई थी। तैल-चित्र की इस कलाकृति का रंग संयोजन इतना सुन्दर था कि हर दृश्य उभर कर आ रहा था। इस तस्वीर के चारों ओर एक बोर्डर  बनाया गया था, जो लकड़ी पर नक्काशी का आभास दे रहा था, देखकर ऐसा लगता जैसे यह चित्र लकड़ी के नक्काशी वाले फ्रेम में जड़ा हुआ हो ....प्रोफेसर की यही दोनों छाप उनकी पहचान बन गई थीं.

जैसे ठहरे पानी में फेंका एक कंकड़ न जाने कितने ही भँवर (चक्र) पैदा कर देता है, वैसे ही इस चित्र ने कंकड़ का काम किया.  प्रोफेसर के मानस में भी स्मृतियों के चक्र बनने लगे. अचानक पीछे से आवाज़ आई, ‘बल्लू ’ वे घबरा से गए भला इस नाम से उन्हें किसने पुकारा होगा? पीछे मुड़कर देखने ही वाले थे कि उन्होंने सुना, ‘ओह! अभी तक सो रहे हो? जल्दी उठो बगीची में फूल चुनने जाना है, कला कहाँ है?’ वह ‘नन्ही परी’ अपने एक हाथ में दुपट्टा और दूसरे हाथ में डलिया संभाले हुए सीढ़ियाँ उतर रही थी, चप्पलों की चट चट सी आवाज़ के साथ.

बल्लू तेज़ी से उठा और अन्दर की ओर भागा मुँह धोने.. तब तक वह उनके बरामदे तक पहुँच गई थी ..अब वह आवाज़ लगा रही थी, ‘काकी ! काकी! बल्लू और कला को भेजो ना! बगीची में ..आज गणेश चौथ है ना ..सो गन्नू जी के लिए हार बनाना है.’  छह साल की यह बालिका जमींदार सा. की नातिन थी.

काकी ने बाहर निकलते हुए कहा, ‘हाँ बाईजी राज, अभी भेजती हूँ दोनों को ’ आप पधारो बगीची में..और घूमकर दोनों भाई बहन को आवाज़ लगाने लगीं.

कला की उम्र करीब नौ साल और बल्लू की उम्र उस समय करीब सात साल की थी. दोनों उस हवेली के चौकीदार के बच्चे थे.  वह उन दोनों को अपने बगीचे में बुलाकर, उनके साथ खेलती इसीलिए बल्लू को वह बहुत प्यारी लगती थी. वह उसे मन ही मन में ‘नन्ही परी’ ही कहा करता था.

उस दिन बल्लू ने एक बड़े से पत्थर पर चढ़कर वह पेड़ हिलाया तो ढेर सारे फूलों की वर्षा होने लगी और दोनों लड़कियाँ उन्हें दुपट्टे में झेलने की कोशिश करने लगीं, वे दुपट्टा लिए कभी इधर भागती, कभी उधर दूसरी तरफ क्योंकि बल्लू जानबूझ कर दूसरी ओर से पेड़ हिला देता ..उसे उन दोनों को भगाने में बहुत मज़ा आ रहा था, बहुत सारे फूल ‘नन्ही परी’ के घुंघराले बालों में ही उलझ गए थे जो बहुत सुन्दर लग रहे थे, यही चित्र बल्लू की आँखों में बस गया था,

इस चित्र को श्रेष्ठ कलाकृति का पुरस्कार भी मिला था, लेकिन असली पुरस्कार तो उसे उस दिन ही मिल गया था, जब बल्लू पर ‘नन्ही परी’ खीझकर बोल रही थी, ‘यह क्या कर रहे हो? ज़मीन पर फूल गिर रहे हैं, इनकी माला नहीं बना सकते ..दुपट्टे में ही फूल डालो.’

पर बल्लू कहाँ सुनने वाला? वह तो बस पेड़ इधर-उधर से हिला-हिला कर उन्हें छका रहा था और खिलखिला रहा था. बाद में जब वह नीचे उतरा तो ‘नन्ही परी’ ने जमीन पर गिरे फूल मिट्टी सहित उसके सिर पर डाल दिए. यह सोचकर कि वह परेशान होगा और चिल्लाएगा, पर बल्लू को तो यह पुरस्कार के समान लग रहा था, उसे अच्छा लग रहा था, उसके नन्हे हाथों से यह पुष्प वर्षा, भले ही उसके साथ मिट्टी भी सिर में गिर रही थी....... बस वह आँखे मूंदे खड़ा था. अचानक ही प्रोफेसर का हाथ अपने सिर पर गया.

तभी सर ! की आवाज़ से उन्होंने आँखें खोलीं, देखा, एक प्रेस रिपोर्टर खड़ा उन्हें आवाज़ दे रहा है. वे समझ गए कि वह उनके इंटरव्यू के लिए आया है, सो उसे टालने के लिए कहा, ‘आप ज़रा पहले सारी प्रदर्शनी देखकर उनके फ़ोटोज़ ले लीजिए, हमारे प्रतिनिधि आपको सभी का परिचय दे देंगे.

अपने को झटका देते हुए प्रोफेसर आगे बढ़ गए.

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