Chidiya udd gai furr books and stories free download online pdf in Hindi

चिड़िया उड़ गई फुर्र...

चिड़िया उड़ गई फुर्र...

"अटकन-चटकन दही चटाकन कव्वा लाटा बनकर कांटा सुरू रुरु पानी आया चिड़िया उड़ गई फुर्र...."

कहते ही निधि अपने दोनों हाथ सिर के ऊपर उठाकर जोर से किलकारियां मार कर हंसने लगती और ताली बजाती। अटकन-चटकन निधि का सबसे प्रिय खेल है। सारा दिन निर्मला अर्थात अपनी दादी के साथ यही खेलना चाहती है और फुर्र कहते ही जहां निधि खिलखिला कर हंसने लगती है, वही निर्मला का दिल बैठ जाता है। पाहुनी बनकर चार दिनों के लिए आई है कुछ ही समय में यह नन्ही सोनचिरैया सचमुच में ही अपने मम्मी-पापा के साथ फुर्र से उड़ जाएगी।

निधि हंस रही थी, उसके मुख में दुग्ध धवल नन्हे प्यारे दंतुल दिख रहे थे। चार ऊपर, चार नीचे। निर्मला ने उसे गोद में उठाकर सीने से लगा लिया। छाती में इतना स्नेह तो अपने पेट जायो के लिए भी नहीं महसूस किया उन्होंने कभी जितना इस नन्ही परी के लिए होता है।

"चलो जीजी खाना लग गया है।" मधु ने आवाज लगाई तो उनकी तंद्रा भंग हुई। निधि को गोद में लेकर उठ गई। उनका बेटा अमोल पहले से ही डायनिंग टेबल पर उपस्थित था। बहू निष्ठा खाना परोस रही थी।

",आइए माँ।" अमोल ने एक कुर्सी सरकाई। सब बैठकर खाना खाने लगे। बीच-बीच में डेढ़ वर्षीय निधि की बाल सुलभ करतूतों पर हंसी का दौर चलता रहा। मधु भी कम मजाकिया थोड़े ही थी, वह भी ऐसी-ऐसी फुलझड़ियां छोड़ती कि सब हंसते हुए दोहरे हो जाते। तभी तो अमोल इस बार आठ दिनों की छुट्टी लेकर आया तो मधु मौसी को भी यही बुलवा लिया।

दोपहर के खाने के बाद सब अपने कमरों में आराम करने चले गए। निधि सो गई। जल्दी ही मधु की भी नाक बजने लगी मगर निर्मला की आंखों में नींद नहीं थी। उनके तो दिल दिमाग में उथल-पुथल मची थी। अमोल उनकी सबसे छोटी संतान है। बड़ी दो बेटियां उम्र में अमोल से काफी बड़ी है और वर्षों पहले अपने पति, बच्चों के साथ अमेरिका में सेटल हो चुकी हैं। जब तक अमोल के पिता जीवित थे तब तक वे और निर्मला साल दो साल में दो चार महीनों के लिए बेटियों के पास अमेरिका हो आते थे, पर उनके जाने के बाद तो निर्मला ने अपने इसी मकान और उनकी यादों में अपने आपको कैद कर लिया।

यहां वह दुल्हन बनकर आई, बच्चे हुए, उनकी शादियां हुई फिर उनके बच्चे हुए। सुबह से लेकर रात तक पति-बच्चों की यादें चलचित्र की भांति आंखों के सामने घूमती रहती हैं। आंखों की कोर से एक आंसू बाहर आने को छटपटाने लगा। एक-एक कर सब विदा हो गए इस घर से। अमोल को भी नौकरी मिली इंदौर में। बहुत कोशिश की उसने भोपाल में नौकरी करने की लेकिन नहीं मिली। निर्मला कुछ दिन उसके पास रहती फिर इस अतीत की यादें और इस घर का मोह उसे वापस खींच लाता। अब निधि आ गई। माँ की खुशी के लिए अमोल गाहे-बगाहे भोपाल भागा आता है। निधि भी दादी से इसीलिए बहुत हिली हुई है। इसलिए जब भी वापस जाने का समय आता है निधि निर्मला से चिपट कर रोने लगती है। "ताती नई, ताती नई।"

तब निधि का रोना देखकर अमोल और निष्ठा की आंखें भी भीग जाती। और अब नियति यह सुख भी उनसे छीन रही है। अमोल को बेंगलूर की एक बड़ी कंपनी से नौकरी का प्रस्ताव आया है। तनख्वाह भी यहां से चार-पांच गुनी है। वह और निष्ठा अत्यंत उत्साहित हैं, इतनी कम उम्र में सफलता की इतनी ऊंची पायदान पर पहुंच गया है। मगर अब बेंगलुरु से भोपाल बार बार आना संभव नहीं हो पाएगा। अब यह सोन चिरैया ना जाने कितने महीनों बाद आ पाएगी। यही सोचकर निर्मला का ह्रदय फटा जा रहा है। अमोल और निष्ठा तबसे निर्मला की मनुहार कर रहे हैं "हम आप को साथ लिए बिना नहीं जा पाएंगे माँ, इंदौर से तो हर शनिवार-रविवार आ जाते थे मगर बेंगलुरु से महीनों आना नहीं हो पाएगा। वहां आपकी चिंता लगी रहेगी, आप साथ चलिए।" निष्ठा ने आग्रह से कहा।

लेकिन निर्मला की आत्मा तो इस घर में बसती है, वह बेजान शरीर बेंगलुरु ले जाकर क्या करेगी जबकि प्राण तो यहीं रह जाएंगे। उसने मना कर दिया। अमोल और निष्ठा दोनों सिर झुका कर चुप हो गए। घर में एक बेवजह की उदासी पसर गई। अमोल और निष्ठा यूँ तो ऊपर से सामान्य बने रहने का पूरा प्रयत्न करते पर उनके चेहरों से पता चल ही जाता था कि वह दिल ही दिल में घुट रहे हैं।

निर्मला उठकर खिड़की के पास खड़ी हो गई। पिछले चार दिनों से लगातार बारिश हो रही थी। सारी प्रकृति में जैसे एक उदासी सी पसरी थी।

"क्या सोच रही हो दीदी।"

कंधे पर मधु का स्पर्श पाकर निर्मला चौंक गई। उसे ध्यान ही नहीं रहा कि बारिश के साथ ही कब से उसकी खुद की भी आँखे बरस रही थी। जल्दी से अपनी आँखे पौंछते हुए उसने जवाब दिया-

"कुछ नहीं रे कुछ भी तो नहीं।"

"ना बताओ दीदी पर मैं क्या समझती नहीं हूँ।" मधु ने उसे एक कुर्सी पर बिठा दिया और खुद भी पास ही में बैठ गई।

"अब किस्मत को देखो ना इतना सा भी सुख बर्दाश्त नहीं हुआ, निधि का मुंह देख कर कुछ खुशी मिल जाती थी वह भी भगवान अब छीन रहा है।" निर्मला भरे गले से बोली।

"पता नहीं दोष किस्मत का है या तुम्हारी सोच का दीदी।" मधु का स्वर अचानक कुछ तीखा सा हो गया।

"क्या मतलब?" उसके स्वर की तिक्तता से निर्मला अचानक चौंक गई।

"मतलब यह कि दोष किस्मत का नहीं है वह तो अपनी ओर से अच्छा ही कर रही है दोष तो तुम्हारी सोच, तुम्हारी बेमानी जिद का है।" मधु का स्वर अब भी वैसा ही था।

"तुम कहना क्या चाहती हो मैं कुछ समझी नहीं।" निर्मला असमंजस में भर कर बोली।

"देखो दीदी।" अब की बार मधु कुछ नरम और समझाइश भरे स्वर में बोली "अमोल को इतनी बड़ी कंपनी से जो प्रस्ताव मिला है वह रोज-रोज नहीं मिलता और हर किसी को भी नहीं मिलता। लेकिन सिर्फ तुम्हारी वजह से वह इस बेहतरीन अवसर से क्या जीवन में आने वाले हर अवसर से वंचित होता रहेगा।"

"अरे लेकिन मैंने उसे कब रोका है।" निर्मला बुरी तरह चौंक कर बोली।

"तुमने मुँह से तो मना नहीं किया लेकिन तुम्हारी उसके साथ न जाने वाली जिद ने उसके पैरों में बेड़ियां डाल दी हैं। अब उसका मन भी नहीं मान रहा तुम्हें अकेला छोड़ कर जाने में।" निर्मला की हथेली पर प्यार से हाथ रखते हुए मधु बोली "तुम उसके साथ बेंगलुरु क्यों नहीं जाती दीदी?"

निर्मला एक मोह भरी दृष्टि कमरे की दीवारों और छत पर डालकर कुछ कहने जा ही रही थी कि मधु ने उसे रोक दिया- "बस-बस तुम्हारी दृष्टि ने सब कह दिया है। लेकिन अपनी इस परंपरागत और घिसी पिटी सोच से बाहर आओ, मनुष्य अतीत में ही अटक कर रह जाए तो जी नहीं सकता। तुम्हारे बच्चों का बचपन अतीत बन चुका है, निधि का बचपन ही अब वर्तमान का सच है। अतीत की यादों में ही अटकी रहोगी तो वर्तमान के हर सुख से वंचित रह जाओगी।"

"पर.." निर्मला कुछ कहना चाहती थी लेकिन मधु ने उसे बीच में रोक दिया-

"कोई पर-वर नहीं, सच तो यही है कि माता-पिता स्वयं तो सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते और दोष किस्मत को या बच्चों को देते हैं। बच्चे भी माता-पिता को छोड़ देते हैं मैं मना नहीं करती पर कई बार गलती बुजुर्गों की भी होती है। पुरानी निर्जीव चीजों से मोह की खातिर वे एडजस्टमेंट करने को तैयार नहीं होते और अकेला रह जाने पर बच्चों को दोष देते हैं कि वह पूछते नहीं हैं। कल को अमोल अगर चला गया तो सब उसी बेचारे को कोसेंगे न। बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि हम बच्चों को पढ़ाते हैं, उन्हें सफलता की सबसे ऊंची पायदान पर देखने और विकास की दौड़ में सबसे आगे रहने की महत्वाकांक्षा भी हम ही उन पर थोपते हैं और जब वे विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने लगते हैं तब हम ही उनकी राह में बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं।"

"मैं कहां किसी की राह में बाधा बन रही हूँ। वह जहां चाहे चला जाए।" निर्मला बोली।

"नहीं दीदी वह दोनों तुम्हें छोड़कर जाना नहीं चाहते। कल ही अमोल और निष्ठा ने तय किया है कि वह कंपनी का प्रस्ताव ठुकरा देंगे, जबकि अमोल जानता है कि वह अपने सौभाग्य और प्रगति को लात मार रहा है, फिर भी उसने तुम्हें चुना। अमोल तो सुपुत्र है उसने साबित कर दिया, अब यह तुम्हारे हाथ है कि तुम सुमाता बनती हो या कुमाता।" एक गहरी सांस लेकर मधुलिका चली गई।

उस रात बाहर आसमान पूरे जोरों से बरस रहा था और अंदर निर्मला की आंखें। आंखों से नींद तो कोसों दूर थी अब भी मन में उहापोह की स्थिति थी। इतने वर्षों से गृहस्थी के साम्राज्य की रानी वे थी अब किसी दूसरे की गृहस्थी में... "छि-छि" मन के एक कोने में भाव उठा, अब भी वही भय, वही संशय, वही कुंठा मन में व्याप्त है। दूसरे की क्यों निष्ठा भी तो अपनी है, उसका साम्राज्य चलाने के लिए मंत्री रूप में उसकी सलाहकार बनकर तो रह सकती है ना। निर्मला के होठों पर एक निर्मल मुस्कान आ गई।

सुबह को आसमान एकदम साफ था। प्यारी गुनगुनी धूप खिली थी। आंगन में गौरैया फुदक रही थी, फूलों पर तितलियां मंडरा रही थी। संशय के बादल छट चुके थे। निष्ठा नाश्ता लगा रही थी।

"तुम बेंगलुरु कब जा रहे हो बेटा मेरा भी टिकट तुम लोगों के साथ ही करवा लेना।" निर्मला ने अमोल से कहा तो वह उसके दोनों हाथ थामकर खुशी से बोला-

"सच में तुम साथ चलोगी माँ?"

"हाँ बेटा चलूंगी।"

निष्ठा के चेहरे पर भी चमकदार धूप खिल उठी।

मधु उत्साह से बोली "घर की चिंता मत करना दीदी मैं तुम्हारी यादों को ज्यों का त्यों संभाल कर रखूंगी"

तभी ठुमक-ठुमक कर निधि आई और निर्मला की गोद में बैठ कर बोली-

"ताती तिया उल-फुल..."

"नहीं मेरी सोन चिरैया।" निधि को अपने सीने से लगाते हुए निर्मला ने कहा "चिड़िया अब अपने घोंसले में हमेशा अपनी दादी के साथ रहेगी।"

"तिया---ताती---"

निधि ताली बजाकर बोली तो सब हंसने लगे।

डॉ विनीता राहुरीकर

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