Gwalior sambhag ke kahanikaron ke lekhan me sanskrutik mulya - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 11

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 11

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय - चार

प्रतिनिधि कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

5. लखनलाल खरे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

संदर्भ सूची

5-लखनलाल खरे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

श्री खरे का कथा-लेखन संसार लगभग चालीस बर्षों के अंतराल में फैला है। ’कथा-लेखन-संसार’ इसीलिए कि इन्होंने कहानियों के अतिरिक्त उपन्यासों का सृजन भी किया है। परन्तु इनका कोई स्वतंत्र संग्रह अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं।

बात धर्म की हो, संस्कृति की हो, छद्म राष्ट्र सेवा अथवा समाज सेवा की हो अथवा समाज की किसी भी इकाई का विदू्रप होता ढाँचा हो, श्री खरे की कहानियों ने व्यंग्य का नश्तर चुभो-चुभोकर सड़ी-गली पर्तों को कुरेदकर निकालने का काम किया है। ये सामाजिक और मानवीय मूल्यों की गरिमामयी स्थापना के पक्षधर हैं और इनकी यह तड़प उनकी कहानियों में स्पष्ट परिलक्षित होती हैं।

स्वतंत्रता दिवस पर ’मंत्रीजी’ अपने ’कर-कमलों’ से ध्वजारोहण करते हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शिवचरण जी को सम्मानित करने की उद्घोषणा पर वे ’मंत्रीजी’ के ’कर-कमलों’ द्वारा सम्मानित होने से इंकार कर देते हैं। उनका अंतर्द्वन्द अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहँुचता है कि ’’मंत्रीजी को ध्वजारोहण करने से रोकना उनके वश में नहीं, पर उसके गंदे हाथों से सम्मानित न होना तो उनके हाथ में है।’’1

सम्मान के अपमान से खिन्न मंत्रीजी अपने बगल में बैठे कलेक्टर के कान में फुस्कारते हैं ’’ऐसे वेवकूफों को आप क्यों समारोह में बुलाते हैं जो राष्ट्रीय पर्व का अपमान करे, आइन्दा ध्यान रखें।’’

दो विपरीत चरित्रों के तानों-बानों से बुनी यह कहानी आकर्षक बन पड़ी है।

कहानी ’स्वागतम’ भी लगभग उपर्युक्त भावभूमि पर आधृत है। ’अतिथि देवो भव’ भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता रही है। अतिथि के अंतर्बाह्य स्वागत के लिए हमारे देश में विभिन्न उद्योग किये जाते हैं परन्तु स्वागत करने के अतिरेक में हम कभी-कभी बड़ी-बड़ी भूलें कर जाते हैं।

’स्वागतम’ में मंत्रीजी के स्वागत के लिए उत्साही कार्यकर्ताओं द्वारा स्वागत की तैयारियाँ की जा रही हैं। फूल मालाएँ तैयार हैं, बाजे बज रहे हैं, चाँदनी और कनातों से मण्डप सजा है।2

भारतीय संस्कृति में अभिवादन करने का भी अपना महत्व है। अभिवादन करना स्वागत करने का प्रारंभिक रूप है। पहले छोटे अपने से बड़ों और आदरणीयों के चरण स्पर्ष कर और हाथ जोड़कर अभिवादन करते थे, पर अब’ हलो हाय, गुड मोर्निंग, गुड ईवनिंग, संस्कृति ने हमारी अभिवादनीय परम्परा को अचेत सा कर दिया है। ’मॉर्निंग वाक’ का नायक राजेन्द्र सिंह एक कॉलेज में प्रोफेसर है, जो प्रतिदिन प्रातः भ्रमण पर दूर तक जाते हैं। कुछ दिनों से मार्ग में उन्हें एक लड़का आते-जाते मिलने लगता है जो उनके कॉलेज से दो वर्ष पूर्व ही पढ़कर निकला है। लड़का नीचा सिर किऐ या इधर-उधर नज़र डालकर प्रतिदिन प्रोफेसर के सामने से निकल जाता है परन्तु कभी उन्हें नमस्कार नहीं करता। राजेन्द्र सिंह प्रातःकालीन शुद्ध वायु सेवन करने के पश्चात् भी बीमार पड़ने लगते हैं। उन्हें कमजोरी आ जाती है और वे रोग-शैया पर पड़ जाते हैं। डॉक्टरों के इलाज से वे ठीक नहीं होते तब लोगों की सलाह पर जलवायु बदलने के उद्देश्य से उनका लड़का उन्हें हिल स्टेशन पचमढ़ी ले जाता है। तीन माह में इन्हें यहाँ भी कोई आराम नहीं होता। एक अपरिचित परंतु धुँधला सा परिचित युवक उनसे नमस्ते कर उनके पैर पकड़ लेता है। युवक राजेन्द्र सिंह का छात्र रहा है, जो वर्तमान में डिप्टीकलेक्टर है।

इस घटना के बाद अप्रत्याशित रूप से उनके स्वास्थ्य में सुधार होना प्रारंभ होने लगता है। वे अपने बेटे से कहते हैं मैं घर जाऊँगा। मेरी छुट्टी से कॉलेज में मेरे बच्चों का बहुत बड़ा नुक्सान हो रहा है।

श्री खरे की कहानियों के कथानक प्रायः पारिवारिक और सामाजिक घटनाक्रमों के निम्न धरातल से उठाये जाते हैं इसीलिए इनके पास पात्र भी प्रायः इसी श्रेणी के होते हैं। इन वर्गों की अपनी जो संस्कृति है जो परम्पराएं हैं (परम्परा संस्कृति का ही अंग है) उनके चित्रण में कहानीकार का उतना मन नहीं लगा, जितना उनके विद्रूप होते जा रहे अंग के स्पष्टीकरण में लगा है। फिर भी ’बाल’ ’सुरजी’ ’कैरम की गोटें’ ’आओगी नहीं लक्ष्मी? ’अपने-अपने राम, ’बेड़नी, ’इन्क्वायरी, ’दिग्भ्रांति’ आदि अनेक कहानियों में बुन्देली संस्कृति के सफल चित्र हैं। बुन्देली संस्कृति के इसीलिए कि लेखक बुन्देलखण्ड का है और बुन्देलखण्ड को प्यार करता है।

’इन्क्वायरी’ कहानी में प्रशासनिक भ्रष्टाचार, संवेदना, असंवेदना, संतानहीनता का क्षोभ और मूक पशु के मूक हृदय तक ममता का प्रवाह ईर्ष्या और इन सबके बीच चरित्र को अचल बनाकर रखने का जबरदस्त संवेग है। ’भाग्यवाद’ भारतीय संस्कृति का विरूप चेहरा है। ’इन्क्वायरी’ कहानी का प्रमुख पात्र हरदास इसी भाग्यवाद का प्रतीक है। उसके मन में अन्याय का प्रतिकार करने के अंकुर नहीं फूटते। रामहेत के यह कहने पर कि ’हमसे एक झाड़ू भी टूट जाए तो पगार से उसकी कीमत काट लेते हैं ये हमारा खून भी चूसें और हमारी बहू-बेटियों के माथे का पसीना भी चाटें तो यह अच्छी बात है और हम इनकी हराम की कमाई में से सौ पचास रूपयों की हेराफेरी कर दें तो बुरी बात है? के उŸार में हरदास कहता है - ’अपनी करनी अपने साथ है, उनकी करनी उनके साथ। हम क्यों उनकी बराबरी करें भाई।’’3

भारतीय संस्कृति में देव ऋण, पितृ ऋण का प्रमुख स्थान है। संतानोत्पŸिा कर व्यक्ति पितृ ऋण से उऋण होता है। इतना ही नहीं, शपथ लेना या सौगंध उठाना भी भारतीय संस्कृति में स्वयं को सच सिद्ध करने के लिए अपने इष्ट की, अपने प्रिय की, माँ बेटे, पिता, संतान और गंगा की शपथ लेना सत्य होने का प्रमाण माना जाता है। संतानहीनता का क्षोभ और शपथ लेने की परम्परा का मार्मिक चित्रण इस कहानी में द्रष्टव्य हैः

’’सच बोल रहे हो? साब गुर्रायेगा

गंगा उठा सकता हूँ हुजूर। निपूता हूँ नही ंतो औलाद की सौंह ले लेता। ’कहते हुए हरदासका हृदय काँप उठता था। पर उसे पता था कि न गंगाजी को उठाने की नौबत आएगी और न संतान की कसम खाने की जरूरत पड़ेगी।’’4

संस्कृति के आन्तरिक मूल्यों का अवतरण मानव के कार्य व्यापारों में बाह्य रूप से विभिन्न प्रकारों में परिलक्षित होता है। नृत्य, संगीत, गीत, नाट्य, अभिवादन, भोजन, वेशभूषा, बोलचाल का ढंग, मानवीय संबंध, विवाहादि विविध संस्कार, पर्व त्यौहार तथा व्रत आदि आंतरिक संस्कृति को प्रस्तुत करने के माध्यम है, साधन है। आलोच्य कहानीकार ने अपनी कहानियों में इस पक्ष को उपेक्षित नहीं रखा है।

तब से लगभग 30-35 वर्ष पूर्व ग्रामीण अंचलों में अस्पृश्यता का एक छत्र साम्राज्य था। ’अपने अपने राम’ कहानी में इस समस्या को उठाया गया है साथ ही धर्म के ठेकेदारों द्वारा मुखौटे औढ़कर धर्म की आड़ में किये कार्यो पर करारा प्र्रहार किया गया है। ग्रामीण संस्कृति में जन्म संस्कार के पश्चात् नामकरण और जन्मकुण्डली ग्राम के पण्डित से बनवाने का महत्व है। विवेचना कहानी में इस ओर संकेत किया गया है।

’’शहरों के नाम परिवर्तित होने का तो इतिहास है, पर इतिहास गढ़ने वाले रमदू का कोई इतिहास नहीं कि वह रामदयाल से रमदू कैसे बना। मैनेें एक दिन ऐसे ही पूछ लिया था कि यह क्या नाम हुआ? तो बीड़ी बनाने की पŸाी में जर्दा भरकर उसे मोड़ते हुए वह बोला-बाबूजी, हमारे कोई नाम होते है क्या? जो पंडित ने बताया सो बाप-दादों ने घर लिया ओर जो धरा, वह बडे़ लोगों ने बिगाड़कर चला लिया।’’ ’’इसी कहानी की सरसुतिया अपने पुत्र की जन्मकुण्डली बनवाने पंडित के घर जाती है-’’अपने जन्म लिए पुत्र की जन्मकुण्डली बनवाने भी सरसुतिया गयी थी महाराज की ड्योढ़ी पर।’’5

ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि संस्कृति के बाह्य रूप को चित्रित करने में अलोच्य कहानीकार का उतना मन नहीं रमा जितनों उसें आंतरिक स्वरूप उद्घाटन में। कहानी ’दिग्भ्रंाति’ में विवाह का चित्रण करते हुए कहानीकार ने लिखा है -’’मण्डप के नीचे वह लाल चूनर पहने डिप्टी कलेक्टर राघवेन्द्र के साथ अग्नि के फेरे लगा रही है और दरवाजे पर ट्यूबलाइट की दूधिया रोशनी में बड़े-बड़े अक्षर चमक रहे हैं-’राघवेन्द्र प्रतिमा चिरायु हो।

संस्कृति के अंतरंग स्वरूप को उद्घाटित करती हुई एक और कहानी है-’स्वर्ग का अधिकारी’। किसी की निन्दा न करना भी भारतीय संस्कृति में निहित है। संसार के कोई भी दुर्गुण ऐसे न थे जो कहानी के पात्र लीलाधर में न हो। जब उसकी मुत्यु होती है तब उसे नरक में नहीं, स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है। यमराज जब इसका कारण जानना चाहते है तो भगवान विष्णु उŸार देेते हैं-इतने पाप करने पर भी इसने कभी भी भूलकर किसी की निन्दा नहीं की। इसी से यह इस लोक का अधिकारी हो गया। 6

’’आओगी नहीं लक्ष्मी’’ में दीपावली की पृष्ठभूमि में एक दरिद्र के आत्मगौरव का चित्रण है परन्तु इसमें भी दीपावली पर्व को पर्याप्त विस्तार प्राप्त नहीं हुआ। कहानी ’सुरजी’ में अवश्य ही होली पर्व का सविस्तार चित्रण हुआ है। ऐसा संभक्तः इसीलिए कि इस कहानी के कथानक का प्रारम्भ जिस श्रृंगारिकता को ध्वनित करता है उसका निर्वाह होली जैसा पर्व ही कर सकता है। कहानी ’पतुरिया’ और ’बेड़नी’ में बाह्य संस्कृति के विशुद्ध अंकन है।

’’भुजंगिनी’’ कहानी में नारी अपने कला कौशल से घर परिवार को स्वर्ग वना सकती है। ’भुजंगिनी कहानी में सूरज का भरा-पूरा घर आभा के आते ही कुरूक्षेत्र का मैदान बन जाता है। परिवार के गौरव को ग्रहण लगने से सूरज अत्यन्त दुखी हैं। वह प्यार में पहले ही टूटा हुआ है, विवाह भी धोखे से मन्दबुद्धि-विनीता से हो जाता है तीन नारियों के तीन रूप-विघटनकारी रूप-देखकर सूरज का मस्तिष्क विकृत हो जाता है।

’’बाल’’ शीर्षक की कहानी में भी एक मन्दबुद्धि नारी का मार्मिक चित्रण किया गया है। विवेक की पत्नी लीला की नियति बन चुकी है-पिटना। यह क्रम उसके विवाह के दूसरे वर्ष से प्रारम्भ हुआ सतत चलता रहा-5 वर्ष तक। अब उसे अपनी पिटाई का पता भी नहीं चलता है-’’गालियाँ और मार खाने की तो इतनी अभ्यस्त हो गयी हूँ कि दो-चार दिन में यदि यह न हो तो पागलपन के दौरे से पड़ने लगते हैं। मार और गालियाँ मेंरे जीवन का उसी प्रकार अभिन्न अंग बन गयी है जैसे सांस का लेना और छोड़ना।7 -नारी के अभिशाप की इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है?

’बेड़नी’ शब्द भी बुन्देलखण्डी बोली का है। यह शब्द एक जाति विशेष को इंगित करता है। इस जाति की नारियाँ नृत्य-गान के व्यवसाय के साथ-साथ देह व्यापार भी करती है।

बुन्देलखण्ड में ऊँची जातियों-विशेषकर ठाकुरों में खुशी के प्रत्येक अवसर पर बेड़नी नचाने की प्रथा है। पुत्र-जन्म हो। कुंवर साब (पुत्र) का विवाह हो अथवा अन्य कोई अवसर-बेड़नी न नचाने वाला समाज में निम्न स्थिति का समझा जाता है। कभी-कभी तो बेड़नी न लाने पर वर पक्ष बारात वापस ले जाने पर विवश हो जाता है और ऐसी स्थिति में अपमानित पक्ष एवं दूसरे पक्ष-दोनों के मध्य रक्त बहने लगता है। यह है-बेड़नी का महत्व।

कहानी बेड़नी में दरयावसिंह के पुत्र की शादी में दूर-दूर तक खोज करने के उपरान्त ऐसी बेड़नी मिलती है जो गर्भवती है। अपनी आर्थिक स्थिति को दुर्बल जान वह तैयार हो जाती है- अपने दो बर्ष के शिशु के साथ। पार्वती नचते समय अनेक दुर्गधों का सामना करती है- कृत्रिम मुस्कान के शस्त्रास़्त्रों के साथ। देर होने पर उसे अपने भूखे शिशु की याद आती है और क्षणिक अवकाश मिलने पर वह डेरे की ओर चल देती है। संभल-सभलकर नाचने के उपरान्त भी उसका उदरस्थ शिशु उसे पीड़ित करने लगता है। इसी बीच ठाकुर दरयावसिंह नशे में झूमता हुआ ’बेड़नी’ को खोजता हुआ आता है और कामान्ध होकर पार्वती को उसके शिशु से दूर कर याचना करती हुई पार्वती को घसीटकर ले जाता है। सुबह पार्वती की लाश पर मक्खियाँ भिन भिनाती रहती है और बारात वापस जाने की तैयारी करती है।

संदर्भ सूची

5- लखनलाल खरे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

01- स्मारिका- ’आस्था, संपा.-डॉ. लखनलाल खरे पृ.- 31 म. प्र. राज्य कर्मचारी संघ तहसील शाखा कोलारस, 17 जून 2007

02- स्वागतम् - आचरण - 11 नबंवर 1985

03- स्मारिका- ’आस्था, संपा.-डॉ. लखनलाल खरे पृ.- 31 प्र. राज्य कर्मचारी संघ तहसील शाखा कोलारस, 17 जून 007

04- संदर्भ- वही पृ. - 30

05- अपने-अपने राम-नवप्रभात ग्वालियर- 03.02.1982

06- वालण्टियर मासिक, कहानी दिग्भ्रांतिः डॉ. लखन लाल खरे, जून 1980 संपा. लोकेश्वरनाथ सक्सेना, 126179, जी ब्लॉक गोविन्द नगर, कानपुर - पृ. 15

07- वालाण्टियर- (मासिक) ’आओगी नहीं लक्ष्मी’ कानपुर, सितंबर 1981 - पृ. 12

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