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360 डिग्री वाला प्रेम - 15

१५.

थोड़ा प्रेम… थोड़ा रोमांच

“सुनो, आपको कैसी लगी आरिणी ? अपने मन की बताओ…”,

चाय का प्याला अपने पति राजेश सिंह के हाथ में पकड़ाकर बोली उर्मिला.

“मैं क्या कहूँ.. मेरी तो थोड़ी ही देर की मुलाक़ात है. वो तो आप लोगों को ही देखना है...फिर उसका और उसके घर वालों का मन भी तो टटोलना पड़ेगा”, और अभी दोनों बच्चे भी अपनी अपनी पढ़ाई में भी व्यस्त है.

राजेश ने व्यवहारिक पहलू पर चर्चा की.

“अब ऐसे रिश्तों में तो पहल खुद ही करनी पड़ती है.और मैं कौन सा अभी शादी करने के लिए कह रही हूँ. बस उनका मन ही तो जानना चाह रही हूँ”,

उर्मिला जी ने अपने विचार रखे.

यह सब इतना भी सहज नहीं, जितना सतही तौर पर दिखता है. हमें यह सब भी देखना होगा कि आरव के लिए उसके जुड़ाव का स्तर क्या है. और उसके स्वयं के विचार क्या हैं. फिर, उसके घर वालों की अपेक्षाएं और उनकी सोच भी काफी मायने रखती है. जहाँ तक मैं समझता हूँ.. वह आगे पढ़ने और करियर बनाने को लेकर बहुत उत्साहित है. अब देख लो… कि सब बातें होने पर भी कहीं वह उस तरह की वधू साबित न हो पाए जो आप अपनी कल्पनाओं में बिठाये हुए हो…”,

 

अपना नजरिया प्रस्तुत किया राजेश सिंह ने.

 

उर्मिला किसी भी बिन्दु को बात टालने का माध्यम नहीं बनाने देना चाहती थी, इसलिए उन्होने तत्काल तर्क दिया,

 

“दोनों में अच्छा-खासा मेल मिलाप है, जानते हैं… पहचानते हैं इसीलिए तो इस सम्बन्ध को चाहती हूँ मैं. इतने सालों से साथ पढ़कर उन लोगों को कुछ तो समझ में आता ही होगा न कि कैसी निभ सकेगी उनकी. जहाँ तक आगे पढ़ाई की बात है, वह तो उन दोनों की आपसी सहमति पर ही निर्भर करेगा. बस इसके मां-बाप का मन जान लें तो आगे बढे बात.”

 

आरव और वर्तिका लौट आए थे. वर्तिका अधिक प्रसन्न थी. आरिणी से जब भी मुलाक़ात होती, अपने को अधिक उत्साही महसूस करती. बहुत ऊर्जा रहती उसमें. बातें करने और काम में हाथ बंटाने को भी तैयार रहती. वरना वो काम करने को लेकर थोडा आलसी थी. सब मज़ाक उड़ाते उसकी इस बात के लिए.

 

“तुम लोग जाओ अभी…. हम कुछ सीरियस बातें कर रहे हैं…”,

 

उर्मिला ने दोनों बच्चों को इंगित किया.

 

“पर…. लेकिन ऐसा क्या, कोई बजट बन रहा है या किसी युद्ध की तैयारी है",

 

आरव ने उठते-उठते कहा.

 

“शायद...तुम्हारी शादी का बजट पास होने जा रहा है भैया…”,

 

कहकर खिलखिला पड़ी वर्तिका, और उसके कहने के अंदाज पर और सभी लोग हंस पड़े. आरव भी. और सब उस कमरे से निकल लिए.

 

“...तो क्यों न ऐसा करें कि एक मीटिंग फिक्स कर लें आरिणी के पेरेंट्स से… लडकी तो देखनी नहीं है, बस उनका मन टटोलना है. क्या है उनका इरादा, और उम्मीदें….”, उर्मिला जी ने अपनी बात बढाई.

 

“वो तो सही है मैडम… पर इतनी जल्दबाजी भी सही नहीं. एक-दो बार और बात हो उन लोगों से, फोन पर ही सही, तभी उचित रहेगा हम लोगों का जाना. वैसे भी आप जानती हो, सहारनपुर दूसरे कोने पर है वह. मतलब दो दिन का डिस्टर्बेंस… इतना आसान भी नहीं है समय निकालना”,

 

ऐसा लगा जैसे राजेश किसी सरकारी प्रोजेक्ट की बात कर रहे हों.

 

“फिर, कैसे करें…?’,

 

चिंतातुर उर्मिला बोली.

 

“अब जैसे हम चिंतित हैं आरव के लिए…. वह भी तो ढूंढ रहे होंगे न किसी मैच को, अपनी बेटी के लिए...बस कहीं देर न हो जाए, यही चिंता बनी है. यूँ भी अपने आप से समय कभी निकलना कब है….”,

 

उदास सी होकर बोली उर्मिला.

 

“ऐसा नहीं है… सब होता है, पर समय पर. बात करेंगे, उसके पापा से. अभी फोन पर ही सही. उन लोगों की समय-समय पर मीटिंग होती हैं, लखनऊ हेडक्वार्टर है सबका. यहीं आते हैं सब ऑफिसर. वह भी आते होंगे निश्चित रूप से”,

 

राजेश बोले, पर पत्नी शायद संतुष्ट नहीं हुई. वह चुप ही रही.

 

“....अच्छा… कल बात करेंगे उनसे. अभी देर भी हो गई है, और ज्यादा उतावलापन भी ठीक नहीं होता…”,

 

कहकर वो सवेरे के अखबार के पन्नों को फिर से पलटने का उपक्रम करने लगे. अर्थात यह विषय समाप्त होना चाहिए अब.

००००

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