असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 16 Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 16

16

‘जिन्दगी जीने के लिए है और विश्वविद्यालय मंे तो मजे ही मजे। मौजां ही मौजां। याद है अपन जब विश्वविद्यालय मंे पढ़ते थे तो एक प्रोफेसर ने क्या लिखा था सरस्वती के मन्दिर मंे ध्वज भंग। कैसा मजा आया। पूरी यूनिवरसिटी हिल गई। सबकी जड़ंे हिल गई। सबकी शान्ति भंग हो गई। चांसलर, वाईस चांसलर तक बगले झांकने लगे।

‘फिर वे प्रोफेसर निलम्बित हो गये।’

‘तो क्या उसके बाद बहाल होकर पूरी पेेंशन, पी.एफ लेकर घर गये।’

‘लेकिन अब ये सब करने को जी नहीं चाहता।’

‘इस श्मशानी वैराग्य को छोड़ो महाराज। उठो। धनुष बाण और कलम रूपी हथियार पकड़ांे और सीधे माधुरी मेम के घर चलो। पड़ोसी के फैरे हो और घर के पूत कंवारें डोले। ये मैं नहीं होने दूंगी।’

‘तो फिर क्या करना है ?’ शुक्लाजी बोले।

’करना क्या है ?’ चलो।

दोनो सीधे माधुरी के बंगले पर हाजिर हो गये।

माधुरी पूजा-पाठ-कर्म-काण्ड-धर्म चर्चा से उठी थी। प्रसन्न थी। शुक्ला-दम्पत्ति (जो पति का दम निकाल दे उसे दम्पत्ति कहते है) को प्रतीक्षारत पाकर बोल पड़ी।

‘आज सुबह-सुबह कैसे। स्कूल का कार्य-व्यापार तो ठीक चल रहा है न।’

‘स्कूल का क्या है, शुक्लाजी ने सब ठीक से जमा दिया है।’ शुक्लाइन बोली।

‘हां वो तो है शुक्लाजी स्कूल की जान है। और सुनाओ।’ माधुरी बोल पड़ी।

‘मैडम ये हम क्या सुन रहे है ?’

‘विश्वविद्यालय मंे धड़ाधड़ नियुक्तियां हो रही है।’

‘धड़ाधड़ कहां, केवल तीन वो भी अस्थायी। बाकी तो सब एक्ट के अनुसार करना पड़ेगा।’

‘एक्ट तो बन गया है न।’

‘हां एक्ट तो बन गया मगर शासी निकाय, वित्त समिति, एक्जुकेटिव कमेटी, परीक्षा समिति कई काम होने है।’

‘ये सब काम तो होते रहंेगे मैडम। शुक्लाजी को भी अस्थायी रजिस्ट्रार बना दे तो ठीक रहेगा।’ शुक्लाइन स्पष्ट बोल पड़ी।

माधुरी से कोई जवाब देते नहीं बन पड़ा। शुक्लाजी भी बोल पड़े।

‘आपको तो सब मालूम ही हैं।’

‘कहे तो नेताजी से फोन कराये, शुक्लाइन ने तिरछी नजर से माधुरी को देखते हुए कहा।

माधुरी क्या बोलती। हमाम मंे सब नंगे। माधुरी-शुक्लाइन के आपसी रिश्ते वे दोनांे ही बेहतर जानती थीं। माधुरी को शुक्लाइन के अहसान और मदद की याद थी। सो जल्दी मंे कुछ कह न सकी। मगर शुक्लाइन समझ गई। लोहा गरम है, केवल एक-दो चोट से बात बन जायेगी।

‘मैडम शुक्लाजी को कार्यवाहक रजिस्ट्रार बना दे।’

‘और शुक्लाइन को डीन-एकेडेमिक।’

‘नही सब एक ही घर के हो जायेंगे तो विश्वविद्यालय का भट्टा ही बैठ जायेगा।’

माधुरी ने आंखंे तरेरी।

मगर शुक्ला दम्पत्ति कब मानने वाले थे।

बातचीत गलत दिशा मंे मुड़ सकती थी सो माधुरी पुनः बोली।

‘ऐसा करते है कि शुक्लाजी को अस्थायी रजिस्ट्रार एक तदर्थ समिति के माध्यम से बनवा देते है।’

‘श्रीमती शुक्ला का क्या ?’ शुक्लाजी ने कठोरता से कहा। वे अपनी पत्नी की कुरबानी से परिचित थे।

‘और पूरी बात तो सुनो।’

‘क्या सुनंू। मैडम, पूरी जवानी आपके नाम कर दी। आपने मेरा क्या-क्या दुरूपयोग नही किया। कस्बे से राजधानी तक सब जगह...,’ शुक्लाइन ने गुस्से मंे कहा। माधुरी विश्वविद्यालय के शुरूआत मंे ही ये सब नही चाहती थी अतः बोल पड़ी।

‘ठीक है, तुम्हंे स्कूल का प्रिंसिपल बना देती हूं। फिलहाल कार्यवाहक बाद मंे समिति के द्वारा स्थायी भी करवा दूंगी।’

ये सौदेबाजी ठीक थी। माधुरी तथा शुक्ला दम्पत्ति ने खुशी-खुशी इस व्यापार को मंजूर कर लिया।

जाने से पहले माधुरी ने श्रीमती शुक्ला को एक तरफ ले जाकर कहा।

‘शाम को नेताजी से मिल लेना।’

शुक्लाइन ने हामीं भरी और शुक्लाजी को लेकर कक्ष से बाहर चली गई।

जहां कल्लू मोची बैठता है, उसी स्थान के पास एक छोटी दुकान मंे एक पुरानी चक्की की दुकान है। आजकल अनाज पिसवाने कौन आता है, मगर चक्की कस्बे के लोगांे के लिए कभी-कभी आवश्यक हो जाती है। लोग चक्की पर आटा पिसवाने कम आते है क्यांेकि अब आटा मिलांे से थैलियांे मंे बंद होकर मॉलांे मंे बिकता है। आटे के स्थान पर लोग दलियां, बेसन, थूली, मिर्च-मसालंे पिसवाने आते है। पहले कभी चक्की इंजन से चलती थी, तब उसकी आवाज दूरदराज तक गूंजती थी और गांवांे से लोग-बाग पिसाई कराने आते थे, मगर बिजली की मार। इंजन बंद हुए। बिजली आई। चक्की चले तो तभी जब बिजली आये। बिजली कब आये। कब जाये। कौन बताये। चक्की मालिक ने धंधे मंे मंदी देख चक्की अपने ही नौकर को लीज पर दे दी। नौकर भी पूरा चालू। बिजली का बिल ही समय पर नहीं जमा करा पाता। केवल ये लाभ कि जो लोग शाम तक अपनी पिसाई नहीं ले जाये उसके पीपे से एक-आधा किलो आटा लेकर रोटी बना ले। खा ले। चक्की का किवाड़ बन्द कर वहीं सो जाये। सुबह कल्लू के पास वाले नाले पर फारिग हो ले और चक्की की झाड़ पांेछ करके अगरबत्ती जला दे। वापस बैठकर ग्राहकांे का इन्तजार कर ले। बिजली आ जाये तो पीस दे नहीं तो पुराना फिल्मी अखबार पढ़े।

सुबह का वक्त। बिजली गुल। एक ग्राहक आया। उसे अभी आटा चाहिये। चक्की वाला इस पहले ग्राहक को जाने नहीं देना चाहता सो बोला।

‘भाईजान। चाहो तो अपना दागीना रख जाओ। लाइट आने पर पीस दूंगा।’

‘लेकिन सुबह क्या खायंेगे ?’

‘उसका भी इलाज है मेरे पास।’

‘क्या ?’

‘तुम्हंे अभी के लिए कुछ आटा उधार दे देता हूं। बाद मंे तुम्हारे आटे मंे से काट लूंगा।’

‘लेकिन मेरा गेहूं अच्छा है।’

‘क्या अच्छा और क्या बुरा। पेट भर जाये तो सब अच्छा।’

मरता क्या नही करता। ग्राहक ने अपना दागीना रखा और उधारी का आटा लेकर चला गया। चक्की पर अब कल्लू भी आ गया।

‘और सुनाओ प्यारे क्या हो रहा है ?’

‘होना-जाना क्या है यार। लाइट आये तो कुछ धन्धा हो।’

‘लाईट अपने यहां कैसे आये। वो तो मंत्रियांे, अफसरांे के बंगलो को रोशन कर रही है। व्यापारियांे की फेक्ट्रियांे को चला रही है।’

‘बिजली आम आदमी को क्यांे नहीं मिलती है ?’

‘मिलती है आम आदमी को भी मिलती है। चुनाव आने दो। कुछ समय के लिए भरपूर बिजली मिलेगी।’ कल्लू बोला।

‘लेकिन मेरी चक्की को रोज बिजली चाहिये ?’

‘अब यार रोज बिजली तो जनरेटर से ही मिल सकती है।’

‘जनरेटर लगाने की औकात होती तो चक्की ही क्यूं चलाता।’

‘इसी बात का तो रोना है कि हमंे अपनी औकात पता है। अपनी औकात बढ़ाने के रास्ते नहीं मालूम।’

‘देखो नये-नये पावर हाऊस बन रहे है।’

‘लेकिन वे आम आदमी के लिए नही है।’

‘तो फिर किसके लिए है।’

‘ये सब तो बड़े उद्योगांे के लिए है।’

‘जमीन बड़े उद्योगांे के लिए।’

‘बिजली बड़े उद्योगांे के लिए।’

‘पानी बड़े उद्योगांे के लिए।’

‘सरकार-अफसर बड़े उद्योगांे के लिए।’

‘तो फिर हमारे लिए क्या ?’ चक्की वाला बोल पड़ा।

‘तुम्हारे लिए ठन-ठन पाल मदन गोपाल।’

‘लेकिन यार ये बड़े लोग इतने पैसे का क्या करते है ?’

‘वे पैसे से और पैसा कमाते है और एक दिन कमाते-कमाते मर जाते है।’

‘जब मरना ही है तो पैसों का क्या ?’

‘मृत्यु के लिए सब बराबर। कोई अमीर नहीं कोई गरीब नहीं।’

तभी बिजली आ गई। चक्की धड़-धड़ चालू हुई। आटा हवा मंे उड़ने लगा।

कालू वापस अपने ठीये पर आ गया।

एक ग्राहक आया। कल्लू ने पालिश के ही पांच रूपये बता दिये। ग्राहक चालू था उसने पालिश के साथ ही एक टांका लगाने को भी कह दिया।

कल्लू ने मन मार कर काम कर दिया।

ग्राहक जा चुका था। झबरा कुत्ता अपनी पूंछ दबाकर कल्लू की पेटी की छाया के सहारे सुस्ता रहा था। कल्लू ने एक लम्बी अंगडाई ली और टांगे पसारकर सुस्ताने लगा।

तभी झबरा कुत्ता भांे-भांे कर एक और भागा। कल्लू ने आंखंे खोली। मगर उसे कुछ समझ नही आया। थोड़ी देर मंे झबरा कुत्ता वापस आकर सुस्ताने लगा।

आसमान मंे धूप की तेजी थी। आग सी बरस रही थी। मगर आमदरफ्त जारी थी।

चक्की की आवाज अभी भी सन्नाटे को तोड़ रही थी।

चक्की के पास ही गुलकी बन्नांे की थड़ी थी। वो सुबह शाम लोगांे को चाय पिलाती। अदरक की चाय के मारे या चाय मंे शायद अफीम की मार जो गुलकी की चाय पी लेते वो सही समय पर सही चाय की तलाश मंे गुलकी के यहां आ जाते।

वैसे गुलकी सत्तर वर्ष की थी। खण्डहर बताते है कि कभी इमारत बुलन्द थी। वैसे भी कद काठी अभी भी ठोस थी। शोरबे के रस से बनी थी गुलकी।

पिछले दंगांे मंे पति खरच हो गये थे। एक लड़की थी जिसने स्वयं निकाह कर उसका बोझ हल्का कर दिया था। गुलकी अब हर तरह से आजाद थी। कभी कदा चक्की वाला या कल्लू से हंसी-ठट्टा हो जाता था। बाकी सब वैसा ही था जैसा होना चाहिये था। गुलकी की चाय की थड़ी को कभी-कभी पास वाला हलवाई धमकाता था।

‘अगले दंगांे मंे तुझे और इस चाय की थड़ी को आग लगा दूंगा।’

गुलकी हंसती, फिर कहती।

‘नये पैदा होंगे अब मेरी थड़ी को आग लगाने वाले। मर गये पिछले दंगांे मंे नहीं तो अब तक तुझे ही नही पूरे खानदान को आग लगा देते।’

इस तुर्की ब तुर्की जबाव से आस-पास वालांे का मनोरंजन भी होता था और दंगांे की असलियत का भी पता चल जाता था।

गुलकी की मुर्गी किसी पड़ोसी हिन्दू के परिवार मंे घुस जाती तो पड़ोसी कहता...

‘ंदेख तेरी मुर्गी मेरे घर मंे।’

‘अरे जानवर है घुस गया, मैं तो नहीं घुसी तेरे घर मंे।’

पड़ोसी क्या जबाब देता। चुप लगा जाता। गुलकी फिर कहती।

‘जानवरांे, परिन्दांे का कोई मजहब नहीं होता जहां भी मुंह उठाते चल देते है। देखांे सफेद कबूतर कभी मन्दिर के कंगूरे पर बैठता है और कभी मस्जिद पर।’

बात गम्भीरता से कही जाती। गुलकी चाय पकड़ाते हुए फिर बोलती।

‘ये सियासतदां अपने स्वार्थ के लिए हम गरीबांे को क्यांे तबाह करते है ? बेचारी बेनजीर मारी गई। भुट्टांे को फांसी हुई। महात्मा गांधी, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी तक को नहीं बख्सा इन नासपीटांे ने।’ वो फिर रोने लग जाती। लोग-बाग दिलासा देते।

गुलकी की एक ओर विशेषता थी, कभी किसी से पैसे नहीं मांगती, न हिसाब, किताब ही करती। मगर आश्चर्य ये कि उसका पैसा कोई मारता भी नहीं।

गुलकी के सहारे यहां पर सुबह-शाम रौनक हो जाती। आज भी थी। क्रिकेट का बुखार जोरांे पर था। सर्दी भी थी। गुलकी के घुटने मंे दर्द था।

दो राहगीर चाय की तलब के मारे आये। गुलकी ने चाय दी। वे बतियाने लगे।

‘ये साले विदेशी अम्पायर। हर तरह से मारते है।’

‘अब क्या करंे हमंे तो तेरह खिलाड़ियांे से खेलना पड़ता है।’

‘तेरह ही नहीं और भी ज्यादा।’

‘लेकिन ये अम्पायर निर्णायक, रेफरी, जजेज ये सब गलत काम ही क्यांे करते हैं।’

‘गलत नही यार देशभक्ती कहो।’ वे तो बेचारे देश-भक्ति के मारे अपने देश के हित में निर्णय देते है।’

‘देशहित ?’

‘खेल को खेल की भावना से खेलो।’

‘अरे नहीं भाई खेल को राजनीतिक भावना से खेलो। और फिर ये अम्पायर तो वैसे भी दुःखी प्राणी होता है। ’

‘जो सबको दुःखी देखकर सुखी हो जाता है।’ गुलकी बोल पड़ी।

‘अम्पायरांे को दोजख मंे भी जगह नहीं मिले।’

‘आमीन।

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ग्ुालकी बन्नो परम प्रसन्न थी । आज उसकी लड़की और दामाद आये थे । लड़की ष्शादी के बाद पहली बार घर आई थी । घर को झाड़ा-पोंछा-फटका लगाया । नई चद्दर बिछाई । अपने इकलौते दोहिते के लिए मिठाई,टॅाफी,बिस्कुटो का इन्तजाम किया । जवाई बाबू केलिए सैवईयां बनाई । गुलकी की खुशी देखकर उसकी बेटी भी खुश हो गई । लम्बा समय बीत गया था बेटी से मिले । गुलकी मिली और बहुत प्रेम से मिली । मॉ-बेटी का मिलन चाय की थड़ी पर ही हो गया । फिर वे अपनी खोली में चली गई। जवाई बाबू के लिए चाय चढ़ाते हुए गुलकी बोली ।

‘और सुना कैसा चल रहा है ष्शहर में ।’

‘ ष्शहर तो अम्मा ष्शहर है,सब कुछ बेगाना सा । यहॉ जैसा अपनापन कहॉ।’

‘हॉ वो तो है,मगर जहॉं पर अन्न-जल मिले वहॉ पर जाना हीं पड़ता है ।

‘सेा तो है अम्मा । ’

ेजर्वाइं बाबू क्या -क्या करते है ? ’

व्ेा तो एक सरकारी संस्था में बाबू लग गये है ।

‘ अच्छा । ’ कितनी पगार है ?

पगार भी ठीक-ठाक है । खिच जाती है गृहस्थी की गाड़ी ।

तब तो ठीक है ।

लेकिन तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता । तुम कैसे ब्याह करती । ये जवान मुझे जम गया । मैं इसे जम गई । निकाह पढ़वा लिया । अब सरकारी बाबू की कोई मामूली हस्ती तो होती नहीं है । ’

हां ये भी ठीक किया तूने । ’

लेकिन बता कर जाती तो .....गुलकी ने जान बूझ कर बात अधूरी छोड़ दी ।

लड़की भी कुछ न बोली । दोनो चुप थे । मगर सीने में समन्दर थे । गुलकी फिर काम में लग गई ।

बच्चा खा पी कर सो गया । जवाई गांव धूम कर आ गया था ।

तीनो ने खाना खाया और सो गये ।

गुलकी ने रात सपना देखा कि बेटी-जवाई उसे बुढापे में सहारा दे रहे हैं। बेटी ने सपना देखा कि अम्मा विदाई में रो रही है । जवाईं ने सपना देखा कि वापस जाने की तैयारी करनी है । बच्चा कुनमुना कर उठा । सुबह हो गई थी । एक नई सुबह। गुलकी ने चाय की दुकान सजा ली । बेटी जवाई ने ष्शहर की राह पकड़ी ।

ष्शहर क्या था। कस्बा था। गुलकी के जवाई बाबू एक राजकीय चिकित्सालय में चतुर्थ श्रेणी अधिकारी भर्ती हो गये थे । गली-मैाहल्ले में ड़ाक्टर के रूप में जाने जाते थे । कभी-कभी दवा दारू भी कर देते थे । पूरा नाम कोई नहीं जानता था। जरूरत भी क्या थी । उनकी पहचान ड़ाक्टर-वैध-हकीम के रूप में थी तथा उनकी पत्नी भी ड़क्टरनी वैदाणी या हकीमनजी के रूप में चिन्हित की जाती थी । कभी-कभी आउटडोर से कुछ दवा -दारू चुराकर ले आते थे आस पास के पड़ोसियों में बांट देते थे । फलस्वरूप उनकी प्रतिप्ठा कुछ दिनोे के लिए ही सही बढ़ जाती थी ।

मेाहल्ले ेके सरकारी बाबूओं,चपरासियों को जब भी फर्जी मेडिकल प्रमाण पत्र की आवश्यकता पड़ती थी,जवाईं बाबू की ष्शरण में आ जाते थे । प्रमाण पत्र की रेट तय थी । इसे प्रति दिन के हिसाब से वसूला जाता था । इन दिनो यह दर एक सप्ताह के लिए सौ रूपया थी । ज्यादा लम्बा प्रमाण पत्र देने में ज्यादा लम्बी जोखिम होती थी, इस कारण राजकीय अस्पताल जिसे खैराती अस्पताल भी कहा जाता था के ड़ाक्टर सोच-समझकर,देख भाल कर ही निर्णय करते थे । ष्शकील भाई ‘‘हमारे जवाई बाबू ’’ इस सम्पूर्ण प्रकरण में दफतर ओर प्रमाण पत्र लेने वाले के बीच की कड़ी थे । वे अपना उल्लू भी सीधा कर लेते थे । आखिर वे अस्पताल में चपरासी-कम बाबू,कम वार्ड़ बाय थे।

अस्पताल कभी दोनो समय खुलता था । कभी सुबह खुलता था ष्शाम को बंद रहता था । कभी ष्शाम को खुलता था सुबह बंद रहता था । मगर कस्बे की भोली जनता शिकायतेां के पचड़े में नही पड़ती थी । पानी में रहकर मगर से बैर लेने का रिवाज नहीं था ।

ष्शकील अपनी पत्नी के साथ अस्पताल के पास की एक कालोनी में रहता था। जिन्दगी की गाड़ी मजे से चल रही थी, मगर वो जिन्दगी ही क्या जो मजे से चलती चली जाये ।

अस्पताल में एक कैम्प लगा । कैम्प में बाहर के ड़ाक्टर,अफसर,नेता आये । सबने मिलकर कैम्प चलाया । मगर हिसाब किताब की किसी ने परवाह नहीं की ।

अॅाड़िट ने पकड़ा और ष्शकील को धर दबोचा । प्रभारी चिकित्सक ने अपनी जान बचाने के लिए ष्शकील को ढा़ल बना कर निलम्बन की सिफारिश कर दी । अफसरों ने तनिक भी देर नहीं लगाई और ष्शकील भाई की हंसती -मुस्कराती गृहस्थी को नजर लग गई । खबर गुलकी बन्नो तक पहुॅची । गुलकी रोती -कलपती आई । सारा माजरा समझा,और जैसा कि रिवाज है घुटने पैट की ओर ही मुड़ते है,एक जातिवादी नेता की ष्शरण में आ गई । कभी नेता जी अपनी जवानी के दिनो में गुलकी बन्नों से इक तरफा प्यार कर चुके थे, अतः मामले केा हाथेा हाथ रफादफा कराने में जुट गये । मगर मामला ज्यादा गम्भीर निकला । आडिटवालों ने मामला उपर पहुॅचा दिया । उूपर से मामला लेाक लेखा समिति के चंगुल में फंस गया,साथ में चिकित्सक ओर ष्शकील की गर्दन भी फंस गई । आखिर चिकित्सक ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली । ष्शकील आज भी दर-दर की ठोकरे खा रहा है और गुलकी बनेंा स्वर्ग सिधार चुकी है ।

ष्शकील कस्बे में इधर -उधर मारा -मारा फिरता था । मगर जातिवादी नेता जी ने उसे चिकित्सालय से मुक्त करा कर अपने मित्र हकीम जी के दवाखाने में दवा बनाने में लगवा दिया । हकीम जी के पास कुछ अच्छे पौरूपीय नुस्खे थे जिन की बदौलत उनकी चिकित्सा ठीक-ठाक चलती थी । ष्शकील ने भी ये नुस्खे सीख लिए ।और गृहस्थी की गाड़ी को फिर पटरी पर लाकर हरी झंड़ी दिखा दी । गुलकी की चाय की दुकान बेच -बाच कर जो पैसा आया उससे उसने अपने लिए ष्शहर में एक कोठरी ले ली ।

गुलकी की बेटी अब अपने बच्चे के साथ इस केाठरी में रहती है लोग-बाग बकते रहते है कि हकीम सा. कभी-कभी कोठरी में आते है ।मगर लोगों का क्या ?

लोगों के डर से क्या आदमी जीना छोड़ दे ।

 

इधर महगांई,परमाणु संधि,अविश्वास प्रस्ताव, सरकार का बहुमत और बहुमत की सरकार जैसे ष्शब्द हवा में उछलने लग गये थे। सरकार कभी चुनावों का डर दिखाती कभी डर कर चुनावों से मुंह मोड़ लेती । आंतकी घटनाऐं,बैंक लूटने की वारदातें,जातीवादी आन्दोलन कुल मिलाकर अराजकता की स्थिति । वस्तु स्थिति देखने - समझने की फुरसत किसे । चुनाव होगें या नहीं।होगें तो कब होगें । कौन -जीतेगा जैसे नश्वर प्रश्नों का क्या? वे तो हर तरफ हर समय हवा में तैरते रहते है । श्राद्ध पक्षो की तरह चुनावी पक्ष आते और जाते । गठ बन्धन सरकारों के धर्म शुद्ध राज धर्म नहीं हो सकते । गठबन्धन का पहला धर्म स्वयं को तथा सरकार को जिन्दा रखने का है । हम ही नहीं होगे तो सरकार या देश के होने का क्या फायदा प्यारे । पहले खुद और सरकार को बचाओं । जान है तो जहान है । सरकार है तो सब कुछ है मंत्री प्यादे,धोड़े, रानी,उूंट,हाथी,महल,दफतर,हवाई जहाज, सब कुछ यदि सरकार नही ंतो कुछ भी नहीं मेरे सरकार । गान्धी हो या गोडसे क्या फर्क पड़ता है । सामन्ती लिबास में कामरेड और कामरेडी लिबास में समाजवादी,समाजवादी कुर्ते में अम्बेड़करवादी और अम्बेड़कर की टोली में सोशल इन्जीनियरिगं का कमाल । ये ही राजनीति है मरी जान ......। ये ही सरकार है ....। ये ही गठबन्धन है । और ये ही धर्म संकट है ।

सरकार है, लोमड़िया है । कैावे है । कांव कांव करता मीड़िया है । असफल नेता है और आत्मकथा की धमकी देते मंत्री है। मुझे कुछ दे नही ंतो किताब लिख दूगां । किताब का ऐसा सदुपयोग .......।

जो कभी क्रान्ति के कौवे उड़ाया करते थे,वे आजकल कनकवे उड़ा उड़ा कर टिकट का जुगाड़ कर रहे है । टिकट की भली कही । सेवानिवृत्त भ्रप्ट अफसर,चाटुकार पुलिस वाले,अपराधी, स्मगलर, सुपारी किलर,समाजसेवी, सेविकाएॅ,सब टिकटों की बन्दर बांट के लिए पार्टी-दफतरों मंे चक्कर लगाने लग गये और ये बेचारे कार्यर्कता ढपोरशंख ही रह गये । टिकट किसे नहीं चाहिये । सरकार में घुसने का नायाब मैाका है टिकट। यदि टिकट मिल जाये तो सत्ता के ष्शीर्प पर या ष्शीर्प से एक-आध सीढ़ी नीचे पहुॅचने में क्या दिक्कत है ।