ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 14 padma sharma द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 14

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 14

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय - चार

प्रतिनिधि कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

8. महिला कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

(अ) डॉं. कामिनी की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

(ब) कुन्दा जोगलेकर की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

(स) अन्नपूर्णा भदौरिया की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

संदर्भ सूची

8. महिला कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

(अ)-डॉ. कामिनी की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्यः

डॉ. कामिनी ने ग्राम्य परिवेश वहाँ की संस्कृति, वातावरण, रीति रिवाज सभी का चित्रण अपनी कहानियों में किया है। उनकी कहानियाँ बुन्देलखण्डी संस्कृति से परिपूर्ण हैं। उनकी कहानियों में गाँव की मिट्टी की खुशबू, लहलहाती फसलों की उमंग और शहरी पलायन की सोच भरी पड़ी है। कामिनी जी अपनी संस्कृति और अपने कस्बे की मिट्टी से बेहद प्यार करती हैं तभी उन्होंने अपने संग्रह, कहानी संग्रह सिर्फ रेत ही रेत को समर्पित शब्द दिये हैं-’’अपने कस्बे की माटी की अर्चना के निमिŸा......’’

गाँव में गौंड़ बब्बा व कासरदेव महाराज की पूजा होती है। किसी के भी अस्वस्थ होने पर गौंड़ बाबा के चबूतरे पर जाकर मनौती मानी जाती है, झाड़ा-फंूका जाता है और भभूत आदि से ही काम चला दिया जाता है।-

’’.....मुन्नलाल के अनुसार छिद्द है गौंड़ बाबा की उसके ऊपर.......मनोहर बचपन में जब-जब बीमार होता था घर भर गौंड़ बाबा के चबूतरे पर पड़ा रहता था। वहीं उसके रक्षक हैं। उन्हीं की कृपा से वह हुआ। उन्हीं की भभूत काम करती है। घर के विश्वास हैं गौंड़ बाबा। बाहर थान बना हुआ है। बब्बा जनवा थे। उन पर गौंड़ खेलते थे।......’’1

संतान प्राप्ति हो चाहे स्वस्थ होने की कामना या सन्तान के प्रति स्नेह सभी की कामना गौंड़ बाबा से की जाती है। उसके लिये विशेष पूजा अर्चना की जाती है-

अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप अलग-अलग भगवान में लोगों की श्रद्धा होती है। कुछ लोग खेडापति के हनुमान पर चोला चढ़ाने के लिये हर मंगलवार को जाते हैं। दीवाली पर लक्ष्मी पूजन के लिये सफाई-पुताई होती है (खाली पिंजरा) तो गोवर्धन की पूजा नई भाजी और बेर से होती है (कैक्टस का फूल)।

मेला संस्कृति की पहचान है। भिन्न-भिन्न संस्कृति एक स्थान पर जमा हो जाती है। कार्तिक की पूर्णिमा को मेला लगता है जिसमें झूला-झूलना बाल मन को अच्छा लगता है (शिलाखंड)। झूला-झूलने का तो एक त्यौहार विशेष ही मनाया जाता है, वह है रक्षाबंधन जो सावन के महीने में मनाया जाता है। रात-रात भर गीत गाये जाते है और झूला झूले जाते हैं।-

’’अब सुध आई विरन जू के देस की,

भाई आज होती बुलाय हमको लेती,

एजी मैया बबुला जियरा के कठोर।2

रक्षाबंधन के दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती है और खड़पूड़ी खिलाती है। शक्कर की बनी हुयी उस खड़पूड़ी में संबंधों की मिठास होती है-

’’रक्षा बंधन के दिन बुआ ने अपने छोटे भाई को राखी बांधी, टीका लगाया और खड़पुरी अपने हाथों से खिलाई। एक-एक खड़पुरी सब बच्चों को दी। खड़पुरी करर-करर करते हुए बच्चों की आँखो में तृप्ति का सागार हिलोरे लेने लगा।’’3

दोने में गोबर डालकर गेहूँ बोये जाते हैं जो रक्षाबंधन तक उग आते हैं, उन्हें भुंजरिया कहते हैं। राखी के दूसरे दिन उन्हें छोटे लोग बड़ों को देकर पैर छूते है और आशीर्वाद लेते हैं भंुजरिया लेने के बदले पैसे देने का भी रिवाज है-

’’सावन के दिन छोटा-सा मेला लग जाता है, अंगदजी के मंदिर के सामने खाई के बगल में अखाड़ा गाड़ दिया जाता है। आसपास के गाँव के पहलवान आकर कुश्ती लड़ते है। गाँव की लड़कियाँ अपनी भुंजरियाँ के दौना डलिया में रखकर खाई में सिराती हैं। भुंजरियाँ खोंट ली जाती हैं। लड़कियाँ भंुजरियाँ बांटती है और लेने वाले लड़कियों के पाँव छूते हैं।’’4

जन्म है तो मृत्यु भी है उसकी अपनी अलग रीति एवं परम्परा निभायी जाती हैं। मुस्लिम समाज में मृत्यु के उपरान्त दफनाया जाता है, ज़नाजा़ निकलता है और अलविदा की नमाज होती है (दिल जोड़ने वाली सुगन्ध)।

गाँव की संस्कृति में हाथ की चक्की का अपना महत्व है। अलसुबह से चक्की चलने की आवाजें आने लगती है। गेहँू आदि उसी से पीसा जाता है।

’’उसारे में बड़ी बाई ने चकिया के ’गड़ार’ को झाड़ा, ’कीला-मानी’ को देखा और ’डड़ा’ ठोक कर वे पीसने लगी। पूरा गाँव चक्की का पिसा आटा खाता पर बड़ी बाई की चकिया आज तक चलती है। गा-गाकर पीसने की बड़ी बाई की आदत है।5

़ गाँव के खेल अनूठे ही होते हैं। लड़कियाँ चपेटा खेलती हैं, रस्सी कूदतीं हैं (नागफनी और पलाश)। लड़कियों को दुपट्ा खरीदने और जूता खरीदने का शौक होता है। नाखूनी लगाने का भी शौक होता है (मन का संविधान)।

अभिवादन में लोग एक-दूसरे से नमस्ते करते हैं और पैर भी छूते हैं। काकी-काका, मौसी, भाभी, चाचा-चचा मियाँ, बड़ी बाई, बहोरे भैया, बुआ, मुसम्मात के अलावा मांते शब्द भी संबोधन में बोले जाते हैं। लोग कमीज, धोती, शर्ट, पैन्ट पहनते हैं। कांकरेजू धोती भी पहनी जाती है। जेवर पहनने का भी रिवाज है।

’’..........सहज में वे कांकरेजू-धोती पहनती थीं और कभी-कभी लहंगा-लुँगरा। लहंगा-लुँगरा तो बाहर निकलते समय खास-मौकों पर ही उपयोग में आता। नाक में सोने की बड़ी पुँगरिया, कानों में चाँदी के कन्नफूल, गले में खँगौरिया और खूब भारी-पैरों में पैजना।.........माथे पर

रार लगा बूँदा लगाती लगाती उंजियारी।’’6

उनकी कहानियों में सुर्त, मौंचायने, घिल्ले, धानी, थैला, बटुआ, भाड़, भुंजौना, उसार, आदि शब्द देखने को मिलते हैं। ’मछली’, चावल, पगी खुर्मी, नमकीन, मीठे खुर्मा, पूड़ी-अचार, दाल दलिया, चपाती, अदरेनियाँ, मठा झार, थुली-पकौड़ी खाने का वर्णन है साथ ही गुटखा, गांजा और पौवा का भी सेवन लोग करते थे। कालौनी खाने का भी वर्णन मिलता है-

’’.........बुआ ने उठकर शक्कर अपने हाथ से मिरचू की कालोनी में झरा दी। बुआ की भी नियत कालोनी खाने की हो रही थी। कालोनी में तो बरा, मंगौरा, पापर-पपरिया, तले हुए गिलहा और सूखी मिर्च, शक्कर, घी सब होना चाहिए।...........’’7

कामिनी जी की कहानियों में ससुर बहू के संबंध पिता-पुत्री जैसे हैं। बहू ससुर में पिता की छाया देखती है तो ससुर भी लड़के के लापरवाह होने पर बहू के लिये श्रृगांर का सामान लाते हैं (सपनों का घर) यही नहीं बहू यदि व्रत-उपवास रखती है तो ससुर फलाहार का सामान भी लाते हैं (खाली पिंजरा)।

’परिवार’ नामक इकाई के विविध रूपों का चित्रण कथाकार डॉ. कामिनी की कहानियों में अत्यन्त सूक्ष्मता से हुआ है। डॉ. कामिनी के ’रेत ही रेत’ की प्रायः समस्त कहानियों में इस प्रवृति के दर्ष न होते हैं। यदि परिवार का विभिन्न दृष्टिकोणों से विभाजन किया जाये तो अनेक ’परिवारों’ का परिदृश्य उपस्थित हो जाएगा। संयुक्त और विभाजित अथवा पारम्परिक परिवार; वर्ग आधारित हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध आदि, स्थिति पर आधारित उच्च वर्गीय, मध्यम वर्गीय व निम्न वर्गीय परिवार, ग्रामीण व नगरीय परिवार-अनेक रूप हो सकते हैं- परिवार के।

रक्त के संबंधों से ही मात्र परिवार नहीं चलता, अपितु कुछ पारिवारिक संबंध रक्त संबंधों से भी बढ़कर होते हैं। करील के काँटे, कहानी संकलन की कहानी - ’लाड़िली के भुवन कहाँ?, की नायिका-लाड़ली कक्की8 को परिवार की उपर्युक्त परिभाषा में आबद्ध किया जा सकता है। ’कांटों का जंगल9 कहानी में मुस्लिम संयुक्त परिवार का चित्रण है। ’करील के काँटे10 कहानी में भी इसी परिवार(मुस्लिम परिवार) की समस्याओं को व्याख्यायित किया गया है। ’नदी पीछे नहीं लौटती’ बूँदा मौसी का सुख-दुख उसके संयुक्त, किन्तु विखंडित परिवार से बंधा है।11 डॉं. कामिनी के कथा साहित्य का परिवार वस्तुतः बहुविध है। इनके समस्त कथा संग्रहों के पात्र प्रायः ग्रामीण परिवार के हैं। शहरी - परिवारों का चित्रण इनकी कहानियों में प्रायः न के बराबर है।

’विवाह’ मनुष्य समाज द्वारा निर्मित और स्वीकृत ऐसी संस्था है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी यौन-संतुष्टि को प्राप्त करता है तथा संतानोत्पŸिा कर मानव जाति में अभिवृद्धि करता रहता है। अलग-अलग देशों की अलग-अलग जातियों और समाजों में विवाह के अलग-अलग रूप हैं। बुंदेलखण्ड में लड़की के माता-पिता ही वर की खोज करते हैं और विवाह संस्कार सम्पन्न होता है।

डॉ. कामिनी की कहानियों में नियत विवाह एवम् प्रेम विवाह दोनों का चित्रण है। प्रेम विवाह के बारे में इसके विरोधियों द्वारा इसके असफल होने की बातें कही जाती हैं और परम्परानुगत विवाहों का समर्थन किया जाता है। पर डॉ. कामिनी की कहानियों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि इस संबंध में उनका दृष्टिकोण समन्वयवादी है। कामिनी जी ने दोनों प्रकार के विवाहों की अच्छाइयों और बुराइयों की ओर संकेत किया है। ’करील के काँटे’ संकलन की कहानी - ’हथेली की किरच’ की नायिका सुधा ने प्रेम-विवाह किया है। पर जब उसका पति ही - ’’नीना की बराबरी में तुम कहाँ लगती हो? गजब की सेक्स अपीलिंग है, उसमें, जो तुममें नहीं है।12 जैसी छिछोरी बातें कह कर उसे प्रताड़ित करे, तब उसका परिणाम निश्चित ही सम्बन्ध बिच्छेद होगा- और हुआ।

प्रेम विवाह ही असफल नहीं होेते, पारम्परिक विवाहों में भी दरारें पड़ जाती हैं। ’शांता दीदी’ कहानी की नायिका ’शांता’ का विवाह परम्परागत रूप से हुआ है; पर उसके दाम्पत्य जीवन में भी खटास आ जाती है। यह खटास इतनी बढ़ती है कि शांता विवाह के बाद तैतीस वर्ष अपने मायके में रहकर व्यतीत कर देती हैं-’’ तैतीस साल पुराने रिश्ते फिर जोड़े जा रहे हैं। जिस गाँव-घर की मैं कभी चर्चा नहीं करना चाहती थी, तीनों भाई उसी घर में आने जाने लगे हैं। जिस ससुराल वालों ने एक बार मेरे चले आने के बाद कभी मेरी चर्चा नहीं चलाई उनसे सतलढ़े होने जा रहे हैं।13

हिन्दुओं में कभी बहुपत्नी प्रथा रही होगी, पर अब वह अपराध है। परन्तु मुस्लिम समाज में आज भी एक मुसलमान एक साथ एक से अधिक पत्नियाँ रख सकता है। यद्यपि आज के आर्थिक युग में ऐसा करना अत्यन्त जोखिम भरा कार्य है। ’बुझते अंगारे’ कहानी का कथानक यही है। मुल्ला बरकत अली बच्चों को उर्दू पढ़ाते हैं, ताबीज गण्डे बाँटते हैं, लोगों को लड़ाते भिड़ाते हैं, फिर सुलह कराते हैं। वे अजान देते हैं, तकरीर करते हैं, परन्तु एक बीबी के इंतकाल के बाद दूसरी शादी करते हैं तथा दूसरी बीबी के रहते हुए भी तीसरी शादी ऐसी लड़की से रचाते हैं, जो उनकी बड़ी लड़की से मात्र दो-तीन वर्ष ही बड़ी है।’’14

समाज में विवाह का एक रूप और विद्रूप होकर कभी-कभी अट्टहास कर उठता है, वह है- बेमेल विवाह। गुलदस्ता कहानी संकलन की कहानी - ’’बैसाखियों पर’’, की समस्या यही है । कहानी का पात्र प्रोफेसर राजन दा अपनी छŸाीस वर्षीया रिसर्च स्कॉलर से शादी करता है15 बेमेल विवाह का ही एक रूप है-कुआँरी लड़की का विवाहित पुरूष के प्रति आकर्षण। ’बिखरे हुए मोर पंख’ संकलन की कहानी ’रेत पर चलते हुए’ में यही प्रदर्शित है। अपने लेखन से समाज को दिशा देने वाले लेखक प्रकाश से एम.ए. पास सोशल वर्कर प्रभा अत्यन्त गहराई से प्यार करने लगती है। उतनी ही गहराई से सुन्दर पत्नी का पति और दो बच्चों का पिता प्रकाश प्रभा से प्यार करता है और दोनों विवाह करना चाहते हैं-’’हमें सामाजिक मान्यता चाहिए दीदी, शादी का सर्टीफिकेट। प्रभा के घरवाले इसकी शादी कहीं और कर देना चाहते हैं। ये हाउस वाइफ बनकर नहीं रह सकती। अगर ऐसा हो गया तो दोनों मर जाएंगे। हमने आज तक सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया दीदी।’’16

कामिनी जी ने मानव-समाज के विविध रूपों को अत्यन्त निकट से और सूक्ष्मता से देखा-परखा है। इनके कथा-साहित्य में बुन्देलखण्ड में प्रचलित विविध रीति-रिवाजों एवम् उनके उभय पक्षों-अच्छे-बुरे का चित्रण प्राप्त है। कामिनी जी ने प्रेम सम्बन्धों एवम् प्रेम विवाहों को कुछ शर्तों के दायरो में मान्यता दी है। यह मान्यता बुन्देलखण्ड की सामाजिक एवम् सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति कटिबद्ध है। ठीक यही बात उनकी कहानियों के यौन सम्बन्धों के बारे में की जा सकती है। इनकी कहानियाँ यौन सम्बन्धों के अनावश्यक एवं कुत्सित वर्णनों का समर्थन नहीं करतीं। बुन्देलखण्ड की जो परम्परागत एवं आदर्श मर्यादा है, उसका सम्पूर्ण प्रभाव डॉ. कामिनी की समस्त कहानियों में स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। विधि सम्मत एवं समाज सम्मत शालीन यौन सम्बन्ध ही विवेच्य कथाकार की कहानियों को स्वीकार्य हैं।

डॉं. कामिनी मानवता को ही सबसे बड़ा धर्म मानती हैं। ’लाड़ली के भुवन कहाँ’ कहानी में निःसंतान लाड़िली कक्की मोहल्ले-पड़ौस के छोटे-छोटे बच्चों को ही अपनी संतान मानती हैं। इतना ही नहीं, वह उनमें भगवान का रूप निहारती है-’’देखो बिटवा, मेरे लाल, आज एक पैसे की भी बोहनी नहीं हुई। तुम अपने हाथों से मेरे खिलौनों को छू दोगी तो सब खिलौने बिक जाएंगे- कहते कहते लाड़िली कक्की उसकी दोनों मुलायम हथेलियों को अपने मोटे-मोटे होठों से चूम लेती..........ऐ बिटवा, जे और हैं- कहते हुए कक्की खुद अपने हाथ से उसके हाथ पकड़कर सब खिलौनों पर फिरवाती थीं- तुम भगवान हो राजा बेटा। तुम उन्हें छू भी दोगे तो सब बिक जाएँगे।17

धर्म और धार्मिक संस्कार प्रायः पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहते हैं। उनमें न्यूनाधिक विकार भी उत्पन्न होते रहते हैं, पर उसके मूल बीज विष्ट नहीं होते। कमरे में कैद आवाज’ कहानी में इसी तथ्य को उद्घाटित किया गया है। दद्दी के इंजीनियर बेटे और अंगरेजी पढ़ी बहू दद्दी के पुरातन ’दकियानूसी’ संस्कार पसन्द नहीं, पर ये आधुनिक दम्पति अपनी बेटी को लाख प्रयासों और रोकने के पश्चात् भी उन संस्कारों से दूर नहीं कर पाये जिन्हें वे दकियानूसी समझते हैं- ’’सीमा रात में किबाड़ वन्द करके सोने के पहले रोज अगरबŸाी जलाती है। दद्दी भगवान की आरती उतारती और सुन्दरकाण्ड का पारायण करती। सज्जन, सज्जन की पत्नी, सज्जन के बच्चे जैसे-जैसे दद्दी को भूलते जा रहे थे, वैसे ही सीमा के भीतर दद्दी और गहरी उतरती जा रही थी।’’18

डॉ. कामिनी ने न केवल हिन्दू धर्म, अपितु इसलाम धर्मावलंबियों की श्रद्धा और विश्वास को भी दर्शाया है। हिन्दुओं में जो महत्व दीवाली का है वही महत्व मुसलमानों में ईद का हैः ’’ईद को देवरजी, जो मास्टर थे, सलाम करने आते थे- भाभी से। अबकी दफा बच्चे को कपड़े लाकर दिये थे। उसने खाना निकाल कर सामने रख दिया था मास्टर साहब के। सिवइयों की चम्मच मुँह में रखते हुए वे निगाह बचाकर उसके उदास गदराये ’बदन और खण्डहर सी बड़ी बड़ी आँखों को देख लेेते थे।’’19 रोजा और नमाज भी इस्लाम धर्म में इबादत के प्रमुख अंग हैं, जिन्हें हर गरीब अमीर मुसलमान पूरी श्रद्धा से करता है-

’’बहुत याद आ रही है ईद को उसकी। मैं कहती-तुम रोजा रखते नहीं, नमाज भी नहीं पढ़ते - इतनी खुशी क्यों मानते हो? कोई भी त्यौहार हो, फकीरा की चाल बदल जाती थी और चेहरे की रंगत भी। खाने पीने को ढंग का मिल जाता था.......अल्लाह मियां ने रूप-रंग नहीं दिया था, मगर गुणों की खूबसूरती से सुसज्जित था उसका अदना सामान्य व्यक्तित्व, जिसमें इंसानियत की खुशबू थी। ईमानदारी की मंदाकिनी प्रवाहित थी।’’20 उपर्युŸा उद्धरण में जातिगत धर्मों से भी बढ़कर मानव धर्म को व्याख्यायित किया गया है। कामिनी जी की दृष्टि में यही धर्म सभी धर्मों का सिरमौर है और विश्व में सर्वश्रेष्ठ भी।

डॉं. कामिनी के कथा संग्रह ’’बिखरे हुए मोरपंख’’ में यद्यपि जन्म के संस्कार से संबंधित चित्रण उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु अन्य कहानी संग्रह21 में कमरे में कैद आवाज, शांता दीदी, कांटों का जंगल कहानियों में तथा रिश्ता खून का, धड़कनों में जोड़ बाकी कहानियों में जन्म संस्कारों के सजीव चित्रण हैं। बुन्देलखण्ड में लड़की के प्रथम बार गर्भवती होने पर सातवें महीने में मायके से पच भेजा जाता है। यह संस्कार धनी और निर्धन सभी परिवार अपनी हैसियत से निभाते हैं।

पच की सामग्री में लड़की और लड़की की सास तथा ननदों के लिए कपड़ा, दामाद-ससुर को कपड़ा, सोने-चाँदी के आभूषण, आने वाले नवजात शिशु के लिए-हाथ के लिए चूड़ा, गले के लिए ताबीज, वस्त्र, दालें, अनाज एवं नकद राशि आदि शामिल होती है। ’गुलदस्ता’ कहानी संकलन में इसी का चित्रण है-’’बिटिया के अगर लड़का हुआ तो ’पच’ के लिए दो धोती, अच्छे ब्लाउज, बच्चों को कपड़े, दामाद को कुरता-धोती चाहिए। मिठाइयाँ, गेहूँ, दालें-चावल अलग। सोने की नहीं, तो चाँदी की हाथ की पुतरिया, तबिजिया चाहिए। गिरिजा को तीन-तीन बिछिया नहीं, तो गाँव वाले नाम धरेंगे। कोई क्या कहेगा कि घर में जुआरा बँधा है। खेती भी है और कुछ न भेजा।’’22

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय - चार

प्रतिनिधि कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

8. महिला कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

(अ) डॉं. कामिनी की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

(ब) कुन्दा जोगलेकर की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

(स) अन्नपूर्णा भदौरिया की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

संदर्भ सूची

(ब)-कुन्दा जोगलेकर की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

कुन्दा जोगलेकर का अब तक एक ही कहानी संग्रह - ’एक बूंद टूटी हुई’ प्रकाशित है, जिसमें कुल सत्रह कहानियाँ हैं। इनकी सभी कहानियों में परिवार के दोनों रूपों का चित्रण प्राप्त होता है। ’पैण्डुलम’ कहानी की नायिका-शुचि के मायके और ससुराल का परिवेश संयुक्त परिवार का है।23

कुन्दा जोगलेकर की कहानियाँ भी वैवाहिक जीवन की दरारों को दर्शाती हैं। आज भी प्रेम विवाह एक सामाजिक समस्या है, विशेष रूप से अंतर्जातीय विवाह।’’ बिखराव’ कहानी की नायिका अनु की भी यही समस्या है, जो आशीष से प्रेम विवाह करती है। इस विवाह को लेकर अनु के घर में भारी कोलाहल मचता है। इस विवाह से अनु के रूढ़िवादी माता-पिता खुश नहीं है। अनु की छोटी बहिन की शादी माता-पिता की पसन्द से होने पर परिवार तो उससे खुश है, पर अनु के उस शादी में सम्मिलित होने पर उसे व्यंग्यबाणों का सामना करना पड़ता है-

’’सब कुछ होने के साथ हमें तो इस बात का गर्व सबसे ज्यादा है कि हमारी नाक रख ली बिटिया ने। अपने समाज में मुँह दिखाने के लायक तो हो गये हम लोग.........मौसी की बात को आधी काटकर अचानक बोलते हुए पापा ने एक उड़ती सी दृष्टि मेरी ओर डाली और मुझे अपनी ओर देखता पाकर एकदम दूसरी ओर देखने लगे।24

’मनोती’ कहानी ग्रामीण परिवेश में प्रचलित विवाह प्रथा को दर्शाती है जिसमें, ब्याहता पत्नी की उपेक्षा कर दूसरी औरत को पत्नी के समान ’घर’ में डाल लिया जाता है। इस प्रकार कुन्दाजी की कहानियाँ विवाह और यौन सम्बन्धों के विविध रूपों को प्रस्तुत करती हैं।

कुन्दाजी की दो कहानयाँ- ’मनौती और ’तुलसी चौरे का दिया में धार्मिक भावना का हलका सा आभास है। ’मनौती’ कहानी में नायिका गरीब नौकरानी है। अपने शराबी-जुआरी पति से रोज-रोज पिटना ही उसकी नियति है। दूसरी औरत को घर में लाकर कथा नायिका रमिया को उसका पति घर से निकाल देता है। रमिया इतने पर भी अपने पति के कल्याण और साथ ही अपनी सौत की बर्बादी के लिए भगवान से प्रार्थना करती है और अपनी मनौती की पूर्ति के लिए व्रत करती है।25

’’तुलसी चौरे का दिया’’ की भावभूमि भी प्रायः मनौती जैसी है इसमें नायिका प्रतिदिन तुलसी चौरे में खड़ी तुलसी के पौधे का पूजन करती है और शाम को दीपक जलाकर रखती है। नायिका लछमनिया ग्रामीण पृष्ठभूमि की असहाय, पर संस्कारित है और उसका डॉं. पति उसे पसंद नहीं करता। पति का प्रेम पाने के लिए लछमनिया भक्ति की ओर प्रवृत्त होती है।26

कुन्दा जोगलेकर की सीमित कहानियों मेें सांस्कृतिक दृश्य भी अत्यन्त सीमित हैं। दीपावली की पूर्व तैयारियों का एक दृश्य इस प्रकार है- ’’एक....दो...तीन...चार....पाँच और ये दस...बस कुल दस दिन ही तो शेष रहे थे दीवाली में। लाखन भौंचक्की सी नजर केलेण्डर पर घुमाता सोच रहा था। तभी तो चारों तरफ रंगों और पटाखों के दुकानों की कतारें बिछी पड़ी थीं। शोर-शराबा दिन पर दिन गहराता जा रहा था।.......कितनी धूम मची थी उस दीवाली पे.....। वो दीवाली तो दिये जलाते, पकवान बनाते, नाचते कूदते, चन्दा के साथ भविष्य के सपनों की लड़ियाँ बनाते कैसे बीत गयी, पता ही नहीं चल पाया था।’’27

कुन्दा जोगलेकर ने वैवाहिक संस्कारों का वर्णन न कर ऐसे प्रसंगो में मात्र ’बड़े धूमधाम’ शब्द से ही काम निकाला है। एक कहानी-’दूर के ढोल में मृत्यू के क्रियाकर्मो को चित्रित किया है-’’ आखिर जैसे जैसे-तैसे निपटा था तेरहवी का दिन। दो-तीन सौ लोगों का खाना, तमाम रीति-रिवाजों के साथ मंत्रोच्चार गरजाते पंडित जी.......। सभी कुछ नया था सुधांशु के लिए।’’28

(स)-अन्नपूर्णा भदौरिया की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

अन्नपूर्णा भदौरिया की कहानियों का सीमित परिमाण है। ’डूबती सांसें’ कहानी का कथानक संयुक्त परिवार का है, जिसमें पति-पत्नी, पिता, छोटी व बड़ी बहिनें एक साथ रहती हैं- यह संयुक्त परिवार है।29

उनकी कहानियाँ यथार्थ के धरातल पर अवलम्बित हैं। इनकी कहानियों में प्रायः दाम्पत्य जीवन में आयी हुई विषमताओं को चित्रित किया गया है। ’रेतीली ढलान’ कहानी-नायिका रीना के इसी वेषम्य वैवाहिक जीवन की ओर इंगित करती है। विवाह के बाद से ही वह अपने पति के द्वारा प्रताड़ित होने लगती है- ’’उन दिनों की याद आज भी लाल चींटी की तरह काट जाती है, जब संदीप ने उसे ठिठुरती रात में घर से बाहर निकाल कर अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया था। प्रतिदिन शराब पीकर गालियां देना व मारपीट करना संदीप की दिनचर्या बन गया था, इसीलिए आधी रात के बाद घर छोड़ने में रीना को शारीरिक यातना से मुक्ति का ही आभास मिला था।30 अन्नपूर्णाजी की कहानियों में यही दाम्पत्य जीवन के टूटन की किरचें सर्वत्र फैली हुई हैं।

रीना सोचती है अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति से नारी पुरूष का सामना कर सकती है वह अपने इस विचार को क्रियान्वित भी करती है और दूसरे दिन क्लब में जाकर अपनी सहेलियों और अन्य लोगों के मध्य अश्विनी की उपस्थिति में ही उसके चेहरे से नकाब उठा देती हैं- ’’मिस्टर अश्विनी, आप यह मत सोचिये कि पूरे संसार में बुद्धिमानी का ठेका आपने ही ले रखा है। आपने क्या सोचा था कि इस प्यार के नाटक से मुझे ठग लेंगेे? मेरे मोटै बैंक-बैलेंस पर आपकी गिद्ध दृष्टि थी न?........अच्छा हुआ, जो तुम्हारे फरेबी मन ने पहले ही अपनी धन-लोलुप प्रवृत्ति उगल दी, नहीं तो उसके फलस्वरूप होने वाले परिणाम के लिए समाज मुझ पर ही लांछन की कालिमा थोपता और तुम बड़ी सफाई से अपने आप को बचाते हुए निकल जाते।........अश्विनी, इस प्रकार सबों के सामने बेनकाब करने का मेरा मात्र यही उद्देश्य है कि अब भविष्य में कभी भी तुम किसी निरीह नारी के साथ प्यार के नाम पर सौदेबाजी न कर सको...रूपयों का भूखा व्यक्ति भला भावनाओं का क्या मूल्य आंकेगा........?31

अन्नपूर्णा जी के नारी पात्र उस समाज की ओर इंगित करते हैं जहाँ नारी के पढ़ने लिखने पर अंकुश लगा हुआ था। प्रभा अपनी जिद से पढ़ रही है, पर जरा सा पढ़ने बैठती है तो कभी भईया को खाना परोसने का हुकुम होता है, कभी पिताजी पानी मांगते हैं कभी रोती हुई छोटी बहिन को खिलाना होता है, पर उसने हिम्मत नहीं हारी। पर विवाह होते ही दहेज के लिए व्यंग्य-बाणों की बौछारें होने लगीं। इतना ही नहीं - ’’मध्यान्ह बीत चुका है, लेकिन उससे खाने के लिए भी नहीं पूछा। भूख के कारण पेट गुड़गुड़ा रहा था। घर के सभी व्यक्ति विश्राम करने लगे, लेकिन प्रभा? वह भूख से व्याकुल थी। जब उससे न रहा गया तो चुपके से उठकर रसोई में गयी, तभी अमर आ गया। प्रभा उल्टे पैरों वापस आ गयी। उसके प्रति सहानुभूति रखने वाला कोई भी न था’’32

’’टूटी आस’’ कहानी में मनुष्य के दोहरे चेहरे से छले गये नारी के विश्वास को व्यक्त किया गया है। मुनष्य किन-किन रूपों में नारी को छलता है इस कहानी से व्यक्त होता है। डॉं. अन्नपूर्णा की श्रेष्ठ कहानियों में से यह एक है।

कथा-नायिका-वर्षा की पड़ौसी-ऋतु उससे इतनी घुली-मुली है कि आने-जाने वालों को यह भ्रम होता है कि दोनों एक हैं अथवा अलग-अलग परिवार ’सा’ नहीं; अपितु; परिवार है। वर्षा अनेक बार ऋतु के सम्मुख यह बात रखती है कि इतना गहरा मेल जोल ठीक नहीं; कभी ऐसा न हो कि इसमें दरार आ जाये, परन्तु ऋतु वर्षा की इस संभावना को निरस्त करती रही है। वर्षा ने ऋतु के पति मोहन से भी अपनी आशंका व्यक्त की है कि अभी कोई गलतफहमियाँ हमारे बीच न उठें, पर मोहन - ’’एक भाई अपनी बहिन के लिए जितना कर सकता है - करूंगा34 कहकर आश्वस्त कर देता है। परन्तु यह विश्वास एक दिन चकनाचूर हो जाता है जब वर्षा मोहन को ऋतु से यह कहते हुए सुन लेती है कि - ’’वर्षा तो जंगली बन जाती है...........।35

मोहन के विचार सुनकर वर्षा को झटका सा लगता है। उसकी मनः स्थिति अत्यन्त बेचैन कर देने वाली हो जाती है-’’मैं अपने कानों को बन्द कर लेती हूँ। आगे के शब्दों की कल्पना भी नहीं कर सकूंगी। लेकिन इन सब हरकतों से होगा भी क्या? जो कहा गया है, वह तो बिना कहा हो नहीं सकता। आंखों से आंसू बहाने के अतिरिक्त और उपाय भी क्या है? मन की स्थिति बड़ी विचित्र हो गयी है...। यह कैसे रिश्ते थे, जिनमें इतना किसकिसाहट भर गयी? क्या रिश्ते कभी ओढ़े भी जाते हैं? विश्वासों को कहीं थोपा भी जा सकता है? घायल मन सिसक रहा है। कहाँ गयी वे सभी बातें जो अभी तक हम लोग आपस में बैठकर किया करते थे? कहाँ गयी वह रिश्ते-नातों की दुनिया? कहाँ गये वे आस्था स्नेह के आलंबन?36

संदर्भ सूची

संदर्भ सूची महिला कलाकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

डॉं. कामिनी

स.क्र. कहानी - कहानी संग्रह -पृ. संख्या

1- विश्वास की आँखें - बिखरे हुये मोरपंख - पृ.-43

2- वही - पृ.-44

3- इन्द्रधुनुष - सिर्फ रेत ही रेत - पृ.-31

4- वही पृ.- 31-32

5- कैक्टस का फूल - सिर्फ रेत ही रेत - पृ.-46

6- प्रवंचना - सिर्फ रेत ही रेत - पृ.-57

7- इन्द्रधनुष - सिर्फ रेत ही रेत - पृ.-31

8- करील के कांटे - पृ.-05

9- वही - पृ.-85

10- वही - पृ.-95

11- गुलदस्ता - पृ.-18

12- करील के कांटे- पृ.-31

13- वही - पृ.-47

14- वही- पृ.-65

15- गुलदस्ता- पृ.-50

16- बिखरे हुए मोरपंख- पृ.-24

17- करील के कांटे- पृ.-09-10

18- वही - पृ.-39

19- बिखरे हुए मोरपंख - पृ.-39

20- वही- पृ.-76

21- करील के काँटे, गुलदस्ता -पृ.-44

22- गुलदस्ता - पृ.-46

कुन्दा जोगलेकर

23- एक बूँूद टूटी हुई- पृ.-03

24- वही- पृ.-14

25- वही - पृ.-85

26- वही - पृ.-97

27- वही - पृ.-99

28- वही - पृ.-78

डॉं. अन्नपूर्णा भदौरिया

29- डूबती सांसे - पाक्षिक शांति प्रहरी सं. देवेन्द्र सिंह चौहान भिण्ड से प्रकाशित समाचार पत्र

कतरन में तिथि अंकित नहीं।

30- रेतीली ढलान - दैनिक भास्कर ग्वालियर 3-5-1984

31- वही

32- डॉॅं. अन्नपूर्णा भदौरिया-डूबती सांसें-पाक्षिक शांति प्रहरी-संपादक देवेन्द्र सिंह चौहान-पृ.-04

33- रेतीली ढलान - दैनिक भास्कर ग्वालियर - 03.05.1984

34- टूटी आस-स्वदेश का अभिनव अंक-15.08.1987- पृ.-14

35- वही

36- वही