ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 6 padma sharma द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 6

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 6

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

4. ग्वालियर संभाग में कहानी लेखन की पृष्ठभूमि

(अ) ग्वालियर ज़िले की साहित्यिक परम्परा एवं कथा लेखन

(ब) शिवपुरी ज़िले की साहित्यिक परम्परा एवं कथा लेखन

(स) दतिया ज़िले की साहित्यिक परम्परा एवं कथा लेखन

(द) गुना एवं अशोकनगर ज़िले की साहित्यिक परम्परा एवं कथा लेखन

5. कहानीकारों का सामान्य परिचय

1. महेश कटारे

2. प्रो. पुन्नीसिंह

3. राजनारायण बोहरे

4. प्रमोद भार्गव

5. लखनलाल खरे

6. निरंजन श्रोत्रिय

7. राजेन्द्र लहरिया

8. डॉं. कामिनी

9. अन्नपूर्णा भदौरिया

10. कुन्दा जोगलेकर

संदर्भ सूची

4- ग्वालियर संभाग में कहानी लेखन की पृष्ठभूमि

अ- ग्वालियर जिले की साहित्य परंपरा एवं कथा लेखन

ग्वालियर संभाग का भौगोलिक परिवेश असमतल है इसलिए यहाँ की मूल संस्कृति यद्यपि अपरिवर्तित है, फिर भी उसमें विविधता है। इस संभाग का राजनैतिक अतीत भी विविधता से युक्त रहा है। यद्यपि आज इस क्षेत्र में रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं तथापि पचास वर्ष पूर्व ऐसा नहीं था। यहाँ अतीत से लेकर आज तक एक बात समान रही है और वह है-दस्युयों का आतंक। अतीत में जहाँ मानसिंह, मलखान, माधौसिंह, मोहरसिंह, लुकमान और पुतलीबाई जैसों के साये से आतंक था तो आज हजरत रावत, रामबाबू गड़रिया व दयाराम गड़रिया के आतंक से इन संभागो की धरा भयभीत है जो अब कालातीत हो चुके हैं लेकिन नए दस्युओं का जन्म हो रहा है।

ग्वालियर संभाग के कथाकारों ने अपने धरातल से जुड़ी कहानियों का सृजन किया। अपने आसपास के परिवेश को अंगीकार करते हुए पात्रों की रचना की और उन्हें उन्हीं की भाषा प्रदान की। आगामी अध्यायों में इसका विस्तृत विवेचन किया जाएगा। कहानी को ’कहानी’ बनाने के लिए यह आवश्यक है कि कहानी में देश की जनता का जीवंत सम्पर्क तथा वहाँ की परिस्थितियों का निकटतम भाव हो। इसके साथ ही उसमें बिशय-वस्तु और शिल्प-विधान की सज्जा के साथ-साथ जनजीवन की बहुलता तथा जन-जीवन की वास्तविक संवेदनाएं चित्रित होनी आवश्यक है। यहाँ के कहानी लेखकों ने अपनी कहानियों में ईमानदारी से इस बात का प्रयास किया है और जन-जीवन की वास्तविक संवेदनाओं का चित्रण अपनी कहानियों में किया है। उन समस्याओं को भी सूक्ष्म और स्थूल रूप से चित्रित किया है, जो इस क्षेत्र के जन-जीवन में व्याप्त है।

वस्तुतः जीवन ही समस्त साहित्य की धुरी है, अतः कहानीे और जीवन का सम्बन्ध अन्योनाश्रित है। जीवन का प्रतिबिम्ब कहानी है और कहानी में जीवन प्रतिबिम्बित होता है। चमत्कार, बुद्धिवाद अथवा अंधानुकरण किसी कहानी को सौंदर्य प्रदान नहीं कर सकता। कहानी की उत्कृष्टता के लिए जीवन की गहन वास्तविक अनुभूतियों का समावेश कहानीकार में होना आवश्यक है और ग्वालियर संभाग की धरा पर लिखी गयी कहानियाँ जीवन की गहन वास्तविक अनुभूतियों से सम्पृक्त हैं।21

प्रारंभ से ही ग्वालियर संभाग की साहित्यिक परम्परा अत्यन्त समृद्ध रही है। संस्कृत और अपभ्रंश में इस क्षेत्र में पर्याप्त ग्रंथों की रचना हुई। इस अंचल की साहित्यिक परम्परा की श्रीवृद्धि में जैन कवियों का अप्रतिम योगदान रहा। जैनाचार्य नयचन्द्र सूरि ने अपने पितामह जयसिंह सूरि से काव्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इन्होंने संस्कृत में ’हम्मीर महाकाव्य’ की रचना की थी, जिसमें 14 सर्ग हैं और भिन्न-भिन्न छन्दों में निबद्ध 1572 श्लोक हैं 1 जैन मुनियों और महामुनियों के निकट सम्पर्क ने ग्वालियर को सुदूर गुजरात तक की पिछली छह सात शताब्दियों की साहित्य-साधना के निकट ला दिया। गुप्तों के काल से कच्छपघातों के राज्य तक की बैष्णव एवं शैव परंपरा तो इसे प्राप्त थी ही, संस्कृत से भी संपर्क था। अब अपभ्रंश साहित्य से भी ग्वालियर का निकट सम्बन्ध हो गया। डूंमरेन्द्र सिंह और कीर्तिसिंह तोमर महाराजाओं के काल में यह सम्पर्क बहुत अधिक बढ़ गया। ग्वालियर और स्वर्णगिर (सोनागिरि, जिला दतिया) के जैन मंदिरों में स्वयंभू और पुष्पदत्त जैसे महान् जैन लेखकों के ग्रंथ आने लगे। स्वयंभू रचित पद्म-चरित्र (पद्मचरित-रामायण) की सबसे प्राचीन प्राप्त प्रति सन् 1464 ई. में ग्वालियर में उतारी गयी थी। स्वयंभू के ही हरिवंशपुराण का उद्धार भी ग्वालियर में यशःकीर्ति द्वारा किया गया था।22

इस प्रकार ग्वालियर में साहित्यिक परम्परा को प्रारम्भ करने का श्रेय जैन कवियों को जाता है। तोमर राजा वीरसदेव के काल में उनके जैन मंत्री कुशराज के आश्रित पद्मनाभ कायस्थ ने ’यशोधरचरित’ की रचना की। कल्याण सिंह तोमर (सन् 1479 से 1486) ने ’अनंगरंग’ कामशास्त्रीय ग्रंथ का प्रणयन सन् 1481 ईं. में संस्कृत में किया।

तोमर नरेश डंूगरेन्द्र सिंह (सन् 1425-1459 ई.) केे शासन काल में काव्यकला का अत्यधिक संवर्द्धन हुआ। इन्हीं के शासनकाल में महान् जैन कवि रद्धू ने अपभ्रंश में लगभग पच्चीस गंथों का प्रणयन किया जिनमें - सुकौशल चरित, धनकुमारचरित, पद्मपुराण, मेधेश्वर चरित्र, श्रीपाल चरित्र व सन्मतिजिन चरित्र प्रमुख हैं। उनके अतिरिक्त अन्य जैन कवियों ने भी संस्कृत एवम् अपभ्रंश में काव्य-सृजन किया।23

ग्वालियर-चम्बल सम्भाग का प्रथम भाव काव्य ’महाभारत कथा’ एवं देसी भाषा के प्रथम कवि विष्णुदास ठहरते हैं। विद्वान् भी इस तथ्य को अब स्वीकार करने लगे हैं। विष्णुदास द्वारा विरचित अनेक ग्रंथ बताये जाते हैं, इनमें महाभारत कथा के अतिरिक्त स्वर्गारोहण, रूक्मिणी मंगल, सनेहलीला एवम् वाल्मीकि समागम भाषा है। इनका लिखा हुआ एक और गद्य गं्रथ - ’एकादशी माहात्म्य’ है। इस ग्रंथ की उपलब्धि पर हिन्दी गद्य के विकास के इतिहास पर नया प्रकाश पड़ेगा।24

राजा मानसिंह तोमर के शासन काल में काव्य-कला के साथ-साथ अन्य कलाओं विशेष रूप से संगीत को अत्यधिक प्रोत्साहन प्राप्त हुआ और संगीत संबंधी अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया गया। राजा मानसिंह ने ग्वालियर में संगीत विद्यालय की स्थापना की जिसमें महान् संगीतज्ञ तानसेन के अतिरिक्त अनेक संगीत-विद्या से लाभान्वित हुए। राजा मानिंसह तोमर के समय में अनेक कवि हुए जिनमें से कुछ राज्याश्रित थे और कुछ राज्य द्वारा प्रोत्साहित। यद्यपि संस्कृत और अपभ्रंश में काव्य-रचना का समय इस काल तक प्रायः व्यतीत हो चुका था और काव्य-रचना का माध्यम’ ’देसी भाषा’ बन गया था। महाराज डंूगरेन्द्र सिंह तोमर(सन् 1425-1459) के शासनकाल में विष्णुदास ने देसी भाषा में काव्य-प्रणयन का सूत्रपात कर दिया था। नारायणदास और दामोदर भी क्रमशः ’छिताई चरित’ और ’बिल्हणचरित’ लिख चुके। इसी क्रम में चतुर्भुज निगम भी ’मधु मालती’ - आख्यान काव्य लिख चुके थे। राजा मानसिंह के समय हिन्दी ग्रंथ प्रचुर मात्रा में प्रतीत हुए। इन ग्रंथों में मेघनाथ का ’गीता का भाष्य’ एवं मानिक कवि की कृति ’बैताल पच्चीसी’ प्रमुख हैं। स्वयं राजा मानिसंह ने ’मानकुतूहल’ ग्रंथ की रचना की थी।25 मानकुतूहल संगीत ग्रंथ है। नायक बैजू ने भी कुछ पदों की रचना की थी। ग्वालियर के पास आँतरी ग्राम में जन्मे स्वामी हरिदास संगीतज्ञ के साथ-साथ ’सुकवि भी थे’ ’’भक्त नाभादास’’ ग्वालियर में सन् 1500 ई. के लगभग जन्मे थे और यहीं इन्होंने भक्तमाल की रचना की थी। ’’प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन ने भी कुछ पदों व गं्रथों की रचना की थी।26

चौदहवीं-पंद्रहवी शताब्दी में हिन्दी का स्वरूप तैयार हो रहा था। हिन्दी के इस क्षेत्र में प्रचलित तीनों रूप - ब्रज, बुन्देली एवं राजस्थानी इस स्वरूप निर्धारण में सहयोग कर रहे थे। हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में इसका रूप प्रायः निखर सा गया था। रीतिकाल में ग्वालियर क्षेत्र में यद्यपि अनेक रचनाकार कवि- कर्म में संलग्न थे पर इनका श्रेष्ठ प्रतिनिधित्व किया - बिहारी ने। उनकी सात सौ से अधिक दोहों की ’बिहारी सतसई’ ग्वालियर क्षेत्र के साहित्य इतिहास का वस्तुतः स्वर्णिम पृष्ठ है।

रीतिकाल में ही बांदा(उत्तर प्रदेश) में जन्मे कवि पद्माकर को ग्वालियर नरेश दौलतराव सिंधिया ने अपने दरबार में सम्मानित किया था। पद्माकर वर्षों तक सिंधिया-दरबार में रहे थे। यहाँ इन्होंने अनेक कविताओं व रचनाओं का प्रणयन किया था। पद्माकर ने दतिया में भी निवास किया इसके प्रमाण प्राप्त हुए हैं उनके पूर्वजों के मकान में वर्तमान में श्री आर. के.ढेंगुला पूर्व शिक्षा अधिकारी, दतिया निवासरत हैं। पद्माकर को रीतिकालीन परम्परा का अंतिम कवि माना जाता है। इस समय तक देश में पर्याप्त परिवर्तन हो चुके थे और हो रहे थे। साहित्य-सृजन पर इस परिवर्तन का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था और पड़ा भी।

आधुनिक काल में यद्यपि हिन्दी साहित्य का पर्याप्त विस्तार एवं विकास हुआ परन्तु इसका प्रारंभिक स्वरूप प्राचीन ही रहा। ’’आधुनिक युग में पुरानी पीढ़ी में प्रोफेसर रमाशंकर शुक्ल ’हृदय’, डॉं. सुधीन्द्र, जगन्नाथ प्रसाद मिश्र ’उपासक’ चन्द्रिका प्रसाद मिश्र, रूद्रदत्त मिश्र, विजयगोविन्द द्विवेदी ने उत्कृष्ट प्रबंध काव्य लिखे। दूसरी पीढी़़ के कवियों में रामस्वरूप पथिक, घनश्याम कश्यप, आजाद रामपुरी, रामप्रकाश अनुरागी, महेश अनघ, देवेन्द्र राही ने प्रबंध काव्य की कृतियाँ रची हैं। गीतकारों में ठाकुर प्रसाद शर्मा, रूद्रदत्त मिश्र पुरानी पीढ़ी के हुए हैं जबकि दूसरी पीढ़ी में देवेन्द्र नारायण वर्मा, शिवनारायण ’सुयोगी’ उद्धव कुमार कौशल, वचन श्रीवास्तव, मोहनअम्बर, शत्रुध्न दुबे, डॉं. श्याम सलिल, रजनी मिश्र, भूदेव शर्मा शैल श्रीवास्तव उल्लेखनीय गीतकार है। अन्य गीतकार हैं - प्रदीप जोशी ’मधु’ राजकुमारी रश्मि, दामोदर शर्मा, रामप्रकाश अनुरागी, तारसिंह गहलोत, डॉं. साहू सौरभ, डॉं. माधुरी शुक्ल, राजेश शर्मा, शरद चौहान, उपेन्द्र विश्वास और प्रदीप पुष्पेन्द्र। नवगीतकारों में जहीर कुरैशी, महेश अनघ चर्चित नाम है। नयी कविता में डॉं. महेन्द्र भटनागर, प्रो. प्रकाश दीक्षित, रामसेवक दीपक, डॉं. जगदीश ’सलिल’ शैवाल सत्यार्थी, डॉं. भगवानस्वरूप चैतन्य, प्रकाश वैश्य ’प्रेमी’, पुरानी पीढ़ी के कवि हैं। ’’वीरेन्द्र मिश्र, मुकुटबिहारी ’सरोेज’, आनन्द मिश्र व सुमनजी ने पुरानी पीढ़ी में राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की।27

हिन्दी गद्य के अंतर्गत कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, एकांकी, समीक्षा आदि विधायें परिगणित हैं। इन समस्त विधाओं में ग्वालियर क्षेत्र में कार्य हुआ है। पुराने लेखकों में प्रेमचन्द कश्यप ’सोज’, प्रकाश दीक्षित, नारंग बोेडस, राम जोगलेकर, राजकुमार अनिल, डॉं. कमल वशिष्ठ, डॉं. शिव बरूआ व जगदीश दीक्षित के उल्लेखनीय नाम है।। नाटकों के क्षेत्र में जगन्नाथ प्रसाद मिश्र और हरीकृष्ण ’प्रेेमी’ ने अपनी राष्ट्रीय छवि स्थापित की। कथा साहित्य में प्रो. रामचन्द्र श्रीवास्तव ’चन्द्र’ शंभूनाथ सक्सेना, डॉं. महेन्द्र भटनागर, महेन्द्र मुकुल, डॉं. कोमलसिंह सोलंकी आदि के नाम उल्लेख्य हैं।

समीक्षा व निबंध यद्यपि इस क्षेत्र में कम लिखे गये फिर भी डॉं. कृष्णचन्द्र वर्मा, डॉं. पूनमचन्द्र तिवारी, लक्ष्मण सहाय, डॉं. राद्याबल्लभ शर्मा, डॉं. दिवाकर विधालंकार आदि ने समीक्षा एवं निबंध के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य किया है।

ग्वालियर संभाग में महेश कटारे, महेश अनघ, डॉं. अन्नपूर्णा भदौरिया, गोपाल चौरिसया, जगदीश दीक्षित, हरीश पाठक, राजेन्द्र मंजुल, कुंदा जोगलेकर, डॉ. पद्मा शर्मा, जगदीश तोमर, रामप्रकाश अनुरागी, एःअसफल राजनारायण बोहरे, लखनलाल खरे, निरंजन श्रोत्रिय, प्रमोद भार्गव आदि वर्तमान समय में कथा साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं।

ब- शिवपुरी जिले की साहित्यिक परम्परा व कथा लेखन

’ढोला-मारू-रा’ ग्रंथ का हिन्दी साहित्य इतिहास में विशिष्ट स्थान है। यद्यपि इसका सृजन इस जिले की भूमि पर नहीं हुआ परन्तु इसके कथानक के पात्रों का संबंध इस जिले में स्थित नरवर से है।

जदुनाथ कवि द्वारा विरचित ’जंगजस’ और खाण्डेयराय रासो’ अब तक ज्ञात गं्रथों में सर्वप्रमुख हैं और 17 बीं शताब्दी में रचित इन वीरकाव्य गं्रथों से शिवपुरी जिले की साहित्यिक परम्परा का सूत्रपात होता है। ’जंगजस’ का रचनाकाल सन् 1748 है। ये गं्रथ, ’खाण्डेरायरासो’ के कथानायक खाण्डेराय की 14 वी पीढ़ी के वर्तमान वंशज श्रीरामसिंह वशिष्ठ (स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी) शिवपुरी के पास सुरक्षित थे।28 कवि कवीन्द्र का जन्म सन् 1703 के आसपास नरवर में हुआ था। इन्होंने राीतिकालीन परिपाटी पर नायिका-भेद से संबंधित कृति की रचना की थी। नरवर के महाराज रामसिंह ने भी रसनिवास एवं रसविनोद दो ग्रंथों की रचना की थी जिनका प्रणयन काल क्रमशः सन् 1782 व सन् 1803 है।29

आधुनिक काल में शिवपुरी के प्रथम कवि के रूप में श्री घासीराम जैन ’चन्द्र’ का नाम लिया जाता है इनका जन्म तो गुना ज़िले की अशोकनगर तहसील ग्राम नई सराय में सन् 1911 में हुआ था। परन्तु 1940 से ये शिवपुरी में रहने लगे थे। इन्होंने प्रायः आठ ग्रंथों का प्रणयन किया। चन्द्रजी के अनुज श्री नेमीचन्द जैन गोंदवाले भी अच्छे कवि थे। मध्यभारत के इतिहास-लेखन के पितामह श्री हरिहर निवास द्विवेदी का जन्म इसी ज़िले के दिनारा में सन् 1911 में हुआ था। ’यद्यपि इनकी कर्मभूमि ग्वालियर रही है। इन्होंने इस क्षेत्र के प्रामाणिक इतिहास का तो लेखन किया ही, प्राचीन और मध्यकालीन ग्रंथों का भी संपादन किया। डॉं. राधेश्याम द्विवेदी की तीन कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। ये भी इसी धारा के कवि हैं। कानून की अनेक पुस्तकें भी इन्होंने लिखी हैं।

सन् 1962 में प्रो. रामकुमार चतुर्वेदी चंचल, सन् 1963 में डॉं. परशुराम शुक्ल ’विरही’ एवं इसके उपरान्त प्रो. विद्यानंदन ’राजीव’ के शिवपुरी महाविद्यालय में पदांकनोपरान्त ही कविता के क्षेत्र में प्रसिद्धि फैलने लगी। सातवे दशक में उपर्युक्तों के अतिरिक्त स्व इनायत अली खां ’डालडा’, स्व. मुरारीलाल विरमानी, स्व. किशन सिसौदिया, स्व. रामचरणलाल दण्डोतिया, हरि उपमन्यु, हरीशचन्द्र भार्गव, कमलकांत सक्सैना, रफत अधीर, अशोक निर्मल, नासिर अफगानी, आफताब आलम आदि ने कविता एवं उर्दू गज़ल को ऊंचाईयाँ प्रदान की। आठवे-नबे दशक में अरूण अपेक्षित, दिनेश वशिष्ठ आदि ने साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना की और साहित्य सृजन किया। वर्तमान में बज्मे उर्दू के ज़हूर अहमद ज़हूर, प्रो. चन्द्रपाल सिंह सिकरवार, इशरत ग्वालियरी, डॉं. अजय ढींगरा, सत्तार शिवपुरी, सुकून शिवपुरी, रघुनन्दन झा ’नदीम’, प्रगतिशील लेखक संध के श्री भूपेन्द्र विकल, डॉं पद्मा शर्मा, अखलाक खा, राजेश श्रीवास्तव व राकेश टण्डन आदि, लेखक संघ म.प्र. के डॉं. एच. पी. जैन, सुधीर बाबू पाण्डेय, डॉं. महेन्द्र अग्रवाल, कुमारी शैला अग्रवाल, डॉं. के. के. जैन, नरेन्द्र ंिसह सिसौधिया, विनय प्रकाश जैन ’नीरव’, प्रकाश नारायण शुक्ल तथा गोविंद अनुज आदि। साहित्य-सृजन में संलग्न है।। आलोक इंदौरिया व कुमार श्रीनाथ भी अच्छा लिख रहे है। शिवपुरी ज़िले में भी अनेक साहित्य सेवी सक्रिय हैं। इनमें करैरा के पहाड़ी श्री घनश्याम योगी, चन्द्रप्रकाश श्रीवास्तव, सतीश श्रीवास्तव, डॉं. ओमप्रकाश दुवे, प्रमोद भारती, रामस्वरूप राठी आदि, पोहरी के शकील नश्तर, मुन्नालाल शुक्ल आदि पिछोर के अनिल मेहन्दले कोलारस में म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन व कादम्बिनी क्लव संस्थाओं द्वारा स्व. डॉं. जी.एल. जैन, श्री चिन्तामणि जैन, राधेश्याम भार्गव, शैलेन्द्र रायजादा, डॉं. लखनलाल खरे, डॉं. योगेन्द्र शुक्ल, हरिवल्लभ श्रीवास्तव, राधामोहन समाधिया, संजय मिश्रा, रतन, राजकुमार श्रीवास्तव, मोहम्मद नईम सिद्धिकी, संतोष गौड़ और श्रीकृष्ण गोयल अपने कविकर्म का सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।30

इस ज़िले में पद्य की अपेक्षा गद्य कम ही लिखा गया। आलोचना के क्षेत्र में ख्यात डॉं. परशुराम शुक्ल ’विरही’ का नाम संभवतः एकमात्र है। जिले के कोलारस में जन्मे रामकुमार भ्रमर ने डाकू जीवन की कहानियाँ लिखकर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। इन्होंने कालान्तर में ग्वालियर फिर दिल्ली को अपना कर्मक्षेेत्र बनाया। स्व. मदनमोहन भाटी उपन्यासकार के रूप में चर्चित रहे। शिवपुरी के रमेशवंशी और बसन्तुकुमार जैन सफल कहानीकार रहे हैं। प्रो. पुन्नी सिंह यादव, अरूण अपेक्षित एवं प्रमोद भार्गव, चुन्नीलाल सलूजा, डॉं. पद्मा शर्मा, सुधीरबाबू पाण्डे, कुमार श्रीनाथ, भूपेन्द्र विकल आदि भी कहानी के क्षेत्र में योगदान दे रहे हैं। पिछोर के स्व. रामनाथ नीखरा तो उपन्यास व कहानी के क्षेत्र में इस ज़िले के पितामह रहे हैं। करैरा के सुरजीत सिंह सैनी एवं कोलारस के डॉं. लखनलाल खरे भी अच्छी कहानियाँ लिख रहे है। प्रो. पुन्नीसिंह, प्रमोद भार्गव, लखनलाल खरे एवं पद्मा शर्मा कथा साहित्य के क्षेत्र में अनेक स्थानों से पुरस्कृत एवं सम्मानित हो चुके हैं। ओमप्रकाश शर्मा, जाहिद खान एवं अखलाक खान आलोचना के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। लखनलाल खरे एवं पद्मा शर्मा भी समीक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं।

स- दतिया जिले की साहित्यिक परंपरा एवं कथालेखन

बुन्देलखण्ड के मूल स्वरूप को धारण करने वाला किन्तु वर्तमान मेेें ग्वालियर संभाग में परिगणित किया गया दतिया ज़िला साहित्यिक परम्परा की दृष्टि से समूचे ग्वालियर चंबल संभाग में सर्वोपरि है। यद्यपि ’’दतिया का सर्वप्रथम उल्लेख वीरसिंह देव चरित’ में मिलता है। उस समय दतिया सत्ता का केन्द्र नहीं थी। दतिया के समीप बड़ौनी को अपनी गतिविधियों का आश्रय बनाकर वीरसिंह जूदेव स्वतंत्र संघर्ष कर रहे थे। वीरसिंह देव के पुत्र भगवान राव ने 20 अक्टूबर, 1626 ई. को पृथक् दतिया राज्य की स्थापना की। बुन्देलखण्ड की इस गणनीय रियासत पर देश के स्वतंत्र होने तक निरन्तर बुंदेला नरेशों की 10 पीढ़ियों ने शासन किया। वीरसिंह ने जिस साहित्यिक परम्परा को ओरछा में पोशित किया था। उसी परम्परा को उनके पुत्र भगवानराय ने भी दतिया रियासत में पल्लवित पोषित किया’’।31 - स्पष्ट है कि दतिया का साहित्यिक इतिहास सन् 1626 के पश्चात प्रारंभ होता है। दतिया ज़िले के सेंवढ़ा में महात्मा अश्वर अनन्य ने भक्ति - वैराग्यपरक रचनाओं का प्रणयन उस समय किया, जब हिन्दी साहित्य इतिहास-काल में श्रंृगार का रस-वर्षण हो रहा था। इस समय से लेकर आधुनिक काल तक के काव्य-सेवियों की सूची पर्याप्त विस्तृत है। श्री कामता प्रसाद सड़ैया ने अक्षर-अनन्य से लेकर वलवीर सिंह फौजदार तक प्राचीन कवियों की सूची प्रस्तुत की है। उनमें कृष्णदास, पृथ्वीसिंह ’रसनिधि, गोविंद मिश्र, खण्डन कायस्थ, हरिकेश द्विज, कुमारमणि, जोगीदास भट्ट, शत्रुजीतसिंह, शिवप्रसाद अम्बुज, बाजूराय (सेंवढ़ा), बैजनाथ भौंड़ेले, परतीतराय कायस्थ, राजकुंवरि, श्रीधर, गदाधर भट्ट, गौरीशंकर ’कवीन्द्र’, प्रेमकुंवरि, हीरासखी एवं ब्रजभूषण गोस्वामी के नाम उल्लेखनीय हैं।

आधुनिक काल में शम्भूदयाल श्रीवास्तव ’ब्रजेश’, बासुदेव गोस्वामी ’उपेन्द्र’, लक्ष्मीनारायण ’पथिक’, चतुर्भुज द्विवेदी ’चतुरेश’ रामभरोसे पाठक, भैयालाल व्यास, श्यामसुन्दर ’श्याम’ अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव, अवधकिशोर सक्सैना व घनश्याम सक्सैना के उल्लेखनीय नाम हैं।32 प्रमोद अश्क, शफीउल्ला कुरैशी, वकार सिद्दीकी, साबिर घायल, हरिराम पहारिया, राज गोस्वामी, जगदीशशरण बिलगैंया, रवि ठाकुर, श्याम बिहारी श्रीवास्तव, रामस्वरूप स्वरूप, रामस्वरूप सैन ’रसिक’, रूपनारायण रूपम, हरिसिंह हरीश आदि अन्य कवि हैं।

दतिया ज़िले में गद्य की सभी विधाओं में लेखन-कार्य हुआ है। हरिमोहन लाल श्रीवास्तव, डॉं. रामस्वरूप ढेंगुला, स्व. राधाचरण गोस्वामी, रामभरोसे पाठक, स्व. वासुदेव गोस्वामी, श्रीराम वर्मा, बाबूलाल पटैरिया, डॉं. के. बी. एल. पाण्डेय, डॉं. एन. एम. लाल, कामता प्रसाद सड़ैया प्रभृति लेखकों ने इतिहास, धर्म, दर्ष न, राष्ट्र, समाज, संस्कृति, पुरातत्व आदि समस्त विषयों को कहानी, उपन्यास, नाटक एकांकी व निबंधों में समाहित किया है।

व्याकरण के क्षेत्र में दतिया ज़िले में एकमात्र कार्य किया है संेंवढ़ा के डॉं. सीताकिशोर खरे ने। इन्होंने समीक्षा के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट कार्य किया है। डॉं. खरे वरिष्ठतम साहित्यकार हैं। ये गद्यकार के अतिरिक्त पद्यकार भी हैं।

कहानियों के क्षेत्र में राजनारायण बोहरे एवं रामगोपाल भावुक के नाम उल्लेखनीय हैं। राजनारायण बोहरे अपनी कहानियों के लिए चर्चित हैं और पुरूस्कृत हुए हैं। उनकी कहानियाँ जमीन से जुड़ी यथार्थवादी कहानियाँ हैं उन्होंने कहानी के क्षेत्र में अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है। महिला कथाकार के रूप में सेंवढ़ा की डॉं. कामिनी ने पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त की है। डॉं. कामिनी के अब तक तीन कथा संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी कहानियाँ इसी देश-समाज की विभिन्न घटनाओं को प्रतिबिंबित करती हैैं परन्तु अपने सर्वथा मौलिक भाव-शिल्प के साथ।

द- गुना एवं अशोकनगर जिले की साहित्यिक परम्परा एवं कथा लेखन

गुना जिले की साहित्यिक परम्परा यद्यपि अत्यन्त प्राचीन है किन्तु उसकी जानकारी शनैः-शनैः अपना अस्तित्व खोती जा रही है। 10 वीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी ई. तक सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में शैव केन्द्र स्थापित हो गये थे और कई स्थानों पर शैवाचार्यों के मठ भी स्थापित हुए। इन मठों में से गुना जिले के सेरठी, कदवाहा (कदम्बगुहा) व तुमैन के मठ प्रमुख हैं। इनके पास ही अरणिपद्र्र (रन्नौद) का शैव-मठ है। इन मठों मे शैवाचार्य काव्य, दर्ष न तथा शैव - सिद्धांत के तत्वों के साथ अन्य धर्मों के दार्ष निक लक्षणों का भी पठन-पाठन करते थे। इन शैवाचार्यों में से कुछ ने उत्तम ग्रंथों की रचना की है। अरणिपद्र मठ के व्योम शिवाचार्य ने वैशेषिक सूत्र के प्रशस्त पाद भाश्य पर व्योमवती नामक टीका लिखी उस भाश्य पर उपलब्ध टीकाओं में यह प्राचीन मानी जाती है। शैवाचार्य हृदय शिव ने ’प्रायश्चित समुच्चय नैमेत्तिक क्रियानुसंधान’ और ’प्रतिष्ठा दर्पण’ की रचना की थी।33

यद्यपि उपर्युक्त परम्परा संस्कृत-साहित्य की है, तथापि यह निश्चित है कि इस जिले में साहित्य-सृजन की परिपाटी अत्यन्त प्राचीन रही है। हिन्दी में साहित्य प्राप्त था, कतिपय राजा, जो साहित्यानुरागी होते थे, वे स्वयं कविता करते थे।

राधोगढ़ राज्य की स्थापना राजा लालसिंह द्वारा सन् 1677 ई. में की गयी थी। ये गागरोनगढ़ राजवंश के वंशज थे और चौहान खीचीं राजपूत थे। इसी वंश में महान् पीपाजी हुए हैं, जो कबीर के समकालीन थे।34 राधौगढ़ राज्य में अनेक राजकवि थे, जिन्होंने साहित्य की श्री वृद्धि की। चंदेरी के राजा देवीसिंह (सन् 1630 - 1663) ने देवीसिंह विलास, नृसिंह लीला एवं रहस्य लीला ग्रंथों की रचना की। चंदेरी के ही प्रसिद्ध संगीतज्ञ बैजनाथ (बैजू बाबरा) ने अनेक राग-रागनियों में निबद्ध पदों की रचना की।35 चंदेरी के ही संत निपट निरंजन (जन्म सन् 1623) ने शान्त सूरसी तथा निरंजन संग्रह नामक ग्रंथों की रचना की 1736 में समाधि ली।36 इस क्षेत्र में भक्तिकालीन और राीतिकालीन अनेक काव्य ग्रंथ रचे गये।

आधुनिक काल में गुना ज़िले में साहित्य लेखन पर्याप्त पल्लवित-पुष्पित हुआ। गद्य और पद्य दोनों में साहित्यकारों ने पर्याप्त लेखन किया। ईसागढ़ निवासी भागचन्द्र जैन ने सन् 1850 ई. में नैमपुराण की कथा वचनिका की रचना की थी जिसमें नैमिनाथ जी का जीवन-चरित्र अंकित है। श्री जैन के अन्य ग्रंथों में उपदेश-सिद्धान्त, रत्नमाला ग्रंथ की बचनिका औैर श्रावकाचार में भी गद्य मिलता है।

आधुनिक काल के भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग के अनेक सहित्यकार गुना, अशोकनगर, ईसागढ़, आरौन, बजरंगगढ़, चाचौंड़ा, चंदेरी एवं मुंगावली आदि स्थलों पर हुए हैं। मुंगावली में जन्मे श्री गणेशशंकर विद्यार्थी की निर्भीक पत्रकारिता एवम् बलिदान से यह ज़िला गौरवान्वित है। मध्यभारत के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री गोपीकृष्ण विजयवर्गीय भी अच्छे लेखक रहे हैं। श्री हरिकृष्ण विजयवर्गीय का नाम नाटक-लेखन में अग्रपंक्ति में लिया जाता हे। नाटक-साहित्य-संसार में ये ’हरिकृष्ण प्रेमी’ के नाम से विख्यात रहे हैं’’। छायावादोत्तर कालीन प्रेमीजी के नाटकों में आहुति, स्वप्नभंग विषपान, सांपों की सृष्टि आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इन नाटकों में मध्यकालीन इतिहास का सुन्दर एवम् सार्थक चित्रण है।

प्रयोगवादी कविता एवं प्रथम तारसप्तक के कवि गिरिजाकुमार माथुर का जन्म अशोकनगर में हुआ था। मंजीर, नाश और निर्माण, धूप के धान तथा शिलापंख चमकीले इनके प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं। डॉं. श्रीकृष्ण ’सरल’ के नाम राष्ट्रभक्तों पर सर्वाधिक महाकाव्य लिखने का कीर्तिमान है। सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, बिस्मिल आदि शहीदों की अमर गाथायें इनके महाकव्यों की विषय वस्तु हैं। यह बात और है कि श्री गिरिजाकुमार माथुर एवं डॉ. श्रीकृष्ण सरल की जन्मस्थली गुना जनपद होते हुए भी कर्मस्थली क्रमशः दिल्ली एवं उज्जैन रही। गुना एवं अशोकनगर जिले ने गणेश श्ंाकर विद्यार्थी, गिरिजाकुमार माथुर एवं श्रीकृष्ण सरल जैसे अनेक साहित्यकारों को जन्म दिया, जिन्होनें देश व प्रदेश के अन्य भागों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया।

वर्तमान समय में अनेक सृजन धर्मी साहित्य सृजन का कार्य गुना जिले में कर रहेे हैं। इनकी सूची पर्याप्त विस्तृत है। परन्तु उन सब का उल्लेख करना स्थानाभाव के कारण समीचीन नहीं हैं। इन रचनाकारों में गुना के - के. के. सिन्हा, यशपालसिंह ’पथिक’, अवंतीलाल माथुर, डॉ. रहबर, मिश्रीलाल जैन, कमर गुनाबी, विष्णु साथी, डॉ. हरकान्त ’अर्पित’, डॉ. लक्ष्मीनारायण ’शोभन’, नरेन्द्र चंचल, कैलाश श्रीवास्तव, रामभरोसे कुंतल, डॉ. सतीष शाकुंतल, निरंजन श्रोत्रिय, नूरूल हसन ’नूर’, डॉ. प्रणवपुष्प कम्ठान, श्रीमती कृष्णा लहर, अनिरूद्धसिंह सेंगर आदि, राधौगढ़ के महेश बोहरे, डॉ. राधावल्लभ शर्मा, जे.पी, द्विवेदी, दिनेश रावत आदि, चाचौड़ा के शशिनाथ मिश्र, चंदेरी से वीरेन्द्र निरंकुश, मुकेश वफा, अशोकनगर से साहू मधुप, रामसेवक सोंनी, भारतभूषण भटनागर, सुमन सेठ, कुमार अम्बुज, हरिओम राजौरिया, संजय माथुर, सुरेन्द्र रघुवंशी, अभिशेक तिवारी एवं आरौन से गजानन्द शुब्द, लक्ष्मीनारायण ’वशिष्ठ’ व गुलजार भाई प्रभृति रचनाकार साहित्य-सृजन में अपना योगदान कर रहे हैं।

गुना ज़िले में गद्य-विधाओं में पर्याप्त लेखन हुआ है। इस ज़िले की गद्यलेखन-परम्परा भी अत्यन्त प्राचीन है ओर जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि ईसागढ़ के श्री भागचन्द्र जैन इस ज़िले मे गद्य-लेखन के जनक रहे हैं। कहानीकारों के रूप में रामकृष्ण भास्कर ताम्बे, कोमलसिंह सोलंकी, नारायण श्यामराव चिताम्बरे, रमेश भार्गव ’उद्गम’ व राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ आदि अत्यन्त चर्चित रहे हैं। वर्तमान समय में निंरजन श्रोत्रिय, प्रभाकर श्रोत्रिय, श्यामलाल विजयवर्गीय आदि कहानी व उपन्यास-लेखन कर रहे हैं। रूठियाई ग्राम के ठाकुर नरेन्द्रसिंह ने तंत्र-मंत्र पर आधारित उपन्यास व कहानियाँ लिखी हैं। इनका ’कपालपात्र’ उपन्यास अत्यत चर्चित रहा है। रमेश वक्षी भी कहानियों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहे हैं। डॉ. गंगासहाय प्रेमी कहानी, आलोचना तथा कोश के लिए विख्यात हैं। श्यामनारायण विजयवर्गीय के एक दर्जन उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें राजश्री, संकल्प, परिणति, सपना, नींव के पत्थर आदि अत्यन्त चर्चित रहे हैं।37

इस प्रकार गुना जिले की साहित्यिक पृष्ठभूमि अत्यन्त समृद्ध है।

5. कहानीकारों का सामान्य परिचय

1- महेश कटारे

ग्वालियर चम्बल सम्भाग के वर्तमान कथाकारों में महेश कटारे का नाम सर्वोपरि है। इनका जन्म 14 जनवरी 1948 में ग्वालियर जिले के बिल्हैटी गाँव में हुआ था। पिता का नाम पं. रामगोपाल कटारे और माँ का नाम श्रीमती पार्वती देवी था। उन्होनें स्नातकोत्तर हिन्दी, संस्कृत एवं राजनीतिशास्त्र में किया। वे छात्र नेता भी थे उनकी रूचि बचपन से ही लेखन कार्य में रही है। गद्य साहित्य की कहानी विधा ने इन्हें अपनी ओर आकर्षित किया और वे कहानी लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। बी. एड. की शिक्षा प्राप्त करते समय साप्ताहिक समाचार पत्र (सं. सुरेश सम्राट) द्वारा आयोजित तात्कालिक कहानी प्रतियोगिता में ’उपहार’ कहानी पुरस्कृत हुयी, जो कटारे जी की प्रथम कहानी थी।

कृतित्व कहानी संग्रह

01- समर शेष है

02- इति कथा अथ कथा

03- मुर्दा स्थगित है

04- पहरूआ

05- छछिया भर छाछ

नाटक

महासमर का साथी

यात्रावृत्त

पहियों पर रात दिन

सम्मान- कहानी के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए महेश कटारे जी अनेक सम्मान एवं पुरस्कारों से पुरस्कृत हो चुके हैंः-

01- सारिका सर्वभाषा कहानी प्रतियोगता में 1984 में कहानी ’इति कथा’ ’अथ कथा’ पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।

02- मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा प्रादेशिक मुक्तिबोध पुरस्कार (1986-1991) ’इति कथा’ - ’अथ कथा’ कहानी संग्रह पर प्राप्त हुआ।

03- साहित्य परिषद दिल्ली से महासमर का साक्षी (नाटक) की पाण्डुलिपि पर 1988 में ’रचना’ पुरस्कार प्राप्त हुआ।

04- म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार (1990) महासमर का साक्षी (नाटक) पर प्राप्त हुआ।

05- साहित्य अकादमी म.प्र. का सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार (1998-2000) पहरूआ (कहानी संग्रह) पर प्राप्त हुआ।

06- 2005 में शमशेर सम्मान (अनवरत् परिवार द्वारा) यात्रावृतान्त ’पहियों पर रात दिन’ पर प्राप्त हुआ।

महेश कटारे के कृतित्व के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लीलाधर मंडलोई लिखते हैं-

’महेश कटारे उन कथाकारों में हैं, जिन्होंने जिद की तरह ग्रामीण जीवन से भाषा, वस्तु, मुहावरे और शिल्प के स्तर पर उस परम्परा से सघन नातेदारी बनये रखी। यही कारण है कि चंबल संभाग की बोली-बानी, चरित्र, जीवन रंग और जीवंत लोक समाज महेश कटारे की कहानियों में सदैव एक मूर्त अंतर्धारा की तरह विद्यमान रहे।

ग्रामीण से लेकर कस्वाई जीवन तक की उनकी कथायात्रा इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण है कि शिष्ट साहित्य की हमबगल यह कथाधारा, परिदृश्य को किस्सागोई की परम्परा से जोड़कर नई अर्थक्ता ही नहीं देती, बल्कि आधुनिक कथा परिदृश्य को गतिशील बनाए रखते हुए कुछ ऐसे आयाम देती है, जो सच्चे अर्थो में भाषा, पात्र, स्थानीयता संदर्भ और खासकर ऐंद्रीयता के रास्ते भारतीय आरव्यान को मजबूत करती है।38

महेश कटारे सीधे सहज सरल और ग्रामीण परिवेश से जुड़ व्यक्ति हैं वही झलक उनकी कहानियों में भी दिखाई देती है। गाँव का परिवेश, वहाँ की समस्यायें, वहाँ का व्यक्ति एवं संस्कृति सभी में उनका अपनापन दिखाई देता है और वही उनके कहानियों के कथ्य भी हैं। उनके कहानी संग्रह ’मुर्दा स्थगित’ में काशीनाथ सिंह ने लिखा है -

’’आज से बीस साल पहले एक पहले एक युवक को देखा था अमरकंटक में- और चौंका था देख कर। लगा था जैसे कहीं से धूमिल चला आया हो थोड़े फर्क के साथ। जैसे खेत-खलिहान से सीधे चला आयो हो हम लेखकों के बीच। साँवले रंग का वही औसत कद, वही नुकीली मूछें, वही मारकीन का कुर्ता और मटमैली धोती, बातों में वही जमीनी ठसक। फर्क बस इतना कि इसका बदन कसा और इकहरा था।

वह युवक आज का महेश कटारे है - पिछले दस-पन्द्रह वर्षों की हिन्दी कहानी का चर्चित, सम्मानित और अनिवार्य नाम।

एक कहानीकार होता है जिसे लोग पढ़़ते हैं और पसन्द करते हैं, एक और कहानीकार होता है जिसे लोग पसंद ही नहीं करते, प्यार भी करते हैं- इसलिए कि उसकी कहानियों में ’अपने’ कोे और ’अपनापे’ को देखते हैं। यही ’अपनापन’ और ’अपनापापन’ महेश की कहानियों की जान है।

जिन दिनों हिन्दी कहानी का ध्यान ’कन्टेन्ट’ और ’कमिटमेन्ट’ पर था, उन्हीं दिनों महेश ने ’इतिकथा-अथकथा’ जैसी कहानी लिखकर बताया था कि कहने का सलीका या ’कहन’ कहानी के खून में है जिसे न कहानीकार को अनदेखा करना चाहिए, न कथा समीक्षक को।

मुझे याद नहीं कि महेश से पहले ग्वालियर भिंड-मुरैना का इलाका कहानी में कहीं था? कहानीकार के लिए इसका मतलब जनपद का भूगोल नहीं, वह कठिन और कड़ियल ज़िन्दगी है जो बेहड़ों और जंगलों और पहाड़ियों और पठारों-कछारों के बीच चट्टानों को छीलती हुई, उनसे टकराती हुई बह रही है - चंबल और क्वारी की तरह या नाले-पनाले की तरह। कहीं गहरी, कहीं उथली।39

2-प्रो. पुन्नीसिंह

प्रो. पुन्नीसिंह जी यादव का जन्म 01 अगस्त, 1939 को उतरप्रदेश के मैनपुरी जिले (अब फिरोजबाद) के ग्राम मिलावली मे हुआ।इनकी प्रारंभिक शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा गाँव मेें ही हुई। हाई स्कूल से स्नातक तक की शिक्षा पास के शहर जसराना और शिकोहाबाद में हुई तथा स्नातकोŸार शिक्षा आगरा और ग्वालियर में हुई। बी.आर. कॉलेज आगरा से एम. कॉम. तथा 1969 में जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर से अर्थशास्त्र विषय में एम. ए. किया और दिग्विजय महाविद्यालय राजनंदगांव (छत्तीसगढ़) में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए। प्रोफेसर पद से अपनी सेवानिवृŸिा (सन् 2001) तक ये मध्य-प्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग में कार्यरत रहे। वर्तमान में शिवपुरी में रहकर साहित्य सृजन कर रहे हैं।

प्रारम्भ में सृजन ’इप्टा’ से जुडे़ और कविताएँ व नाटक लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। छात्र जीवन में प्रथम रचना - ’हिटलर का पतन’ नामक एकांकी लिखी परन्तु वह एक घटना के कारण ष्ट कर दी गयी। सन् 1963 में पहला नाटक ’रेजांगला’ पूर्ण किया । यह नाटक 1962 के भारत चीन युद्ध की एक घटना पर आधारित है।

इसके अतिरिक्त प्रो. पुन्नीसिंह जी के अब तक पाँच कहानी संग्रह काफिर तोता, जुगलबंदी, जुम्मन मियां की घोड़ी, गोलियों की भाषा, जंगल का कोढ़, मोर्चा एवं नागफांस तथा पाँच उपन्यास पाथर घाटी का शोर, तिलचट्टे, सहराना, तोर रूप गजब, त्रिया तीन जन्म प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी कई कहानियों के नाट्य रूपान्तर हुए हैं। और उनका सफल मंचन हुआ है। इनकी कई कहानियों के अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं।

प्रो. पुन्नीसिंह जी का जन्म ऐसे क्षेत्र में हुआ था जहाँ कला एवं साहित्य जमीन उर्वर नहीं थी। इनके माता-पिता भी निरक्षर थे। ग्यारह बर्ष की अवस्था में ही इनका विवाह कर दिया गया। हाईस्कूल पास कर आगे की शिक्षा के लिए ये जब शिकोहाबाद गये, उसी समय इनकी माँ का निधन हो गया और पिताजी निस्पृह जीवन जीने लगे। इन्हीं दिनों कवि-सम्मेलनों में सुनी हुई कविताओं का इन पर प्रभाव पड़ा और ये कविताएँ लिखने लगे पर इन्हीं के शब्दों में -’’साहित्यिक गोष्ठियों में यदा-कदा पहँुचने और कार्यक्रमों में भाग लेने से एक बात मेरी समझ में जल्दी ही आने लगी की विचार और कला का बहुत गहरा संबंध है। विचार सम्पन्न हुए बिना कला या साहित्य के क्षेत्र का सारा श्रम व्यर्थ हो सकता है। तब मैं कविताएँ बहुत ज्यादा लिखने लगा था और एक दिन मुझे लगा कि मेरे पास अनजाने में कुछ ज्यादा ही कचरा इकट्ठा हो गया है। मैंने हिम्मत जुटाई और एक शाम को पालीवाम पार्क की एक झाड़ी के पीछे ले जाकर उस कचरे में आग लगा दी। आग लगा तो दी, लेकिन उसकी तपन आँखों में रह-रह कर कई दिनों तक जलन पैदा करती रही।’’40

प्रो. पुन्नीसिंह जी की पहली कहानी ’पंचायत’ आगरा में लिखी गयी। दूसरी कहानी ’लकड़हारे की राखी’ आयी। ये दोनों कहानियाँ इनके प्रथम संकलन ’काफिर तोता (1902) में संकलित हैं। इसके बाद तो पुन्नीसिंह जी ने कहानी के क्षेत्र में मुड़कर नहीं देखा। वर्तमान में से एक वृहद ’उपन्यास ’-’वामगति’ लिख रहे हैं। पुन्नीसिहं जी की लगभग 100 कहानियाँ देश की चर्चित लघुपत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इनमें से कुछ का अन्य कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है और कई कहानियाँ राष्ट्रीय स्तर के कई कहानी संग्रहों के लिए चयनित की गयी हैं।

पुन्नीसिंह जी का प्रतिबद्ध लेखन है और इनके समूचे साहित्य पर मार्क्सवादी दर्ष न का प्रभाव है। परन्तु इनकी साम्यवादी विचारधारा भारतीयता के संदर्भ से अलग नहीं है। इन का प्रारंभिक जीवन अत्यन्त अभावों और कष्टों में व्यतीत हुआ और इन्होनें धैर्यपूर्वक उससे संघर्ष किया। दलितोें और आदिवासियो के जीवन को इन्होनें अत्यन्त निकट से देखा है, नारियों की विवशताओं से साक्षात्कार किया है। यही कारण है कि इनकी कहानियों में कोरी शाब्दिक सहानुभूति न होकर भोगे हुए यथार्थ एवं अनुभूति की निकटता से उपजी कसक और तड़प प्राप्त होती है। इन्हीं कारणों से इनकी कहानियाँ प्रभावोत्पादक हैं।41

वे ग्राम्य के जीवन के चितेरे हैं उनकी कहानियों में ग्रामीण परिवेश व तत्संबंधी समस्यायें रची बसी हैं। उनके कहानी संग्रह ’गोलियों की भाषा’ में प्रकाशक का वक्तव्य दृष्ट व्य है-

’’पुन्नीसिंह की कहानियों की एक विशेष बात यह भी है कि वे मात्र गाँव कृृशक समाज की कहानियाँ नहीं है बल्कि उन सब दस्तकार - कारीगरों की कहानियाँ भी हैं जो आज़ादी से पहले न केवल कृषि कार्य में परोक्ष भूमिका निभाते थे बल्कि गाँंव की संपूर्ण संरचना में जिनकी अहम् भूमिका थी। लेकिन आज़ादी के बाद सर्वाधिक विखंडन या पलायन उसी वर्ग का हुआ है।

न केवल विषयवस्तु की दृष्टि से बल्कि भाषा-शैली की दृष्टि से भी पुन्नी सिंह ग्राम्य जीवन के सचमुच चितेरे हैं।42

3-राजनारायण बोहरे

राजनारायण बोहरे का जन्म अशोकनगर में 20 सितम्बर 1959 को हुआ था। इनकी माँ का नाम श्रीमती रामबाई है तथा पिता का नाम श्री बद्रीनारायण जी बोहरे था। इन्होंने स्नातकोत्तर की उपाधि हिन्दी साहित्य में प्राप्त की तथा एल.एल.बी. भी किया। पत्रकारिता व जनसम्पर्क में स्नातक भी किया। वर्तमान में वे वाणिज्यिक कर अधिकारी है। अखिल भारतीय सारिका कहानी प्रतियोगिता में (1985) पुरस्कृत ’हवाई जहाज’ पहली कहानी थी।

कृतित्व - कहानी संग्रह

01- इज्ज़त आबरू

02- गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ

03-हादसा

04-मेरी प्रिय कथाएँ

उपन्यास- मुखबिर

बाल उपन्यास

01-बाली का बेटा

02- रानी का प्रेत

03- छावनी का नक्शा

04-रोबोट वाले लुटेरे

05-अंतरिक्ष मे डायनासौर

06-जादूगर जँकाल और सोनपरी

पुरस्कार-

01- चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट दिल्ली से 1994 से में 2009 तक कहानी पुरस्कृत हुयी।

02- जाह्नवी अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता 1996 में कहानी ’भय’(25,000 रू. प्राप्त) पुरस्कृत।

03- मध्य-प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार गोस्टा तथा अन्य कहानियों पर प्राप्त हुआ।

04- साहित्य अकादमी द्वारा मध्य-प्रदेश का सुभद्राकुमार चौहान पुरस्कार प्राप्त हुआ।

उनके कृतित्व के संबंध में भारती दीक्षित ने अपने शोध ग्रन्थ ’ग्वालियर चंबल संभाग के कहानीकारों के नारी-पात्र’ में लिखा है-

’’राजनारायण बोहरे उन कथा - लेखकों में से हैं जिन्होंने अस्सी के दशक की समाप्ति के साथ लिखना प्रारम्भ किया और ताबड़तोड़ लिखने में न जुटकर आहिस्ता-आहिस्ता एक-एक कहानी रचते रहे।43

भोपाल से प्रकाशित जागरण सिटी भोपाल में अमिताभ फरोग लिखते हैं-

’’राजनारायण बोहरे प्रदेश के उन नामचीन कहानीकारों में शुमार किए जाते हैं, जिन्होंने ग्रामीण परिवेश की जीवनशैली, विसंगतियों और खूबियों पर खूब कलम चलाई।44

बोहरे जी का व्यक्तित्व ग्राम्य परिवेश से सम्पृक्त सीधा सहज एवं सरल है जो उनके लेखन में भी झलकता है। वे जमीन से जुड़े लेखक हैं उनकी कहानियों में मिट्टी की सोंधी खुशबू, ग्राम्य जीवन एवं परिवेश तथा तत्संबंधी समस्यायें ली गई हैं। ’गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ के रैपर पर प्रकाशक की टिप्पणी समीचीन प्रतीत होती है-

’’बौद्धिक विविधता और सामाजिक-सांस्कृतिक अनुभवों में व्यावहारिक संलग्नता से समग्र रूप में विकसित राजनारायण बोहरे का व्यक्तित्व उनके रचनात्मक लेखन में भी प्रतिबिम्बित होेता है। उनकी सूक्ष्म दृष्टि सामान्य या विशिष्ट किसी घटना या प्रसंग को बचकर नहीं निकलने देती। वह उसे अनुभूति के स्तर पर ग्रहण और विश्लेषित करते हैं और उसे अतर्क्य न रहने देकर उसके आशयों की टोह लेते हैं। यही कारण है कि इन कहानियों में अनुभवों का विशद आयतन भी है और संवेदना के घनत्व का संकेन्द्रण भी।

साथ ही इन कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ का दूसरा पक्ष भी है जिसमें बिखरते सम्बन्धों और निराशाजनक स्थितियों के बाद भी उनमें कहीं आत्मीय संस्पर्ष बचे रहते हैं। यही ’उम्मीद’ बनते हैं और ’उजास’ के प्रति हमें आशावान बनाते है। इन कहानियों में निहित करूणा स्वयं ही संयोजकता का कार्य करती है।

प्रवाहपूर्ण ’नैरेशन’ और प्रभावपूर्ण चित्रण के ताने-बाने पर बुनी इन कहानियों में पाठक को प्रत्यक्ष संवाद का भी अनुभव होता है और घटित के साक्षी होने की सीधी संपृक्ति भी।’’45

वे आम आदमी के लेखक हैं। समाज के आम आदमी की समस्यायें एवं सामाजिक सरोकार उनकी कहानियों में दिखाई देते हैं। कहानी संग्रह ’इज्ज़त आबरू’ के रैपर पर प्रकाशक की टिप्पणी इसमें सहमति व्यक्त करती हैं -

’’राजनारायण बोहरे ने खुद अपनी भाषा चुनी है और शिल्प का विस्तार किया है जिसमें उनकी मौलिकता झलकती है।

संग्रह की बारह कहानियों में बुंदेलखण्ड के गाँवों कस्बों का अनगढ़ व अनावृत जीवन है। समाज की विसंगतियाँ हैं, पीड़ाएँ हैं और विडम्बनाएँ भी। इन कहानियों में आम आदमी के जीवन का स्पन्दन और गहरी हलचल है। इन कहानियों के माध्यम से आम आदमी के आत्म-संघर्ष को पूरी ईमानदारी से व्यक्त किया गया है। उनमें अन्तर्व्याप्त करूणा और संवेदना आम आदमी की चिन्ताओं को गहरे सामाजिक सरोकारों से भी जोड़ती है।’’46

4-प्रमोद भार्गव

श्री प्रमोद भार्गव का जन्म 15 अगस्त 1956 में ग्राम अटलपुर, ज़िला शिवपुरी में हुआ। इनके पिता का नाम स्व. श्री नारायण प्रसाद भार्गव एवं इनकी माता का नाम स्व. श्रीमती कलादेवी भार्गव है। इन्होंने स्नातकोत्तर हिन्दी साहित्य से किया। लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रूचि रही। प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास)। सोनचिरौयाइन, सफेद शेर, चीता, संगाई, शर्मिला भालू, जंगल के विचित्र जीव जंतु (वन्य जीवन) घट रहा है पानी (जल समस्या) आदि इनकी कृतियाँ हैं। देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित हैं। साथ ही स्त्रोत, सप्रेस, हिन्दुस्तान फीचर आदि फीचर ऐंजेंसियों से अनेक लेख जारी हैं।

ज़िला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) के हैं तथा संपादक-शब्दिता समाज सेवा, शिवपुरी के हैं।

सम्मान एवं पुरस्कारः-

01- म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष-2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चंद्रप्रकाश जायसवाल सम्मान।

02- ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉं. धर्मवीर भारती सम्मान।

03- भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ’भवभूति अलंकरण’।

04- म.प्र. स्वतंत्रता सेनानी उŸाराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ’सेवा सिंधु सम्मान’।

05- म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई-कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।

06- भार्गव ब्राह्मण समाज, ग्वालियर द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्मानित।

अन्यकार्यों में जनसत्ता की शुरूआत से 2003 तक शिवपुरी ज़िला संवाददाता। नई दुनिया ग्वालियर में ब्यूरो प्रमुख रहे। उŸार साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर कार्यरत रहे।

उनेक लेखन में कथ्य संक्षिप्तता, मौलिकता एवं शिल्पगत नवीनता है। ’लौटते हुए,’ कहानी संग्रह के रैपर पर प्रकाशक की टिप्पणी समीचीन है-

’’ग्रामीण परिवेश में ऊपरी तौर से सतही दिखने वाले जीवन में अंदरूनी हलचलें क्या हैं? विकार क्या हैं? और वास्तव में यथार्थ क्या है? इस सच्चाई को निर्लिप्त दृष्टि और मौलिक सोच के साथ देखने वाले समर्थ और गंभीर साहित्यकार प्रमोद भार्गव के इस संग्रह की कहानियों में विभिन्न कथ्य संक्षिप्तता लिए हुए पूरी समग्रता के साथ रूपायित है। जिनमें कथानक की सजगता और वातावरण के अनुरूप उपयुक्त व सशक्त शिल्प प्रयोग से रचनाएं शीर्षस्थ स्थान पर खरी बैठती हैं।

ग्राम्य जीवन पर छा रहे राजनीतिक और आर्थिक प्रभावों ने किस बुरी तरह सीध-सादे ग्रामीणों का सभ्य, सुसंस्कृत और मर्यादित जीवन इतना भ्रष्ट एवं दूभर कर दिया है कि शोषण और अत्याचार का निरंतर हिस्सा बने रहना ग्रामीणों की एक मजबूरी हो गई है। इसके बावजूद ग्रामीण आदमी का संघर्ष क्रूर अमानवीयता के बीच पूरी जीवटता और संवेदना के साथ जारी है। इससे जीवन और मूल्य दोनों की ही पुनर्स्थापनाएं होती हैं और समाज के प्रतिष्ठित चेहरे बेनकाब भी होते हैं।47

5-लखनलाल खरे

खरेजी का जन्म 10 नवम्बर सन् 1955 को छतरपुर जिले के ग्राम रामटोरिया में हुआ था। इनके पिता का नाम स्वर्गीय श्री शम्भूदयाल खरे और माँ का नाम श्रीमती मानकुंअर खरे था हिन्दी साहित्य से एम. ए. सन् 1981 में स्वाध्यायी रूप से किया। सन् 1994 से म.प्र. शासन के उच्च शिक्षा विभाग के अन्तर्गत शिवपुरी ज़िले के कोलारस शास. महाविद्यालय में हिन्दी के सहायक प्राध्यापक हैं। सन् 2000 में इन्हें जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा ’’साहित्य सागर का शास्त्रीय अध्ययन’’ विषय पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई। उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्वीकृत लघुशोध परियोजना पर भी कार्य किया जिसका बिशय है- ’’सामाजिक समरसता में मुसलमान हिन्दी कवियों का योगदान।’’

डॉं. खरे यद्यपि प्रकाशनों से दूर रहकर एकान्तिक साहित्य सेवी हैं तथापि देश प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, स्मृति ग्रंथों एवं अभिनंदन ग्रंथों में इनकी विविध साहित्य-विधाएँ प्रकाशित हुई हैं और आकाशवाणी केन्द्रों से रचनाओं का प्रसारण हुआ है। डॉं. खरे ने साहित्य की विविध विधाओं पर लिखा है। वर्ष 1975 से इनका लेखन कार्य अद्यतन जारी है। इस समय इस वर्ष के दीर्घान्तराल में इन्होंने जो कुछ भी सृजित किया, वह सब अब तक अप्रकाशित है। इस अप्रकाशित साहित्य में जय-जननी (खण्डकाव्य), सांसों की समाधियाँ, हृदय की लहरें, एक गजल संग्रह, एक काव्य संग्रह, चरणामृत एवं आस्तीन का सांप - दो उपन्यास तथा ’अपने-अपने राम’ तथा ’आओगी नहीं लक्ष्मी?’ दो कहानी संकलन और स्फुट निबंध आदि हैं। इसके अतिरिक्त इतिहास और पुरातत्व तथा बुन्देली में भी इन्होंने पर्याप्त लेखन कार्य किया है।

डॉं. खरे की प्रथम कहानी - ’दिग्भ्रांति’ ’वालन्टियर’ मासिक (कानपुर) में जून 80 में प्रकाशित हुई थी, अप्रेल 81 में इसी पत्रिका में प्रकाशित कहानी ’आओगी नहीं लक्ष्मी? उनकी प्रौढ़ कृति थी। इस कहानी में प्रगतिवादी चिंतन परिलक्षित होता है। यद्यपि कहानी का कथ्य नवीन नहीं है, तथापि शिल्प आकर्षक है। इसी पत्रिका के सितम्बर 81 एवम् जुलाई 82 के अंकों में दो कहानियाँ - ’स्वर्ग’ का अधिकारी व ’धूम धरा का आँसू नभ के’ प्रकाशित हुई। इन कहानियों में, पौराणिक आधार लेकर कहानी की विषय वस्तु का ताना-बाना बुना गया है।

इनका प्रथम कहानी संकलन सन् 1985 में ’आओगी नहीं लक्ष्मी? शीर्षक से तैयार हुआ। इसमें इनकी प्रारंभिक कहानियों सहित कुल 15 कहानियाँ संकलित हैं। ’अपने-अपने राम’ कथा-संकलन में भी 15 कहानियाँ हैं। यह वर्ष 1990 में तैयार हुआ।

सम्मान एवं पुरस्कार-

1- जैन समाज धौरा जिला छतरपुर द्वारा वर्ष 2002 में ’हमारे गौरव’ सम्मान से सम्मानित किया गया।

2- वर्ष 2002 में ही बुन्देल भारतीय साहित्य परिषद् पृथ्वीपुर जिला टीकमगढ़ से इनके साहित्यिक अवदान को सम्मानित किया गया।

3- भारतीय दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा अम्बेडकर राष्ट्रीय फैलोशिप।

4- म.प्र. दलित साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत।

5- तात्याटोपे न्यास शिवपुरी द्वारा अवन्तीबाई अस्मिता अलंकरण।

6- नगरपालिका टीकमगण द्वारा अमरशहीद श्री नारायण दास खरे स्मृति सम्मान 2009 ’बुंदेल सौरभ सम्मान।’

6-निरंजन श्रोत्रिय

श्री निरंजन श्रोत्रिय जी का जन्म 17 नवम्बर 1960, उज्जैन में हुआ था। इनके पिता का नाम डॉं. विश्वनाथ श्रोत्रिय जो कि हिन्दी व संस्कृत के विद्वान थे और माता का नाम श्रीमती निर्मला श्रोत्रिय था जो कि टीचर थीं। शिक्षा के क्षेत्र में इन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से वनस्पति शास्त्र में पी-एच. डी. की शोध-उपाधि प्राप्त की। टॉक्सिकॉलॉजी पर अनेक शोध-पत्र अन्तर्राष्ट्रीय जनरल्स में प्रकाशित हुए। सृजन के अन्तर्गत पहली कहानी ’परिवर्तन’ दैनिक अवन्तिका (समाचार पत्र उज्जैन) में 1970 के लगभग प्रकाशित हुई तब ये 10-11 वर्ष की उम्र के थे। ’उनके बीच का जहर तथा अन्य कहानियाँ’ (कहानी संग्रह-1987) और दो कविता-संग्रह ’जहाँ से जन्म लेते हैं पंख’ (2002) ’जुगलबंदी’ (2008) आदि कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, आलोचना, निबन्ध तथा नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुए हैं। नव साक्षरों एवं बच्चों के लिये पर्यावरण एवं विज्ञान की पुस्तकों का लेखन किया है। कई कविताएँ अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित एवं प्रकाशित हैं। इनके जीवन और साहित्य के प्रगतिशील मूल्यों में आस्था है। सन् 1984 में अन्तर्जातीय विवाह कर जतिगत प्रथाओं की लकीरेें तोड़ीं। कहानी संग्रह- धुँआ शीघ्र प्रकाश्य, शिल्पायन, दिल्ली। वर्तमान में शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय गुना में वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं अध्यक्ष हैं।

सम्मानः- 1998 में अभिनव कला परिषद, भोपाल द्वारा ’शब्द शिल्पी सम्मान’ मिला।

7-श्री राजेन्द्र लहरिया

कथाकार श्री राजेन्द्र लहरिया का जन्म 18 सितम्बर 1955 को ग्वालियर जिले के ग्राम सुमावली में हुआ। इनके पिता का नाम श्री कल्याण प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती जावित्री देवी था। लहरियाजी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के विद्यालय में ही हुई। शुरूआत से ही किसानों और खेत-मजदूरों के साथ जीवंत संपर्क के क्रम में अध्यापक का काम चुना। अध्यापन और लोगों के बीच काम करते हुए ही, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर से हिन्दी साहित्य में एम.एम. किया। कृतित्व के अन्तर्गत पहली कहानी ’साहब की रामकथा’ स्वदेश समाचार पत्र ग्वालियर में प्रकाशित हुयी।

उपन्यास - राक्षस गाथा

कहानी संग्रह- आदमी बाजार, यहाँ कुछ लोग थे, बरअक्स, युद्धकाल आदि।

आजकल कथालेखन के साथ ही अध्यापन और ग्रामीण जन-समाज में एक समाजकर्मी के रूप में कार्यरत व सक्रिय हैं।

8-डॉं. कामिनी

महिला कलाकारों में अग्रणी डॉं. कामिनी का जन्म 22 जुलाई 1952 को सेंवढ़ा ज़िला दतिया में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रामचरण शर्मा था और माता का नाम श्रीमती बिट्टन देवी था। प्रारंभिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा सेंवढ़ा और दतिया में हुई जिसमें इनकी बड़ी बहन कनकलता का अपूर्व योगदान है। हिन्दी विषय से एम.ए. करने के पश्चात् पी.एच.डी. और डी लिट् की सर्वोच्च उपाधियाँ जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर से प्राप्त कीं। सम्प्रति, डॉ. कामिनी जी शासकीय गोविन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय सेंवढ़ा में हिन्दी विषय की विभागाध्यक्ष हैं। जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में हिन्दी अध्ययन मण्डल की अध्यक्ष रह चुकी हैं।

संघर्षों एवं अभावों के विषम जाल को काटकर अपना पथ प्रशस्त करने वाली कामिनी जी भारतीय संस्कृति के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। बुन्देली माटी की महक से महकती हैं इनकी कथा कृतियाँ और उनमें रहती हैं आम आदमी की संवेदना, आम आदमी की आत्मा, जिसका सहज साक्षात्कार आम पाठक ही कर सकता हैं और उससे तादात्म्य स्थापित कर सकता है।

कृतित्व

डॉं. कामिनी जी के अब तक बारह ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें दतियाः एक परिचय (सन् 1983), आंचलिक स्थान अभिधान अनुशीलन (1983), बुन्देली भाषी क्षेत्र के स्थान अभिधानों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (1985), दतिया जिले के पत्र पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण(1990), बुन्देलखण्ड की पूर्व रियासतों में पत्र पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण (1994), स्थान नाम बोलते हैं (1995) एवं भाषा - विज्ञान(1996) तथा पाँच कहानी संग्रह हैं। ये संकलन निम्नानुसार हैः-

01- करीले के कांटे (1987)

02- गुलदस्ता (1991)

03- मन मृगछौना (1995)

04- बिखरे हुए मोरपंख (1997) एवं

05- सिर्फ रेत ही रेत (2006)

उनके व्यक्तित्व के संबंध में भारती दीक्षित का कथन दृष्टव्य है-

’’होनहार बिरवान के होत चीकन प्रात’’ की उक्ति को सटीक सिद्ध करते हुए कामिनी जी ने संघर्र्शोंं एवं अभावों के मध्य अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त किया। साहित्य एवं भारतीय संस्कृति के प्रति बचपन सेे ही अत्यन्त लगाव रहा कामिनी जी को। यही लगन इनकी कृतियों में स्पष्ट परिलक्षित होता है। संघर्षो से इन्होंने कभी समझौता नहीं किया अपितु डटकर सामना किया है और सदैव विजयश्री का वरण किया है।48

जहाँ एक ओर उनका व्यक्तित्व सहज, सरल एवं मानवीय संवेदनाओं से सम्पन्न है वहीं उनका कृतित्व सामाजिक सरोकारों में पैठ बनाता हुआ दिखाई पड़ता है डॉं. श्याम विहारी श्रीवास्तव का कथन समीचीन प्रतीत होता है।

9- अन्नपूर्णा भदौरिया

अन्नपूर्णा भदौरिया जी का जन्म 8 अगस्त सन् 1945 में भिण्ड जिले के उदोतगढ़ ग्राम में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा भिण्ड एवं उच्च शिक्षा ग्वालियर में हुई। यहीं से हिन्दी साहित्य और भूगोल में एम. ए. करने के पश्चात उच्च शिक्षा विभाग में अध्यापन कार्य किया और वर्ष 2005 में सेवा निवृत्त हुईं। इन्होंने ’छायावादोŸार काव्य का शिल्प’ विशय पर पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त की तथा ’मध्य युगीन संत साहित्य पर वेदांत का प्रभाव’ विशय पर डी. लिट् की उपाधि प्राप्त की।

कृतित्वः

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भोपाल द्वारा लघुशोध परियोजना पर भी इन्होंने कार्य किया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी इन्होंने कार्य किया। वे अनेक साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं की सक्रिय सदस्य हैं, देश की प्रतिश्ठित पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। देश के विभिन्न आकाशवाणी के केन्द्रों से इनकी कविताएं एवं कहानियाँ भी प्रसारित हो चुकी हैं।

10- कुन्दा जोगलेकर

परिचयः

कुन्दाजी का जन्म ग्वालियर में 17 जुलाई 1957 को एक गैर हिन्दी भाशी मराठी परिवार में हुआ। आपका अत्यन्त सुसंस्कृत एवं साहित्यिक था। यही संस्कार आपको भी प्राप्त हुए। अर्थशास्त्र विशय में आपने एम.ए. किया। सम्प्रति: कुन्दाजी राजस्व विभाग ग्वालियर में शासकीय सेवा में कार्यरत हैं।

कृतित्वः

वैसे तो कुन्दाजी की अनेक कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं, पर संकलन ’एक बूंद टूटी हुई’ ही प्रकाशित हैं। यह संकलन वर्ष 1998 में प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी सत्रह कहानियाँ प्रकाशित हैं। वर्ष-1993 में कादम्बिनी साहित्य महोत्सव ग्वालियर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता द्वारा निराला जयन्ती पर युवा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया गया। कुन्दाजी कहानियों के अतिरिक्त कविताएँ भी लिखती हैं। पेण्डुलम, बिखराव, टूटा हुआ बचपन, गुनहगार, अपने-अपने आदर्श , बोया पेड़ बबूल का, कुण्डित धारणाओं के बीच, विस्मृतियों की गर्त से, बांझ, ज्यादा न सही, मरीचिका, दूर के ढोल, मनौती, एक बार फिर, तुलसी चौरे का दिया, अंजुली भर छांव और एक बूंद ’टूटी हुई - कुन्दाजी की चर्चित कहानियाँ हैं जो इनके एक मात्र प्रकाशित कहानी संकलन में संग्रहीत हैं।

21- डॉं. भारती दीक्षित-ग्वालियर-चंबल संभाग के कहानीकारों के नारीपात्र-शोध ग्रंथ-जीवाजी

विश्वविद्यालय ग्वालियर-2005-पृ. 35-36

22- डॉं. राधेश्याम द्विवेदी - हिन्दी भाषा और साहित्य में ग्वालियर क्षेत्र का योगदान - पृ.-122

23- वही पृ.- 124-127

24- डॉ. जी. एल. जैन - कवि भूधरदासः व्यक्तित्व एवं कृतित्व - पृ. - 13

25- डॉं. राधेश्याम द्विवेदी - ग्वालियर के तोमर - पृ.-141

26- डॉं. राधेश्याम द्विवेदी - मध्य देशीय भाषा (ग्वालियरी) - पृ.-34

27- डॉं. भारती दीक्षित - ग्वालियर-चंबल संभाग के कहानीकारों के नारीपात्र शोध ग्रंथ जीवाजी

विश्वविद्यालय ग्वालियर -पृ.-22-23

28- डॉं. लखनलाल खरे का आलेख - बुंदेली बसंत पत्रिका - बुंदेली विकास संस्थान फरवरी 2003- पृ. - 65

29- श्री एल. एल. खरे - साहित्य सागर का शास्त्रीय अध्ययन (शोधग्रंथ) जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर 2000 - पृ. - 65

30- श्री अरूण अपेक्षित - शिवपुरी अतीत से आज तक - पृ.-137-161

31- डॉ. सीताकिशोर खरे का आलेख - दतिया ज़िले की साहित्यिक परंपरा - राष्ट्र गौरव (साहित्य अंक 1994) छत्रशाल स्मारक ट्रस्ट छतरपुर पृ. - 14

32- डॉं. के. बी. एल. पाण्डेय - सं. - दतियाः उद्भव और विकास पृ. - 178-186

33- डॉ. श्रीघर तिवारी - म.प्र. में शैव धर्म का विकास - पृ. - 72

34- राजेन्द्र दास - महायोगी वैश्णव संत श्री पीपाजी - पृ. - 114

35- डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी - बुंदेलखण्ड का वृहद इतिहास - पृ. - 300

36- राष्ट्र गौरव स्मारिका - छत्रसाल ट्रस्ट छतरपुर - 1994 पृ. - 105-106

37- डॉं. भारती दीक्षित - ग्वालियर-चंबल संभाग के कहानीकारों के नारीपात्र शोध ग्रंथ जीवाजी

विश्वविद्यालय ग्वालियर -पृ.-26-27

38- लीलाधर मंडलोई - रैपर पर प्रकाशित - महेश कटारे का कहानी संग्रह - पहरूआ

39- काशीनाथ सिंह - रैपर पर प्रकाशित - महेश कटारे का कहानी संग्रह - मुर्दा स्थगित

40- पुन्नीसिंह - प्रगतिशील संकल्प (त्रैमासिक) अप्रेल-जून-2003 पृ. - 03

41- डॉं. भारती दीक्षित - ग्वालियर-चंबल संभाग के कहानीकारों के नारीपात्र शोध ग्रंथ जीवाजी

विश्वविद्यालय ग्वालियर -पृ.-83

42- प्रकाशक - रैपर पर प्रकाशित वक्तव्य पुन्नीसिंह का कहानी संग्रह - गोलियों की भाषा

43- डॉं. भारती दीक्षित - ग्वालियर-चंबल संभाग के कहानीकारों के नारीपात्र शोध ग्रंथ जीवाजी

विश्वविद्यालय ग्वालियर -पृ.-65

44- अमिताभ फरोग - जागरण सिटी भोपाल - 17 नबम्बर 2007 शनिवार विशेष

45- प्रकाशक का रैपर पर प्रकाशित वक्तव्य - राजनारायण बोहरे का कहानी संग्रह - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ

46- प्रकाशक का रैपर पर प्रकाशित वक्तव्य - राजनारायण बोहरे का कहानी संग्रह - इज्ज़त - आबरू

47- प्रकाशक का रैपर पर प्रकाशित वक्तव्य - प्रमोद भार्गव का कहानी संग्रह - लौटते हुए।

48- डॉं. भारती दीक्षित - ग्वालियर-चंबल संभाग के कहानीकारों के नारीपात्र-शोधग्रंथ जीवाजी

विश्वविद्यालय ग्वालियर -पृ.-109