कोड़ियाँ - कंचे - 10 - अंतिम भाग Manju Mahima द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 41

    श्रेया अपने दोनो हाथों से आकाश का हाथ कसके पकड़कर सो रही थी।...

  • Podcast mein Comedy

    1.       Carryminati podcastकैरी     तो कैसे है आप लोग चलो श...

  • जिंदगी के रंग हजार - 16

    कोई न कोई ऐसा ही कारनामा करता रहता था।और अटक लड़ाई मोल लेना उ...

  • I Hate Love - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 48

    पिछले भाग में हम ने देखा कि लूना के कातिल पिता का किसी ने बह...

श्रेणी
शेयर करे

कोड़ियाँ - कंचे - 10 - अंतिम भाग

Part- 10

अन्दर बहुत सारी महिलाएं घूँघट निकाले बैठी थीं, गायत्री जी थोड़ी चकित हुई, पराग ने आगे बढ़कर ‘मम्मी’ कहा और उनको लेकर गायत्री जी के साथ अलग कमरे में ले आया. गौरी ने घूँघट हटाया तो गौरी की सुन्दरता पर मोहित हुए बिना नहीं रह सकी..उनसे नमस्ते करते हुए उसकी आँखों में आँसू बस छलकने की तैयारी में थे कि गायत्री ने उन्हें पोंछते हुए गले लगाया और जो कुछ भी हुआ उसके प्रति अफसोस जताया. विधि के विधान के आगे किसी की नहीं चलती. आप हिम्मत रखिए. हम जल्दी से जल्दी प्रोफेसर सा. के पेपर्स तैयार करवा कर उनकी पूरी सेलरी आपको मिले इसका इंतजाम करवा देंगे. बच्चों की पढ़ाई में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं आने देंगे. आप जहाँ भी रहना चाहेंगी, वहीँ आपकी व्यवस्था हो जाएगी.’

‘वह तो सब ठीक है, पर आप मेरे बल्देव्सा. को मुझे दे सकोगी? मैं क्या करुँगी रुपए पैसे लेकर..इतने अरमान थे, पराग को आई.आई.टी. करवाऊँगा, परिधि को फाइन आर्ट्स करने भेजूँगा. सब धरा रह गया..तीन दिन में ही मेरी तो दुनिया ही लुट गई.. फूल की तरह रखा मुझे अब पत्थर सा बोझ डालकर चले गए मेरे ऊपर..आप ही बताओ, मैं कीं करूं? कहाँ जाऊँ?’ गायत्री जी कुछ बोल नहीं पा रही थीं, इस पीड़ा के सम्मुख.

कल ही तो ‘महिला और बाल विकास’ की शपथ ली है और आज ही यह चुनौती सम्मुख आ खड़ी हुई. संयत स्वर में बोलीं, ‘देखिए होनी को तो कोई टाल नहीं सकते पर आप चिंता मत कीजिए सरकार की तरफ से जितनी मदद हो सकेगी हम करेंगे. आप शांत हो जाइए.’

गौरी भरे गले से बोली प्रोफेसर सा. आपके लिए कुछ छोड़ गए हैं, वह मैं आपको दे देना चाहती हूँ. और अपने पास रखी कौड़ियाँ की डिबिया निकाल कर गायत्री जी के हाथ में रख दी.

गायत्री चकित थी, ऐसी क्या चीज है जो मेरे लिए छोड़ी है. डिबिया हाथ में लेकर खोली तो चकरा गईं, कौड़ियाँ ? ये तो वही लगती हैं, जो उन्होंने बल्लू को दी थी, यह इनके पास कैसे आईं? वे असमंजस में पड़ी उन पर हाथ फिरा रही थीं कि गौरी ने कहा, ‘इसमें एक चिट भी है.’ उसने चिट निकाल कर पढ़ी ...गायत्री जी ने गौरी से पूछा, क्या आपको उन्होंने इनके बारे में कुछ बताया था? क्या इनके कोई भाई भी था? या कोई दोस्त?

‘नहीं, पर वे इनको जान से भी ज्यादा रखते थे. वे इन्हें ‘लकी चारम’ कहते थे और हमेशा अपनी जेब में ही रखते थे. बस आखिरी समय में ही ये उनके पास नहीं थीं, शायद इन्हीं की वज़ह से उनकी जान ...मुझे इसी का अफसोस है.’ और वे फिर भरभराकर रोने लगीं. गौरी को अपनी बांहों से सहलाते हुए कहने लगीं, ‘अरे! आप ऐसा क्यों कह रही हैं? यह सब तो संयोग की बात होती है, सबका दिन ऊपर वाला तय करके भेजता है, वह दिन नहीं टलता..बहाना कुछ भी बन जाता है. क्या आपको पता है, प्रोफेसर सा. कहाँ पैदा हुए थे?’ गायत्री की आवाज़ कुछ बैठी हुई सी थी.

गौरी ने कहा, शायद बूंदी में, उनकी माँ से मैं वहीँ मिली थी.’

‘क्या वे यहाँ जहाजपुर में पहले भी कभी रहे थे?’

‘नहीं, उन्होंने कुछ बताया नहीं.’

‘उनके परिवार में और कौन हैं? मतलब भाई-बहिन कोई? ’

‘अभी कोई नहीं, हाँ वे बताते थे कि उनकी एक बड़ी बहिन कला बाई थी, जिसका देहांत हो गया था, और एक छोटा भाई था, लाल सिंह वह भी बहुत छोटी उम्र में चल बसा था.’

‘ओह!’ गायत्री जी बातों से पता लगाने की कोशिश कर रही थीं कि जिस बल्लू को वे जानती थीं, जिसे उन्होंने ये कौड़ियाँ दी थीं, वह क्या बलदेव ही है, पर उसका नाम तो बलभद्र था. उनके पैरों से ज़मीन जैसे खिसकने लगी थी.

वह इन लोगों को कैसे बताए? ...फिर उन्हें ध्यान आईं वे पेंटिंग्स जिसमें ये कौड़ियाँ और उनकी बगीचे का दृश्य बना हुआ था. ओह! तो बल्लू ही यह प्रोफेसर बलदेव थे पर उसका नाम तो बलभद्र था..मन में कई प्रश्न चिह्न बनने लगे.. पर कौड़ियों के बारे में गौरी से सुनकर मन में विश्वास होने लगा कि बलदेव और बलभद्र उर्फ़ बल्लू एक ही है.

‘क्या आप यह भी नहीं जानना चाहेंगी कि यह कौड़ियाँ उन्होंने मुझे क्यों दी हैं?’

गौरी ने दृढ़ता से कहा, ‘नहीं, जब उन्होंने मुझे नहीं बताया तो मैं आपसे क्यों सुनूं? अवश्य ही मेरे जानने जैसी बात नहीं होगी. पराग, मेरे बेटे ने भी यही कहा, यदि पापा ने हमसे कुछ छिपाया है, तो हमारे भले के लिए ही होगा, उसे कुरेदने की ज़रूरत नहीं.’

यह सुनकर गायत्री जी हतप्रभ रह गईं, गौरी के प्रति श्रद्धा जाग पड़ी, उसे गले लगाते हुए कहा, निश्चय ही बलदेव जी बहुत सौभाग्यशाली रहे कि जिन्हें आप जैसी पत्नी और पराग जैसा समझदार बेटा मिला. अब मुझे बहुत कुछ याद आ रहा है, पर अब मैं भी कुछ नहीं बताऊँगी. आज से आप मेरी छोटी बहिन हो, मुझे आप किसी भी संकट की घड़ी में साथ खड़ीं पाओगी. पराग की पढ़ाई की भी आप चिंता मत करना, मेरा प्राइवेट नंबर मैं आपको दे देती हूँ, आधी रात को भी आप मुझे फोन कर सकती हैं.’

डिबिया पर्स में डाल वे डबडबाई आँखों से बाहर निकल आईं, आकर दक्षा से कहा अन्दर जाकर गौरी जी और पराग को मेरा प्राईवेट नम्बर दे आओ. पराग और परी को लाड़ लड़ाया और समझाया. कहा, ‘कुछ भी बात हो तो मुझे फोन कर देना.’

गायत्री जी फिर से तस्वीर के पास गईं और उसको ध्यान से देख बल्लू को ढूँढने लगीं, वह उनकी आँखों में छिपा नज़र आया. बल्लू! तुमने अपना वादा पूरा किया इन ‘चार कौड़ियों’ का इतना बड़ा मोल मेरी खातिर चुकाया? इन्हें हीरों की तरह संभाल कर रखा, अब मेरी बारी है, याद है, तुमने मुझे कंचे दिए थे, वे मैंने भी अपने पर्स में संभाल रखे हैं, अब उनका मोल चुकाने की बारी मेरी है.’ यह कहकर गायत्री जी ने एक बार अपने बल्लू पर गुलाब की पत्तियाँ अर्पित कीं और वहाँ से अपने आँसूं छिपाते हुए कार में बैठ गई.

उन्होंने पर्स खोला हाथ अन्दर डाला और रुमाल की पोटली निकाली जिसमें वे सुन्दर कंचे रखे हुए थे, उसकी गाँठ खोली, चमकते हुए कंचे निकाल कौड़ियों की डिबिया में ही रख दिए, तभी आँखों की कोर से दो बूँदें टपकी जो उसी डिबिया में बंद हो गईं. गाड़ियों का कारवां झंडियाँ लहराता हुआ आगे बढ़ गया....

 

© मंजु महिमा