ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 13 padma sharma द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 13

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 13

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय - चार

प्रतिनिधि कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

7. राजेन्द्र लहरिया की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

संदर्भ सूची

7-राजेन्द्र लहरिया की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

राजेन्द्र लहरिया की कहानियों में यद्यपि शहर का जीवन अधिक वर्णित है तथापि संस्कृति के विविध आयाम, विविध स्वरूप, रीति, रिवाज एवं परम्परा गहरे तक पैठी है। उनके पात्रों की ईश्वर में आस्था है। इस आस्था को प्रकट रूप में आख्यायित करने के लिये लोग भागवत कथा का वाचन करवाते हैं। यहाँ तक कि आज पंडिताई और पुरोहिताई में व्यावसायिकता आ गई है। आजकल पंडिताई में अर्थ लाभ कम होता है इसलिए पंडित भी भागवत् कथा वाचन में सिद्धहस्त होना चाहते हैं ताकि एक मुश्त अच्छी राशि एवं भेंट प्राप्त की जा सके।

’’अब वे साँझ-सवेरे और फुरसत मिलने पर दोपहर में भी ’श्री मदभागवत’ महापुराण की पोथी के पन्ने उलटते-पलटते थे। उसकी टीका वांचते थे। कुछ अन्य पंडिताऊ किताबों के संकल्प, स्वस्ति वाचन और देवी-देवताओं की स्तुतियाँ रटते थे तथा ’’मंगलम भगवान विष्णुः मंगलम गरूड़ध्वजः। मंगलम् पुंडरीकाक्षः मंगलायतनो हरिः।’’1

भागवत कथा का पारायण होने के पूर्व मुहूर्त निकाला जाता है। गाँव की तरफ से भागवत बांचने के लिये नारियल देकर न्यौता जाता है। फिर नियत तिथि और नियत समय पर गद्दी सज जाती है-

’’कुछ दिनों बाद’’ डेरा लगा और उसके नीचे गद्दी सज गई। उस पर बैठकर कृष्णकांत सच्चे पंडित दीखते थे। चमकते ललाट पर गहरा तिलक। पीली धोती और ’सीताराम-राधेश्याम’ छपी रेशमी उŸारीय।

.............कथा में अनेक लीलाएं हुई - कृष्ण जन्म, पूतना वध, कालिया मर्दन, माखन-चोरी, चीरहरण आदि अनेकानेक लीलाएं। अनेक बार जैकार हुई।’’2

लोग रामायण का पाठ भी नियमित करते हैं। दीनानाथ रोजाना शाम को आसन लगाकर त्रिखुटी पर रखकर रामायण की तर्ज बदल-बदल कर गाते (उर्फ रावण)। कई लोग अखण्ड रामायण का पाठ राजनीति से प्रेरित होकर करवाना चाहते हैं-

’’काम तो कुछ खास नहीं है, पर मैं कई दिनों से सोच रहा था कि ’वहाँ’ तभी से...........’सेवा’ चल रही है पर अपुन लोग यहाँ चुपचाप बैठे रहे हैं.............आज रामनौमी भी है- हो जाय तो क्यों ना रामायण का अखंड पाठ करलें आज- इसीलिये तुम्हें बुलाया था.........’’3

हर साल भादों के महीने में गणेश-उत्सव मनाया जाता है। गणेश-चतुर्थी से डोल ग्यारस तक यह उत्सव चलता है। रोज आरती व पूजा होती है। गाँव में यह पूजा व आरती गाँव के किसी उच्चवर्ग के व्यक्ति द्वारा होती है। वह चढ़ावा चढ़ाता है जिसकी घोषणा होती है तथा सब पंडितों को भोज करवाता है।-

’’हर साल भादों के महीने में मंदिर पर ’गणेश उत्सव’ मनाया जाता था- गणेश चतुर्थी से डोल ग्यारस तक। उन दिनों वहाँ प्रवचन भी होते थे। गणेश जी की मूर्ति लाकर पहले ही दिन पधरा दी जाती थी, जिसकी पूजा हर रोज के लिए गाँव के ही किसी ’उच्चजातीय मुअजि़्ज़ज़ के द्वारा होनी निर्धारित हो जाती थी। अपने दिन की बारी पर वह व्यक्ति नारियल, रोली चावलों आदि के द्वारा गणेश-मूर्ति की पूजा करता और उसके चरणों में अपनी हैसियत और श्रद्धा के हिसाव से धनराशि चढ़ाता था।.................’’4

कुछ लोग वैष्णो देवी के दर्ष न को भी जाते हैं। यात्रा शुरू करने के पहले मुहूर्त भी दिखवा लेते हैं (चेहरा नशीं)। कुछ लोगों में धार्मिक आस्था इतनी होती है कि रामलीला का पार्ट करने वाले लोगों के कपड़ों की तथा साधुओं की ’बारहबंदी’ सिलने की सिलाई नहीं लेते (परशुराम की पोशाक) गाँव में रामलीला भी होती। कलाकार महीनों पहले से तैयारी करते और रिहर्सल करते। अधिकांश पार्ट पुराने लोग ही करते शारीरिक बनावट देखकर पाठ दिये जाते थे। बानर भालू का पार्ट अदा करने वाले बालक कपड़ा-लत्ता की बनाई मुष्टिका से रावण पर प्रहार कर प्रसन्न होते। रामायण में वर्णित अलग-अलग दृश्य के पार्ट अदा होते-

’’.............तब राम जन्म होता। विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा होती। और होता राम-रावण युद्ध। युद्ध में राम वाण मारकर रावण के सिर काटते और इसके साथ ही रावण के धड़ पर नये सिर पैदा हो जाते।..........हालांकि अंत में रावण-वध भी होता।’’ं...............5

पुरोहित और पंडिताई का काम पुश्त-दर-पुश्त चलता है। सात साख से पुरखों के समय से पीढ़ी दर पीढ़ी पुरोहिताई का काम चलता है (खंडहर)। जिजमान भी बंधे बंधाये होते हैं। अमावस-पूनो, तीज-त्यौहार पर जिजमान धार्मिक आयोजन करवाते हैं।

’’..........किसी न किसी के यहाँ आये दिन कुछ न कुछ होता रहता है-कभी सत्यनारायण की कथा, कभी शांति-पाठ कभी जनेऊ संस्कार, कभी ब्याह, कभी बारात, कभी जातकर्म, कभी मृत्यूत्सव, कभी श्राद्धकर्म, कभी गृह-देवता पूजा कभी ग्रह-शांति अनुष्ठान6.......’’जातक की जन्म कुण्डली बनाना कनागतों के सोलह दिनों के कागौर-भोजन खाना, ब्याह या विदा शोधन करना और कभी-कभी मृत्युभोज में थाली-गिलास पाने के अलावा गरूड़-पुराण बांचने के बदले मिलने वाली दक्षिणा राशि पाना आदि।...........’’7

बाल विवाह प्रथा चालू थी। गाँव में जल्दी उम्र में ब्याह हो जाते थे। अपने विवाह की उन्हें ज्यादा समझ नहीं होती थी। ब्याह का अर्थ उन लोगों के लिये रस्म अदायगी के समान था-

’’उसका ब्याह जल्दी हो गया था। जल्दी यानी कम उम्र में ही। सोलह साल का होने पर ही! यह परिवार की परंपरा थी(उसकी बड़ी बहन की शादी दस साल की उम्र में हो गई थी) उसकी घरवाली की उम्र चौदह साल थी।...........’’8

दूल्हा पालकी में बैठकर जाता था और बारात बैलगाड़ियों से जाती थी। बारात के ठहरने के लिये जनवासा बनाया जाता था।

’’............वह दूल्हा बना, और पालकी में बैठकर ब्याह कराने गया था। बारात बैलगाड़ियों के काफ़िले के रूप में गई थी। बारात को जहाँ जनवासा दिया गया था वह स्थान एक उठ गये खलिहान का खाली मैदान था। उस मैदान में डेरा (तम्बू) तानकर जनवास्त बनाया गया था। उसके नीचे बिस्तर लगाये गये थे।9

गाँव में जाति के अनुसार घर बसे हुए थे और लोग उसी हिसाब से रहते थे। ब्राह्मण या ठाकुर सरीखी ऊँची जातियों के लोग साधु बाबा के पैर छू सकते थे। नीची कही जाने वाली जातियाँ कुछ दूर से ही ज़मीन छू कर पालागन करते थे (बर अक्स)। चमार, कोरी, धानुक और मेहतर, ब्राह्मण कुल की बेगार किया करते थे (द्वंद्व समास उर्फ कथा एक तिलिस्म की)। चमार जाति के लोग उच्च जाति के सामने चप्पल पहनकर नहीं निकल सकते थे। जमादारिन के साथ तो और भी बुरा हाल था। उसकी धोती भी यदि किसी से स्पर्ष हो जाये तो उसे क्रोध का सामना करना पड़ता था-

’’.............उनका पायजामा हवेली ड्योढी में झाड़ू लगाती-मेहतरानी बुढ़िया की धोती से छू गया था तो माँ ने हजार खरी-खोटी मेहतरानी बुढ़िया को सुनायी थीं कि वह होश में काम नहीं करती कि घर का कोई लड़का-बच्चा निकल रहा है तो उससे बचकर बनी रहने की सावधानी बरते!.....और उनके सारे कपड़े धुलवाये थे, उसे नहलवाया था सो अलग....’’10

हिन्दू-मुस्लिम सदभाव था। पाराशरजी के बेटे की तबियत खराब होने पर मंगलशाह ने उसकी देखभाल ही नहीं की वरन् अपना खून भी दिया।

’’और मंगलशाह ने खूून दिया था, पैसा दिया था और महीनों तक किसनू की तीमारदारी की थी। यही नहीं उसने रोज़-ब-रोज़ घबराते पाराशर जी की बाँह थामी थी।’’11

साम्प्रदायिकता के बीज भी लोगों के दिमाग में भरपूर फैले थे। ’भारत माता का अपमान नहीं सहेगा हिन्दुस्तान वाक्य में नहीं शब्द नशे में हिन्दू ही हटाते हैं लेकिन शक मुस्लिम बालक पर किया जाता है (फाँस)। अपनी दोस्ती को पूरी तरह निभाने वाले मंगलशाह गलती से पाराशरजी की चप्पल पहन जाते हैं तो पाराशर जी के मस्तिष्क में सम्प्रदाय पनपने लगता है।

’’उस समय क्रोध के मारे न मुझसे कुछ सुनते बना न कुछ कहते उसकी चप्पलें उतारकर उसे दे दीं, और चुपचाप रहा।.......ठीक रहा कि वह तत्काल चला गया यहाँ से, नही तो मेरे मुँह से कुछ निकल भी जाता!.........सोचा कि पहनने से पहले अच्छी तरह धोलूँ इन्हें रातभर म्लैच्छ के पैरों में रही है।.......’’12

लेखक ग्वालियर निवासी है और ग्वालियर में बड़ा मेला लगता है जो आर्थिक दृष्टि से ही नहीं सामाजिक व राष्ट्रीय स्तर से अपनी अलग पहचान रखता है। वहाँ सभी संस्कृतियों के दर्ष न होते हैं। कई तरह की दुकानें लगती हैं।

’’मेला बहुत बड़ा था। मेले में ट्रेड फेयर था। मेले में फनफेयर था। मेले में क्राफट बजार था। मेले में मौत का कुआ था। मेले में आइसक्रीम थी। मेले में बैरायटी शो था। मेले मैं सरकारी उपलब्धियों की प्रदर्ष नियाँ थी।.....’’13

लाल माटी गिले गोबर से आँगन लीपा जाता था। आँगन के खूँट उंगलियों से काढ़े जाते थे (बलि)। गर्मी की छुट्टियों में बच्चे पतंग उड़ातेे थे (चेहरे नदारद)। शौक कई तरह के होते हैं। रसिया गीत सुनने का तथा इत्र लगाने का शौक भी कई लोगों को होता है (खंडहर) कुछ लोग सारंगी बजाते थे-’’उनके पिता मशहूर सारंगी नवाज़ थे। जब वे अपना साज बजाते थे तो दुनिया को भूल जाते थे। उन्होेंने अपने खानदानी परंपरागत हुनर को आगे बढ़ाया था। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही संगीत परम्परा का हुनर! वे गाते भी बहुत सुर के साथ थे। 14

गाँव में एक अलग तरह का जलसा होता है रंडी नचवाने का। चौपाल पर यह कार्य होता है। बच्चों की टोली इस बात का ढिंढोरा पीट देती थी।

’’.....लोग बैठे थे। सांरगी और तबले बज रहे थे। रंडी नाच रही थी, गा रही थी और मंद-मंद मुस्करा रही थी सबके मनोंरजन के लिए।.......15

सच बोलना, अन्याय के खिलाफ लड़ना ऐसे लोग परेशानी में रहते हैं (बरअक्स)। तहसीलदार को उनकी गलती बताना गुनाह हो जाता है जिसका परिणाम झूठे आरोप के द्वारा भुगतना पड़ता है (द्वंद्व समास उर्फ कथा एक तिलिस्म की)। बुढ़िया के कराण दुकान में हुई हानि को भी लोग सहते हैं अभी इतनी इंसानियत बांकी है (बाजा़र में बाबू भाई)। ईमान अच्छा फल देता है। ईमानदार व्यक्ति की पदोन्नतियाँ जल्दी हो जाती हैं-

’’.....अपने विभाग में वे निहायत परिश्रमी और ईमानदार आदमी के रूप में पहचाने जाते थे। परिणामस्वरूप उन्हें पदोन्नतियाँ समय पर मिलती गयी थीं और आज उनके पास एक ठीक-ठीक सा घर था, गाड़ी थी, खुश-खुश गुजरती ज़िन्दगी थी और साथ में उनके दोस्तों-परिचितों की संदभावनाएँ थी।16

उनकी कहानियाँ में भोंकरी, बकुचिया, भोरारे, ब्यारू, छपरा, टुटल्ली खाट, भसभसी, लपटा, इल्ला, सनाका, खपरैल आदि शब्द आये हैं।

लोग हाथ जोड़कर नमस्ते करते हैं, चरणस्पर्ष करते हैं और पैर छूकर पालागन भी करते हैं। छोटी जाति के लोग जमीन छूकर पालागन करते हैं। नेता के स्वागत में लोग खड़े होकर भी अभिनंदन करते हैं।

अम्मां अब्बा, पापा, दादा, भाई रमेन्द्र भाई भुअन चौधरी, महाते, चिन्टू सेठ जैसे संबोधन भी हैं। लोग धाती कुर्ता, जीन्स बैगी, सिल्की तहमद, साफी सर्ट, कलफ लगे कुर्ते भी पहनते हैं। नेता का पहनावा अलग तरह का होता है।

’’श्वेत धवल-कलफदार खादी का चूड़ीदार पाजामा और कुरता पहना हुआ था। लोगों को लग रहा है-इंग्लैड कभी गया ही नहीं था। पोशाक का बड़ा महात्म्य होता है। फिर उसके माथे पर रोली का तिलक था, दायें हाथ में कलावा बंधा था, बाँये हाथ में एक तरह की बड़ी सी घड़ी पहने था। और पैरो में ’श्रीमंत’ राजाराव की ही तरह की काली चप्पलें।’’17

’’सामान्य व्यक्ति की वेशभूषा ही अलग तरह की होती है। मामूली पेंट पर खुली हुयी शर्ट। पैरों में चप्पलें । आँखों में चौड़ी कमानी का चश्मा और सिर पर मँझोले कद के खिचड़ी बाल।’’18

लोग रोटी दाल, अंगूर, पकौड़ी, बीड़ी तंबाखू खाते थे। शराब व गांजे का भी लोगों को शौक था। शिक्षित बेरोजगार नवयुवक खाली पड़े-पड़े शराब व गांजे का शौक पाल लेते थे-

’’....सबेरे उठकर अपने लिये अंग्रेजी या देसी दारू को एक पौवे का इंतजाम अवश्य कर लेते थे। गांजा-चिलम तो सभी की जरूरत थी-और दिनभर की जरूरत थी।19

संदर्भ सूची

7- राजेन्द्र लहरिया की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

स.क्र. कहानी - कहानी संग्रह -पृ. संख्या

1- विपर्यय - बरअक्स - पृ. - 7

2- वही पृ. - 75-76

3- दूसरा आदमी - युद्धकाल -पृ.-100

4- बरअक्स - बरअक्स -पृ.-4

5- उर्फ़ रावण - बरअक्स -पृ.-96

6- अपात्र - बरअक्सस- पृ.-44

7- विपयर्य- बरअक्स -पृ.-71

8- बरअक्स - बरअक्स -पृ.-3

9- द्वंद्व समास उर्फ़ कथा एक तिलिस्म की - बरअक्स-पृ.-117

10- खंडहर - युद्धकाल -पृ. - 117

11- दूसरा आदमी - युद्धकाल -पृ.-99

12- वही पृ.-101

13- चार बूढ़े - युद्धकाल -पृ.-89

14- नरभक्षी - युद्धकाल -पृ.-56

15- एक टूटा हुआ गीत - बरअक्स -पृ. - 101

16- संधि समय के आगंतुक - युद्धकाल -पृ.-54

17- बरअक्स - बरअक्स-पृ.-21

18- परदा - युद्धकाल -पृ.-86

19- फाँस - युद्धकाल -पृ.-27