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360 डिग्री वाला प्रेम - 17

१७.

मुलाक़ात, जिनसे जिंदगियां बदलती हैं

वर्किंग डे था राजेश सिंह के लिए आज भी, रोज की तरह. पर आज एक ख़ास दिन इसलिए भी था कि आज आरिणी के मम्मी-पापा आ रहे थे. उसके पापा की एक सरकारी बैठक थी, लखनऊ के शक्ति भवन में. दोपहर बाद तक बैठक से मुक्त होकर उनका शाम को आरव के घर पहुंचना तय हुआ था. डिनर के बाद उनको ट्रेन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी आरव ने पहले ही ले ली थी. उनका उसी दिन का नौचंदी एक्सप्रेस से कनफर्म्ड रिजर्वेशन था.

 

उर्मिला सब चीज़ परफेक्ट चाहती थी. कोई समझौता नहीं होना था, इसलिए सवेरे घर को अच्छी तरह से धुलवा कर साफ़-सफाई कराई गई. ड्राइंग रूम को नए मैचिंग डेकर से सज्जित किया गया. सारी फर्निशिंग्स… पर्दे, बेडशीट्स, सोफे कवर और कुशन कवर-- सब नये लगाए गये. इस सबसे जो सौन्दर्यबोध झलकता था वह उर्मिला और वर्तिका की अभिरुचि थी. मां-बेटी को सॉफ्ट और हल्के रंगों का संयोजन पसंद था, जबकि बाप-बेटे कोई रुचि ही नहीं रखते थे. जो है बस ठीक है-- कुछ ऐसी सोच थी उनकी. और दिन भर की मेहनत पर बस उचक कर एक निगाह देखना…. और, ‘लुकिंग नाईस…’, इतना बोलना काफी था. बल्कि आरव को तो कई बार पता ही नहीं चलता था कि चेंज हुआ क्या है आखिर. वह कहता, ‘ठीक तो है… जैसे पहले था.. या कुछ ख़ास किया है...बताओ तो', फिर मम्मी खिलखिलाकर हंसती तो झेंप जाता.

 

ड्राइवर रुका था आज, पर आरव ने बोला था कि कोई जरूरत नहीं उसको देर तक रुकने की. वह ही छोड़कर आयेगा उन लोगों को चारबाग रेलवे स्टेशन. फिर लौटकर आरिणी को हॉस्टल भी पहुँचाना होगा. शायद आधी रात ही हो जाए. वर्तिका को भी साथ जाना होगा, यह सब पूर्व निर्धारित हो चुका था.

 

घड़ी में छह बज चुके थे. दो बार बात हो चुकी थी आरिणी के पिता अनुभव सिंह से. एक बार सवेरे उनके लखनऊ आते ही, और दूसरी बार थोड़ी देर पहले ही, यानी यहाँ के लिए निकलने से पूर्व. उर्मिला ने भी माधुरी… से बात कर ली थी. या यूँ कहें वह तो उन्हें दिन में ही न्यौत चुकी थी, बोली थी फोन पर,

 

“अरे बहन जी… आप वहां कहाँ बोर होती रहेंगी पूरे दिन. घर है यहाँ पर, उसके बावजूद गेस्ट हाउस में क्यों ? आ जाइए!”

 

“असल में कोई तय नहीं है इनकी मीटिंग का…. इसलिए वेट करनी होगी न. और अरु भी तो यहीं आ रही है. तीनों लोग साथ ही आ जायेंगे… एक ही बात है.वैसे तो मेरा भी मन बहुत उतावला है आपसे मिलने के लिये”,

 

माधुरी ने उर्मिला को आश्वस्त किया.

 

डॉलीबाग़ पॉवर कारपोरेशन गेस्ट हाउस से शक्ति भवन भी बिलकुल पास था इसलिए उनके लिए सुविधाजनक भी था, और सही बात थी कि न जाने कब मीटिंग खत्म हो जाए, इसलिए माधुरी का रुके रहना भी आवश्यक था. दिन में ही आरिणी आ गई थी मां के पास. दोनों की मुलाक़ात आज लगभग तीन महीने बाद हो रही थी. होली पर भी वह नहीं जा पाई थी सहारनपुर और न ही किसी का आना हो पाया था वहां से.

 

“अरु… ये बता, हैं कैसे ये लोग? बहुत पीछे पड़े हैं, जब से तूने नंबर दिया है. और वो आरव… क्या पसंद है तुझे?”,

 

सीधे पूछ लिया माधुरी ने बेटी आरिणी से.

 

“अरे मम्मी… तुम भी गज़ब हो. आई हो नहीं कि पहले ही सारी जानकारी चाहिए. और सुनो. ऐसा कुछ नहीं है, जैसा आप लोग सोच कर बैठे हो… अब प्रोफेशनल कोर्स में लड़के-लडकियां सब एक से हो जाते हैं… ज्यादा भेदभाव नहीं. बस… और कुछ भी नहीं है. हाँ… वे अच्छे.. भले लोग हैं, कोआपरेटिव. इतना ही जानती हूँ मैं तो”,

 

अरु एक सांस में बोलकर अपना पल्ला झाड़कर इण्टरकॉम से किचेन में सैंडविच और एक सेट चाय का आर्डर देने लगी.

 

माधुरी हंस कर बोली,

 

“बेटा मां हूँ तेरी… थोड़ा बहुत तो समझना… और समझाना बनता है न ? फिर तुझे ही तो बताना है कि कैसे हैं आरव और उसके घरवाले… तभी तो हम भी उनसे बात कर सकेंगे… वरना हम भी मूरख बन कर बैठे रहेंगे वहां… और जो बोलेंगे, सुनते रहेंगे.”

 

“अरे मां… तुम और मूरख…? रहने दो ! तुम्हारे आगे तो पापा की भी समझदारी हार मान जाती है”,

 

मम्मी के गले लगकर बोली आरिणी.

 

दोनों की हंसी से गेस्ट हाउस का कमरा नंबर १०२ गुलज़ार हो गया. खूब बातें होती रही मां-बेटियों में. दोनों अच्छी फ्रेंड्स भी थी. तभी तो हर रोज रात का दस से साढे दस बजे का समय तय था उनका. चाहे एग्जाम हों अरु के, या कोई पार्टी हो माधुरी की, पर वो समय उनका अपना ही होता. तब हर विषय पर… दिन भर की बातों पर खूब चर्चा होती.

 

अरु के पापा भी आ गये थे पौने चार बजते-बजते. थोड़ा थके थे, बस कुछ बात करके, आँखें बंद कर ली उन्होंने. कुछ आराम की तलब थी उनको.. गेस्ट हाउस में सुइट में रहने का एक लाभ यह भी है कि आप बातों के लिए अटैच्ड रूम में पड़े सोफे का इस्तेमाल कर सकते हो. और जिसको सोना है वह बेडरूम में पसर सकता है.

 

सोने से पहले आरिणी अपने पापा को चेतावनी भी दे आई थी,

 

“पापा, सोते ही मत रहना… ५.३० का अलार्म लगा लो. अब हम लोगों का कोई भरोसा नहीं, हम कहीं सात बजे ही न जागें".

 

“अरे...तो कोई नहीं, सोते रहे तो क्या… देखा जाएगा, नहीं जा पायेंगे राजेश जी के घर … बोल देंगे मीटिंग चलती रही, अब मुलाक़ात अगली बार सही”,

 

कहकर चिढ़ाया अनुभव सिंह ने बेटी को.

 

“आप भी पापा…”,

 

बोल कर हंसती हुई अरु माँ के साथ बगल के कमरे में चली गई.

 

मां-बेटियों की बातों का खजाना भला खत्म होता है कभी. ऐसी ही बांडिंग होती है इस रिश्ते में. मां की कोशिश होती है कि जो कमी उसके खुद के जीवन में रही है, या जो अधूरापन उसने जिया है, वह पूर्णता उसकी बेटी को मिल सके. उसके लिए चाहे मां को किसी भी सीमा तक जाना पड़े. और बेटी... वह सोचती है कि उसकी मां जितना खुश रह सके, उसे रहना चाहिए. वह जब से चलना सीखती है, तभी से अपनी मां का सहारा… एक संबल बनना चाहती है. यह जानते हुए भी कि मां-और बेटी को एक समय बाद अलग हो जाना है, अलग राह पर चलना है. पर, रिश्ता तो और भी मजबूत ही होता जाता है.

 

अंततः अनुभव सिंह पत्नी और बेटी के साथ राजेश सिंह के घर पहुंच गये. उनके यहाँ घर की तरह का सुकूं था. ऐसा लगा ही नहीं कि पहले से कोई परिचय नहीं था उन दोनों परिवारों का. राजेश और अनुभव सिंह के कॉमन लिंक भी निकल आये थे. दोनों लोग हरदोई की यादों के सिरों को जोड़ने में व्यस्त हो गये थे, फिर ऑफिस की बातें होती रही . ट्रेन का समय ११ बजे था. अभी आठ ही बजे थे. पर्याप्त समय था.

 

“भाई साहब, हम लोग चाहते हैं कि हमारी यह मुलाक़ात यादगार बन जाए…. आज का दिन भी शुभ है, मंगलवार है.... हम आपसे आरिणी को मांगना चाहते हैं, हमेशा के लिए”,

 

उर्मिला ने अंततः मन की बात सामने रख ही दी.

 

एक क्षण सन्नाटा छा गया. सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे. अनुभव सिंह ने मुस्कुरा कर कहा,

 

“आरिणी तो खुद सक्षम है अपना फैसला लेने के लिए… उसकी हाँ है, तो भला हमारी ना कैसे!”,

 

और उन्होंने आरिणी को बोलने का संकेत किया. पर, आरिणी जो नीचे निगाह कर बैठी थी, धीमे से उठी, और बाहर चली आई. वर्तिका भी उसके पीछे-पीछे ही बाहर आ गई.

 

“लड़की है… अब इतना तो लिहाज़ करेगी ही… खुद कैसे बोलेगी”,

 

यह माधुरी जी थी, जिनके हाव भाव से लग रहा था कि वह इस रिश्ते को सकारात्मक रूप से देख रही हैं.

 

“आप तीनों लोग आपस में बात कर लीजिये… कोई जल्दी नहीं है ...फील ऐट होम ”,

 

राजेश सिंह ने कहा.

 

वह उठ कर बाहर आ गये थे. उर्मिला भी. आरव, वर्तिका और आरिणी तीनों पहले ही बाहर टहल रहे थे. वर्तिका टहलते-टहलते आरिणी का हाथ सहला रही थी. आरव किसी कॉल पर बात कर रहा था.

 

बीस मिनट की तीनों परिजनों की अलग से बातें, और हो गया आरिणी के भविष्य का निर्धारण.

 

सब खुश थे. आरिणी भी यूँ तो खुश थी. पर उसकी कुछ शर्तें थीं, जैसे उसे आगे पढ़ाई के लिए अमेरिकन यूनिवर्सिटी जाना था, और मास्टर्स के बाद जॉब करना था. शायद लखनऊ में न हो ऐसा कोई जॉब, तो सबको उसे सहयोग करना होगा, इस नये रिश्ते में. बस!

 

राजेश प्रताप सिंह, उर्मिला और आरव सबकी सहमति थी इन दो शर्तों में. वर्तिका तो सबके साथ ही रहती थी. इसलिए सबसे अधिक प्रसन्न तो वही थी. एक नई सहेली जो मिल रही थी उसे वर्तिका के रूप में!

 

डिनर की तैयारी हो गई थी… आज उर्मिला ने स्वयं को मुक्त रखा था किचेन से. कुक के साथ मेड को भी देर तक रोक लिया था उन्होंने.

 

डिनर पर ही बातों का सिलसिला चल निकला. बहुत खुश थी उर्मिला. सबसे ज्यादा शायद वही थी. माधुरी को भी अतीव प्रसन्नता थी, यह उनके चेहरे से झलक रहा था. दोनों के पिताओं के पास तो बातों का खजाना ही खत्म नहीं होने का नाम ले रहा था.

 

अगले रविवार यानि एक सप्ताह बाद सहारनपुर में रस्म की जानी तय हुई. विवाह की तिथि परीक्षाओं के बाद नियत की जानी थी. इसी सब में कब रात ट्रेन का समय नजदीक आ गया, पता ही नहीं चला. अब चलने की तैयारी थी. ट्रेन निर्धारित समय पर थी.

 

आरव ने गाडी निकाली. वर्तिका भी साथ थी. लौटते हुए उनको आरिणी को हॉस्टल ड्राप करना था. गाड़ी पार्किंग में खड़ी कर आरव उनको प्लेटफार्म नंबर सात पर ले गया .आज ट्रेन भी समय पर थी. बीस मिनट का हाल्ट था उसका चारबाग स्टेशन पर, इसलिए आरव ने उनको सेकंड ए सी कम्पार्टमेंट में आराम से सेट कराया उन लोगों का लगेज, और मिनरल वाटर की बोतल खरीद कर दी.

 

चलने से पहले आरव ने दोनों के पाँव छुए. बदले में उन्होंने आशीर्वाद दिया. अनुभव सिंह ने तो उसे गले से ही लगा लिया. ऐसा लग रहा था कि आरव का वैवाहिक जीवन आरंभ हो चुका है.

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