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चाय की केतली - National story competition

चाय की केतली

डॉ विनीता राहुरीकर

अश्लेशा और अभिनव के कोलेज जाने के बाद जब रंजन भी ऑफिस चले गये तब अनुभा ने राहत की साँस ली. जो सुबह पांच बजे से उठकर वह मशीन की तरह काम में जुटती है तो सीधे दस बजे जाकर, जब रंजन ऑफिस के लिए निकल जाते है तब उसे फुर्सत मिलती है. तब तक तो वह चकरघिन्नी की तरह घुमती रहती है सबका नाश्ता और टिफिन बनाने में. सबकी फरमाइशें भी अलग-अलग होती हैं ना. किसी को नाश्ते में कुछ चाहिए तो किसी को लंच में कुछ. किसी को भिन्डी की सब्जी पसंद है तो किसी को लौकी के कोफ्ते ही खाने हैं लंच में. उपर से तीनो के टिफिन भी भरकर दो. दस बजे रंजन के जाने के बाद अनुभा की साँस में साँस आती है.

अब समय होता है उसके लिए थोडा विश्राम करने का. इस समय तक उसे चाय की तेज़ तलब लगने लगती है. दस बजे अनुभा अपने लिए चाय बनाती है और फिर ड्राइंग रूम में आराम से बैठकर चाय के साथ मैगज़ीन या पेपर का आनंद लेती है. आज भी उसने अपने लिए एक कप चाय गैस पर चढाई और अलमारी में से शक्कर और चाय पत्ति के डिब्बे निकालने के लिए पल्ला खोला.

“उफ़.....”

वह तो भूल ही गयी थी. सुबह पेकेट से डिब्बे में चायपत्ती निकालते समय बहुत सारी चायपत्ती उसके हाथ से गिरकर शेल्फ में फ़ैल गयी थी. अनुभा ने एक कपड़ा लिया और साफ़ करने लगी. सोचा जब तक चाय बन रही है इसे साफ़ कर ही दूँ. लेकिन चायपत्ती बर्नियों के पीछे भी सब दूर फैली हुई थी. उसने जल्दी-जल्दी सारे डिब्बे-बरनिया निकालकर प्लेटफार्म पर रख लिए. तभी उसकी नजर पीछे कोने में रखी चाय की केतली पर पड़ी. अवांछित सी वो केतली फालतू चीजों की तरह पीछे उपेक्षित सी पड़ी हुई थी. अनुभा ने केतली भी बाहर निकाल ली. बरसों पुरानी है ये केतली. जब उन लोगों की नयी-नयी शादी हुई थी तभी अनुभा ने स्टील की ये चाय की केतली खरीदी थी. उसके मायके में चाय केतली में छानकर टीकोज़ी से ढंककर ट्रे में रखते थे और सब साथ बैठकर चाय पीते थे. वही आदत अनुभा ने अपने घर में भी बरकरार रखी. सुबह के जरुरी काम निपटाकर वह चाय केतली में छानकर टीकोजी से ढँक देती. फिर वह और रंजन बगीचे में बैठकर गर्म चाय का मजा लेते हुए कभी पेड़ों को पानी डालते, नये पौधे लगाते, अख़बार पढ़ते, घर-परिवार, नाते-रिश्तेदार और तमाम दुनियां की बातें करते. कप की चाय खत्म हो जाती तो केतली से और चाय उड़ेल लेते. टीकोजी में रखी चाय देर तक गर्म रहती और उतनी ही देर तक दोनों आत्मीयता से एक-दुसरे की बातों में खोये रहते. केतली के बिना तो उनकी सुबह ही नहीं होती थी. केतली का उनके जीवन के साथ अभिन्न रिश्ता बन गया था. चाहे वे दोनों हो चाहे

घर में मेहमान आये हुए हो, केतली हमेशा एक पारिवारिक आत्मीय सदस्य की तरह उनके साथ रहती. अनुभा केतली को खुद अपने हाथ से साफ़ करती और कपड़े से पोंछकर रखती. तभी इतने बरसों बाद भी उसकी चमक फीकी नहीं पड़ी.

बच्चे होने के बाद भी केतली से उनका रिश्ता नहीं टूटा वरन और भी मजबूत हो गया. ट्रे में चाय की केतली और कप लेकर रंजन और अनुभा पलंग पर बैठ जाते. बच्चों से भी खेलते और चाय पीते हुए आपस में भी बातें करते रहते. उन दोनों के साथ ही केतली ने भी क्षण-प्रतिक्षण बच्चों का बढना देखा, उनका स्कूल जाना देखा और रंजन तथा अनुभा के रिश्ते को दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ और परिपक्व होते देखा. बढ़ते और फलते-फूलते व्यवसाय को संभालने में रंजन दिनोदिन व्यस्त होते गये और अनुभा बढ़ते बच्चों की जिम्मेदारी और पढाई में उलझती गयी लेकिन तब भी तमाम व्यस्तताओं के बीच भी केतली के साथ सुबह के समय उनके आत्मीय संवाद में कभी व्यवधान नहीं आया. उतना समय दोनों ही एक-दुसरे को देते ही थे. केतली की गर्म चाय के समान ही उष्मा और ताजगी से भरपूर प्रेम और आत्मीयता उनके बीच हमेशा रही.

अश्लेशा और अभिनव थोड़े बड़े हुए तो खिलौनों के कप लेकर उनके साथ ही केतली से चाय पीने की जिद करते. सुबह के समय दोनों ही दूध पीने को किसी भी तरह से तैयार ही नहीं होते थे. तब हंसकर अनुभा उनके छोटे-छोटे कपों में भी केतली से चाय डाल देती. दोनों के चेहरे खिल जाते थे. उन दोनों के साथ ही केतली बच्चों की भी आत्मीय साथी बन गयी थी.

जब बच्चे बड़े हो गये जिम्मेदारियां बढीं गयीं तो सुबह का समय निकालना अनुभा के लिए खासा मुश्किल होने लग गया. तब रंजन ने जिद करके खाना बनाने वाली भी रखवा दी यह कहकर कि एक सुबह का ही तो समय होता है जब हम दोनों पूरी निश्चिन्तता से साथ बैठकर चाय पीते और बातें कर पाते हैं. बच्चों की चाय तो अब पढाई करते हुए उनके कमरों में स्टडी टेबल पर ही होने लगी थी. अलबत्ता रंजन, अनुभा और केतली की आत्मीयता बरकरार रही.

लेकिन तीन साल पहले जब से रंजन ने अपने फोन पर व्हाट्सएप इनस्टॉल किया तब से धीरे-धीरे उसका सारा समय फ़ॉर्वर्डेड जोक्स और मेसेजेस पढने में और ऑफिस स्टाफ और दोस्तों के साथ चेटिंग में बीतने लगा. पहले पहल वह जोक्स अनुभा को भी पढकर सुनाता था, फिर आप ही अपनी चेटिंग की दुनिया में खोया रहने लगा. कभी-कभी तो चाय पीना भी भूल जाता. अनुभा टोकती रहती, कभी दुबारा गर्म करके देती. उससे बात करती या कुछ पूछती तो रंजन को जैसे कुछ सुनाइ ही नहीं देता था. वह तो अपनी नयी दुनिया में कुछ ज्यादा ही खो गया था, डूब चुका था.

दो-तीन बार अनुभा ने उसे चेटिंग करने से रोका तो वह बुरी तरह से उस पर झल्ला गया. तब अनुभा ने भी आहत होकर उसे कुछ कहना छोड़ दिया. दोनों के बीच का आत्मीय संवाद खत्म हो गया था तो साथ बैठकर

चाय पीने का कोई औचित्य ही नहीं रहा. रंजन की चाय एक कप में डालकर अनुभा उसे हाथ में पकड़ा देती और खुद किचन के काम करते हुए वहीं चाय पी लेती. उस दिन जो धो-पोंछकर केतली अलमारी में पीछे के कोने में रखी गयी तो उसी के साथ उनके बीच की बरसों की आत्मीयता, संवाद, प्रेम की गरमाहट सबकुछ उपेक्षित होकर अलमारी में पीछे के कोने में बंद होकर रह गया.

चाय उबल रही थी. अनुभा ने गैस बंद करके चाय कप में छानी. केतली को कपड़े से पोंछकर वापस उसी जगह रख दिया. वस्तुएं भी दो लोगों को कैसे एक प्यारे से बंधन में बाँधकर जोड़े रखतीं हैं. उसके बाद ही अनुभा ने खाना बनाने वाली को हटाकर फिर से खुद ही खाना बनाना शुरू कर दिया था. अब सुबह के खली समय का कोई अर्थ ही नहीं रह गया था.

तीन साल हो गये थे केतली को अलमारी में बंद हुए और उसके साथ ही अनुभा ने अपने हाथ से बनाई हुई पीले रंग के फूलों से सजी टीकोजी भी पता नहीं कौनसी अँधेरी दराज में गम हो गयी.

आगे चाय, शक्कर, कॉफ़ी की बरनियां डिब्बे जमाते हुए अनुभा ने एक बार फिर उदास नजरों से केतली की ओर देखा, वह भी जैसे डबडबाई आँखों से अनुभा को देख रही थी. दोनों ने लम्बा समय देखा था आत्मीयता, अनुराग और सुनहरे संवादों और खिलखिलाहटों का. विवाह के शुरुवाती वर्षों का रोमांस, फिर प्रगाढ़ता, वात्सल्य फिर एक प्रौढ़ परिपक्व उष्मा से भरपूर प्रेम. और आज दोनों ही का जीवन शांत, संवादहीन, उपेक्षित पड़ा है. गहरी साँस लेकर अनुभा ने पलड़ा बंद कर दिया.

दिन अपनी गति से आगे बढ़ रहे थे. जीवन भी अपनी चल से चल रहा था. अश्लेशा, अभिनव अपनी पढ़ी में व्यस्त थे और रंजन अपने व्यवसाय और आभासी दोस्तों में मगन. अनुभा अक्सर ही चाय की केतली को देखकर पुराने चहचहाते दिनों की याद करती और भरी आँखों से एक गहरी साँस लेकर रह जाती. अब तो देर रात तक और बहुत सुबह से ही रंजन के मोबाईल पर लगातार मेसेजेस की बीप बजती रहती. रंजन दिन पर दिन व्यस्त होते जा रहे थे और अनुभा अकेली होती जा रही थी.

इधर कुछ दिनों से अनुभा के पेट के निचले हिस्से में लगातार दर्द रहने लगा था जो रोज़ बढ़ता ही जा रहा था. पेट के निचले हिस्से का दर्द कमर और पैरों में भी फैलने लगा. महीनों बीत गये अनुभा अपने दर्द की उपेक्षा करती रही. असहनीय हो जाता तो एक पेनकिलर खा लेती उस दिन भी सुबह से ही अनुभा को रह- रहकर पेट में दर्द उठ रहा था. वह जैसे-तैसे काम निपटाती रही. रंजन के हाथ में टिफिन थमाकर उसने राहत की साँस ली. अब तक दर्द बहुत ही तेज़ हो गया था. बाकी काम छोडकर अनुभा ने एक दर्द निवारक गोली खाई और पलंग पर लेट गयी लेकिन आधे घंटे बाद भी दर्द कम नहीं हुआ उलटे बढ़ता ही जा रहा था. अनुभा ने उठकर एक और दर्द निवारक गोली ली लेकिन पेट में चाकू से चीरने जैसा तेज़ दर्द हो रहा था. तीसरी गोली खाकर भी उस दिन आराम नहीं आया. दर्द के मारे अनुभा की साँस उखड़ने लगी. तब उसने रंजन को फोन लगाया और

अस्पताल ले चलने को कहा.

अनुभा जब तक बहुत ही आवश्यक नहीं होता था कभी रंजन को फोन नही लगती थी. बेवक्त के उसके फोन और तकलीफ में भीगे स्वर से उसे स्थिति की नाजुकता का शायद अहसास हो गया. वह तुरंत कार लेकर घर की और दौड़ा आया. घर आया तो अनुभा को दर्द से तडपता हुआ पाया. बिना एक भी मिनट गवाएं रंजन अस्पताल दौड़ा.

“इतना तेज़ दर्द हो रहा था तुम्हे और तुमने मुझे अब बताया अनुभा?” रंजन उसकी हालत देखकर बहुत परेशान और दुखी हो रहा था.

दर्द से दोहरी होती अनुभा चुप रह गयी. कैसे कहती कि रंजन आजकल तुम्हे फुर्सत ही कहाँ है मेरे पास बैठकर मेरे दर्द और तकलीफों को जानने समझने की. पन्द्रह-बीस मिनट में ही अस्पताल आ गया. अनुभा चलने की स्थिति में नहीं थी. रंजन दौडकर वार्ड ब्यॉय को बुला लाया. दोनों ने उसे स्ट्रेचर पर लिटाकर ओब्सेरवेशन रूम में पहुँचाया. डॉक्टर आकर अनुभा का परिक्षण करने लगी. तब तक रंजन बाहर बैचेनी से चक्कर काटकर सोचता रहा कि आखिर उसने अब तक अनुभा पर ध्यान क्यों नहीं दिया. ना जाने पिछले कितने महीनों से वह दर्द से जूझ रही होगी. कैसा पीला पड गया है उसका चेहरा. आधे घंटे बाद डॉक्टर ने रंजन को अपने केबिन में बुलाया.

“हमने अनुभा के लोवर एब्डोमिन का अल्ट्रासाउंड परिक्षण किया. उनकी दोनों ओवरी में सिस्ट हैं. कुल तीन सिस्ट हैं और साथ ही गर्भाशय में मल्टीपल फ़ायब्रोइड भी हैं. शरीर में तनाव की वजह से एस्ट्रोजन हार्मोन का स्तर बहुत अधिक बढ़ गया हैं इसलिए इन्हें इतना दर्द हो रहा है. फिलहाल हम इन्हें एडमिट कर रहें हैं. चार-पांच दिन में ट्रीटमेंट के बाद जब दर्द कम हो जायेगा इन्हें डिस्चार्ज कर देंगे. अभी छः महीने तक मैं इन्हें दवाइयां दूंगी. अगर सिस्ट और फ़ायब्रॉयड कम हो गये या या ऐसा लगा कि ठीक हो सकते हैं दवाइयों से तब तो ठीक है वरना हमें ओपरेशन करना होगा.” डॉक्टर ने संक्षेप में सारी स्थिति बताते हुए रिपोर्ट्स रंजन को दिखाई.

डॉक्टर से विदा लेकर रंजन अनुभा से मिलने गया. उसे ड्रिप लगी हुई थी. दर्द निवारक दवाई के इंजेक्शन लगने के बाद दर्द में कमी थी. वह आँखे बंद करके बेड पर चुपचाप पड़ी थी. चेहरा मुरझाया और पीला पड़ गया था. रंजन ने दोनों बच्चों को खबर कर दी. अनुभा को दवाई के असर की वजह से नींद लग गयी थी. रंजन उसके चेहरे की ओर देखता हुआ अफ़सोस से भर गया. अनुभा की इस हालत का जिम्मेदार वह खुद है. उसके समय न देने और लगातार उपेक्षा के चलते ही अनुभा अंदर ही अंदर घुटते हुए तनाव का शिकार होकर इस बीमारी से ग्रसित हो गयी. अगर वह पहले की ही तरह उससे लगातार आत्मीय संवाद बनाये रखता तो अनुभा

अपनी परेशानी उससे पहले ही साझा कर लेती और उसकी हालत इतनी बिगड़ने नहीं पाती.

दो रातें रंजन अनुभा के साथ ही अस्पताल में रहा. अश्लेशा ने ढूंढकर पुरानी खाना बनाने वाली को फिर से रख लिया. वह सुबह शाम अभिनव के साथ अस्पताल आती दोनों के लिए खाना लेकर. तीसरी रात अश्लेशा ने रंजन को जबरदस्ती घर भेजा और खुद माँ के साथ रही. रात में खाली कमरा और खाली बिस्तर रंजन को कांटे की तरह चुभते रहे. पिछले चौबीस साल में अनुभा कभी भी अपना घर छोडकर नहीं गयी थी. आज पहली बार रंजन उसके बिना अपने कमरे में अकेला करवटें बदल रहा था. उसे पहली बार अहसास हो रहा था कि सबकुछ होते हुए भी अकेलेपन का दर्द क्या होता है. अनुभा पिछले सालों में उसकी निरंतर उपेक्षा से उपजे अकेलेपन की पीड़ा को कैसे सह रही होगी. और अगर उसे कुछ हो गया तो......

रंजन इस ख्याल से ही कांप गया.

पांचवे दिन शाम को दवाइयों और जरुरी निर्देशों के साथ अनुभा को अस्पताल से छुट्टी मिल गयी. डॉक्टर ने अभी उसे कुछ दिन आराम करने की सलाह दी थी. अनुभा अपने कमरे में आकर पलंग पर लेटी तो रंजन उसके सिरहाने बैठ गये. वो खुश नजर आ रहे थे. देर तक अनुभा के सर पर हाथ फेरते रहे. अनुभा गहरी नींद में सो गयी.

सुबह जब अनुभा की नींद खुली तो रंजन कमरे में नहीं थे. अनुभा हाथ-मुंह धोकर आई तो एक सुखद आश्चर्य से भर गयी. पलंग पर रंजन ट्रे में चाय लेकर उसका इंतज़ार कर रहे थे. ट्रे में कप के साथ ही उसकी वही आत्मीय साथी अर्थात केतली उसके हाथ से कढ़े हुए पीले फूलों वाली टीकोजी ओढ़े गरमा-गर्म चाय के साथ उसकी प्रतीक्षा कर रही थी. अनुभा का चेहरा खिल गया.

“ अब आज से तुम, मैं और सुबह की चाय केतली वाली, पहले की तरह रोज़ साथ रहेंगे.” रंजन ने उसे चाय का कप थमाते हुए कहा.

“और आपके वो सारे ग्रुप्स, दोस्त, चेटिंग.....” अनुभा ने पूछा.

“वो मैने सब डिलीट कर दिए है. अब से सुबह का ये समय सिर्फ हम दोनों का. सोशल साइट्स हमे दूर स्थित लोगों से जोड़ने के लिए होती हैं, अपना घर तोड़ने के लिए नहीं. उनका उपयोग सिमित रूप से उतना ही करना चाहिए जितने में लोग जुड़े रहें और अपना घर और अपने टूट और छूट न जाये. अब मैं ये अच्छी तरह समझ गया हूँ.” रंजन प्यार से उसका हाथ थामकर बोले.

“और हमारे लिए चाय?” दरवाजे पर अभिनव और अश्लेशा अपने हाथ में चाय का कप पकड़े खड़े थे.

“अरे आओ बच्चों, तुम भी आओ. इसमें हम सबके लिए भरपूर चाय है.” रंजन ने हँसते हुए दोनों के कप में चाय भर दी.

दोनों हँसते हुए पलंग पर ट्रे के इर्द-गिर्द बैठ गये. अनुभा ने मुस्कुराकर केतली की ओर देखा तो जैसे उसे खुश देखकर चाय की केतली भी मुस्कुरा दी.—

“ हम सबकी मुस्कुराहट ऐसे ही बनी रहे.”

***

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