ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 7 padma sharma द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 7

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 7

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय - चार

प्रतिनिधि कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

1. महेश कटारे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

2. पुन्नीसिंह की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

3. राजनारायण बोहरे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

4. प्रमोद भार्गव की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

5. लखनलाल खरे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

6. निरंजन श्रोत्रिय की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

7. राजेन्द्र लहरिया की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

8. महिला कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

(अ) डॉं. कामिनी की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

(ब) कुन्दा जोगलेकर की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

(स) अन्नपूर्णा भदौरिया की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

संदर्भ सूची

अध्याय 4

प्रतिनिधि कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

ग्वालियर संभाग के प्रतिनिधि कहानीकारों की कहानी में सामाजिक परिवेश, आचार-विचार, संस्कार एवं मूल्यों का बखूबी चित्रण हुआ है प्रतिनिधि कहानीकार इस प्रकार हैं-

1- महेश कटारे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्यः

संस्कृति प्रत्येेक व्यक्ति की धरोहर है वह उसकी रग-रग में व्याप्त है। व्यक्ति जहांँ रहता है आसपास का परिवेश उस पर व्यापक प्रभाव डालता है। पैदा होते ही पारिवारिक संस्कार उस पर प्रभाव डालना शुरू कर देते हैं। बदलते समय के साथ उसकी आदतों, व्यवहार एवं विचारों में परिवर्तन भी हो जाता है।

कटारे जी की कहानियों में संस्कृति स्पष्ट परिलक्षित होती है। वे ग्राम्य पुत्र है और शहर के वासी भी अतः ग्राम्य संस्कृति के साथ-साथ शहर के लटके झटके, स्वार्थ, बेईमानी उनकी कहानियों में परिलक्षित है। ग्रामीण संस्कृति की धरोहर उनके लेखन में सहेजी हुई है।

उन्होंने हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों को अपनी कहानियों में स्थान दिया है। जमादार के घर से लेकर शहर के मालिक तक के यहाँ के विवाह की शान-शौकत का भी चित्रण किया है। समाज उन लोगों से ही फल फूल रहा है जिनमें बदलती संस्कृति के बाद भी मूल्य शेष हैं।

उनकी कहानियों में व्यक्ति ईश्वर में आस्था रखता है। उसके अपने-अपने ईष्ट देवता होते हैं। कोई राम भक्त होता है, कोई कृष्ण भक्त, तो कोई शिव भक्त होता है और कोई देवी भक्त भी होता है।

डाकू प्रायः देवी भक्त होते हैं। मूर्ति ही नहीं मंदिर में प्रवेश करते ही वे नतमस्तक होने लगते हैं क्योंकि वही उनकी रक्षक है। देवी के चरण ही नहीं मंदिर की प्रथम सीढ़ी और चबूतरों में भी आस्था वसी होती है।

’’मंदिर पर पहुँच सबने चबूतरा छू माथे से लगा, पा लागन किया और जूते उतारे फेरी लगाते हुए मढ़ी में घुस गए। मूर्ति के पैरों में एक चीकट दिया जल रहा था जिसकी छाया में मूर्ति प्राणवान् और रहस्यमय दिख रही थी’’।1

ईश्वर के प्रकोप से मनुष्य परेशान होते हैं। देवी देवता क्रुद्ध या रूष्ट होने पर अपने भक्त को परेशान करते हैं। फातिमा (लक्ष्मण रेखा) के कष्ट के संबंध में भी गाँव वाले यही सोचते हैं। किन्तु ईश्वर और खुदा भी शैतान से आशंकित रहते हैं।2 भौंतिक सुख सुविधा मिलने में भी लोग ईष्ट देवता का सहयोग ही मानते हैं।

मंदिर है तो पूजा अर्चना के साथ-साथ कथा भागवत् भी होगी। धूप दीप फल आदि का चढ़ावा भी आयेगा तो कभी मंदिर की घंटी बजेगी। गुंसाई मंदिर पर कीर्तन भी होता है और पत्रा देखकर मुहूर्त आदि भी निकाले जाते हैं। मुस्लिम भी मुहूर्त एवं पत्रा दिखाने पहँुचते हैं ऐसा संकेत है-

’’मुहूर्त निकालते बख्त नारायन पुजारी ने उसके वालिद से कहा था - ’’पुत्ते। चार साल में दो चौबंदी न हो जाये तो पत्रा फाड़कर फेंक देना।’’3

हिन्दू पूरी रीति-रिवाज एवं परम्पराओं तथा सम्पूर्ण विधि से ईश्वर को मनाने एवं गुनने में लगे रहते हैं। उसके लिए पूजा अर्चना कर्म काण्ड भी होते हैं। व्रत उपवास, धार्मिक कार्यों के आवश्यक अंग माने गये हैं। सभी वर्ग और धर्म के लोग अपने-अपने धर्मानुसार व्रत रखते हैं। पण्डित भी व्रत रखता है प्रायः वारों एवं तिथियों के हिसाब से व्रत होता है। नवदुर्गा में भी व्रत होता है कहा जाता है कि पण्डित को सिर्फ अपने पेट की चिन्ता होती है किन्तु सभी पण्डित एक जैसे नहीं होते।

’’........रघुवीर का बाप महीने में पन्द्रह दिन उपास रखता था। सोमवार, बिरस्पत, अमावस, ग्यारस कोई त्यौहार पतार छूटने न पाता था। इज्ज़त सौहरत भी मिली पंडिताई में धाक थी।’’ खुद को भले कम मिले, पर हम जैसे नेगी नटों को दिलाना कभी न भूले। उसकी वो जाने पर अपना ये बनता है कि तुम्हारे हाथ से बाम्हन का धर्म भ्रष्ट न हो।’’4

गाँव में आज भी तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, झाड़-फंूक, भूत-प्रेत बाधा सबकी आमद बनी रहती है। पीर मसान की पूजा होती है तो घटिया बाबा की भी पूजा होती है, वहीं सिंदूर पुते भैरों भी विराजमान है। मंत्र का प्रयोग जहाँ वशीभूत करने के लिये होता है वहीं सामने आयीं बाधा को भी परखने के लिये किया जाता है। इन मंत्रों का प्रयोग कभी किसी को वश में करने के लिये होता है तो औरत जात को परखने के लिये भी होता है।

’’तो माटी संकट घुमाय के पर वो टस से मस नहीं। अब लगा कि जे चुड़ैल पिसाची नहीं, तीसरे कंकड पै तो बरमराखस (ब्रह्म राक्षस) भी चींकारी बोल जाए मन में सुगबुगी हुई। कहीं सीतला मैया तो सिंह सवारी करते इधर नहीं निकल आयी।’’5

टोने-टोटके किसी कीे बिगाड़ने के लिए होते हैं तो किसी की भलाई के लिये भी किए जाते हैं। टोने से सुरक्षित जचगी भी संभव है। यह काम महिलायें भी करती हैं। प्रतिमा ने हाथ के सहयोग से जचकी के लिये कुछ उपाय किए लेकिन लोग समझते हैं उसने मंत्रों का प्रयोग किया था-

’’जनीजात में उसकी पहली भेंट चतुरी की अम्मा से हुई जिनकी बहू दो दिन की जच्चापीर से बेहाल हो रही थी। पंडित जी ने कांसे की थाली पर भूचक्का खींच आसपास अर्जुन के बारह नाप टांक साधन किया था। जिसके लिए राजा की कुईया का इकहत्थू पानी लेने कोठी तक जाना पड़ा। इस आफत काल में वह चतुरी की अम्मा के साथ बस्ती आयी और बच्चे का जनम करा कांसे की थाली की आवाज के साथ ही लौटी। चतुरी की अम्मा गुन गातेे नहीं थकती’’ जाने कौन-सा मंत्र मारा उसने इधर पेट पर हाथ फेरा उधर बच्चा जमीन पर।’’6

बच्चा होने के उपरान्त विभिन्न कार्यों के लिये मूहूर्त का आश्रय लिया जाता है। उसके पैदा होते समय के काल रूप का पता किया जाता है तो नहान के भी दिन निकाले जाते हैं। लोग बच्चा पैदा होने पर पत्रा दिखाने पण्डित के पास जाते हैं ताकि यह ज्ञात हो सके कि मूल तो नहीं पड़े या कौनसी घड़ी में जन्मा है राशि क्या बनेगी यहाँ तक कि चरूआ रखने का मुहूर्त भी पंडित से पूछा जाता है। मर्यादा में डूबा व्यक्ति स्वयं अपने बाप होने की खबर देने में सकुचाता है।

’’...........किन्तु पंडित जी उम्र में बड़े और अपने मुँह से अपने बाप होने की बात कहना उन्हें लज्जा में गाड़ रही थी सो इतना ही वोल सके कि ’’कौन पायरे लेकर जन्मा है तथा परूआ कौनसी चौघड़िया में धरी जाये।’’7

जब किसी बच्चे पर मूल पड़ते हैं तो उसका चेहरा उस का पिता नहीं देखता और न हीं बच्चे की माँ कमरे में बाहर निकल जाती है।

’’चौधरी ठाकुर की दुलहिया ने पहलौटा जना तो हवेली में खुशी दुगनी हुई, काम चौगुना। मूल नक्षत्र में जन्मा था बच्चाः सत्ताईस दिन तक प्रसूता सूरज की किरन न देख सकती थी।’’8

अभुक्त नक्षत्र में बच्चे का पैदा होना अत्यधिक खराब माना जाता है। जो पैदा होने के बाद मर जाये या स्वयं माता-पिता उसका त्याग कर दें तो बेहतर माना जाता है अन्यथा वह सबके लिये कष्टकारी होता है।

’’पंडित जी ने फतुही की जेब से पंचांग निकाल लिया। पंडित पत्रा देखने लगे और छिंगा के पिता पंडित जी को, जिनकी भोंहें मिली, छितराई और माथे पर लकीरेेें खिंच गई। चेहरे का रंग गाढ़ा हो पीला हो गया। नक्षत्र गति पहले से ध्यान रखने के कारण वे गफलत में पड़ चुके थे। जातक अभुक्त मूल में पैदा हुआ था जो यातो होते ही मर जाये तो ठीक है अन्यथा पिता से लेकर परिवार तक सब पर तो भारी होता ही है, यह भी उल्लेख है कि- ’’आस-पास सब ऊजरे करें नाम धरैया पंडित मरे’’।

’’..........चौपालों और चबूतरों पर शास्त्रों के उल्लेख हुए कि रावण का पुत्र नारान्तक अभुक्त की पैदाइश था। वह तो विद्वान् रावण ने समुद्र में बहा दिया अन्यथा समुद्र पूरी लंका ही लील जाता।’’9

विवाह एक संस्कार है और सामाजिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग। विवाह की रस्में अलग-अलग धर्म के अनुसार भिन्नता लिये होती हैं। क्षेत्र एवं वर्ग के अनुसार भी उसमें वैविध्य आ जाता है। यदि महाराज या नगर के महामहिम के यहाँ विवाह हो तो वह उनका ही नहीं पूरे शहर की रौनक का विषय होता है।

’’आज तो शहर बेहद खूबसूरत हो उठा है दुल्हन की तरह सजा कहना शहर का अपमान करना है। दुल्हन तो हर किसी ऐरे गैरे-नत्थू खैरे की बेटी भी बन जाती है। कहना होगा कि शहर अपसरा की तरह सजा है। एक बात समझना जरूरी है गाँव तो मिट्टी है मिट्टी का सजना क्या और न सजना क्या। कस्बे कभी-कभी सज लेते हैं, शहर तो सजेे ही होते हैं, त्यौहार उत्सव पर वे विशेष रूप से सजते हैं और राजधानी? वह नित नई सजती है वीरांगना की तरह।’’10

’’शाही स्वागत में मुख्य मार्ग भी जगर-मगर हो रहे थे विद्युत विभाग भी मुस्तैद था और सीधे खंभों से विजली लेने की मौन स्वीकृति भी थी।’’11

विवाह समकक्ष या समतुल्य लोगों में ही सम्पन्न होता है। यदि वधु पक्ष उच्च बर्ग या रौबदार है तो वर पक्ष भी विशेष उपमा मण्डित होगा। नगर प्रमुख के यहाँ विवाह हो तो नगरवासियों को आमंत्रण मिलना स्वाभाविक ही है। फिर समधी का तात्पर्य भी यही है जो समान हो।

’’सारा नगर गौरव सागर में डुबकी लगा रहा है बारात लाने वाले भी महामहिम हैं, होने भी चाहिए। गांवड़ी कहावत में लाखों चिट्ठियाँ फाड़ी गयी हैं। ठठ के ठठ देहाती जेब में राज चिन्ह मुद्रित चिट्ठियाँ धरे राज पथ के किनारे खडे़ हैं।.......... महात्मा तुलसी कह गये हैं - सम समधी देखे हम आजू सही है साँप का मँुह साँप ही सूँघ सकता है।’’12

मंत्रोच्चारों के द्वारा मण्डप के नीचे विवाह की रस्म होती है जिसमें भाँवरें भी पड़ती हैं। पर कुछ विवाह कागजी भी होते हैं जिसमें अनुबंध होता है। साथ ही शपथ भी होती है।

’’चूँकि कृपाराम के साथ वह भाँवरों के फेरे डालकर नहीं, अपतिु नोटरी के समक्ष ली गई शपथ और अनुबंध के तहत घरवाली बनी थी जिसका वकील ने बाकायदा सरकारी कागज खरीदवाया था..........।’’13

विवाह के बाद वधू घर में महावर के रचे पैर सहित घर में प्रवेश करती है और चावल से भरा वर्तन पैर से लुढ़काती है।14 नामकरण (नाम रखने) की परम्परा हिन्दुओं में ही नहीं मुस्लिम वर्ग में भी देखने को मिलती है। उसके यहाँ मौलवी नाम रखते हैं।

’’........एक रूपया कलदारी नजराने के बदले में मौलवी साहब ने उन्हें नाम दिया था-फतह मुहम्मद खाँ। ’नट के बेटे का इतना लम्बा नाम कौन लेता वह फत्ते रह गया।’’15

मुस्लिम समुदाय नमाज पढ़ता है और मस्जिद उनकी पूजा स्थल होती है। वहाँ नमाज अदा करने के लिये लाउडस्पीकर का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। मस्जिद के पास शराब की दुकानें मस्जिद की पवित्रता को भंग करती हैं।

’’..........मैंने तभी कहा था कि मस्जिद में लाउडस्पीकर मत चढ़वाओ पर हाजी साव के आगे किसी ने मेरी सुनी? अरे गले का दम दिखाओ। ढोल के आगे हम कौनसा लाउडस्पीकर लगाते हैं- हाथ के जोर से ही तो आवाज निकालते हैं। दो कोस दूर सुनलो। मस्जिद के नीचे दुकानें निकाल किराये पर उठा दीं। कल कोई उनमें दारू बेचने लगे तो क्या कर लोगे? जिस जगै तिजारत का हो हल्ला हो वहाँ इबादत क्या खाक होगी।’’16

मुसलमानों में कई विवाह तथा रिश्ते में विवाह करने का प्रचलन है। फातिमा का दो बीबी वाले पुरूष से निकाह कर दिया।17 किन्तु - सौत को झेलपाना सबके बश की बात नहीं है फातिमा और रमेश साथ-साथ पढे़ हैं खेले हैं। दोनों में आत्मीयता थी किन्तु फातिमा की मामी ने दोनों से सिर हिलवा लिया था। उनमें भाई-बहिन के लड़के-लड़की का रिश्ता हो जाता है। किन्तु चाँद खाँ मामा ने तलाक कहलवा दिया था।18

औरत का विवाह मन माफिक न हो तो अधिक दिनों तक वह नहीं चल पाता। उसे घसीटना पड़ता है। विवाह संस्कार में शारीरिक तृप्ति ही नहीं मन का मेल भी आवश्यक है। जब मन नहीं मिल पाते तो तन स्वयं दूर होते जाते हैं। यह एक महिला ही अच्छी तरह समझती है। रमेश की पत्नी कहती है.........बेमन का सुहाग औरत को झरबेरियों के बीच घसीट लेता है लगता है उन्होंने पति का घर सौत की वजह से नहीं छोड़ा’’।19

अतिथि देवो भव के हिसाव से अतिथि का स्वागत सत्कार हमारे पुराणों में भी वर्णित है। गाना गाकर काम करने से काम में व्यतीत समय और लगने वाले श्रम का मान नहीं होता। गाँव में ढोलक, अलगोझा, हारमोनियम तथा ढोल बजाये जाते हैं।20 मेहमान आने पर भी गा-बजाकर मेहमान का स्वागत करने की परम्परा का निर्वहन होता है। गोबर से चौबारा लीपा जाता है और चाय मिठाई-नमकीन से स्वागत किया जाता है।

’’गोबर से अच्छी तरह लिपे एक चबूतरे पर खटिया डाली गयी थीं जिनकी पुरानी रजाइयों को नई चादर से ढांक दिया गया था। चाय के साथ मिठाई-नमकीन की प्लेट देखकर मेरा जी फिर मिचलाया.............रात का खाना था गरम-गरम। जमादारों की मण्डली ढोलक मंजीरों के साथ गीतों में रम गयी।21

सरकारी अधिकारी आने पर भी स्वागत किया जाता है। सरपंच पटवारी अगवानी के लिये दौड़ पड़ते हैं उन्हें तखत पर बिठाया जाता है पंखे की दिशा उनकी ओर मोढ़ दी जाती है। चौकीदार पीछे खड़ा हथ बिजना डुलाता है।22

व्यक्ति पाप करता है तो पुण्य करके अपने पाप की आवृत्ति को कम भी करना चाहता है। अतः पाप-पुण्य का जोड़ा है। कुछ लोगों की फितरत कभी समझ में नहीं आती। वे पाप भी करते हैं और पुण्य भी कभी-कभी तो दोनों एक साथ करते हैं। डाकुओं का साथ भी देते हैं और भागवत कथा भी बाँचते हैं। डाकू भी अपने जीवन की तुलना जोगी से करते हैं। ऋषि मुनियों की तरह दस्युदल चातुर्मास भी धार्मिक स्थानों पर बिताते हैं।

’’...........हम लोग जोगी जती हैं। करपात्री हैं, जब जहाँ जो मिल जाये खा लो और मौका मिल जाए तो सोलो। बांकी चलते रहो जोगी-जती कहीं किसी से नहीं बंधते। हमारी भी वही गति है। न जिंदगी का मोह, न घर-द्वार की मया(माया)।23

महन्त भी वैराग्य लिये रहते हैं ग्राहस्थ नहीं होते थे किन्तु झलकराम ने महन्त के स्वर्गवासी होने पर गद्दी संभाली तो ग्रहस्थी भी संभालने लगे उन्होंने विवाह किया और मंदिर में ही सपरिवार रहने लगे।

’’महन्त की खुद क्या गृहस्थी? लंगोटी कंबल, कमण्डल और चादर।...........हाँ गद्दी की परम्परा उन्होंने (झलकराम) ने अवश्य बदल दी। महन्त विधिवत् विवाह कर गृहस्थी नहीं हो सकता था। झलकराम जी, अब शास्त्री भी कहलाने लगे थे, उन्होंने ठाठ से विवाह किया और ठसके से गृहस्थी बसाई। उनकी गृहस्थी भी मन्दिर में ऐसी फैली कि गोपाल जी सिमटकर सिमटाकर केवल परिक्रमा से घिरी कोठरी में समा गये।’’24

महन्त ताबीज, तंत्र विद्या में निपुण हैं, माथा रंगे हुए सबको भबूूत देता है। रंग बिरंग चंदन से माथा लिये शास्त्री जी सुबह-शाम घण्टा हिला, शंख झालर की रस्म अदाई कर अपनी नीम अधेरी कोठरी में जा बैठते हैं, जहाँ लोहबान धूप और अगरबत्ती के धुएँ में अस्फुट बुदबुदाहट के बीच मुकदमा संतान और भाग्य के ताबीज तैयार होते हैं।25

धार्मिक क्रियाकलाप कई प्रकार से किये जाते हैं। कुछ लोग अमावस, पूनों, तीज त्यौहार, थालियाँ भरकर सीधा दान में देते हैं।26 कीर्तन भजन करवाते हैं। कुछ अखण्ड रामायण का पाठ करवाते हैं तो कुछ लोग सत्यनारायण भगवान की कथा करवाकर ही अपने घर को पवित्र करना चाहते हैं। यह परम्परा हर वर्ग और हर जाति के लोग करवाते हैं।

’’केले के पत्तों की छाँव तले काठ के पटरे पर शालिग्राम भगवान को बिठाकर, घी दूध-गेंहूँ के चून की पंजीरी के सरंजाम में, धूप और अगरबत्ती के धूम से गमकते, गोबर लिपे कमरे में मैंने बड़े उत्साह से पोथी पढ़ी थी।’’27

कसम खाने की आदत कुछ लोगों में होती है भैया कसम, अम्मा की कसम, बजरंग कसम (गॉंधी रोड), कुछ लोगों में बात-बात पर गाली दने की आदत होती है(गॉंव का जोगी पार), बुजुर्गों से सलाह ली जाती है (फटे हुए कोने)। अखाड़ा होता है और दण्ड बैठक भी लगती है (फतह), नयी चीज आने पर गरी और गुड़ भी बाँॅटते हैं (पहरूआ)। खर सियार कूूकर आदि का रोना असगुन माना जाता है (पानीदार)। मसान व भूत प्रेत भी होते हैं(कटे हुए कोने), फारिग होने बाहर जाते हैं, कुल्ला दाँतुन करना, तेल लगाना, बाल संवारना (लक्ष्मण रेखा) किया जाता है। जाड़े के दिनों में तापा भी जाता है (लक्ष्मण रेखा)।

व्यक्ति पैदा हुआ है तो मृत्यु भी निश्चित है। जब ऐसा लगने लगता है कि व्यक्ति की मृत्यु बिल्कुल निकट है तो उस के मुँह में गंगाजल व कन्या का चरणामृत डाला जाता है। (फटे हुए कोने।) मृत्यु के उपरान्त उसकी आत्मा की शांति के लिये त्रयोदशी भी की जाती है जिसमें गाँव भर को निमंत्रित किया जाता है(निबौरी)। त्रयोदशी आदि श्राद्ध कर्म न होने से व्यक्ति को मसान की यौनि मिलती है जिससे मुक्ति के लिए परिवार जनों ने दर्भ-पुतले के क्रिया कर्म सहित शांति अनुष्ठान किया गया तब कहीं गाँव प्रेत-भय से मुक्त हो पाया (फटे हुए कोने)। व्यक्ति के मरने के बाद फेरे पर जाने की भी परम्परा है (कांकर पाथर)।

नाव पार करते समय केवट यात्रियों के पैर धुलवा लेता था वह उसकी भक्ति की उच्च परिणति थी। किन्तु आज भी नदी पार करते समय यात्री उसमें रूपये, सिक्के, नारियल आदि अर्पण करते हैं। नदी को तैर कर या मथने द्वारा पार करते समय कुछ क्रियाएं की जाती हैं ताकि बिना बाधा के पार पहुँचा जा सके।

’’कमर तक पानी में पहुँच रामा ने गंगाजी का स्मरण कर एक चुल्लू पानी मुँह में डाला, उसके बाद दूसरा सिर से घुमाते हुए धार की ओर उछाल दिया। दो कदम और बड़़ रामा ने वई हथेली तली से चिपकाई व दाहिनी मुट्ठी मथना के किनारे पर कस दी-जै गंगा मैया।’’28

धर्म के रिश्ते भी हमारी संस्कृति में बखूबी ही निभाये जाते हैं। एक बार रिश्ता बनता है और मृत्युपर्यन्त उसका निर्वाह होता है वह चाहे बहन-भाई के हो (कॉंकर पाथर, लक्ष्मण रेखा) या देवर भाभी के (लक्ष्मण रेखा, फटे हुए कोने) संबंध हों। फिर चाहे देवर बेटे की उम्र का ही क्यों न हो, संबंध तो निर्बाध गति से निरन्तर चलता रहता है। इतना ही नहीं पत्नी द्वारा दूसरा पति कर लेने के उपरान्त जो बच्चे पैदा होते हैं उन्हें पालने में भी पति पीछे नहीं रहता (सादे कागज का प्रेम-पत्र)।

जाति के नाम से टोलों की पहचान होती है। गड़रियाना, चमराना, मुसलमानी टोल, जाटों का टोला आदि। शूद्र बहू यदि कमाउ है तो गाँव में लोग उसे कलियुग मानते हैं (निबौरी)। ऊँची जाति में रखैल रखी जा सकती है इस बात की उन्हें परम्परानुसार छूट है (हॅंसिया, पानी और चाँद)। छोटी जाति से शारीरिक संबंध या रखैल के रूप में रखने से ऊँची जाति को परहेज नहीं है पर उसका जूठा गिलास लेने में छुआ छूत की भावना मन को उद्वेलित करती है।

’’..........उसके हाथ से जूठा गिलास लेते देह सुलग उठती है अजमेर की.............ससुरी नौकरी जो न करावे। ब्राह्मण ठाकुर की जूठन तक सबर भी करले पर जात कुजात? झेलना कठिन है, अजमेर ही जानता है-मन पर जाने कितनी सलवटें पड़ जाती हैं’’।

’’..............मास्टरनी हँसना - बोलना चाहे तो बीच में जाती आड़े न आने देने का इशारा भी दबे ढके कर चुका है........’’29

’’होय सकत होता, तो मैं कर देता पर तू जानती है ना कि हमारे यहाँ रांड करिबे की रीत नहीं है।

अच्छी रीत है। संग सोय सकत हो...........संग रह नहीं सकत, खान - पियन नहीं कर सकत’’।30

ऊँची जाति को अपने से नीची जाति के हाथ का भोजन खाने में संकोच और हिचक होती है यदि खा भी लो तो जाति बिरादरी से बाहर कर देगी (फटे हुए कोने)। मजदूरिनों में मजदूरी कार्य है पर जाति का प्रश्न ज्यों का त्यों है। साथ-साथ मजूरी करना एक अलग बात है मजबूरी है, पर रोटी का ब्यौहार? आज बगल में बैठी तो कल रोटी में भी शामिल होना चाहेगी (मर्दमार)। ऊँची जाति को अपने घर जाते देख एक तो व्यक्ति को भय लगता है दूसरी ओर वह खुश भी होता है (पहरूआ)। मर्द जाति औरत जाति का रौब नहीं सह सकती-

’’ले.......... कमला ने अपने जूते बढ़ा दिए। रामा को लेने पड़े। वह ग्लानि से भर गया-साली नीच जाति की औरत। बड़उआ जाति का कोई ऐसा कभी न करता।.............’’31

जातिवाद का जहर गाँव शहर कस्बों और महानगर में होता हुआ अब विद्या के मन्दिरों को भी ध्वस्त कर रहा है। व्यक्ति के सही कार्यों को भी जाति के ज़हर में डुबो सत्य को असत्य साबित कर दिया जाता है। गलत व अनीति के कार्य करने के लिये तथा अपना दबदवा बनाये रखने के लिये जातिगत बातें फैला दी जाती हैं।

’’.........शर्मा पर दबाव बनाने के लिये उन्होंने ही यह बात उड़ाई है कि चॅंूकि शर्मा ब्राह्मण हैं और यहॉं 85 प्रतिशत छात्र हरिजन तथा पिछड़े वर्ग के हैं अतः शर्मा नहीं चाहता कि लड़के उŸाीर्ण होकर आगे बढ़ें।’’32

हिन्दु मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बीज दोनों दिलों में विद्यमान हैं। एक जरा सी किसी भी कौम की गलती दोनों मजहबों को तहस-नहस कर देती है उनके आपसी संबंधों को नफ़रत की आग में जला देती है। किसी मुसलमान के द्वारा बछिया काटने पर दंगा चालू हो गया। पुजारी फत्ते खाँ को घर जाने के लिये कहता है पर उसका उŸार ठीक ही है -’’घर कस्बे से अलग तो नहीं है, महाराज।’’ हिन्दू भी वलीशा की मजार फतह करने ट्राली में भरकर चल दिए - ’’असली हिन्दू हो तो संग दो - नई दोगले हो’’ जैसे नारे लगाकर। वह मजार जो हिन्दू सुहागनों की गोद भरती है। उसे तहस-नहस कर दिया गया।

’’सेना मजार पर चढ़ गई। जूते..........कीचड़ धूल। पचास कदम पर शिवमंदिर है। हर हर.....। जहर चढ़ने लगा। मिनिस्टर के कक्का ने गेंती तानी हँू........ऊँं खच्च! मजार की खाल उधड़ गई, कितनी सुहागिनों ने यहाँ गोद भरने की मन्नत माँगी हैं? परीक्षा पास करने कितने छात्रों ने माथा टेका है।’’33 दूसरे धर्म के अपमान में व्यक्ति अपने धर्म का भी अपमान कर देता है।

’’.........मूर्ति की अस्थापना करो..........कहीं से भी लाओ........पूरी फतह तभी होगी।’’ ’’ऐसा करो! .........महादेव की पिण्डी उखाड़ कर यहाँ बैठा दो।’’

’’ठीक। यही ठीक है’’ सोचने का समय किसके पास था? भीड़ मंदिर की ओर दौड़ी - ’’जोर लगा के उखाड़ो। हाँ जरासा और खटाक पिण्डी टूट कर दो फाँक हो गई।’’34

किन्तु हिन्दू-मुस्लिम भाई चारा और सद्भाव भी देखनेे को मिलता है मुस्लिम पुरूष हिन्दू महिला को बहन मानकर भात पक्ष भी पहनाता है (लक्ष्मण रेखा)। मुस्लिम महिला हिन्दुओं का उपचार करती है। हिन्दू देवता एवं अल्लाह दोनों को याद किया जाता है।

’’.............हनुमानजी को हाथ जोड़ बल बुद्धि बिद्या की माँग के साथ कलेश विकार दूर करने की विनती कर मुन्ना ने कानों पर हाथ छू अल्लाह को याद किया...........।’’35

कुटुम्ब में एक व्यक्ति के सुकर्म का लाभ कुटुम्ब ही नहीं आस-पड़ौसी, रिश्तेदार, दोस्त, जान पहचान वाले यहाँ तक कि उस क्षेत्र से संबंधित लोग भी लेने से नहीं चूकते। यही स्थिति अनीति की है। परिवार का कोई सदस्य कोई गलत कदम उठा ले तो उसका परिणाम परिवार के सभी सदस्यों को झेलना पड़ता है। विवाहित रूक्मिणी जब पटवारी के साथ चली जाती है। भाईयों को व्यंग्य बाण सहनेे ही पड़ते हैं -’’ऐसे ही जोध - होतेे तोे बहन को रोक लेते जो आन मर्द से बच्चे जन रही है।’’

’’उन्होंने भगी हुई को मरी मानकर स्वयं को सांत्वना दे ली थी। छह सालों में भाई-बहनों की देह ने भी रंगत बदली। अब बड़ा भाई बाइस का और बहन अठाराह की हो गई, पर रूक्मिणी का इतिहास परिवार के चेहरे पर ऐसा पुता था कि कोई ब्राह्मण न उस घर में बेटी देने को तैयार हुआ न उस घर की बेटी लेने।’’36

इसीलिये पारिवारिक सदस्य द्वारा गलत कार्य किये जाने पर या तो उससेे रिश्ता खत्म कर लिया जाता है या उसे मारकर विवाद समाप्त कर दिया जाता है। नैतिक अत्याचार नाम का एक नया कानून भी बन गया है इस से किसी वंश या जाति के किसी भी पूर्वज द्वारा दिए गए अथवा माने गये पाप का भुगतान उसके किसी भी वंशज अथवा माने गये वंशज से वसूल कर लिया जाना निहित है (बांबी, पहरूआ)

कटारे जी की कहानियों में ग्राम्य परिवेश की सुगंध एवं बयार है ग्राम पुत्र होने के नाते वहाँ की संस्कृति में स्वयं भी रचे बसे हैं। उनके लेखन में गाँव की मिट्टी की सोंधी खुशबू एवं लहलहाती फसल की झलक है। शब्द भाषा की इकाई है और भाषा संस्कृति की द्योतक है किसी देश की संस्कृति को जानने के लिये उसकी भाषा जानना अति आवश्यक है। उनकी कहानियों में छज्जे, बालकनी, गलियाँ, हँडिया, बेर, बबूल, करोंदा, पोखर, मेढ़, चबूतरा, खपरैल, मझोला आंगन, पौर, खटिया, खोखा, हवेली, कोठी, ढिबरी, दंगल, हार, चौपाल, हँंसिया, पूरा, आदि शब्द देखने को मिलते हैं।

मिलने पर लोग एक दूसरे को अभिवादन करते हैं। रामराम, नमस्ते, राम राम श्याम श्याम, राम जुहार करना, पिण्डली तक दबाकर पैर छूना आदि कई तरह से अभिवादन किया जाता है। पालागन करने की प्रथा गाँव में अभी शेष है। ’’छोटी जाति के लोग आज भी ब्राह्मण का पालागन करते हैं चाहे वह ब्राह्मण उम्र में छोटा ही क्यों न हो’’

’’जुहार पालागन हुई आखिर ब्राह्मण है रमेश। गोे कि पुरानी परिपाटी जैसे-तैसे ही घिसट पा रही है बस लकीर पीटने जैसा निवाह रह गया है जो दूसरे अपनी तकदीर में लिखा लाये हैं- यानी काश्तकारी। खेती और मजूरी में नाम छोड़कर फरक क्या है? जैसे रमेश वैसे लचका।.....ये जरूर है कि पालागन करने में न रमेश का कुछ बढ़ता है न लचका जैसों का कुछ कम होता है।’’37

किन्तु पैर छूने से छुलाने वाले के पुण्य पैर छूने वाले के पास चले जाते हैं। शायद इसीलिये ब्राह्मण दान लेकर ही पैर छुलवाते हैं - सेंतमेंत में कोई अपना पुण्य किसी को क्यों देगा?38

जब व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो रिश्ते के अनुसार संबोधन करते हैं या उम्र के अनुसार, क्षेत्र के अनुसार जाति के अनुसार स्वयं ही संबोधन देने लगते हैं। भाईसाब, साब, हुजूर, भाई, चाचा चाची, दादू आदिे संबोधनों का आश्रय लिया जाता है। साथ साथ नाम के साथ जाति बोली जाती है जैसे रमेश पण्डित। पिता को बापू, पिताजी तथा मुस्लिमों में अब्बू कहकर बुलाया जाता है।

’’मुन्ना फत्ते खाँ को बापू कहकर ही संबोधित करता है यहाँ प्रचलन है इधर थोड़े से ठिकानेदार घरों के पिताजी और अब्बू जान को छोड़कर सभी जातियों में यही कहा जाता है।’’39

डाकू जय भीम का उच्चारण करते है। महिलाओं में दुल्हन, दुल्हनिया, मुन्ने की अम्मा, पंडित की अम्मा, चतुरी की अम्मा, भाभीजी, भौजी, काकी, मामीजी, आदि संबोधन दिये जाते हैं। एक नया संबोधन ’मलैयन’ भी दिया गया है जो मालवा प्रदेश से संबंधित है।

’’दूसरी-तीसरी दहाई के हिसाब से इलाके में जब अकाल पड़ता है तो छान-झोंपड़ी को जंग-खाए ताले में सुरक्षित कर पंडित, पटेल, पटवारी के पैर छू लोग मालवा की ओर निकल जाते। मालवा में समय काटते-काटते किसी किसी को अकाल भी फलता तो ग्रह-नक्षत्रों के संयोग से वह अपना घर बसाए लौटता। बिछुआ महावर से सजी यह मालविन ही मलैयन कहलाती। कालान्तर में हुआ यह कि परदेश की किसी भी दिशा से घर बसे, वह मलैयन पुकारी जाने लगती।40

लोग साधारणतया साधारण कपड़े पहनते। पैन्ट, फतुही, शर्ट, धोती, कुर्ता, साफा, अंगरखा, शाल, साफी, साफा, बनियान आदि का प्रयोग करने। टोपी भी शौक से पहनी जाती।

’’फत्ते ने जिन्दगी भर साफा बांधा है मुन्ना बचपन में गांधी टोपी लगाकर स्कूल जाता रहा..............खै़र दो टोपियाँ वह खरीद लाया है। उसने झोले में से प्लास्टिक की थैली निकालकर बाप की बगल से ललचाते बेटे को पकड़ा दी। पिटने का डर न होता तो सिकन्दर इसी वक्त टोपी पहन हाजी साब के घर की ओर दौड़ जाता’’41

महिलायें साड़ी, लहंगा पहनती हैं। डाकू रूप में कमला मर्द के समान पेन्ट शर्ट भी पहनती है(पार)। कांसे के कड़े और बिछुए पहनने का भी रिवाज है। जनानी नाक तक घॅंूघट में थी। एड़ी ऊपर काँसे खनन-खनन कर रहे और पैरों में बिछुआ छनकारे भर रहे थे। हाथों में चांदी के कड़े और गले में झांकती हंसुली पहनने का रिवाज था (फटे हुए कोने)।

खानपान सामान्य किस्म का ही लोग प्रयोग करते हैंे। शाम के भोजन को ब्यालू और सुबह के नाश्ते को कलेउ कहा जाता है। चाय, शराब, ब्हिस्की, गुटका, गांजा, धूम्रपान का भी प्रयोग हुआ है। आज जबकि धूम्रपान निषेध होते हुए जुर्माना लगने लगा है किन्तु फिर भी उस पर निषेधाज्ञा लागू नहीं हो पा रही। आप भले ही धूम्रपान न करें कितनी ही बेरूखी दिखायें लेकिन धुँए के हकदार तो होंगे ही।

’’भाई साहब। माचिस होगी? आप भले ही बेरूखी से मना करदें.....अपनी बीड़ी या सिगरेट कहीं और से सुलगाकर कांखता या भुनभुनाता हुआ वह आदमी फिर लौट सकता है और बीड़ी का बंडल या सिगरेट का पैकेट आप की तरफ बड़ा पूछ लेगा पिऐंगे?.......आप ज्यादा से ज्यादा मना कर देंगे........वह आपके और निकट आएगा। दीवाल या बैंच से पीठ टिका, उठे, मँह से धुआँ खींचते या छोड़ते हुए आपकी धूम्रपान न करने की आदत की प्रशंसा करने लगेगा। धूम्रपान से होने वाली हानियों को स्वीकारते हुए अपनी बुरी आदत पर झींकेगा। गरज यह कि बात करने से उसे न तो आप स्वयं रोक पाएंगे, न भारतीय पुलिस सेवा के हकदार हो पाएंगे।’’42

गुड़, रोटी, अचार, गेहूँ चने उबालकर कच्ची प्याज में नमक मिर्च की बुरकनी के साथ खाना तथा मसाला डोसा, टॉफी भी खाने के प्रसंग हैं। व्यक्ति के पास स्कूटर, कूलर हैं और फ्रिज लाने की योजना भी है (सिददीकी कहता है)।

कटारे जी की कहानियों में महिलाएं सेक्स की पूर्ति के लिये अनैतिकता का आश्रय नहीं लेती (मर्दमार, निबौरी, लक्ष्मण रेखा)। यहाँ तक कि सरकारी मदद को भी वह तिलांजलि दे अपने घर वापस आ जाती हैं(हँसिया, पानी और चाँद)।

आज भी लोग महाराजा से जुड़े लोगों को वोट देकर अपने नमक का कर्ज उतारने में लगे हैं (मुर्दा स्थगित है)। बलात्कार के बाद गर्भवती होने पर वह अपना भू्रण समाप्त नहीं करती (वगल में बहता सच)। बालाराम जैसे व्यक्ति दूसरों की भलाई और कल्याण के लिये स्वयं को मुसीबत में डाल लेते हैं। साथ ही लोग दूसरे के दुःख में दुःखी भी हैं (गांधी रोड़,) लोग मित्र का कर्ज (कांकर पाथर) निभाते हैं तो कुछ लोग पड़ौसी का धर्म भी निभाते हैं, यहाँ तक कि पत्नी के आगे बढ़ने का रास्ता प्रशस्त करते हुए स्वयं खाना बनाते हैं और बच्चे संभालते हैं (सादे कागज का प्रेम पत्र)।

मूल्य आज भी जिंदा है। तभी तो पशु की जान बचाने के लिये आदमी संघर्षरत है (कुआँ) और पर्यावरण की सुरक्षा के लिये बासी भोजन नदी में डालने से असहमत भी है (महालीला का मध्यम अंक)।

महेश कटारे की कहानियों में नारी की दुर्दशा का बर्णन है जिसे पराये नहीं, अपने सगे ही त्रास देते हैं, दैैहिक शोषण करते हैं और उसे उसकी किस्मत पर छोड़ देते हैं। कहानी की नायिका गीता के माँ-बाप की मृत्योपरान्त उसका पालन-पोषण उसका चाचा करता है और डिप्टीसाब के पुत्र से उसका विवाह कर उसकी जायदाद हथिया लेता है। परन्तु गीता के स्वप्न भंग हो गये। क्योंकि-’’डिप्टी साहब के इकलौते बेटे के साथ सप्तपदी चलकर महावर रचे पैरों से गीता ने जिस नयी देहरी पर चावल बिखेरे, वहीं एक अंधेरी सुरंग का मुहाना था, जिसके फर्ष पर किल बिलाती हुई गिंजाइयों के बिल थे’’।43

विवशता की मार झेलती नारी क्या करे? अपने हृदय में अपनी उमंगों के शव को छुपाकर घुटती रहे और रोगों को आमंत्रित करे अथवा व्यवस्था से विद्रेाह कर अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करे। मानवता की एवम् सम्बन्धों की सीमाओं को भी लाज से मुँह छुपाना पड़ा।

’’नारी-जीवन के साथ यह बहुत बड़ी बिडम्बना है। गीता का दैहिक शोषण कहा जाय इसे अथवा उसकी अतृप्त आकांक्षा की सम्पूर्ति का प्रयास? दोनों ही स्थितियों में उसका दुखद परिणाम अंततः नारी को ही भोगना पड़ता है - गीता की ही भांति। बदनामी को झेलते हुए बर्षों पश्चात् गीता उसी कोठी में अपनी संतान आशा को लेकर रहने आती है पर ग्रामवासी उसे ’अलौकिक’ समझने लगते हैं अकेली नारी के साथ जैसा कि प्रायः होता है उसके साथ भी हुआ। ग्रामवासी कुछ समय को उसे ’मानवी’ मानने की मानसिकता में आये परन्तु - ’’कत्ल करके भागी होगी’’, माल मार के भी आ सकती है ’या’ अरे छिनाल होगी। खसम की नाक के ऊपर हो गया होगा चरिŸार झोंटा पकड़ निकाल बाहर किया होगा।’’ जैसे व्यंग्य बाणों से बह बच न सकी।44

परिवेश चाहे ग्रामीण हो या शहरी-हर ओर नारी को मात्र ’भोग्या’ के रूप में देखा जाता है। गाँंव का भोला सत्ता जब गीता के सम्पर्क में आता है तो कुछ समय तक सब कुछ सामान्य रहता है परन्तु एक दिन भी वही कर बैठता है जो एक पुरूष नारी से चाहता है- ’’काल चक्र थम गया और और जाने कैसे? ने उसके हाथ पकड़ लिये- हथेलियों के बीच बर्फ की ठंडक भर गयी- आँंखों में पथरीला ठहराव, कहीं किसी हरकत का अहसास तक नहीं। सत्ता चेता..........। ’’यही पाना चाहते हो? मैं सोचती थी कि औरों से तुम शायद अलग हो। आखिर तुम भी वैसे ही निकले न’’?45

दीन-दुखियों से दूर अपने छोटे से परिवार में आसक्ति रखने वाली नारी है। ऐसा परिवार - जिसमें उसका पति है और बच्चे हैं। इतने छोटे दायरे में सिमटकर रहने वाली नारी अपने अन्य सामाजिक संबंधों के प्रति भी सजग है और संबेदनशील भी है।

राधा - आत्मसमर्पित दस्यु सुन्दरी है। इसके पाँचवे पति की हत्या हो जाती है। मरने वाला दूर के रिश्ते में लेखक की पत्नी का भाई होता है। घटना की विस्तार से जानकारी प्राप्त करने लेखक कोतवाली इसलिए नहीं जा पाता कि लोग क्या सोचेंगे ’’राधा के बारे में पूछते ही संदेह के छींटे इस तरफ भी आ सकते हैं कि गुरू तुम भी’’?46

अखबार के द्वारा गिरधारी - राधा के पांचवे प्रेमी पति की हत्या की जानकारी होने पर पत्नी दुखी हो जाती है और सुबकते हुए अपने दद्दा (’’गिरधारी’’) की खूबियाँ गिनानी प्रारंभ कर देती हैं। पति पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती तो उसके हृदय में क्षोभ संचरित होने लगता है, जो पति द्वारा - ’मुझे भी चलना पड़ेगा पूछने पर फट पड़ता है ’’ वह बमक पड़ी-’’तुम्हें कभी किसी का दुख दर्द भी सताता है कि नहीं? आदमी के सामने तो ऐसा नाटक करोगे कि तुमसे ज्यादा सगा दूसरा न होगा। बहस में साक्षात धर्मराज के अवतार हो जाते हो। रूस, अमरीका प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री। कोई गुण्डा चाकू लहराता मुहल्ले में आ जाये तो औरों की तरह घर में घुस बाद में हाथ फटकारोगेे। अकेली जाते अच्छी लगूँगी?’’

पति छुट्टी कम होने का बहाना करता है, तो पत्नी ही उसे संकट से निवारती है-’’वहाँ दो एक दिन लग सकता है। इम्तहान सिर पर है, घर और बच्चों को कौन देखेगा? मैं गुड्डू को लेकर चली जाती हूँ। शाम को या सुबह तक लौट आऊँगी। रोने-धोने के बीच तुुम कहॉंँ फंसोगे?47

नारी अपने समस्त दायित्वों का निर्वहन करना चाहती है और करती भी है। उसे अपने पारिवारिक दुख में संात्वना देने भी जाना है, उसे अपने बच्चों के इम्तहान की भी चिन्ता है और अपने घर की तथा पति की भी। परन्तु मनुष्य को इस की चिंता नहीं है कि उसकी जीवनसंगिनी कहीं दूर अकेली कैसे जाएगी?

पत्नी के जाने के पश्चात् लेखक के दोस्त शाम को घर आ जाते हैं और उसे लेकर चल देते हैं। शराब के दौर चलते हैं। लेखक भूल जाता है कि पत्नी नहीं है और घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं जिनका दायित्व उस पर है। वारूणी-दावत के मध्य संस्कृति पर बहस होती है, साम्यवाद पर बहस होती है, साहित्य पर बहस होती है, दायित्वों पर बहस होती है दुनियाभर के कार्य-कलापों पर बहस होती है - बुद्धिजीवी मित्रों में, पर बहस से आत्मसमर्पित दस्यु सुन्दरी राधा जाटव की परिस्थितियाँ अस्पर्ष रहती हैं और परिवार को समर्पित पत्नी की सदाशयता की चर्चा अनावश्यक समझी जाती है। यह बात और है कि लेखक पति को यह आशंका बनी रहती है कि यदि उसकी पत्नी के साथ ’रेप’ हो गया तो क्या होगा? यहाँ भी मनुष्य की सोच नारी के प्रति परम्परावादी हो जाती है- ’मित्र। यह एक सामाजिक समस्या है, जो कहीं भी किसी के भी साथ दरपेश हो सकती है। मान लो कोई अधेड़ औरत जिसके आगे बढ़ने और पीछे हटने के सारे रास्ते बन्द हो चुके हैं- हादसे की शिकार हो जाये तो उठती उम्र के बच्चों तथा ढलती उम्र के पति के बीच उसकी क्या स्थिति होगी?- मैं अपना ध्यान इस ओर से हटा ही न पा रहा था’’।

ढलती उम्र के पति की ’चिन्ता’ नारी के जीवन भर के सर्मपण के प्रति नहीं अपितु उसके ’सलील’ और ’पावनता’ के प्रति अधिक है। उसे सामाजिक संबंधों की चिन्ता सर्वाधिक है-’’बाद में चाहे जो हो, हमतो बर्वाद हो जाएँगे। मान लो पत्नी उनकी शिकार हो ही गयी, तब? शारीरिक तौर पर भले ही ज्यादा फर्क न पड़े, पर गृहस्थी और सामाजिक संबंधों के ताने-बाने क्या वैसे ही बनाये रखे जा सकेंगे? ठीक हैकि ये सबकुछ मजबूरी में होगा और मैं कोई पोंगापंथी विचार धारा वाला भी नहीं हॅंू फिर भी’’। नारी को एक ही दृष्टि से देखा जाता है रमेश पंडित का नित्य नियम फातिमा के घर बैठने का था, जिसे लेकर गाँव में उसके प्रति गलत धारणा बन गयी थी। लोगों ने जासूसी की और पाया कि रमेश फातिया के घर जाकर चाय पीता है, खेती-किसानी की बातें करता है और चला आता है। फिर भी लोगों के पण्डित उसे मारता है। इस वैमनस्य के चलते रमेश की अनुपस्थिति में उसके कुएं से मोटर चोरी हो जाती ह। रमेश के लड़के को साथ लेकर फातिमा रिपोर्ट लिखाने थाने जाती है। दूसरे गॉंववालोें पर आश्चर्यमिश्रित तीखी प्रतिक्रिया होती है।

नारी-स्वभाव के बारे में आम धारणा प्रचलित है कि वह अपने और अपने पति के बीच किसी तीसरी स्त्री को किसी भी सूरत में सहन नहीं कर पाती और सौत तो मिट्टी की भी हो, तब भी उसे असहनीय होती है। परन्तु इस कहानी की नारी सबकुछ जानते हुए भी उम्र के प्रायः ढलान पर बैठी अन्य नारी-फातिमा न केवल सहानुभूति रखती है। अपितु उसके बुढ़ापे की चिन्ता भी उसे है। नारी का एक और उदात्त रूप ीाी फातिमा के चरित्र द्वारा प्राप्त होता है। यह नारी अपने प्यार के लिए अपना वैवाहिक जीवन ढुकरा देती है, समाज के अच्छे बुरे ताने सहती हैं फिर भी दीपक की बाती की भंति चुपचाप जलती रहती है। वह जानती है कि अपने प्रिय को वह प्राप्त नहीं कर सकती फिर भी वह अहर्निश उसे देख कर ही सुख व शांति का अनुभव करती है। वस्तुतः यही एकान्तिम प्रेम, यही प्रेम की मौन साधना मनुष्य को ईश्वर की राह तक हो जाने में सक्षम होती है।

नारी अपने अस्तित्व के लिए अकेली ही समाज के ठेकेदारों से जूझती है। कहानी का नारी पात्र ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जो वर्षों से दलित है, शोषित है और समाज में अस्पृश्य है। वहीं एक और नारी पात्र है, जो हजार वर्षों की स्थापित दूषित मान्यता को ढोकर मारकर त्याज्य को अपनाता है। प्रथम पात्र के रूप में हैं - कहानी की नायिका पूर्णिमा और दूसरे के रूप में हैं - शर्मा जी की अम्मा।

पूर्णिमा दलित जाति की लड़की है, जो बी. ए. पास है, पर समाज में उसके अनुरूप वर न मिलने के कारण उसका विवाह दुजहा से कर दिया जाता है, जो क्लर्क है। पति की मृत्यु के उपरानत पूर्णिमा गांव के सरकारी स्कूल में अध्यापिका हो जाती है। वह अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण सजग है। अन्य अध्यापक जहॉं दोतीन घण्टे ही स्कूल में व्यतीत करते हैं, वहीं पूर्णिमा पेरे पांच घण्टे कक्षाएं लेती है। उसका उठना-बैठना मात्र अम्मांजी के घर तक सीमित है। उसके सास-ससुर की दृष्टि उसकी देह पर है। गॉंव के ठेकेदार भी उसे खा जाने वाली दृष्टि से देखते हैं। उन्हें यह खटकता है कि शूद्र वर्ष की नारी इतनी पढ़ी-लिखी क्यों हैं? और तो और, स्कूल का चपरासी तक उसे वासना की दृष्टि से देखता है। नारी ’भोग्या’ नहीं बनना चाहती। अम्मा द्वारा पूर्णिमा को उसके देवर के साथ बैठ जाने की बात पर वह कहती है। - ’’गलत न समझना अम्मा। जाने क्यों मुझे लगता रहा कि जगराम(पूर्णिमा का पति) सिर्फ दैनिक आवश्यकता की वस्तु है। आज तो लगता है कि उस वस्तु के बिना भी सांस चलती रह सकती है। उतार-चढ़ाव का अन्तर भले ही पड़ जाय।

कटारे जी की कहानियों के नारी पात्र ’टाइप्ड’ नहीं है। उनमें विविधता है और वे बहुरंगी हैं। पुरूष प्रधान समाज में ये पात्र अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिए, अपनी नयी परिभाषाऐं गढ़ने के लिए आतुर हैं। अपने उद्देश्य में इन्हेें सफलता भी प्राप्त होती हैं, जैसे ’निबौरी’ की पूर्णिमा। यही बात इनके अन्य कथा-संकलनों - समर शेष है व इतिकथा - अथकथा की कहानियों के नारी-पात्रों के सम्बन्ध में कही जा सकती है।

अध्याय - 4

महेश कटारे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

स.क्र. कहानी - कहानी संग्रह -पृ. संख्या

1- पहरूआ - पहरूआ कहानी संग्रह - पृ.-30

2- बांबी - -तदैव- पृ.- 20

3- फतह - मुर्दा स्थगित कहानी संग्रह - पृ.- 63

4- वही पृ. - 65

5- बगल में बहता सच - मुर्दा स्थगित - पृ.- 25

6- वही पृ. - 26

7- गाँव का जोगी -तदैव- पृ.- 95

8- पहरूआ - पहरूआ - पृ. - 78

9- गाँव का जोगी - मुर्दा स्थगित है - पृ.-96

10- मुर्दा स्थगित- मुर्दा स्थगित -पृ.-10

11- वही पृ. 13

12- वही पृ. -11

13- फटे हुए कोने - पहरूआ - पृ. - 50

14- बगल में बहता सच - मुर्दा स्थगित - पृ.-28

15- फतह- मुर्दा स्थगित - पृ.-63

16- वही पृ. - 68

17- लक्ष्मण रेखा - मुर्दा स्थगित - पृ.-60

18- वही - 60-61

19- वही - 61

20- मर्दमार - पहरूआ - पृ.-120

21- सिद्दीकी कहता है- मुर्दा स्थगित - पृ.-94

22- हँसिया, पानी और चाँद - पहरूआ - पृ.-142

23- पार - पहरूआ - पृ.-30

24- निबौरी - मुर्दा स्थगित -पृ.-78

25- निबौरी - मुर्दा स्थगित -पृ.-78

26- मर्दमार - पहरूआ - पृ.-121

27- फटे हुए कोने - पहरूआ - पृ.-56

28- पार - पहरूआ - पृ.-35

29- निबौरी - मुर्दा स्थगित - पृ.-75

30- हँसिया, पानी और चाँद - पहरूआ - पृ.-139

31- पार - पहरूआ - पृ.-36

32- इस सुबह को नाम क्या दूँ - पहरूआ - पृ.-154

33- फतह - मुर्दा स्थगित - पृ.-72

34- फतह - मुर्दा स्थगित - पृ.-73

35- वही पृ.-67

36- सादे कागज का प्रेम-पत्र - पहरूआ - पृ.-47

37- लक्ष्मण रेखा - मुर्दा स्थगित -पृ.-49

38- फटे हुए कोने - पहरूआ - पृ.-5

39- फतह - मुर्दा स्थगित -पृ.-64

40- फटे हुए कोने - पहरूआ - पृ.-51

41- फतह - मुर्दा स्थगित -पृ.-6

42- सादे कागज का प्रेम-पत्र -पहरूआ- पृ.- 39

43- मर्दा स्थगित - मुर्दा स्थगित - पृ.- 28

44- वही पृ. - 24

45- वही पृ. - 27

46- कांकर पाथर - मुर्दा स्थगित - पृ. -34

47- वही पृ. 40

48- निबौरी - मुर्दा स्थगित - पृ. 81

49- डॉ. भारती दीक्षित - ग्वालियर चंबल संभाग के कहानीकारों के नारी पात्र शोध ग्रंथ- जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर - पृ. 50-55