चेस्ट ऑफ ड्रॉवर... Dr Vinita Rahurikar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चेस्ट ऑफ ड्रॉवर...

काम ख़त्म होने के बाद ज़रा कमर सीधी करने के ख़्याल से अर्पिता कमरे में आकर पलंग पर लेट गई. सुबह पांच बजे से उठकर जो गृहस्थी के कामों में लगती है, तो बारह-एक बजे जाकर सबसे ़फुर्सत मिलती है. तब तक कमर बुरी तरह से दुखने लगती है. साइड टेबल से एक पत्रिका उठाकर अर्पिता लेटे-लेटे ही उसके पन्ने पलट रही थी कि उसे याद आया, बेटी अनु को जल्दी ही स्कूल में अपना प्रोजेक्ट जमा करना है और उसके कुछ ज़रूरी काग़ज़ और चित्र मिल नहीं रहे थे. वो तीन-चार दिनों से अर्पिता से बोल रही थी कि ढूंढ़कर रख दे, लेकिन उसे ध्यान ही नहीं रहता.

बच्चे स्कूल से आकर खाना खाते हैं और पढ़ाई करने बैठ जाते हैं, वो उनका होमवर्क करवाती है और शाम को रसोई में लग जाती है. बस दिन ख़त्म. अनु रोज़ स्कूल जाते हुए उसे याद दिलाती है कि आज काग़ज़ ढूंढ़ देना. अर्पिता को कोफ़्त हुई. पढ़ाई के नाम पर पता नहीं क्या-क्या बेकार के काम करवाते रहते हैं ये स्कूलवाले. मैगज़ीन एक ओर रखकर वह उठ गई. दरवाज़े की आड़ में चार ड्रॉअरवाला चेस्ट ऑफ ड्रॉअर रखा था. चारों के एक-एक ड्रॉअर थे, जिनमें उनका महत्वपूर्ण सामान रखा था. एक ड्रॉअर में अर्पिता का, एक में बेटी अनु का, एक में बेटे अरु का और एक में अजीत का.

अर्पिता दूसरे नंबर का ड्रॉअर खोलकर अनु के काग़ज़ ढूंढ़ने लगी. पांच-सात मिनट में ही उसे प्रोजेक्ट के लिए ज़रूरी काग़ज़ और चित्र मिल गए. अभी तो बिटिया बस छठवीं में ही है, लेकिन प्रोजेक्ट के नाम पर क्या कुछ नहीं बनाना पड़ता है. काम के काग़ज़ निकालकर उसने अलग रखे और ड्रॉअर बंद कर दिया. आकर दुबारा पलंग पर लेट गई, तो नज़र एकबारगी फिर से चेस्ट ऑफ ड्रॉअर पर चली गई.

पिछले कुछ महीनों से अपने बारे में सोचते हुए उसे बहुत साल पहले पढ़ी हुई कहानी ‘बंद दराज़ों का साथ’ याद आ जाती. वह भी तो ऐसे ही दराज़ों के साथ जी रही है, जो अपने आप में अपने-अपने रहस्यों को छुपाकर जी रहे हैं.

कहने को चेस्ट ऑफ ड्रॉअर एक ही होता है, लेकिन उसके हर दराज़ में अलग-अलग सामान भरा होता है. किसी भी दराज़ को पता नहीं होता है कि दूसरे के अंदर क्या भरा है, जबकि ऊपर से देखने पर वे एक ही आलमारी के हिस्से दिखाई देते हैं.

उसका और अजीत का रिश्ता भी तो पिछले कुछ महीनों से ऐसा ही हो गया है. अजीत का देर से घर आना, पूछने पर टाल जाना, अपने आप में खोया रहना… यह सब देखकर अर्पिता भी अपने आपमें व अपने बच्चों में सिमट गई.

अर्पिता को इस चेस्ट ऑफ ड्रॉअर से हमेशा चिढ़ होती, क्योंकि यह रहस्य छुपानेवाला और अपने खोल में सिमटा हुआ-सा प्रतीत होता है. उसे आलमारी ज़्यादा अच्छी लगती. दरवाज़ा खोला और सारा सामान आंखों के सामने. कोई दुराव-छुपाव नहीं. सब कुछ खुला, जीवन और रिश्ते भी ऐसे ही होने चाहिए. स्पष्ट, खुले हुए, कहीं कोई अलगाव व कोई रहस्य नहीं.

इधर कुछ दिनों से अजीत की व्यस्तता और ज़्यादा बढ़ गई थी. अब तो बहुत ज़रूरी बातें ही बड़ी मुश्किल से हो पाती थीं. नौकरी में तो काम के बंधे हुए घंटे ही होते हैं. सप्ताह में एक दिन की छुट्टी होती है, लेकिन व्यवसाय में तो वह भी नहीं. याद नहीं आ रहा कि पिछला कौन-सा रविवार पूरे परिवार ने साथ में गुज़ारा था. बच्चे तो कभी-कभी पूरे हफ़्ते ही अजीत को देख नहीं पाते हैं. रविवार की सुबह ही बच्चों की अजीत से मुलाक़ात हो पाती है.

अर्पिता ने मैगज़ीन एक ओर रख दी. पढ़ने में अब ध्यान नहीं लग रहा था. मन विचारों के कंटीले तारों में उलझ गया. एक-एक कर कई ख़्याल मन में आने लगे. क्यों कोई पुरुष ऐसा होता है… अपने खोल में सिमटा हुआ, सारी बातों को अपने अंदर दबाकर, छुपाकर रखनेवाला, कितना पराया लगने लगा है अजीत आजकल.

जब नई-नई शादी हुई थी, तो एक-दूसरे को समझने की कोशिशों में ही दिन चुक गए. जब समझने लगे, तो एक-दूसरे की पसंद-नापसंद के अनुसार अपने आपको ढालने में कुछ समय और आगे सरक गया. जब ढलने लगे, तो बीच में संतान का आगमन. दोनों अपने कर्त्तव्य पूर्ति में लग गए. अजीत व्यवसाय में व्यस्त होते गए और अर्पिता दोनों बच्चों की परवरिश में. जो रिश्ता एक खुली आलमारी की तरह था, स्पष्ट था, उसमें

धीरे-धीरे न जाने कब अलग-अलग दराज़ें बनती गईं और वो खानों में बंटते गए.

विवाह के शुरुआती दिनों में वह अजीत के बारे में, उसके काम के बारे में, उससे मिलने-जुलनेवालों, सहयोगियों के बारे में पूछने, जानने में संकोच करती थी. अब वह अजीत के हर पहलू से जुड़ना चाहती है, पर कैसे जुड़े. अपनी दराज़ पर तो अजीत ने ताला लगा रखा है. बच्चे बड़े हो गए, तो अर्पिता भी ज़िम्मेदारियों से थोड़ा हल्की हो गई. अब वह अजीत के साथ आत्मीय होना चाहती है, उसके साथ खड़े होकर अपने दोनों बच्चों को हंसते-खेलते देखना चाहती है, लेकिन अब अजीत के पास समय नहीं है.

अर्पिता ने एक गहरी सांस ली. क्या सभी के रिश्ते ऐसे ही होते हैं. आलमारी के खुलेपन और पारदर्शिता से शुरू होकर चेस्ट ऑफ ड्रॉअर की तरह रहस्यमयी, चीज़ों को छुपानेवाले बंद दराज़ों पर जाकर ख़त्म होनेवाले या स़िर्फ उसका और अजीत का ही रिश्ता ऐसा हो गया है. अर्पिता आंखें बंद करके अपना ध्यान दूसरी ओर लगाने का प्रयत्न करने लगी, लेकिन मन में उन्हीं विचारों का झंझावात चलता रहा. उसका सर भारी होने लगा.

थोड़ी ही देर में अनु और अरु आ गए. बच्चों के कपड़े बदलवाकर उन्हें खाना खिलाया और फिर दोनों अपनी दिनभर की रामकहानी

सुनाने लगे. एक-दूसरे को चुप करवा-करवाकर अपनी बातें बताने लगे. अर्पिता को हंसी आ गई. वह अनु की बात सुनती, तब तक अरु उसका चेहरा अपनी ओर घुमाकर उसे कुछ बताने लगता. वह अरु की सुनती, तो अनु बीच में ही अपनी कहने लगती. दोनों जब तक उसे स्कूल की एक-एक बात नहीं बता देते, उन्हें चैन नहीं आता. अर्पिता सोचती बड़े भी ऐसे क्यों नहीं होते. मुक्त मन से अपना अंतर खोलकर रख देने वाले.

बच्चों को आज कोई होमवर्क नहीं था, तो अर्पिता अनु का प्रोजेक्ट बनवाने लगी.

कुछ महीने और आगे सरक गए. अजीत और भी अधिक व्यस्त हो गया था. आजकल तो वह अर्पिता से आंखें भी कम ही मिलाता था. ऐसा लगता, जैसे कोई चोरी पकड़े जाने से डर रहा हो या अंदर का कोई भेद छुपा रहा हो. दरवाज़े के पीछे रखे चेस्ट ऑफ ड्रॉअर के प्रति अर्पिता की चिढ़ अब गहरी उदासीनता में बदल गई थी. शायद ऐसा ही होता है, कुछ रिश्ते डोर टूटने पर इतनी दूर चले जाते हैं कि उनके साथ स्नेह तो क्या, क्रोध के धागे भी टूट जाते हैं और फिर व्यक्ति उनकी ओर से सारी भावनाएं ख़त्म कर तटस्थ होकर उदासीन हो जाता है.

एक रोज़ बच्चों को स्कूल भेजने के बाद अर्पिता की नज़र कैलेंडर पर गई. उसे ध्यान आया, आज तो उसके विवाह की सालगिरह है. पिछले आठ दिनों से तो अजीत इतने अधिक व्यस्त रहे कि बस कुछ घंटे सोने के लिए ही घर आते थे. बेचैनी से आवाज़ धीमी करके न जाने किससे बातें करते रहते थे. आज तो बहुत ही जल्दी घर से चले गए.

अर्पिता ने कैलेंडर से नज़रें फेर लीं. अब उनके जीवन में वैसे भी इस तारीख़ का क्या महत्व रह गया है. दराज़ों में न जाने

क्या-क्या जमा हो गया था. ऊपर से सब साफ़, दबा-ढंका दिखता था, लेकिन अंदर…

अंदर सब कुछ अस्त-व्यस्त, ठुंसा हुआ, रात अजीत बहुत देर से घर आए. बच्चे सो गए थे. अर्पिता ने उसे खाना परोसा, खाना खाकर दोनों अपने कमरे में आ गए.

“शादी की सालगिरह मुबारक हो.” अजीत ने एक लिफ़ाफ़ा अर्पिता के हाथ में थमाते हुए बहुत कोमल स्वर में कहा.

अर्पिता चौंक गई. उसने तो उम्मीद ही नहीं की थी कि अजीत को आज का दिन याद होगा.

“इसमें क्या है?” लिफ़ाफ़ा हाथ में लेते हुए उसने पूछा.

“इसमें तुम्हारा घर है.” अजीत ने मुस्कुराते हुए कहा. आज उसके चेहरे पर लंबे समय बाद वही निश्छल और सहज मुस्कान तैर रही थी.

“मेरा घर? मैं समझी नहीं.” अर्पिता ने आश्‍चर्य से कहा.

“मेरे पास बैठो अर्पिता, मैं आज तुम्हें सारी बातें सच-सच बताता हूं.” कहते हुए अजीत ने उसे अपने पास पलंग पर बिठा दिया.

“दरअसल, सालभर पहले मुझे व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए और कुछ नए इन्वेस्टमेंट करने के लिए बहुत से पैसों की ज़रूरत पड़ी. मेरे पास और कोई चारा नहीं था, तो मैंने अपना घर गिरवी रखकर बैंक से पैसे उधार लिए.

मैं जानता हूं तुम्हें अपने घर से कितना प्यार है. तुम बच्चों की तरह अपने घर को सहेजती हो. एक-एक वस्तु को प्यार और अपनेपन से संभालती हो, इसलिए मैं दिन-ब-दिन अपराधबोध से घिरता जा रहा था और तुमसे आंखें मिलाने की भी हिम्मत नहीं कर पाता था. अपने मन में मैं अपने आपको तुम्हारा गुनहगार महसूस करता. मन में हर पल बस एक ही धुन समाई रहती कि जल्द से जल्द अपने घर को मुक्त करवाऊं, इसलिए रात-दिन काम में डूबा रहता. इस बीच व्यवसाय में बहुत उतार-चढ़ाव आए. तनावपूर्ण स्थितियां उत्पन्न हुईं, लेकिन ईश्‍वर के आशीर्वाद से अंत में जाकर सब ठीक हो गया. आज अपने घर के काग़ज़ वापस मिल गए. व्यवसाय प्रगति कर रहा है और सब कुछ अच्छा चल रहा है.

मैं देख रहा था महीनों से तुम उपेक्षित और अकेला महसूस कर रही थी. मेरा मन अंदर से छटपटाता रहता, लेकिन सारी परेशानियां बताकर मैं तुम्हें दुखी नहीं करना चाहता था.”

“ओह अजीत.” अर्पिता की आंखों से आंसू बह रहे थे. वह अजीत के गले लग गई. अजीत उसकी पीठ सहलाते हुए बोले, “मेरे पास तुम्हारे लिए एक और तोहफ़ा है. बहुत दिनों से हम साथ नहीं रहे न. मैंने कई दर्शनीय शहरों में होटल बुक करवा लिए हैं और टिकट भी आ गई हैं. तीन दिन बाद हम चारों पंद्रह दिनों के लिए बाहर घूमने जा रहे हैं.”

“सच अजीत? मैं अभी बच्चों को उठाकर उन्हें ये ख़ुशख़बरी सुनाती हूं.” अर्पिता ख़ुशी से चहकते हुए बोली. उसने तुरंत जाकर बच्चों को उठाया और उन्हें बताया. दोनों बच्चे अपने माता-पिता के पास चहकने लगे. अर्पिता अजीत के सीने से लग गई. बच्चे दोनों से लिपट गए. अर्पिता की नज़रें दरवाजे के पीछे की ओर गईं. आज उसे पहली बार एहसास हुआ दराज़ें रहस्य नहीं छुपातीं, वे तो अपने अंतर में सारी अस्त-व्यस्तता और दर्द को समेट लेती हैं, ताकि दूसरों को तकलीफ़ न हो.

पति भी ऐसे ही होते हैं, जो दराज़ बनकर सारी परेशानियों को, मुसीबतों को, दर्द को अपने अंदर छुपा लेते हैं, ताकि उनके प्रियजनों पर दुख की छाया भी न पड़े और घर ख़ुशहाल रहे. अर्पिता ने एक आभार भरी मुस्कान से चेस्ट ऑफ ड्रॉअर को देखा और धीरे से कहा ‘धन्यवाद.’

डॉ विनीता राहुरीकर