असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 6 Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 6

6

वर्षा समाप्त हो चुकी थी। खेतांे मंे धान पक रहे थे। किसान-मजदूर निम्न मध्यवर्गीय समाज के पास काम की कमी थी, ऐसी स्थिति मंे धर्म, अध्यात्म, प्राणायाम, योग, कथावाचन आदि कार्यक्रमांे को कराने वाले सक्रिय हो उठते है।

धर्म कथाआंे का प्रवचन पारायण शहर मंे शुरू कर दिये गये। हर तरफ माहोल धार्मिक हो गया। ऐसे मंे एक दिन एक धर्मगुरु के आश्रम मंे एक महिला की लाश मिली। सनसनी फैली और फैलती ही चली गयी। जिन परिवारांे से महिलाएंे नियमित उक्त बाबाजी के आश्रम मंे जा रही थी, उन घरांे मंे शान्ति भंग हो गई। उनके दाम्पत्य जीवन खतरे मंे पड़ गये। एक बार तो ऐसा लगा कि दिव्य और भव्य पुत्र की आस वाली बांझ स्त्रियांे को पुत्र-प्राप्ति ऐसे ही स्थानांे से होती है। मगर बाबा आखिर बाबा थे उन्होंने अपना अपराध कबूला और जेल का रास्ता नापा। असुन्दर का यह ऐसा सुन्दर उदाहरण था कि मत पूछो।

कल्लू के ठीये पर चौराहे की तरह लोग आते-जाते थे। गांव के भी, शहर के भी और बाजार के भी। सभी इस नई घटना पर अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त करना चाहते थे, मगर श्रोताआंे की तलाश मंे भटक रहे थे। ऐसी गम्भीर स्थिति मंे कुलदीपक, झपकलाल और कल्लू मिल गये।

कुलदीपक ने जूता पालिश के लिए दिया और कहा।

‘और कल्लू सुना शहर के क्या हाल है।’

‘बाबू शहर के हाल कोई तुमसे छिपे है। तुम शहर के जाने-माने पत्रकार। मैं अनपढ़ गंवार।’

‘अरे यार मस्का छोड़ कुछ नया बता।’

‘अब क्या बताऊं, कहता आंखन देखी और सच बात तो ये है कि बाबूजी वो जो कन्या भू्रण नाले मंे मिला था वो किसी बाबा का कृपा-प्रसाद ही था।’

‘अच्छा।’ लेकिन वो औरत.....।’

‘पुलिस किसी से भी कुछ भी उगलवा सकती है पण्डित जी। मुझे भी थाने मंे बुलाया था।’

‘फिर।’ झपकलाल उवाच ।

‘फिर क्या। मुझे तो छोड़ दिया और पुलिस ने एक नई कहानी गढ़ डाली। पुलिस की झूठी कहानी भी सच्ची कहानी होती है क्यांेकि वो डण्डे के जोर से लिखी जाती है।’ भू्रण हत्या का मामला अदालत मंे नही गया। मीडिया और पुलिस से ही काम चल गया। शहर आये बाबा का अस्थायी आश्रम यथासमय बिना संकट के विदा हो गया। बचे हुए गृहस्थ दम्पत्ति अब स्वयं योग, प्राणायाम, व्यायाम आदि सीख चुके थे और उनसे अपना काम चला रहे थे।

कुलदीपक पत्रकारिता के खम्भे पर चढ़ने के असफल प्रयास निरन्तर कर रहे थे, वे जितना चढ़ते उतना ही वापस उतर जाते। उधर उन्हांेने एक भूतपूर्व लेखक, असफल सम्पादक जो अब प्रकाशक बन गया था को अपनी कविताआंे की पाण्डुलिपि पकड़ा दी थी। आज वे उसकी दुकान पर जमे हुए थे। बाजार मंे यह इकलौती दुकान थी, जिस पर प्रकाशन, स्टेशनरी, बोर्ड की पुस्तकंे, सब एक साथ बिकते थे। प्रकाशक को सबसे ज्यादा प्यार सबमिशन नामक शब्द से था। यह शब्द सुनकर ही वह उछल पड़ता था। आज कहां सबमिशन की सूचना मिल सकती है, सबमिशन के लिए किस अधिकारी से सम्पर्क करना है, कमीशन रिश्वत की दरंे क्या है, कौनसी पुस्तक सबमिट करने मंे फायदा हो सकता है, वह सुबह से लेकर शाम तक इसी गुन्ताणंे में व्यस्त रहता था। ऐसे अवसर पर एक कवि का आना उसे बड़ा नागवार गुजरा मगर कुलदीपकजी के सम्पादक जीजा ने एक बार उसकी बड़ी मदद की थी, बोर्ड मंे एक पुस्तक लगवाने के लिए एक सरस समाचार का प्रकाशन अपने पत्र के विशेष संवाददाता के हवाले से कर दिया था, तब से ही प्रकाशक कुलदीपक जी के कविता संग्रह से जुड़ गया था।

प्रकाशक ने कुलदीपक के नमस्कार का जवाब देने के बजाय उन्हंे बिठा दिया और अपने कार्य मंे व्यस्त हो गया। काफी समय तक कुलदीपक इधर-उधर पड़ी पुस्तकांे का मुआईना करता रहा, बोर होकर प्रकाशक की ओर देखता, प्रकाशक व्यस्तता का बहाना करता नोकर पानी पिला चुका था। अन्ततः कुलदीपकजी बोले।

‘भाई साहब मेरा कविता संग्रह कब तक आयेगा ?’

‘अरे यार इस कविता-सविता का चक्कर छोड़ो, कुछ शाश्वत, सुन्दर, आकर्षक लिखो। तुम एक उपन्यास लिख लाओ। तुरन्त छापूंगा।’

‘लेकिन मैं तो कवि हूं।’

‘अरे कवि की असली पहचान तो गद्य-लेखन मंे ही होती है।’

‘वो तो ठीक है पर.........।’

ठीक इसी समय प्रकाशक की दुकान पर एक स्थानीय पुस्तकालयाध्यक्ष आये। प्रकाशक ने कुलदीपक को उठने का इशारा किया। कुर्सी साफ की, खीसंे निपोरी और पुस्तकालयाध्यक्ष की ओर देखकर कहा।

‘क्या आदेश है?’

‘काहे का आदेश, यार।’ तुम बड़े बदमाश हो।’

‘क्यांे क्या हुआ।’ पिछली बार तुमने पुराने संस्करण की पुस्तकंे टिका थी। तुम्हारा बिल रूक गया है।

‘यह सुनकर प्रकाशक गिडगिड़ाने लगा। कुलदीपक को एक तरफ करके प्रकाशक ने पुस्तकालध्यक्ष से अलग जाकर रास्ता पूछा।’

‘रास्ता सीधा है। अग्रिम कमीशन दो।’

प्रकाशक जी ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया। ठण्डा मंगवाया। पिलाया। कुलदीपकजी से पूछा तक नही। लाइब्रेरियन चला गया। प्रकाशकजी ने अब कुलदीपक से कहा।

‘यार तुम्हारा काव्य, संकलन छाप दूंगा, यार चिन्ता मत करो।

‘लेकिन कब तक......। दो वर्षों से पड़ा है।’

‘पड़ा रहने के लिए नहीं लिया है, मगर क्या करूं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता, कविता बिकती कहां है ?’

‘नहीं, बिकती है तो फिर इतनी छपती कैसे है ?’

‘वो तो लेखकांे के पैसे छपती है। लेखक अपने मित्रांे मंे बांट देता है और तीन सौ प्रतियां खप जाती है बस.......।’

‘लेकिन मैं तो पैसे नहीं दूगा।’

‘तुमसे पैसे कौन मांग रहा है ? ‘यथासमय छाप दूगा।’ ‘तुम निश्चिन्त रहो।’

कुलदीपक जानता था कि ये प्रकाशक भी चालू चीज हे। जब जैसा समय हो वैसा काम करता है, जनता साहित्य छापते समय जनवादी, प्रगतिशील साहित्य छापते समय प्रगतिशील तथा भगवा सरकार के समय भगवा हो जाता है। इसी चातुर्य के कारण धीरे-धीरे वह अच्छा प्रकाशक बनने के कगार पर आ गया था।

इधर देश-विदेश मंे सबमिशन के चलते उसे थोक विक्रय का लाभ भी मिलने लग गया था। कुल मिलाकर प्रकाशक, लेखकांे से घृणा करता था क्यांेकि वे रायल्टी मांगते थे, और रायल्टी तो सब रिश्वत मंे देनी पड़ती थी।

प्रकाशक का फण्डा बिल्कुल स्पष्ट था, रायल्टी को रिश्वत मंे दे दो। उन लेखकांे को छापांे जो रायल्टी मांगने के बजाय पुस्तक बिकवाने मंे समर्थ हो। वे लेखक काम के होते है जो पुस्तक क्रय समिति के सदस्य होते है। बोर्ड आफ स्टडीज या शिक्षा बोर्ड मंे घुसपैठ रखते है। कुलदीपक मंे फिलहाल यह योग्यता नहीं थी लेकिन प्रकाशक के मनमुताबिक करने को तैयार जरूर थे। वो काव्य संकलन स्वयं छापने के बारे मंे भी पच्चीसांे बार सोच चुके थे, मगर एक पुराने कवि के घर पर स्वयं द्वारा प्रकाशित पुस्तकंे देखकर मन-मसोसकर रह जाते थे। इन प्रकाशित पुस्तकांे के कागज गल चुके थे। दीमक रोज लंच, डिनर करती थी और कवि-पत्नी कवि महाराज को रोज गरियाती थी क्यांेकि इस महान काव्य पुस्तक के प्रकाशन मंे उनके गहनांे का अमूल्य योगदान था जो आज तक वापस नहीं आये थे। इस महान भूतपूर्व कवि को उनके बच्चे भी नापसन्द करते थे क्यांेकि कवि के दादाजी द्वारा प्रदत्त पुश्तैनी मकान कब का बिक चुका था और कवि महाराज अब मंच पर जोर आजमा रहे थे जहां से कुछ प्राप्त हो जाने पर घर-गृहस्थी की गाड़ी धक्के से खिंच जाती थी।

कुलदीपक ने अपनी काव्य-प्रेरणाआंे से भी सम्पर्क साधने की असफल कोशिश की थी, अब अधिकांश प्रेरणाएं, शहर, छोड़ चुकी थी, सभी अपने बच्चांे को कुलदीपक का परिचय मामा, चाचा, ताऊ के रूप मंे कराती थी और गृहस्थी के मकड़जाल मंे सब कुछ भूल चुकी थी।

कविताआंे के सहारे जिन्दगी नही चलती। साहित्य से रोटी पाना बड़ी टेड़ी खीर थी। ये सब बातंे कुलदीपकजी बापू की मृत्यु के बाद समझ गये थे। मां-बापू की पारिवारिक पंेशन और कुलदीपक जी की पत्रकारिता के सहारे घर को खींच रही थी यशोधरा का आना-जाना न बराबर हो गया था। कभी कदा दबी जबान से मां कुलदीपक की शादी की बात उठाती थी मगर सब कुछ मन के माफिक कब होता है। जब मन के माफिक नही तो समझो कि भगवान के मन के माफिक होता है और ये ही सोचकर मां चुप लगा जाती थी।

इधर शहर का विकास बड़ी तेजी से हो रहा था। शहर के विकास के साथ-साथ विनाश के स्वरूप भी दिखाई देने लग गये थे। बड़ी-बडी बिल्डिंगांे मंे बड़े-बड़े लोग, शोपिंग मॉल और टावर्स और घूमने फिरने को डिस्को, होटल्स, रेस्ट्रा, चमचमाती गाड़ियां, चमचमाती सड़कंे, चमचमाती हँसी, नगर वधुआंे, कुलवधुआंे के अन्तर को पहचानना मुश्किल। एक अमीर शानदार भारत, शेयर बाजार की ऊंचाईयां और झोपडपट्टियां, मगर इन सब मंे गायब मानवता कराहती गरीबी, मजबूर मजदूर।

पुलिस वाले अफसर के लड़के ने दो-चार दुर्घटनाआंे से बचने के बाद समझ लिया कि पापा ज्यादा समय तक उसे नही बचा पायंेगे, उसने डिग्री हासिल की। एम.बी.ए., प्रशासनिक सेवाआंे के फार्म भरे। परीक्षाएं दी, पापा ने जोर लगाया, मगर अच्छे कॉलेजांे को अच्छे लड़कांे की तलाश थी। उनमंे उसका प्रवेश नहीं हुआ।

राजनीति के फटे मंे उसने टांग अड़ाई, पुराने खबीड़ नेताआंे ने तुरन्त टांगे हाथ मंे दे दी। थक हारकर पापा के सहारे, पुलिस के रोबदाब की मदद से पुलिस अफसर के सुपुत्र ने एक निर्माण कम्पनी का कामकाज शुरू किया। पापा की कृपा और पापा की कमायी काली लक्ष्मी के सहारे उसने विवादास्पद जमीनांे को सस्ते दामांे पर खरीदने का काम शुरू किया और एकाध जमीन ऊंची होटल बनाने के लिए बेच दी। काम चल निकला। कारंे बदल ली। और कारांे की तरह ही लड़कियां भी बदल दी। मगर वह अध्यापिका जो प्रारम्भ मंे उसके साथ थी, अब भूखी शेरनी थी, उसे अपनी जिंदगी को नष्ट करने वाले इस लड़के के नाम और काम से नफरत होने लगी। उसने शहर मंे उसे एक बार मंे जा पकड़ा।

‘कौन हो तुम।’

‘तुम मुझे नहीं जानते।’

नही.......।

‘मैं तुम्हारी जान...........। तुमने मेरे साथ जीने मरने की कसमंे खाई थी।’

ऐसी कसमांे मंे क्या रखा है.....।’ छोड़ांे बोलो क्या चाहती हो।’

‘एक सुकून भरी जिन्दगी।’

‘तो ऐसा करो शहर मंे एक फ्लेट दिला देता हूं, शादी कर लो और मुझे बक्शांे।’

‘ठीक है.....।’

लड़की ने उससे हमेशा के लिए नाता तोड़ा, फ्लेट और पति से नाता जोड़ा। आप ये मत पूछियेगा कि पति कहां से आया। कब आया। पति की कहानी क्या थी। ये सब ऐसे ही चलता है। समाज है तो ये सब भी है।

महाभारत का उदाहरण लीजिये। विचित्र वीर्य की मृत्यु के बाद वंश चलाने के लिए माता सत्यवती ने अपने पूर्व प्रेमी के द्वारा उत्पन्न जारज सुपुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास को बुलाकर अपनी बहुआंे से नियोग द्वारा संयोग कराकर प्रसंग से पुत्र उत्पन्न किये और कौरवांे-पाण्डवांे का जन्म हुआ। यह प्रक्रिया अनादि काल से चली आ रही है, चलती रहती है और चलती रहेगी।

*****

कल्लू मोची जिस ठिये पर बैठता है, धीरे-धीरे इस जगह ने एक चौराहे, चौपाटी या चौपड़ का रूप-अख्तियार कर लिया था। चौराहा होने के कारण चर्चा के लिए यह स्थान सबसे मौजूं रहता था। सायंकाल यहां पर दिनभर के थके हारे मजदूर, ठेले वाले, रिक्शे वाले, कनमैलिये, मालिशिये, इकटठे हो जाते है। चौपड़ पर एक तरफ फूल वाली भी बैठती है और मालण भी। चाराहे के चारांे ओर हर तरफ रेलमपेल मची रहती है।

कान साफ करने वाले कान साफ करते है, मालिश करने वाले दिन भर की थकान दूर करने क नाम पर मालिश करते है। आने-जाने वाले टाइम पास के लिए मूंगफली टूंगते रहते है। शाम के समय मौसम मंे गर्मी हो या सर्दी थोड़ी मस्ती छा जाती हे। कुछ पुराने लोग भांग का शौक फरमाते है तो नई पीढ़ी बीयर, थैली से लेकर महंगी शराब के साथ चौपड़ पर विचरती है।

ऐसे ही खुशनुमा माहौल मंे चौराहा कभी कभी खुद ही समाज देश, व्यक्ति को पढ़ने की कोशिश करता है। उसे अपने आप पर हंसी आती है। क्यांेकि पढ़ते-पढ़ते उसे अक्सर लगता है कि मैं चौराहा होकर भी मस्त हूं, मगर समाज कितना दुःखी, कमीना और कमजर्फ है। चौराहे पर राहगीर आते। बतियाते । सुस्ताते है। काम पर चल देते थे। मगर ये सब देखने, सुनने, समझने, पढ़ने की फुरसत उन्हंे नही थी। चौराहा अपने आप मंे उदास रहता था। कभी खुश होकर खिलखिलाता था। कभी मंद-मंद मुस्कराता था। चौराह अपने आप मंे एक सम्पूर्ण इकाई था। कभी-कभी दहाई ओर दंगे मंे सैकड़ा भी हो जाता था।

चौराहे पर इस समय कुलदीपक, झपकलाल, कल्लू मोची और कुछ रिक्शा वाले खड़े थे। वे एक दूसरे के परिचित थे मगर फिर भी अपरिचित थे। परिचित इसलिए कि रोज एक ही ठीये पर खड़े होते थे और अपरिचिय का विध्यांचल टूटने का नाम ही नही लेता था। चौराहा अपनी रो मंे बहता जा रहा था। चौराहे पर सुख-दुःख की बातांे का सिलसिला चला। इस गरज से कल्लू ने अपने कुत्ते को पुचकारा। जवाब मंे कुत्ता फड़फड़ाया और एक तरफ दौड पड़ा। उसे हड्डी का एक टुकड़ा दिख गया था। मांस का एक लौथड़ा भी दूर पड़ा था। तभी कुत्ते ने एक मुर्गे को देखा। मुर्गा घूरे पर दाना बीन रहा था और भारतीय बुद्धिजीवियांे की तरह दाना खा के बांग देने की तैयारी कर रहा था वैसे भी पेट भरा होता है तो बांग देना अच्छा लगता है।

कुलदीपक ने झपकलाल की ओर देखा। झपकलाल ने आसमान की ओर देखा। दोनांे ने कल्लू की ओर देखा। फिर तीनांे ने मिलकर सडक को घूरा। सड़क बेचारी क्या करती। उसे हर कोई आता, रोदंता, मसलता और चला जाता। चौराहा ये सब रोज भुगतता था।

झपकलाल ने इस बार चुप्पी तोड़ने की गरज से पूछा।

‘अच्छा बताओ प्रदेश की सरकार रहेगी या जायेगी।’

‘रहे चाहे जाये अपने को क्या करना है।’

‘करना क्यांे नहीं अपन इस देश के जागरूक नागरिक है जो सरकारांे को बनाते-बिगाड़ते है।’

‘गठबन्धन सरकारांे का क्या है। पांच-दस एम.एल.ए. इधर-उधर हुए, घोड़ा खरीद हुई और बेचारी सरकार राम-नाम सत्य हो जाती है।’

‘लेकिन सत्य बोलने से भी गत नही बनती है।’

‘ठीक है, लेकिन ये सरकार जायेे न जाये मुख्यमंत्री कभी भी जा सकते है।’

‘मुख्यमंत्री बेचारा है ही क्या। हर विधायक उसे ब्लेकमेल करता है। चारांे तरफ अराजकता है। सरकार नाम की चीज है ही कहां।

‘हां देखो, मुख्यमंत्री की गाय तक को सरकारी डॉक्टर ने बीमार घोषित कर दिया।’

‘डॉक्टर की हिम्मत तो देखो।’

‘वो तो भला हो गाय का जो जल्दी स्वर्ग सिधार गई और सरकार बच गई।’

इसी बीच कल्लू का कुत्ता वापस आ गया था और पूंछ हिला रहा था। कल्लू अपने काम मंे व्यस्त होने का बहाना बना रहा था। अचानक बोल पड़ा।

‘बाबूजी मेरी तहसील वाली अर्जी पास हो गई है अब मुझे सूचना के अधिकार के तहत कागजात मिल जायंेगे।’

‘कागज को क्या शहद लगाकर चाटोगें ? या अचार डालोगे।’

बाबूजी अचार-वचार मैं नहीं जानता बस एक बार कागज हाथ लग जाये फिर मैं जमीन अपने नाम करा लूंगा।

‘तेरा बाप भी ऐसे ही अदालतांे के चक्कर काटते-काटते मर गया........तू भी एक दिन ऐसे ही चला जायेगा।’

‘ऐसा नही है बाबूजी, भगवान के घर देर है, पर अन्धेर नही।’ कल्लू बोला और चुपचाप शून्य मंे देखता रहा।

तभी उधर से एक धार्मिक जुलूस आता दिखा। माथे पर छोटे-छोटे कलश एक जैसी साड़ियांे मंे दुल्हनांे की तरह सजी-धजी महिलाएं, झण्डे, रथ ध्वजाएंे.....पीछे बेन्ड वाले। नाचते-गाते लोग।

‘ये धर्म भी अजीब चीज है यार।’ झपकलाल बोला।

‘कितनांे की रोजी-रोटी चलती है इससे। पदयात्राआंे के नाम पर, कावड़ यात्राओं के नाम पर, मन्दिरांे के जीर्णाेद्धार के नाम पर सरकारी अनुदान पाने के ये ही रास्ते है।’ कुलदीपक बोल पड़ा ओेर जुलूस मंे आगे आ रही महिलाआंे का आंखांे के माइक्रोस्कोप से सूक्ष्म निरीक्षण करने लगा। उसे अपनी पुरानी रोमांटिक कविताआंे के दिन याद आ गये है, मगर उसका सपना-सपना ही रह गया। एक पुलिसवाले ने सबको धकिया कर एक तरफ किया। जुलूस आगे बढ़ गया। ये लोग ताकते रह गये।

कुलदीपक को सपनों की बड़ी याद आती है। चौराहे पर बिखरे सपने। सुन्दर और हसीन सपने। स्वस्थ प्रजातन्त्र के सपने। चिकनी साफ सड़कांे के सपने। आकाशवाणी, दूरदर्शन के सपने। भ्रष्टाचार के सपने। शुद्ध हवा-पानी के सपने। अच्छे कार्यक्रमांे के सपने। बड़े-बड़े सपने। अमीर बनने के सपने। साफ-सुथरे अस्पतालांे के सपने, सरकारी स्कूलांे के पब्लिक स्कूल बनने के सपने। हर मुंह को रोटी और हर हाथ को काम के सपने। सपने ही सपने। मगर सपने तो हमेशा से ही टूटने, अधूरे रह जाने के लिए ही देखे जाते है।

कुलदीपक, झपकलाल दोनांे ही सपनांे के अधूरेपन से ज्यादा खुद के अधूरेपन से परेशान, दुःखी, संतप्त थे। अवसाद में थे। अवसाद को अक्सर वे आचमन मंे डुबो देते थे। आज भी उन्हांेने कल्लू से एक देशी थैली मंगाई, गटकी और चौराहे को अपनी हालत पर छोड़कर घर की ओर चल पड़े। कुछ दूरी तक कल्लू और उसके कुत्ते ने भी साथ दिया।

हलवाई की दुकान आने पर कुत्ते ने डिनर करने के लिए उनका साथ छोड़ दिया। कल्लू अपनी गवाड़ी की ओर चल दिया। झपकलाल और कुलदीपक रात के अंधेरे को पीते रहे और तमसो मा ज्योर्तिगमय कहते रहे।

जैसा कि राजनीति के जानकार बताते हैं, राजनीति मंे महिलाआंे की सफलता का रास्ता बेडरूम से होकर गुजरता है। कोर्पोरेट क्षेत्रांे मंे भी बोर्डरूम का रास्ता बेड़रूम से ही निकलता है। माधुरी इस को समझती थी। उसके लिए सफलता का रास्ता ही सब कुछ था। वो एम.एल.ए. की कुर्सी पाने मंे दिलचस्पी नहीं रखती थी, उसे तो अपने चार कमरांे के कॉलेज को विश्वविद्यालय बनाना था और चारे के रूप मंे उसने लक्ष्मी याने शुकलाइन रूपी मछली को फांस लिया था। मछली कभी-कभी फड़फड़ा तो सकती है मगर उड़ नहीं सकती। और बिना पानी मछली जीवित नहीं रह सकती। माधुरी के पास पानी था। जिसकी मछली को बड़ी आवश्यकता थी। मछली रूपी लक्ष्मी का उपयोग करना माधुरी को आता था।

लक्ष्मी शुक्लाइन को स्कूल मंे पढ़ाने का काम दिया गया। उसका मुख्य लक्ष्य प्रशासन की सहायता करना था। सरकार मंे अनुदान की जो फाइलंे कागज अटक जाते थे उसे निकलवाने के लिए लक्ष्मी तथा काली लक्ष्मी का उपयोग किया जाने लगा। माधुरी के पिता बड़े व्यवसायी थे, घर पर अक्सर सेल्सटेक्स, इनकमटेक्स, वेट वाले, शोप इन्सपेक्टर आदि का जमावड़ा रहता था और माधुरी की मां और बाद मंे माधुरी इन लोगांे से अपने काम निकलवा लेती थीं। माधुरी को जीवन का यह अनुभव यहां भी काम आने लगा। सड़ी-गली शिक्षा व्यवस्था मंे पढ़ने पढ़ाने का काम छोटे-मोटे अध्यापक-अध्यापिकाएं करती थी और माधुरी विश्वविद्यालय के सपनांे को साकार करना चाहती थी।

वे पढ़ी लिखी कम थी, मगर दुनियादारी मंे गुणी बहुत ज्यादा थी। लेकिन वह कुपढ़ लोगांे से परेशान रहती थी। स्कूल मंे भी कुछ कुपढ़ घुस आये थे, वो चाहकर भी उन्हंे नही निकाल पा रही थी। ऐसे ही एक सज्जन थे अंग्रेजी के मास्टर श्रीवास्तवजी। श्रीवास्तवजी को अंग्रेजी की डिक्शनरी याद थी और अक्सर वे ऐसे वाक्य, शब्द आदि का प्रयोग करते थे कि माधुरी, लक्ष्मी और हेडमास्टर सब मिलकर भी उन शब्दांे, वाक्यांे का मतलब नहीं समझ पाते थे। माधुरी ने एक दिन स्कूल समय के बाद श्रीवास्तवजी को बुलाया।