असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 15 Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 15

15

कोई कुछ नहीं बोला।

सन्नाटा बोलता रहा।

झिगुंर बोलते रहे।

मकड़ियांे ने संगीत के सुर छेड़े।

रात थोड़े और गहराई।

यशोधरा बोली।

‘आज मेरी काम वाली ने बताया कि कल और परसांे की छुट्टी करेंगी। जब पूछा क्यांे तो बताया नया साल है, मैं...मेरे मां-बाप और भाई-बहन सब नया साल मनायेंगे। छुट्टी लंेगे। शहर घूमंेगे, बाहर खाना खायंेगे। और लगातार दो दिन यही करंेगे।’

‘तो इसमंे नया क्या है।’ झपकलाल बोला।

‘उन्हंे भी अपना जीवन जीने का हक है।’

‘जीवन जीने का हक !’

‘क्या तो वे और क्या उनका जीवन।’

‘फिर एक नई कविता लिखना चाहता हूं बात बन नही रही।’

‘जब बात बन नही रही तो क्यांे लिखना चाहते हो।’ यशोधरा ने टोका।

‘लिखे बिना रहा नहीं जाता।’ कुलदीपक बोला।

‘ठीक है लिखना, मगर सुनाना मत। सुनने का बिलकुल मूड़ नही है।’ झपकलाल भी बोला।

कुलदीपक मन-मसोसता रहा।

रात फिर बीती। बारह बजे का घन्टा निनाद हुआ। पूरे शहर मंे पटाखांे का दौर शुरू हुआ। कारों, स्कूटरांे, मोटर-साइकिलांे पर युवा वर्ग निकल पड़ा। हैप्पी न्यू ईयर। चिल्लाने वाली भीड़ झील के किनारांे पर बढ़ने लगी। वे चारों बस्ती की तरह चल पड़े।

बच्चा नींद मंे कुनमुनाया माने कह रहा हो।

‘हैप्पी न्यू ईयर।’

नव वर्ष के उत्सव का उत्साह, उमंग, उल्लास का रंग या हुड़दंग का असर। कस्बे के एक हिस्से मंे स्थित होटल से रात को बाहर निकल रही कुछ युवतियांे तथा उनके मित्रांे को भीड़ ने घेर लिया। उत्सव का आक्रामक असर इस हद तक रहा कि कोई कुछ समझे तब तक भीड़ ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। मद्यपान के बाद की उत्तेजना, युवतियांे का भीड़ मंे गिर जाना। अर्द्धरात्रि पश्चात का समय। सब कुछ एक असभ्य, लज्जाजनक स्थिति के लिए पर्याप्त। युवतियां संख्या मंे ज्यादा नहीं थी, मगर उनके मित्रांे को भीड़ ने दबोच लिया। पटक दिया। मारा। वे कुछ करते तब तक भीड़ ने युवतियांे के कपड़े फाड़ दिये। नोंचा, खसांेटा, बदतमीजी से बातंे की, अनर्गल प्रलाप किया। भीड़ थी सो कोई क्या कर सकता था। नव वर्ष की इस उपसंस्कृति मंे टी.वी. की अधनंगी संस्कृति मिल गई थी। गाली गलोच अश्लील हरकत है।

दो युवतियांे तथा उनके मित्रांे ने थोड़ी हिम्मत दिखाई। मोबाइल से भीड़ के फोटांे ले लिये। पुलिस को बुलाया गया। धीरे-धीरे पुलिस भी आई। समय की खुमारी के साथ पुलिस ने दोनांे युवतियांे और उनके मित्रांे को थाने मंे बुलाया। भीड़ से भी दो-चार चेहरे लिए और अपनी घिसीपिटी रफ्तार से कार्रवाही शुरू की।

‘हां तो मेडमजी ये बताओ कि तुम आधी रात को होटल मंे क्या कर रही थी।’

युवती बेचारी सकपकाई, मगर फिर हिम्मत बांधकर बोली।

‘सर मैं अपनी सहेली और मित्र के साथ पार्टी कर रही थी।’

‘पार्टी। हूं। पार्टी ? तुम्हंे यही समय मिला पार्टी का।’

‘मगर इसमंे गलत क्या था।’ पुरूष मित्र बोला।

‘तू चुप रह। मैं तेरे से पूछूं तब बोलना।’ बेचारा युवक सकपका गया।

पुलिस ने अपनी कार्यवाही जारी रखी।

‘हां तो तुम वहां पार्टी कर रहे थे। अब पार्टी थी तो शराब भी पी होगी।’

‘नहीं जी हम दोनांे ने तो नहीं ली।’ युवती फिर बोली।

‘और तुम्हारे साथियांे ने।’

‘हां वे ले चुके थे।’

‘तो मेडमजी तुम्हारे साथी नशे मंे थे। भीड़ को अंट-शंट बक रहे थे, ऐसी स्थिति मंे भीड़ क्या करती।’

‘क्या करती। बोलो मेडमजी।’ पुलिस अफसर चिल्लाया।

बेचारी लड़किया फिर डर गई।

‘तो मेडमजी ऐसी मस्ती के माहौल मंे भीड़ ने जो कुछ भी किया ठीक ही किया है। मेरी सलाह है कि इस मामले को रफा-दफा समझो। घर जाओ और आगे से आधी रात की पार्टी घर पर ही कर लिया करो।’

युवक कसमसा रहा था। मगर पुलिस के सामने क्या कर लेता। ऐसी स्थिति मंे नव घनाढ्यांे को दो-चार होना ही नहीं पड़ता है। फिर भी हिम्मत कर बोला।

‘मगर आप हमारी रिपोर्ट तो लिखिये।’

‘रिपोर्ट। दिमाग खराब हो गया है तेरा। ऐसी छोटी-मोटी बातंे तो होती ही रहती है और अगर तेरे मंे हिम्मत थी, मर्द था, तो लड़ मरता भीड़ से। फिर बनता केस तो। इस छेड़छाड़ का कोई केस नहीं बनता।’

‘लेकिन मीडिया वालांे ने कुछ फोटो ले लिये है।’ दूसरा युवक बोला।

‘अरे छोड़ इस मीडिया-शिडिया को।’

‘घर जा। आराम से सो।’ अफसर ने फिर समझाया।

मगर युवती अड़ गई। मीडिया का हवाला। पुलिस ने रिपोर्ट लिखी। अज्ञात लोगांे के खिलाफ। पुलिस ने रिपोर्ट कर्ताआंे को भी शराब के नशे मंे होना बताया। रोजनामचे की रिपोर्ट के आधार पर भीड़ से कुछ लोग पकड़े भी गये।

अखबारांे मंे, टी.वी. चैनलांे मंे खूब रंग जमा। मंत्रीजी ने स्पष्ट कह दिया। ऐसे हादसे तो होते ही रहते है। हर जगह सुरक्षा संभव नहीं। बेचारे क्या करते।

थाना तो थाना। वो भी पुलिस थाना। एक को मारते तो दस डरते। दस को गरियाते तो पचास को लतियाते। युवाआंे का नव वर्ष का नशा उतर चुका था। वे पुलिस थाने से बाहर आये। लेकिन नव वर्ष एक टीस दिल मंे हमेशा के लिए छोड़ गया। पुलिस के भरोसे किसी को भी नहीं रहना चाहिये, यही सोचकर रह गये।

वैसे पुलिस और कोर्ट मंे छेड़छाड़, बलात्कार आदि के मामलांे मंे, जो जिरह होती है, जिस मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ता है उसका ऐसा भयावह चित्र अफसर ने खींचा की बस मत पूछो। लिखते रूहे कांपती है। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते।

इस बीच नववर्ष का आगाज शहर के एक घर मंे आंसुआंे से हुआ। रात को तेज गाड़ी चलाते युवक गाड़ी सहित झील मंे डूब गये। पांच की जल समाधि हो गई।

ये सब कैसे हो रहा है ? क्यांे हो रहा है कि चिंता, किसी को नहीं, सब कुछ अविश्वसनीय, मगर सच। कोरा सच।

समाज मंे सब कुछ क्या इसी तरह चलता रहेगा ? क्या आमोद, प्रमोद के नाम पर बलियां होती रहेगी। नई पीढ़ी के पास क्या यही सब है और कुछ नहीं, एक युवक ने कहा भी था। आज को जी लो। मना लो। ऐश कर लो। कल हो ना हो। कल किसने देखा है ?

ग्  ग् ग्

कस्बे का बाजार। अभी सन्नाटा है। सुबह हुई नहीं है। पो फटने वाली है। अखबार वाले, दूध वाले, काम वाली बाईयांे ने आना-जाना शुरू कर दिया है। अन्धेरा अभी पूरी तरह दूर नहीं हुआ है। भगवान भास्कर ने अपने साम्राज्य का विस्तार अभी शुरू नहीं किया है।

ब्राह्म मुहूर्त कभी का हो चुका है। पुरानी पीढ़ी के बूढ़े, खूसंट, बुजुर्ग खांस-खंास कर वातावरण को हल्का कर रहे है। नई पीढ़ी रात की खुमारी मंे सो रही है।

सुबह होने की खबर के साथ ही बाजार मंे सोये पड़े कुत्ते इधर-उधर मुंह मारने लग गये है। कुत्तांे की सामूहिक सभा रात को ही चुनावी सभा के बाद सम्पन्न हो चुकी है। इस सामूहिक सभा के पश्चात झबरे कुत्ते ने सभी को सावधान कर दिया था, चुनावांे मंे कभी भी हिंसा हो सकती है। कुत्तंे अपनी हिफाजत स्वयं करंे। सरकार, व्यवस्था, पुलिस, आर.ए.सी. सेना, कट्टर पंथियांे, जातिवादी नेताआंे के भरोसे न रहे क्यांेकि इस प्रकार की चुनावी हिंसा चुनावांे मंे एक हथियार के रूप मंे प्रयुक्त की जाती है। पूर्व के चुनावांे मंे भी एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या हो गई थी। पिछले दिनांे ही पड़ोस के देश मंे चुनावी हिंसा ने अपना ताण्डव दिखलाया था। एक ओर पूर्व प्रधानमंत्री हिंसा का निशाना बन गई थी।

कस्बे के बाजार मंे धीरे-धीरे दुकानंे खुलने लग गई थी। डर के बावजूद रोजमर्रा का कामकाज सामान्य चल रहा था। मजदूर, किसान, रोजाना की खरीद फरोख्त करने वाले छोटे व्यापारी धीरे-धीरे बाजार मंे आ रहे थे। सुबह-सुबह बोहनी बट्टा के इन्तजार मंे दुकानांे पर व्यापारी बैठे थे। कुछ दुकानांे पर व्यापारी सामान सजा रहे थे। कल्लू मोची भी बाजार मंे आ गया था। उसने अपने साथी झबरे को पुचकारा। प्रेम किया। झबरे ने स्नेह से पूंछ हिलाई।

ठीक इसी समय बाजार मंे दो लघु व्यापारियांे ने एक-दूसरे के व्यापार मंे दखल देने के लिए एक-दूसरे की दुकान को गाली-गलोच से नवाजा। बात धीरे-धीरे बढ़ने लगी। राहगीरांे को मजा आने लगा। एक राहगीर बोला।

‘ये तो रोज का झगड़ा है। आपस मंे लड़ते रहते है और ग्राहक को ढगने की कोशिश मंे लगे रहते है।’

‘हां भाई सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे है।’

‘अब देखो साला कैसे गाली दे रहा है ?’

‘अरे गालियों और लड़ाई से व्यापार मंे बरकत होती है।’

‘लेकिन ये ससुरे चुप क्यांे नहीं होते ?’

‘व्यापारी तभी चुप होता है जब ग्राहक दुकान पर चढ़ता है।’

‘तुम ठीक कहते हो।’

राहगीरांे ने अपनी राह पकड़ी। कल्लू बोला।

‘साले नोटंकी करते रहते है।’

‘रोज नया नुक्कड़ नाटक। बस पात्र पुराने होते है।’

तक तक कुलदीपकजी ने भी सीन पर पर्दापण कर लिया था। वे उवाचे।

‘क्यांे कल्लू क्या बात है ?’

‘बात नहीं है यही तो रोना है। ग्राहक की तलाश है। जब से कस्बे मंे मॉल खुला है। सब ग्राहक वहां जाते हैं। अब खरबपति मेवा फरोश की वातानुकूलित दुकान मंे जाने वाला ग्राहक यहां क्यांे आयेगा ?’

‘वो तो ठीक है पर झ़गड़े का कारण ?’

‘कम पूंजी का व्यापारी ऐसे ही छाती कूटता रहता है बस।’

‘हूं।’ कुलदीपकजी चुप हो गये।

सोचा। इस नई पूंजी वाली अर्थव्यवस्था से क्या छोटे व्यापारी, छोटे कामगार नष्ट हो जायंेगे। यदि ऐसा हुआ तो बहुत बुरा होगा।

कुलदीपक को चाय की तलब थी, उन्हांेने कल्लू से कहकर तीन चाय मंगवाई।

एक खुद पी। एक कल्लू ने सुड़की और एक झबरे ने चाटी।

चायोत्सव के कारण कुलदीपक मंे कुछ ताजगी आई। उन्हांेने एक भरपूर अंगडाई ली और बस स्टेण्ड का मुआईना करने निकल गये। बस स्टेण्ड अभी भी उनीन्दा सा था। उन्हांेने बसांे का पढ़ा। सवारियांे को पढ़ा। महिला सवारियांे का सूक्ष्म निरीक्षण किया। प्रतिदिन कौन देवी कौनसी बस से जाती है और कौनसी आयेगी आदि जानकारी का टाइमटेबल संशोधित किया। कुछ स्थानीय लोगों से दुआ सलाम की। मगर फिर भी अभी भी अकेलापन उन्हंे काट रहा था, उन्हांेने पास की बंेच पर आसन जमाया और एक कण्डक्टर तथा एक ड्राईवर से गप्प लगाना शुरू किया। ड्राईवर को आंख मारते हुए बोले।

‘भगवन। आज ड्यूटी बदल गई है क्या ?’

‘क्या करंे जी, एक साहब की भुवाजी को लेने गांव तक बस दौड़ानी है। एक भी सवारी नहीं। मगर भुवाजी को लाना आवश्यक। रोड़वेज का घाटा भुवाजी के खाते मंे।’ अब सरकारी अफसरांे के यही मजे है। जब चाहे अपने रिश्तेदारांे की मदद कर दंे।

‘अफसरांे के नही प्रजातन्त्र के मजे है सर।’ कण्डकटर बोला। सिटी बजाई। ड्राईवर ने बस आगे बढ़ाई। खाली बस भुवाजी को लेने गई।

कुलदीपक ने कुछ देर इन्तजार किया। अपरिचितांे की भीड़ मंे कहीं कोई नहीं दिखा। कुलदीपक फिर कल्लू के पास जाना चाहता था कि उसे अविनाश दिखाई दिया। अविनाश को भी साथी की तलाश थी।

अविनाश और कुलदीपक मिलकर शहर के इकलौते बाजार मंे भटकने लगे। भटकाव जिन्दगी के लिए आवश्यक है। मृत्यु मंे कोई भटकाव नहीं होता किसी शायर ने शायद ठीक ही लिखा है कि मौत तो महबूबा है साथ लेकर जायेगी और जिन्दगी बेवफा है। जिन्दगी की इस बेवफाई से कुलदीपक दुःखी थे। अविनाश इस छोटे कस्बे मंे दुःखी थे। दोनांे की पत्नियां भी दुःखी थी। कुलदीपक ने आज अपने मन की बात अविनाश से करी।

‘यार क्या करूं, कुछ समझ मंे नहीं आता। मां के जाने के बाद घर अस्त-व्यस्त हो गया है। मैं परेशान हूं। कमाई का कोई जरिया नहीं है।’

‘यही हालत मेरे साथ है। हम दोनांे मुफलिसी मंे दिन गुजार रहे है और देखो चारांे तरफ लोग कमा-खा-अघा रहे है।

‘क्या करंे। अपन तो शब्दांे के व्यापारी है। शब्द बेचने के अलावा अपन को और कोई दूसरा काम नहीं आता है।’

‘यहीं तो मुसीबत है यार। काश हमें आलू-प्याज बेचना आता।’

‘जो कविता रूपया नहीं बन सकती । उस कविता का क्या करे, ओढ़े, बिछाये, चाटे।’ आक्रोश पूर्ण स्वर मंे कुलदीपक चिल्लाया।

‘चिल्लाने से क्या होने जाने वाला है कोई जुगत करनी चाहिये। सुना है माधुरी मेम का स्कूल शीध्र ही निजि विश्वविद्यालय बनने वाला है।’

‘अरे। वाह। अपने कस्बे मंे युनिवरसिटी।’

‘अब तो हर गली, मोहल्ले मंे कॉलेज और विश्वविद्यालय खुलने का जमाना है।’

‘कोशिश करो यार कहीं घुस जाये।’

‘अब अपनी स्थिति से सब वाकिफ है। सब जानते है इस बिमारी को अपने यहां रखने से परेशानी बढ़ेगी।’ अविनाश बोला।

‘लेकिन अपन कोशिश तो कर सकते है।’

झपकलाल भी काम की तलाश मंे भटक रहा है। वो बोला।

‘क्या करंे।’ अविनाश बोला।

‘अपन तीनांे मिलकर नेताजी के दरबार मंे हाजिरी देते है। शायद बात बन जायंे।’

अविनाश ने झपकलाल को भी बुलवा लिया। तीनांे ने ग्रामीण रोजगार योजना बनाई और उसे साकार करने चल दिये।

नेताजी का दरबार सजा हुआ था। वे प्रातःकालीन कार्यक्रमांे से निवृत्त होकर मालिश का आनन्द ले रहे थे। उनके स्थायी मालिशिये रामू के अलावा दरबार मंे माधुरी भी बैठी थी।

माधुरी अपने विश्वविद्यालय के सपने को साकार होते देख खुश थी। इस निजि विश्वविद्यालय मंे वही, सर्वेसर्वा होगी, इस कल्पना मात्र से उसे असीम आनन्द का अनुभव हो रहा था। वहीं कुलपति, वहीं कुलाधिपति, वहीं वित्तपोषक, वहीं रजिस्ट्रार, वहीं डीन और बाकी सब उसके अमचे-चमचे, दीन-हीन अध्यापक, कामचोर बाबू, जी हजूरी करते अफसर चारांे तरफ बस वही-वही।

एक्ट पास कराने मंे उसे ज्यादा जोर नहीं आया। नेताजी की कृपा और काली लक्ष्मी के सफेद जूते से सब कुछ आसान हो गया था। जमीन उसने विशाल के टाऊनशिप मंे दाब ली थी। दाब ली थी इसलिए लिखा कि विशाल की मदद के लिए उसे कुछ तो मिलना ही था, उसने जमीन पर विश्वविद्यालय का शानदार बोर्ड बनवा कर टकवा दिया था। ‘माधुरी विश्वविद्यालय।’

माधुरी विचारांे मंे मग्न थी, मंद-मंद मुस्करा रही थी कि कक्ष मंे अविनाश, कुलदीपक और झपकलाल अवतरित हुए।

माधुरी ने उन्हंे देखकर भी अनदेखा कर दिया। सुबह-सुबह उसे कवाब मंे हड्डिया अच्छी नहीं लगी, मगर नेताजी को शायद वे लोग पसन्द थे। तीनांे ने आकर नेताजी के श्रीचरणांे मंे दण्डवत की। आज्ञा पाकर माधुरी जी को वन्दन प्रणाम किया। माधुरी को मुस्करा कर उचित प्रत्युत्तर देना पड़ा।

नेताजी उवाचे।

‘आज प्रातःकाल कवि, पत्रकारांे ने कैसे गरीब खाना पवित्र किया ?’

अविनाश ने सोचा अगर ये गरीब खाना है तो ईश्वर ऐसी गरीबी सबको दें। प्रकट मंे बोला।

‘सर अब जीवन मंे सैटल होना चाहता हूं।’

‘तो हो जाओ सैटल कौन मना करता है। शादी हो ही चुकी है। बच्चा भी है। अब सैटल होने मंे क्या कसर बाकी है।’

‘सर मेरा मतलब था कोई स्थायी काम, नौकरी या धन्धा हम तीनांे इसी आशा से आये है कि आप हमंे इस निजि विश्वविद्यालय मंे सैट कर दंे।’

अब माधुरी को खटका हुआ। यदि ये बीमारियां विश्वविद्यालय मंे घुस गई तो चल चुका विश्वविद्यालय। लेकिन वो चुप रही।

नेताजी ने बात संभाली।

‘भैया विश्वविद्यालय निजि है। सरकार का इसमंे कुछ भी दखल नहीं है। ये तो स्वायत्तशासी संस्थान है।’

‘वो तो ठीक है पर आपका आर्शीवाद मिल जाये तो...।’ कुलदीपक ने कहा।

‘और फिर आपकी कृपा से एक पुराने विश्वविद्यालय मंे एक बाबू लग गया था। कुछ समय बाद रजिस्ट्रार बन गया अभी तक राज कर रहा है।’

नेताजी ने जान बूझकार चुप्पी साध ली। वे जानते थे कि एक विश्वविद्यालय मंे उन्हांेने एक बाबू को जन सम्पर्क के काम मंे लगाया और वो अपनी प्रतिभा के बल पर रजिस्ट्रार बन गया था। प्रजातन्त्र मंे यह सब चलता ही रहता है।

कुछ देर की चुप्पी के बाद नेताजी पुनः बोले।

‘भईयां अभी गांव बसा नहीं और भिखारी कटोरा लेकर आ गये।’

इस टिप्पणी से तीनांे दुःखी तो हुए मगर अपमान को पीते हुए झपकलाल बोला।

‘सर पिछले चुनाव मंे मैंने एक साथ तीन बूथ छापे थे तभी आपकी सीट निकल पाई थी।’

‘ठीक है, उसका तुम्हंे पूरा आर्थिक लाभ दे दिया गया था।’

झपकलाल क्या बोलता। चुप रहा।

कुलदीपक ने बात संभाली।

‘सर नई-नई युनिवर्सिटी है, सबके लिए जगह है।’

‘नहीं मेरे विश्वविद्यालय मंे होशियार, उच्च स्तर के विद्वान आयंेगे। कुलपति, रजिस्ट्रार सभी बहुत ऊंचे दर्जे के हांेगे। चयन समिति सब तय करंेगी।’

‘ठीक है माधुरी जी, जब तक गठन हो ’, ‘चयन समिति बने‘, ‘सिन्डीकंेट बनंे ’ तब तक कृपा करके इन लोगांे को कहीं घुसा लंे।’

‘नही सर। ऐसा करने से बदनामी होगी।’

‘काहे की बदनामी। तुम ऐसा करो कुलदीपक कवि है, इसे हिन्दी मंें अस्थायी अध्यापक बना दो। अविनाश को जनसम्पर्क विभाग का काम दे दांे और झपकलाल को अस्थायी बाबू बना दो। वेतन भी तुम ही तय करना।’

माधुरी क्या बोलती।

तो देखा आपने माधुरी विश्वविद्यालय मंे तीन व्यक्तियांे का स्टाफ नियुक्त हो गया। माधुरी तो खैर कुलपति बन ही चुकी है।

नेताजी ने मिटिंग समाप्त की। वे अन्दर चले गये। माधुरी ने तीनांे को कुछ दिन बाद मिलने को कहा तब तक विश्वविद्यालय के लिए स्थान का भी प्रबन्ध करना था वैसे फिलहाल विश्वविद्यालय उसके स्कूल के पीछे के कमरांे मंे शुरू कर दिया गया था। कुल चार का स्टाफ माधुरी, अविनाश, झपकलाल और कवि कुलदीपक।

 

आप सोच रहे हांेगे कि लेखक शुक्लाजी और शुक्लाइन को भूल ही गया मगर वास्तव मंे ऐसा नहीं है। शुक्लाजी को भूला जा सकता है। मगर शुक्लाइन को कौन, कैसे भूल सकता है। वैसे भी शुक्लाजी के विकास मंे शुक्लाइन का योगदान अभूतपूर्व है। इसके अलावा शुक्लाइन की मदद ने बिना माधुरी विश्वविद्यालय की कथा अधूरी ही रह जायेगी। कथा की एक प्रमुख किरदार है शुक्लाइन।

ज्यांेहि शुक्लाइन को पता चला कि माधुरी विश्वविद्यालय को जगह मिल गई है। कुछ अस्थायी नियुक्तियां भी हो गई है, तो वे तुरन्त शुक्लाजी को बोली।

‘कुछ ध्यान भी है तुम्हंे या खाली प्रिन्सिपली कर-कर के ही महान बन रहे हो ?’

‘क्यांे क्या हुआ।’

अरे माधुरी मैडम ने विश्वविद्यालय बना लिया है खुद कुलपति है और हिन्दी विभाग मंे कुलदीपक, जन सम्पर्क हेतु अविनाश को लगा दिया है।’

‘तो अपन तो इन पदांे के लिए है भी नहीं।’

‘अरे पदांे को मारो गोली। विश्वविद्यालय मंे घुसना ही महत्वपूर्ण है। हर विश्वविद्यालय वास्तव मंे ऐसा अभयारण्य होता है जहां पर हर कोई चर सकता है। सबै भूमि गोपाल की।’

‘लेकिन विश्वविद्यालयांे मंे घुसना भी मुश्किल, वहां की राजनीति भी मुश्किल और निकलना तो और भी मुश्किल।’

‘अरे तो निकलना कौन चाहता है। रही बात राजनीति कि तो राजनीति कहां नहीं है। घर से लगाकर संसद तक हर तरफ राजनीति ही राजनीति है।’

‘तो अब क्या करंे ?’ शुक्लाजी ने परेशान होकर पूछा।

‘करना क्या है ?’ चलो माधुरी के पास चलते है। हो सकेगा तो तुम रजिस्ट्रार या डीन एकेडेमिक और मैं हिन्दी की विभागाध्यक्ष।

‘क्या ये इतना आसान है।’

‘आखिर अपना दोनांे का पुराना अनुभव कब काम आयेगा और नेताजी की मदद भी ली जा सकती है।’

‘लेकिन अपन जो शान्ति और सकून की जिन्दगी जी रहे है वो खत्म हो जायेगी।’